Thursday, January 26, 2017

‘कल्याण मार्ग का पथिक’- स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा (१)



(‘कल्याण मार्ग का पथिक’ स्वामी श्रॄद्धानन्द की अद्भुत आत्मकथा है. यह हिन्दी की संभवतः पहली आत्मकथा है.इस पुस्तक को भाषा  और वर्णन की रोचकता तथा उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज के जीवन्त चरित्रों से परिचय के लिये तो पढ़ा ही जाना चाहिये , आत्मकथा की बेबाकी और ईमानदारी के लिये भी यह एक जरूरी सन्दर्भ है. इस शॄँखला में डेढ़ सदी पुराने भारतीय समाज के कुछ चित्र देने का प्रयास रहेगा)
वकालत की परीक्षा में रिश्वत
मार्गशीर्ष संवत १९४३ के उत्तरार्ध(दिसम्बर सन १८८६ ई.के आरम्भ) में मैंने वकालत की परीक्षा दी थी और परिणाम महिनों तक रुका रहा.इसका कारण यह था कि  पंजाब यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार मिस्टर लार्पेण् ने इस वर्ष दोनों हाथों से लूटना शुरू कार दिया था.गतवर्ष तो अभी साहब बहादूर नव-शिक्षित थे इस्लिये कोई इक्का-दुक्का ही उनके काबू चढ़ा, इस वर्ष वे किसी को सूखा छोड़ना नहीं चाहते थे.वकालत में पास होने के लिये १५०० रूपये प्रति याचक की खुली शरह थी.साहब बहादूर ने दलाल वा एजेण्ट भी रख छोड़ा था जिसका नाम गण्डा सिंह था.२०० रूपये भाई गण्डासिंह की भेंट होते ही १०० अंग्रेज देवता की पूजा में स्वीकार हो जाता और वकालतरूपी  स्वर्ग-प्राप्ति की अदृश्य हुण्डी उसी दम मिल जाती.मुखतारी के प्रार्थियों से शायद १००० रूपये,बी.ए.,एम.ए. से कुछ कम लिया जाता था.कोई-कोई एफ़.ए. भी लार्पेण्ट गर्दी चक्कर पर चढ़्ने से न बच सके.कोई-कोई तो अक्ल के  ऐसे पुतले निकले कि पास होने तक ही शान्त न हुए प्रत्युत पहले-दूसरे होने की ठान ली.वकालत में पहले होनेवाले के लिये ३५०० और दूसरे होनेवाले के लिये २५००रूपये.यह चढ़ावा केवल उन्हीं को नहीं चढ़ाना पड़ा जो सचमुच अनुत्तीर्ण थे बल्कि जो पास थे उनके भी घर पहुँच-पहुँचकर साहब के दूत ने उनकी जेबें भी खाली कीं.यह रोग यहाँ तक बढ़ा कि मेरे कुछ मित्रों ने मुझे पत्र लिखकर लाहौर बुलाया, क्योंकि गण्डासिंह मुझे ढूँढता और कहता फिरता था कि यद्यपि मैं पास हूँ तो भी बिना १००० रूपये दिये मुझे भी प्रमाणपत्र से वंचित रहना पडेगा.मैं यह दृढ़ संकल्प करके लहौर पहुँचा कि इस अनाचार का भण्डा फोड़कर रहूँगाअ, किन्तु मेरे पहुँचने से पहिले ही हिसार के प्रसिद्ध वकील लाला चूड़ामणि ने गण्डासिंह की खूब खबर लेकर सर विलियम रैटिंगन (उस समय वाइस चाँसलर) के यहाँ दुहाई जा मचाई.वाइस चाँसलर ने उसी समय सायंकाल को परिणाम की सारी फाइल सँभाल ली.लाला चूड़ामणि भाग्यशाली थे कि पहल उनकी ओर से हुई.विश्व्विद्यालय सभा ने अकेले लाला चूड़ामणि को पास करके बाकी सबको फेल कर दिया, और मैं भी बलवे की भीड़ में निरपराध बालक की तरह गोली का शिकार हो गया

1 comment:

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