Friday, March 24, 2017

गरीब का नंगापन उसकी आर्थिक दरिद्रता है तो अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता

पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अध्‍ययन-अध्यापन के क्षेत्र से जुड़ी गीता दूबे मूलत: कवि हैं। कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी बेबाक आलोचनाओं के साथ सक्रिय रहने वाली गीता दूबे, प्रगतिशील लेखक संघ (हिन्दी इकाई) कोलकाता की सचिव भी हैं। अपनी बातों को साफ तरह से रखने का बौद्धिक साहस गीता दूबे के लेखन की ही नहीं, व्‍यवहार की भी एक विशेषता है। रचनाओं को प्रकाशन के लिए भेजने का संकोच गीता दूबे के भीतर मौजूद आलसपन को भी दिखाता है। कई बार के आग्रह के बाद गीता दूबे ने अपने मन से ‘आपहुदरी’ पर लिखी समीक्षात्माक टिप्पणी भेजकर इस ब्लाग को अनुग्रहित किया है। इस आशय के साथ कि आगे भी उनके सहयोग से यह ब्लाग आगे भी समृद्ध होता रहेगा, उनकी लिखी समीक्षा प्रस्तुत है। हमें उम्मीद है कि गीता दूबे की बेबाक समीक्षा पर पाठकों की बेबाक राय भी इस ब्लाग को समृद्ध करेंगी। 

वि.गौ.

'आपहुदरी' (रमणिका गुप्ता की आत्मकथा) के हवाले से


गीता दूबे 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी चाहिए लेकिन फिलहाल कुछ बातें मैं 'आपहुदरी' के बहाने स्त्री आत्मकथाओं पर करना चाहती हूं। 

