Saturday, January 28, 2017

बनारस कालिज के प्रिन्सिपल और प्रोफेसर(3)







संस्कृत विभाग के उपाचार्य पहले एक साहब थे जिनका नाम संस्कृत के आन्दोलन में कुछ-कुछ लिया जाता है.ग्रिफिथ साहव के स्थान में, उनके प्रिन्सिपल बनने पर, डाक्टर थीवी जर्मनी से लाये गये.उनकी विद्या और विशेषतः परिश्रम की धूम मची हुई थी.गर्मियों में रात की आँधी में न बुझने वाला लैम्प जलाकर ग्यारह बजे तक उन्हें पढ़ते देख एक आदमी ने आश्चर्य प्रकट किया.उत्तर मिला कि रात को गणित का फिर से अभ्यास किया करते हैं और इस प्रकार किसी भी पढ़े हुए विषय का ज्ञान बासी नहीं होने देते.आते ही पं० बालशास्त्री से दर्शनशास्त्र का पढ़ना और संस्कृत संभाषण का अभ्यास आरम्भ कर दिया.थोड़े दिन पीछे ही षाण्मासिक परीक्षा में संस्कृत के परीक्षक हुए.एक भी अनुत्तीर्ण न हुआ.यह पहले यूरोपियन थे जिनकी दाढ़ी के साथ मूँछों का भी सफाया मैंने देखा.प्रसिद्ध यह था कि धर्मशास्त्र में उच्चिष्ट की निन्दा सुनकर इन्होंने मूँछ मुड़ा ली है , जिससे बालों में उच्चिष्ट न फँस जाए.
गणित के प्रोफेसर मिस्टर राजर्स भी अपने विषय में निपुण थे और उन्हीं के पढ़ाये हुए, उनके शिष्य, लक्ष्मी नारायण मिश्र सहायक प्रोफेसर थे और पीछे से गणित-साइन्स, दोनों के प्रोफेसर हो गये.
इतिहास के प्रोफेसर इङ्लिस्तान से एक सिफारिशी युवक बुलाये गये,जिनको अयोग्यता के कारण कोई डिग्री न मिल सकी तो उन्हें बनारस कालिज के गले मढ़ा गया.इनको विद्यार्थी बहुत तंग किया करते थे और इनकी इतिहास से अनभिज्ञता की पोल खोला करते थे.
अंग्रेजी के सहायक प्रोफेसर दो हिन्दुस्तानी एम०ए० थे-एक बाल्कृष्ण भट्ट और दूसरे उमाचरण मुकर्जी.ये दोनों भी अपने विषय में बहुत योग्य थे, जिनमें भट्टजी तोसदाचार की मूर्ति थे.दोनों ही कालिज के अतिरिक्त एण्ट्रेंस की दोनों कक्षाओं को भी पढ़ाया करते थे.रह गये दो प्रोफेसर उन विषयों के जो गौण सस्मझे जाते हैं .अंग्रेजी उस समय मुख्य भाषा समझी जाती थी.ब्रिटिश गवर्नमेंट के स्कूलों और कालिजों में अब भी मुख्य भाषा अंग्रेजी और संस्कृत तथा फारसी-अरबी दूसरी वा गौण भाषा समझी जाती हैं.संस्कृत के उपाध्याय पण्डित रामजसन थे जो प्रिन्सिपल ग्रिफिथ को संस्कृत से अंग्रेजी उल्था में भी सहायता देते थे.इसके अतिरिक्त किसी विशेष आश्रय पर इनका ग्रिफिथ साहब पर बड़ा अधिकार था.यही कारण था कि इनके बड़े लड़के लक्ष्मीशंकर मिश्र एम०ए०पास करते ही प्रोफेसर बन गये.दूसरे उमाशंकर अंग्रेजी में फ़ेल होकर बिजनौर जिला के ताजपुर के राजा के पुत्रों के अध्यापक नियत  होकर भेजे गये और तीसरे रमाशंकर मिश्र एम०ए० परीक्षोत्तीर्ण होते ही पहले बनारस कालिज केमें गणित के सहायक प्रोफेसर और फिर अलीगढ़ मेंस्थापित नये  ऐंग्लो महम्मडन कालिज के गणित के मुख्य प्रोफेसर बन कर गये.

