Friday, May 27, 2016

कवि के अनकहे को पहचानना जरूरी है

यादवेन्द्र जी इस ब्लाग के ऐसे सहयोगी हैं कि इसमें जो कुछ अन्य भाषाओं से दिखेगा उन्में ज्यादातर अनुवाद और चयन यादवेन्द्र् जी ने ही किये हैं। यह उनकी स्वैच्छिक जिम्मेदारी और ब्लाग से उनके जुड़ाव का हिस्साा हैं। पिछले कई महीनों से वे जरूरी कामों में व्यस्त हैं। यही वजह है कि हम अपने पाठकों को अनुदित रचनाओं का फलक दे पाने में असमर्थ रहे हैं। उक्‍त के मद्देनजर, मैं खुद अनुवाद का प्रयास करते हुए दो कविताएं पोस्‍ट कर रहा हूं। अपने सीमित भाषा ज्ञान और कथाकार साथी योगन्द्र आहूजा की मद्द से चीनी कवि मिंग डी की दो कविताओं का अनुवाद करने का प्रयास किया है। मेरे अभी तक के जीवन का यह पहला अनुवाद है।
वैसे एक राज की बात है कि पहली कविता के अनुवाद में मेरे भाषायी ज्ञान की सीमा भर वाले अनुवाद में आप कविता का वह आस्वाद शायद न पकड़ पाते जो योगेन्द्र जी के भाषायी ज्ञान और अनुभव के द्वारा कविता को करीब से पकड़ने वाला हुआ है। सिर्फ योगन्द्र जी के संकोच का ख्याल रखकर ही कह रहा हूं कि मैं उनके सुझावों के मद्देनजर ही अनुवाद को अन्तिम रूप दे पाया हूं, वरना इस कविता के लिए तो श्रेय उन्हीं का है। हिन्दी अनुवाद उनकी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है। अंग्रेजी अनुवाद के लिए यहां लिंक कीजिये। अनुवाद के बारे में स्वंय मिंग डी का कहना है कि अनुवाद का मतलब है, मूल कवि के मानस में प्रवेश करके उस चीज को अच्‍छे से परखना चाहिए जो कवि का उद्देश्य कदापि नहीं हो सकता। ताकि अनुवाद में संश्यात्मकता से बचा जा सके। अपनी कोशिशों में मेरे सामने यह सूत्र वाक्य लगातार मौजूद रहा।

चीन में पैदा हुई मिंग डी एक सुप्रसिद्ध चीनी कवि हैं। अभी यू एस ए में रहती हैं। अनुवाद और संपादन की दुनिया में वे सक्रिय रूप से हत्सतक्षेप करती हैं। इन्टरनेट पर मौजूद जानकारियां बता रही हैं कि अभी तक उनके 6 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 

वि.गौ.

पत्ती का बयान  


अपने तेज आघातों से सवाल करती हवा को
ढह जाते चिनार का जवाब-

हजार सफेद पत्तियां। हजार
निर्दोष जुबानें।  हजार
दस हजार रंगीन बहानें।         (उपरोक्‍त पंक्तियों  के अनुवाद अनिल जनविजय जी की सलाह पर दुरस्त किये गये।  
                                                      अनिल जी  का आभार)



मैं एक पत्ती उठाती हूं, जकड़ लेती हूं मुट्ठी में
जैसे थाम रही हूं समूचा दरख्त 

क्यू  युनान बताता है
पत्ती सच्चा बयान है दरख्त का

तांग लोग बताते हैं,
पतझड़ के दौरान पत्ती ही उघाड़ती है
समूचे शरद का रहस्य

मगर मैं तो महज एक पत्ती ही देखती हूं।


एक द्वीप चिडि़यों का  


हर दिन रहती है सपनों की दोपहर
लबालब जलाशय में तैरता जैसे बेहद शांत द्वीप


पेड़ की फुनगी पर बैठी चिडि़या पुकारती है मुझे 
नहीं जानती मैं हूं यहां नीचे
अपने शरीर को, चार अंगों को घुमेर देती नदी
सारी रात अंधेरे में खुली रहने वाली मेरी आंखें
चिडि़या की परछायी सी
नजर आती हैं जल में

अंधेरे में भी मुझे ताकती रहती हैं चिडि़यां
एक द्वीप मेरे भीतर चिडि़यों का
गाता रहता है गीत उजालों के:  

काफी पहले विदा हो गया मेरा घर
नारीयल और केलों के पेड़ो के साथ

सपनों में देखती हूं खिली हुई दोपहर ने
गढ़ दिया है एक स्वच्छंद द्वीप

Thursday, May 26, 2016

महानता के मारे



यह जो ऊपर शीर्षक है – ‘’महानता के मारे’’, यह इस बात को नहीं बताता कि किस महानता की बात हो रही। लिखने वाले चाहें तो लिख ही सकते हैं संबंधित क्षेत्र- क्रिकेटर/ वैज्ञानिक/ लेखक/ कवि/फेसबुकिये, आदि आदि।