इस समय आत्मकथाएं खूब लिखी जा रही हैं और उनके प्रकाशन के साथ साथ विवाद भी चलते रहते है। शायद ही कोई आत्मकथा ऐसी होगी जिसके प्रकाशन के बाद बहस का तूफान न उठा हो या आरोपों प्रत्यारोपों के दौर न चले हों। सवाल यह है कि आत्मकथाएं क्यों लिखी जानी चाहिए ? आत्मकथाओं का उद्देश्य किसी रचनाकार के सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों से रूबरू करवाना ही है या तत्कालीन इतिहास की अनुगूंज भी उसमें सुनाई देनी चाहिए। इस संदर्भ में गांधी और नेहरू द्वारा लिखित आत्मकथाओं का जिक्र जरूरी है जिनमें सिर्फ उनके निजी अनुभव ही नहीं हैं बल्कि उनके समय का इतिहास भी झांकता है। कुछ वर्षों पूर्व प्रकाशित कुलदीप नैय्यर की आत्मकथा भी कई मायने में इतिहास की तरह पढ़ी और संजोई जा सकती है। स्त्री आत्मकथाओं के संदर्भ में बात करें तो पहले पहल जब स्त्रियों ने अपनी कहानी अपनी जुबानी सुनाने का फैसला किया तो लोगों को यह सहज उत्सुकता हुई कि ये औरतें भला कहना क्या चाहती हैं ? और कहेंगी भी तो आखिर क्या वही घर गृहस्थी के घरेलू किस्से और कहानियां। रही बात उनके सामाजिक अवदान या भूमिका की तो वह तो साहित्य में कहा और लिखा ही जा रहा है।पुरूष रचनाकार बड़े अनुग्रहपूर्ण ढंग से भारतीय स्त्रियों के त्याग और बलिदान को महिमामंडित करते हुए यदा कदा उनके दुख दर्द, शोषण और संघर्ष को भी वाणी दे ही रहे थे। लेकिन इसके बावजूद स्त्रियों ने तय किया कि अपने देखे और भोगे यथार्थ को वह खुद पूरी प्रामाणिकता से पाठकों के सामने रखेंगी। हालांकि प्रेमचंद द्वारा संपादित हंस के आत्मकथा विशेषांक में यशोदा देवी और शिवरानी देवी के आत्मकथ्य प्रकाशित हो चुके थे लेकिन पुस्तकाकार रूप में प्रतिभा अग्रवाल की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा 'दस्तक जिन्दगी की' (1990) और मोड़ जिन्दगी का(1996) से स्त्री आत्मकथा लेखन की शुरुआत हुई । इसी क्रम में क्रमश: 'जो कहा नहीं गया'(1996) कुसुम अंसल, 'लगता नहीं है दिल मेरा'(1997) कृष्णा अग्निहोत्री, 'बूंद बावड़ी' (1999) पद्या सचदेव, 'कस्तूरी कुण्डल बसै'(2002)मैत्रेयी पुष्पा आदि ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 'पिंजरे की मैना' (2005) छपकर आई तो पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया क्योंकि पराधीनता की जंजीरों में जकड़ी नारी की मुक्ति कामना के साथ ही उसकी पीड़ा और संघर्ष को लेखिका ने बड़ी शिद्दत से उकेरा था। जानकी देवी बजाज की 'मेरी जीवन यात्रा'(2006) में मारवाड़ी परिवार की स्त्रियों का जीवन ही नहीं वर्णित हुआ बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के कई कोलाज भी बड़ी ईमानदारी से अंकित हुए हैं। मन्नू भंडारी की 'एक कहानी यह भी'(2007) , प्रभा खेतान की 'अन्यार से अनन्या'(2007) मैत्रेयी पुष्पा की 'गुड़िया भीतर गुड़िया'(2008), कृष्णा अग्निहोत्री 'और और औरत' (2010) इस सिलसिले की अगली कड़ियां थीं। इसे उर्मिला पंवार के 'आयदान' (2003) कौशल्या बैसंत्री के 'दोहरा अभिशाप' (2009) और सुशीला टांकभौरे के 'शिकंजे का दर्द' (2011) ने एक नया आयाम दिया। 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी
अब बात करना चाहूंगी 2016 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित रमणिका गुप्ता की आत्मकथा 'आपहुदरी' की । चूंकि यह शब्द पंजाबी भाषा का है संभवत इसी लिए नीचे एक पंक्ति में इसका आशय भी भी साफ कर दिया गया है , एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा'। यहां यह बताना जरूरी है कि इसके पहले रमणिका अपनी एक और आत्मकथा 'हादसे'(2005) लिख चुकी हैं जिसमें मजदूर नेता के रूप में उनके एक्टिविस्ट और उसके साथ राजनीतिक जीवन की झलक मिलती है और उसे पढ़कर पाठक उनके जुझारू व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । उनके जीवन संघर्ष से उपजा यथार्थ , उनकी स्त्रीवादी विचार धारा और बेबाक व्यक्तित्व पाठकों के मन पर निस्संदेह गहरी छाप छोड़ता है। उनके निष्कर्षों से सहमत भी होता है कि, " पुरूष नारी को उसी हालत में बर्दाश्त करता है जब उसे यकीन हो जाए कि वह पूरी तरह उसी पर आश्रित है और खुद कोई निर्णय नहीं ले सकती या वह स्वयं उस औरत से डरने लगे तो उसे सहता है।" चूंकि इस आत्मकथा में उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को अभिव्यक्ति नहीं मिली थी शायद इसी वजह से उन्होंने 'आपहुदरी' रचना की। किताब के फ्लैप पर लिखी घोषणा बरबस ध्यान खींचती है, "विविधता भरे अनुभवों की धनी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा की यह दूसरी कड़ी 'आपहुदरी' एक बेहद पठनीय आत्मकथा है।