Friday, January 27, 2017

स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा (२)



    बनारस कालिज के प्रिन्सिपल और प्रोफेसर
बनारस में विद्यार्थी बनकर मैं संवत१९३० के पौष मास से लेकर संवत१९३४ के ज्येष्ठ मास तक बराबर रहा.इस अन्तर में केवल संवत१९३२ का पूरा वर्ष रेवड़ी तालाब के स्कूल ‘जयनारायनज कालेज’ में गुजारा, शेष साढ़े तीन वर्ष बनारस कालिज की चारदीवारी में ही व्यतीत किये.रेवड़ी तालाब के स्कूल में एक वर्ष मेहमान बनकर ही काटा,असली विद्यागृह मैं कुइन्स कालिज को ही समझता रहा.
एक बात यहाँ बतला देनी आवश्यक है.उन दिनों संयुक्त प्रान्त में कोई यूनिवर्सिटी न थी  और ना पंजाब में ही .दोनों प्रान्तों के विद्यार्थी एण्ट्रेंस से लेकर एम.ए.  तक की परीक्षा कलकत्ता यूनिवर्सिटी के अधीन देते थे.हाँ,संस्कृत विद्यालय विभाग अपने आप में अवश्य स्वतन्त्र था.
कालिज के प्रिन्सिपल ग्रिफिथ साहब थे जो वाल्मीकीय रामायण का अनुवाद इंग्लिश पद्य में करने के अतिरिक्त चारों वेदों के भी अनुवादक थे.पाँच फीट से शायद एक आध इंच ही लम्बे हों,परन्तु थे नख-शिख से दुरूस्त.जैसे वामन आप थे वैसा ही बौना भृत्य आपको मिला हुआ था.उसने भी साहब बहादूर के अनुकरण में गमुच्छे रक्खे हुए थे.ग्रिफिथ साहब एक टांग से लंगड़े हो चुके थे.इसका कारण भी विचित्र था.कवि ही तो ठहरे, टमटम इतनी ऊँची बनवाई कि जब एक सड़क से दूसरी सड़क की ओर घुमाने लगे तो गला तार में फंस गया और साहब शेष जीवन भर के लिये लंगड़े हो गये.लंगड़ी टांग की एड़ी जरा ऊंची रखवाते और ऐसी सावधानी से चलते कि देखने वाले को टांग का व्यंग प्रतीत न होता.शौकीन ऐसे थे कि नया कोट वा नई पतलून पहिरते समय यदि तनिक भी बेढब मालूम हुई तो ब्बाहर के बरामदे में फेंक दी गई.जो भी भृत्य उपस्थित हुआ उसके भाग्य उदय हो गये.बंगले की सजावट जगत-प्रसिद्ध थी.ऐसा कोई ही हतभाग्य विद्यार्थी होगा जिसने गल्मुच्छ वाले बौने भृत्य को अठन्नी वा रूपया देकर ,प्रिन्सिपल साहब की अनुपस्थिति में उनकी नरम गद्देवाली कोचों और कुर्सियों का आनन्द न लूटा हो.कवि ने विवाह तो किया नहीं था, परन्तु बीच के सड़क की दूसरी ओर एक कोठी किराये पर  लेकर अपनी सदा साहागिन प्रिया को रखा हुआ था.नाजुक इतने कि यदि कोई उनकी ओर बढ़े तो पीछे हटते जाते थे.साधारण पुरूष के मुँह से निकली अपावायु को सहन नहीं कर सकते थे.प्रायः बोते बहुत धीरे थे और इसीलिए मिलने वाले को आगे बढ़ना पड़ता था,परन्तु जब पढ़ाते तो गरज ऐसी होती कि एक-एक शब्द स्पष्ट सुनाई देता.शायद गरज की सारी शक्ति का संचय उसी समय के लिये कर छोड़ते थे.मेरे अंग्रेजी प्रोफेसर की बीमारी पर एक बार , संवत १९३४ मेंउन्होंने मेरी कक्षा को एक सप्ताह तक इंग्लिश पद्य पढ़ाया था,जिसे मैं कभी नहीं भूला.