लिखा तो यहां भी जा सकता था। पर अभी मेरे भीतर कोई ऐसी ग्रंथी फूलने को नहीं जिसको देखकर लोग मुझे आदतन मुफ्त की चिकित्‍सकीय सलाह बांटने लगें। यद्यपि दावे से मैं भी नहीं कह सकता कि सच में ही ऐसी किसी ग्रंथी का रोग मेरे भीतर भी न हो। इस तरह की कोई चिकितसकीय जांच मैंने नहीं कराई है। वैसे भी मुझे स्‍वंय की चिकित्‍सा करने का रोग तब से ही लगा हुआ है जब से मैंने होम्‍योपैथी चिकितसा पद्धति को अपनाना शुरू किया। कभी असमान्‍य महसूस करता हूं तो चिकित्‍सक के पास जाने की बजाय, एक सीमा तक अपना इलाज खुद ही कर लेता हूं। कई बार घर परिवार के लोगों और दोस्‍तों को दवा देने की हिमाकत कर चुका हूं। वैसे उनका कुछ बिगड़ा नहीं, ठीक हो ही गये। हां, होम्‍योपैथी की उन छोटी छोटी ओर अचूक गोलियां बेशक उनके भीतर सम्‍मान न पा पाईं, उन्‍हें तो यही लगा कि जैसे उन्‍हें कोई ऐसी बीमारी हुई नहीं थी, स्‍वस्‍थ ही थे। 

होम्‍योपैथी को जानने समझने और बहुत सी दवाओं को जरूरत पड़ने पर फिर फिर इस्‍तेमाल करने को जुटाने का मेरा अपना ही तरीका रहा। कभी किसी बीमारी ने घेरा तो डाक्‍टर को दी जाने वाली फीस और खरीदी जाने वाली संभावित दवाओं की कीमत, जो उससे पहले के जीवन के अनुभव रहे, का अनुमान लगाकर उन्‍हें सिर पर आ पड़ा खर्चा मान, मैंने उस उस समय पर होम्‍योपेथी चिकितसा पद्धति की किताबें और रोग लक्षणों के आधार पर चुन ली गयी दवाओं की कितनी ही शीशियां खरीदी हुई हैं। यहां तक कि सुगर बाल और किसी को कभी दवा बना कर देने के अनुमान से खाली खोखे भी। एक आला, एक प्रेशन नापने का यंत्र और एक थर्मामीटर भी, जबकि उनकी जरूरत मुझे शायद ही कभी पड़ी हो। मैं तो रोग को पहचानने के लिए लक्षणों पर यकीन करने लगा हूं और जितनी भी तरह की व्‍याधियां दिख रही हों उनके लिए एक अचूक दवा तलाश कर ही रोग का निवारण करने में सफल रहा हूं। बताता चलूं कि मैंने जब भी खुद को रोगी पाया है तो मेरे सम्‍पूर्ण को, खण्‍ड खण्‍ड करके तमाम तरह की रोग जांचों वाली चिकितसा पद्धति से मैंने अपने को बचाने पर ही यकीन नहीं किया, बल्कि उन जांचों के बाद प्रस्‍तावित की जाने वाली तरह तरह की दवाओं से अपने को बचाया है। बल्कि उन अनाप सनाप दामों में लुटने से भी बचाया हे जिनमें वे बिकती हैं।  लेकिन यह भी सच है कि ऐसा करते हुए कइ्र बार मैं भी कमजोर साबित हुआ और शुभेक्षुओं की सलाह पर उस पद्धति को ही अपनाने और उन दवाओं पर ही पैसा लुटाने के लिए मजबूर हुआ। ऐसी स्थितियों में भी बहुत जिद्द के साथ मैं अपनी होम्‍योपैथी की दवाओं को पूरी तरह से परित्‍यााग करने वालों से लोहा लेता रहा और साथ साथ उन्‍हें भी इस्‍तेमाल करते रहने की छूट लेता रहा हूं।