उनकी आत्मकथा की पहली कड़ी हादसे से कई अर्थों में अलग है। सच कहें, तो यही है उनकी असल आत्मकथा....।" जाहिर है कि इस घोषणा से आकर्षित या प्रेरित होकर पाठक बड़े चाव से इस रचना से मुखातिब होता है कि उसे कुछ नया जानने या समझने को मिलेगा। निस्संदेह मिलता है । रमणिका या रमना या रम्मो के परिवार का संक्षिप्त इतिहास , देश- विभाजन के एक आध चित्र और मजदूर आंदोलन के साथ साथ भारतीय राजनीति की कुछ झलकियां भी। पर सबसे अधिक पन्ने इस जिद्दी लड़की ( ?) ने अपनी प्रेमकथा के वर्णन में खर्च किए हैं। बचपन में हुए यौन शोषण और परिवार वालों द्वारा की गयी अपनी उपेक्षा के कारण वह आजीवन प्रेम की तलाश में भटकती रही और यौनेच्छाओं की पूर्ति के साथ साथ अपने विलास पूर्ण जीवन के खर्चों को पूरा करने के लिए वह लगातार एक के बाद एक साथी बदलती रहीं। रमणिका की तारीफ इस बात के लिए तो होनी ही जानी चाहिए कि वह अपने इन भटकावों , विचलनों को ईमानदारी से स्वीकारती हैं और बिना किसी अफसोस के लिखती हैं, "पीछे मुड़कर देखती हूं तो महसूस होता है, मैंने जिंदगी को भरपूर जिया। तुमुल कोलाहल के बीच भी मैंने अपने मन को कभी बनवास नहीं दिया।मेरी प्रेम यात्राएं कभी रुकी नहीं।.... कुछ ग्रंथियां और कुछ हादसे मेरे अंतर्मन में ऐसे पैठ गये थे कि मैं उनसे उबर नहीं पा रही थी। उनसे पीछा छुड़ाने के लिए मैं रास्ते तलाशने लगी और रास्ते की खोज में मैंने तय कर डाली कई यात्राएं।.....कितनी यात्राएं गिनाऊं।" इसके आगे वह लिखती हैं, "कई सच्चे और वक्ती मित्र आए और गये पर मेरी यात्रा जारी रही। दर असल तब तक मैं यह समझ न पाई थी कि यह जद्दोजहद मेरी अस्मिता की ललक का अंग है।.... बहुत बाद में मुझे स्त्री की अलग पहचान का विमर्श समझ में आया।" मेरी दिक्कत यहीं से शुरू होती है जब रमणिका अपनी यौनाकांक्षा को स्त्री मुक्ति के साथ जोड़कर देह विमर्श को ही स्त्री विमर्श के रूप में स्थापित करना चाहती हैं। स्त्री मुक्ति के साथ साथ देह पर उसके अधिकार की बात तो उठती रहती है पर जहां देह ही मुख्य हो जाती है और बाकी चीजें गौण तो माफ कीजिएगा इस मुक्ति से स्त्री हो पुरूष दोनों अर्थात् पूरे देश और समाज की भी कोई बहुत ज्यादा तरक्की होनेवाली नहीं। और डर इस बात कार्यक्रम भी है कि इस देह विमर्श की आंधी में स्त्री विमर्श के जरूरी मुद्दे कहीं उड़ न जाएं। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मेरी समझ में आती है कि आत्मकथा लेखन सच में जोखिम और साहसभरा काम है क्योंकि खुद को लोगों के बीच उघाड़ने और उधेड़ने के लिए साहस की जरूरत तो पड़ती ही है पर जब इसमें सनसनी वाला तत्व भी जुड़ जाता है तो यह जोखिम मजे या प्रचार के लिए उठाए जोखिम में जरूर बदल जाता है । और साहित्य या समाज के लिए यह स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती है। एक गरीब का नंगापन जहां उसकी आर्थिक दरिद्रता को दर्शाता है तो वहीं अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता या फैशन को। रमणिका ने जिस तरह से रस लेते हुए अपने प्रेम प्रसंगों या देह गाथा को उकेरा है उसे प्रेम कथा के रूप में तो पढ़ा जा सकता है पर उसे स्त्री मुक्ति का आख्यान मानने में मुझे आपत्ति है। कुछ पाठकों को इस तरह की कथा में रस भले ही मिले पर सिर्फ और सिर्फ यही पढ़ना हो तो इस विषय पर प्रचुर साहित्य सहज ही उपलब्ध है। आश्चर्य होता है कि देह की भूख क्या इतनी प्रबल है कि ट्रेन में सफर के दौरान एक अजनबी के साथ भी बड़ी सहजता से निसंकोच उसे तृप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही एक ही समय में एकाधिक साथियों के साथ अपने संबंधों को भी लेखिका ने गर्व के साथ स्वीकारा है। लगता है लेखिका सिर्फ देह का उत्सव मनाते हुए , उसे गरिमा मंडित करते हुए हर हाल में सही ठहराना चाहती हैं। हालांकि अपनी कमजोरियों को रमणिका सहज भाव से स्वीकारती हैं, " सत्य तो यह है कि मुझे खुद ही खुद से मुक्त होना है । मैं अपनी ही कमजोरी काम शिकार होकर फिसल जाती रही हूं ।जिन कमजोरियों के खिलाफ मैं झंडा बुलंद करती रही, उन्हीं कार्यक्रम शिकार मैं खुद होती रही। पुरुष मेरी ग्रंथि है।औरत को खुद अपने को ही मुक्त करना है पुरुष ग्रंथि से।" पता नहीं लेखिका इस ग्रंथि से मुक्त हो पायीं या नहीं पर अपनी प्रेम कथाओं के साथ साथ उन्होंने अपने पारिवारिक सदस्यों की कथाओं का भी खुलकर वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि संसार की एकमात्र सच्चाई देह ही है और दैहिक तृप्ति ही वास्तविक तृप्ति है। 