Thursday, January 26, 2017

‘कल्याण मार्ग का पथिक’- स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा (१)



(‘कल्याण मार्ग का पथिक’ स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा है. यह हिन्दी की संभवतः पहली आत्मकथा है.इस पुस्तक को भाषा  और वर्णन की रोचकता तथा उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज के जीवन्त चरित्रों से परिचय के लिये तो पढ़ा ही जाना चाहिये , आत्मकथा की बेबाकी और ईमानदारी के लिये भी यह एक जरूरी सन्दर्भ है. इस शॄँखला में डेढ़ सदी पुराने भारतीय समाज के कुछ चित्र देने का प्रयास रहेगा)
वकालत की परीक्षा में रिश्वत
मार्गशीर्ष संवत १९४३ के उत्तरार्ध(दिसम्बर सन १८८६ ई.के आरम्भ) में मैंने वकालत की परीक्षा दी थी और परिणाम महिनों तक रुका रहा.इसका कारण यह था कि  पंजाब यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार मिस्टर लार्पेण् ने इस वर्ष दोनों हाथों से लूटना शुरू कार दिया था.गतवर्ष तो अभी साहब बहादूर नव-शिक्षित थे इस्लिये कोई इक्का-दुक्का ही उनके काबू चढ़ा, इस वर्ष वे किसी को सूखा छोड़ना नहीं चाहते थे.वकालत में पास होने के लिये १५०० रूपये प्रति याचक की खुली शरह थी.साहब बहादूर ने दलाल वा एजेण्ट भी रख छोड़ा था जिसका नाम गण्डा सिंह था.२०० रूपये भाई गण्डासिंह की भेंट होते ही १०० अंग्रेज देवता की पूजा में स्वीकार हो जाता और वकालतरूपी  स्वर्ग-प्राप्ति की अदृश्य हुण्डी उसी दम मिल जाती.मुखतारी के प्रार्थियों से शायद १००० रूपये,बी.ए.,एम.ए. से कुछ कम लिया जाता था.कोई-कोई एफ़.ए. भी लार्पेण्ट गर्दी चक्कर पर चढ़्ने से न बच सके.कोई-कोई तो अक्ल के  ऐसे पुतले निकले कि पास होने तक ही शान्त न हुए प्रत्युत पहले-दूसरे होने की ठान ली.वकालत में पहले होनेवाले के लिये ३५०० और दूसरे होनेवाले के लिये २५००रूपये.यह चढ़ावा केवल उन्हीं को नहीं चढ़ाना पड़ा जो सचमुच अनुत्तीर्ण थे बल्कि जो पास थे उनके भी घर पहुँच-पहुँचकर साहब के दूत ने उनकी जेबें भी खाली कीं.यह रोग यहाँ तक बढ़ा कि मेरे कुछ मित्रों ने मुझे पत्र लिखकर लाहौर बुलाया, क्योंकि गण्डासिंह मुझे ढूँढता और कहता फिरता था कि यद्यपि मैं पास हूँ तो भी बिना १००० रूपये दिये मुझे भी प्रमाणपत्र से वंचित रहना पडेगा.मैं यह दृढ़ संकल्प करके लहौर पहुँचा कि इस अनाचार का भण्डा फोड़कर रहूँगाअ, किन्तु मेरे पहुँचने से पहिले ही हिसार के प्रसिद्ध वकील लाला चूड़ामणि ने गण्डासिंह की खूब खबर लेकर सर विलियम रैटिंगन (उस समय वाइस चाँसलर) के यहाँ दुहाई जा मचाई.वाइस चाँसलर ने उसी समय सायंकाल को परिणाम की सारी फाइल सँभाल ली.लाला चूड़ामणि भाग्यशाली थे कि पहल उनकी ओर से हुई.विश्व्विद्यालय सभा ने अकेले लाला चूड़ामणि को पास करके बाकी सबको फेल कर दिया, और मैं भी बलवे की भीड़ में निरपराध बालक की तरह गोली का शिकार हो गया