अरे, बात तो शीर्षक में आदि आदि वाले क्षेत्रों की हो रही थी। तो मैं यहां उन आदि आदि क्षेत्रों के नाम नहीं देना चाहता, वैसे भी वह कोई एक निश्चित क्षेत्र नहीं, जिनमें महानता के मारे बहुत वाचाल हुए जाते हैं। यह मैं उन लिक्‍खाड़ों के लिए छोड़ता हूं जो जमाने की प्रवृति को खण्‍ड खण्‍ड में देखने पर यकीन करते हैं। वैसे आप देख सकते हैं कि कि फेसबुक पर महानता के मारे बहुत से लोगों की आमद इस बीच बढ़ी है। वे रोज कोई न कोई ऐसा किस्‍सा लेकर सामने होते हैं कि आदि आदि के मारे लिक्खाड़ो को मौका मिल ही जाता है जो लिख/कह ही देते हैं -  महानता के मारे फेसबुकिये। उस वक्‍त उन्‍हें भी महानता के मारे रोग से तो ग्रसित माना ही जा सकता है न शायद।

Monday, May 23, 2016

ज़िद और बर्बादी


कविताएं पंखुरी सिन्हा

पंखुरी सिन्‍हा को मैं एक कहानीकार के रूप में जानता रहा। ज्ञानपीठ से उनका एक कहानी संग्रह आया था एवं पत्रिकाओं में भी उनकी कहानियों को पढ़ना होता रहा। लेकिन यह जानना बिल्‍कुल आरम्भिक जानना था। अपनी कहानियों से पंखुरी ने उन्‍हें और जानने की उत्‍सुकता पैदा की है। उनके लिखे को पढ़ना हुआ। इस तरह उनका कवि रूप, उनके आलेख ओर सोसल साईटस एवं सचल भौतिक स्थितियों वाली गतिविधियों में उनकी उपस्थिति की सक्रियता से परिचय होता रहा। इस ब्‍लाग पर पहले भी उनकी कविताएं प्रकाशित हुई हैं। वर्तमान राजनैतिक, आर्थिक स्थितियों से निर्मित हो रहे सामाजिक परिदृश्यों को अपना विषय बनाती उनकी कुछ और कविताएं हाल ही में प्राप्‍त हुई। पंखुरी जी का आभार एवं स्‍वागत । कुछ कविताएं यहां प्रस्‍तुत हैं।  
वि.गौ.




सड़क ही घोटाला है


साल दर साल
बद से बदतर
होता रहा
इस प्रान्त, इस शहर का हाल
धांधलियां होती रहीं
यहाँ के बिजली घरों
ईटों की भट्टियों में
बल्कि बात ये की
धांधलियां होती रहीं
इतनी आधारभूत जगहों में
जैसे कि आटे, चावल, दाल की मिलों में
चूड़े को कूटने और बेचने वाली दुकान के ठीक सामने
जबकि और जगह धांधलियों की बातें
इन क्षेत्रों से निकलकर
बड़ी कंपनियों
विदेशी निवेशों
लागतों, साझों की बातों में उछाली जा रही थीं
पर यहाँ तो सड़क ही घोटाला है
जाने कब से
है ही नहीं
जापानी सहयोग से बन जाने के बाद भी नहीं
खँगाल जाती है
उसे हर साल बाढ़
नदी नहीं बाढ़
नदियाँ तो यहाँ शांत हैं
मैदानों में सम्भली, संभाली
समतल पर सड़क भी आसान है
रखना, बचाना
पर है ही नहीं
कहीं नज़र में
दूर दूर तक जापानी निर्देशन में बनी सड़क भी......................
  

इस बार की भारत पाक वार्ता

 
औरों के आस पास भी होते होंगे
ऐसे पहरे
तुम सोचो, समझो
और मत करो बयान
उस पहरे का हाल
इन दिनों जब कभी
पहरे की बात होती है
बात चीन के वाच टावर्स की होने लगती है
इन दिनों जब कभी बात
पड़ोसी के हस्तक्षेप की होती है
बात पाकिस्तान की होने लगती है
पाकिस्तान जैसे प्रतीक है
हस्तक्षेप का
वैसे पाकिस्तान के समर्थक
जाने किन बातों का
प्रतीक हैं
जाने किन मनसूबों के लोग हैं वो
किन मांगो के भी
कौन मित्र हैं उनके
और क्या है आज़ादी के माने
इस बार जब सरकार ने धरा
फिर छोड़ा
फिर धरा अलगाववादियों को
क्या लगा कि वह भी कोई
समाधान नहीं निकालना चाहती
बस वो कश्मीर जो
अधिकृत है
वैसे रह जाएगा
इतिहास के पन्नो में क्या?

 ज़िद और बर्बादी


जो बात राज़ी ख़ुशी
अपने आप
मुस्कुराहटों के साथ हो रही हो
उसे लगभग रद्द कर
तय की हुई दूरी से
बातों को वापस लौटाकर
जिन रास्तों पर हँसते हुए
चलते आये
लगभग उनपर आँसू समेत चलवाकर
उसी मंज़िल पर पहुँचना, पहुँचाना
कितनी और कैसी बर्बादी है
शक्ति, समय, सामर्थ्य और भावनाओं की भी...........