ईमानदारी से कहना चाहती हूं कि रमणिका की यह आत्मकथा पढ़ते हुए मुझे तसलीमा याद आती रहीं जिन्होंने 'द्विखंडित' (2004) में अपने पुरुष मित्रों के साथ अपने संबंधों को खुल कर स्वीकारा था और यौन प्रसंगों का सतही और उत्तेजक वर्णन भी किया था। और शायद उसपर लगे बैन और विवादों के कारण लोगों ने उसे खूब पढ़ा भी था पर पसंद शायद ही किया था। और एक किताब का नाम लेना चाहूंगी वैशाली हलदणकर की 'बारबाला' (2009)। उसमें भी ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं। प्रश्न यह भी है कि ऐसी आत्मकथाएं क्या सिर्फ इसीलिए पढ़ी जानी चाहिए कि इनमें यथार्थ के नाम पर मुक्त यौन चित्र हैं भले ही इनसे स्त्री मुक्ति की रूपरेखा बने या न बने । या फिर इससे किसी को प्रेरणा मिले न मिले। एक जिद्दी लड़की क्या सिर्फ पैसों , शोहरत, ऐशो आराम या सत्ता के गलियारे में पैठ बनाने के लिए अपने शरीर को इस्तेमाल करने में ही अपनी जिद और स्वाभिमान की इंतहा मानती है ? उसका स्वाभिमान क्या छोटे छोटे सुखों पर न्योछावर किया जा सकता है,? क्या पेट की भूख और शरीर की भूख में कोई अंतर नहीं है ? और इस भूख की आग में रिश्ते नाते भी जला दिए जाएं ? आखिर हमें कहीं तो रुकना पड़ेगा, या इस भूख या छद्म मुक्ति की तलाश में हम यूं ही भटकते रहेंगे ? इस तरह के कई सवाल इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मन में उपजते हैं। सच में अगर स्त्री का संघर्ष और उसकी उपलब्धियों से रूबरू होना ही है तो क्यों न हम एक विकलांग पर जुझारू महिला नसीमा हुरजूक की आत्मकथा 'कुर्सी पहियों वाली' (2010) जैसी किताब पढ़े जो पूरे समाज को उद्वेलित ही नहीं प्रेरित भी करती हैं। और अगर देह गाथा ही पढ़नी है तो उसके लिए एक दूसरी तरह काम साहित्य सहज ही उपलब्ध है।

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2017) को

"हथेली के बाहर एक दुनिया और भी है" (चर्चा अंक-2610)

पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'