Monday, January 9, 2017

रिश्ता

ब्राजीली कहानी

       --- लोरेना लियान्द्रो 

मैंने जरा भी बुरा नहीं माना जब तुम मुझे बड़ी बेरुखी से पीठ दिखा के दूसरे कमरे में चले गए थे , मैं ठगी सी वहीँ खड़ी की खड़ी रह गयी।  मैं तुम्हारी मिन्नतें करती रही और तुम मुझे अनसुना कर के अपने मन की ऊल ज़लूल करते रहे ,तब भी मुझे बुरा नहीं लगा। तब भी नहीं जब तुम मेरी आँखों के सामने खुली सड़क पर यहाँ वहाँ भागते रहे और उन तमाम आज़ादियों का लुत्फ़ उठाते रहे जिनकी मेरे घर के अन्दर तो बिलकुल गुंजाइश नहीं थी। कई बार ऐसा भी हुआ कि तुम अपना गुस्सा थाम न पाए और मुझपर झपट पड़े … मुझे नोंच खाया , तब भी मैंने सहज भाव से सब स्वीकार करती रही। 

देखो , मैंने उन मौकों को भी बिलकुल तूल नहीं दिया जब घर आये मेहमानों की आँखों के सामने तुमने मेरी इज्ज़त तार तार कर डाली।  रात रात भर जब तुम खुराफ़ात और मौज में घर में धमा चौकड़ी मचाते रहे और एकपल को भी मुझे सोने नहीं दिया ,तब भी मैंने धैर्य नहीं खोया…. उस समय भी नहीं जब तुमने मेरे घर के फर्नीचर और दूसरी चीजों  की बिलकुल परवाह नहीं की और तोड़ फोड़ करते रहे। यहाँ तक कि सर्दी की रातों में मेरे साथ सोते हुए तुम मुझे कम्बल से धकेल धकेल कर बाहर खिसकाते रहे ,तब भी मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा। एक एक कर के मेरी प्रिय चीजों पर जैसे तुम हक़ जताते रहे ,तब भी मैं बगैर किसी बात का बतंगड़ बनाये सब कुछ शान्त भाव से सहती रही। कई बार तुम्हारे साथ रहते हुए खीझ भी होती कि फलाँ चीज तुम्हें पता क्यों नहीं ,पर उसका भी बुरा नहीं लगा। दिनभर की थकान के बाद जब मैं थकी हारी बिस्तर पर निढ़ाल हुई और तब तुम्हें खेल ठट्ठा सूझने लगता ,तब भी कोई मौका ऐसा नहीं आया जब मैंने तुमपर कोई गुस्सा दिखाया हो। दीनार की मेज पर मुझे इमोशनली ब्लैकमेल का तुम्हारा ढब मुझे आहत करता था ,फिर भी मैंने यह सब तुम्हें करने दिया। 
निपट अकेले रह कर मनमर्जी जीवन जीने के तमाम मौके तुमने मुझसे छीन लिए ,पर मुझे इनका भी अफ़सोस नहीं हुआ। पर अब जब इन सारी बातों और मौकों के बावजूद आज मैं चारों ओर भाग भाग के तुम्हें ढूँढ रही हूँ … तुम मुझसे दूर भागते जा रहे हो , कहीं तुम्हारा नामो निशाँ नहीं दिखाई दे रहा है। अब मुझे समझ आने लगा है कि तुम्हारा लौटना मुमकिन नहीं… अब मैं तुम्हें  देख नहीं  पाऊँगी। 

ओ मेरे प्रिय कुत्ते ,और कुछ तो नहीं पर अब तुम्हारी गैर मौजूदगी मुझपर भारी पड़ने लगी है …. तुम्हारे रहते कभी मुझे बुरा नहीं लगा ,अब तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे बेहद खल रही है। 

       ( "Contemporary Brazilian Short Stories" संकलन से साभार )

अनुवााद एवं प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र