Friday, December 12, 2008

तुम्हारी ओर मैं क्यों आकृष्ट हुआ - पत्र में कैसे कर दूं दर्ज

प्रस्तुति : यादवेन्द्र



गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ जगदीश चंद्र बसु की अंतरंग मित्रता थी जिसमें एक दूसरे के घर आना-जाना, पत्रों और पुस्तकों का आदान-प्रदान और राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर विचार-विमर्श शामिल था। जब पहली बार गुरुदेव जगदीश बाबू के घर गये तो वे वहीं कहीं बाहर गए हुए थे- गुरुदेव वहां एक फूलों का गुच्छा छोड़ आए। यहीं से आने जाने का सिलसिला शुरु हुआ। एक बार गुरुदेव ने वैज्ञानिक को अपने साथ कुछ दिन रहने के लिए आमंत्रित किया। जगदीश बाबू इस शर्त पर राजी हुए कि हर रोज गुरुदेव उन्हें कोई कोई नयी कहानी जरुर सुनाएंगे। कहानियों का अनवरत क्रम जिस दिन टूट जाएगा उस दिन वे लौट जाएंगे वापिस। चौदह दिनों के बाद एक दिन यह सिलसिला भंग हुआ। रविन्द्र नाथ ठाकुर की कहानी "काबुली वाला" इसी विदित समागम की उपलब्धि है जिसे भगिनी निवेदिता ने 1912 में अंग्रेजी में अनुवाद करके और तपन सिन्हा ने फिल्म बनाकर अहिन्दी भाषियों के बीच भी अमर कर दिया। महान रचनाकार रोम्यां रोला और जार्ज बर्नाड शॉ से भी जगदीश बाबूका खासा मेल मिलाप और संवाद था। इन दोंनों ने अपनी एक-एक पुस्तक भारतीय वैज्ञानिक को समर्पित की है।जगदीश बाबू की साहित्य में रुचि को देखते हुए उन्हें बंग साहित्य परिषद का अध्यक्ष भी निर्वाचित किया गया था।इतना ही नहीं जगदीश बाबू गुरुदेव के सतरवें जन्मदिवस (सप्ततितम जन्मवार्षिकी) की आयोजन समिति के सभापति भी बनाए गए।

बौद्धिक आदान प्रदान तो इन दो महान विभूतियों के बीच होता ही था,पर इनकी बालसुलभ मित्रता यहां तक थी किवे मिलकर पुरी में एक साझाा मकान बनाने की सोच रहे थे। इस संबंध में अपने 18 अगस्त 1903 के पत्र में वैज्ञानिक स्पष्ट लिखते हैं - "एक बार सोचा था कि दोनों मिलकर एक कुटिया बनाएंगे और कभी-कभार वहां जाकररहेंगे। तुम्हारी जमीन तुम्हें ही मुबारक हो, तुम यदि इस तरह निरासक्त हो जाओ और पुरी में मेरे साथ रह सको तो मेरे लिए वह निर्जन एकांत असह्य हो जाएगा।"





17 सितम्बर 1900 को जगदीश चंद्र बसु को लिखा रवीन्द्र नाथ ठाकुर का पत्र

आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि मैं आजकल स्केचबुक में पेंटिग करने लगा हूं। ऐसा नहीं है कि ये चित्र पेरिस की किसी कलादीर्घा के लिए बना रहा हूं और न ही यह मुगालता है कि किसी देश की राष्ट्रीय गैलरी अपने कर दाताओं का पैसा लगाकर इन्हें अपने यहां प्रदर्शन करने के लिए खरीदेगी। यह किसी व्यक्ति का अन्जान कला की ओर वैसे ही खिंच जाना है जैसे कुछ न कमाने वाले अपने बेटे के प्रति भी मां खिंच जाती है। अब जब मेरे ऊपर आलस्य हावी होने लगा है तब अचानक एक कलाकार का धंधा सूझा जिसमें लगकर समय खुशी-खुशी व्यतीत किया जा सकता है। मुश्किल यह है कि मेरी अधिकांश ऊर्जा रेखाएं खींचने में नहीं बल्कि उन्हें मिटाने में चली जाती है- परिणाम यह होता कि मैं पेंसिल की तुलना में मिटाने वाले रबर को पकड़ने में ज्यादा पारंगत हो गया हूं। इसे देखते हुए अब राफेले को चैन से अपनी कब्र में आराम फरमाते रहना चाहिए, कम से कम उसके रंगों के लिए मैं किसी तरह का खतरा नहीं बनने वाला।





जगदीश चन्द्र बसु के रवीन्द्र नाथ को लिखे गये पत्रों के उद्धरण


तुम्हारी ओर मैं क्यों आकृष्ट हुआ, बता दूं - हृदय की जो महत आकाक्षांए हैं वे संभवत: मन में ही रह जातीं यदि तुम्हारी बातों में, तुम्हारी रचनाओं प्रस्फुटित होते नहीं देख पाता।
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तुम्हारे स्वर में मुझे क्षीण मातृ-स्वर सुनाई पड़ता है - उस मातृ देवी के अतिरिक्त मेरा और क्या उपास्य हो सकता है ? उसी के वरदान से मुझे बल प्राप्त होता है। मेरा और है ही कौन ? तुम्हारे अपूर्व स्नेह से मेरी अवसन्नता दूर होती है। मेरे उत्साह तुम उत्साहित होते हो और मैं तुम्हारे बल से बलवान बनता हूं। मैं अपने सुख-दुख के बारे में नहीं सोचूंगा, तुम्हीं बताओगे कि मुझे क्या करना है। यदि मैं कार्य भार से अथक परिश्रम या निराशा से अवसन्न हो जाऊं तो इसे ध्यान में रखते हुए मुझे बराबर प्रोत्साहन भरे शब्दों से पुनर्जीवित करना।

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तुम्हारी पुस्तक के लिए मैंने कई जुगाड़ बिठाए हैं। मैं तुम्हें यशोमण्डित देखना चाहता हूं। अब तुम छोटे गांव में नहीं रह पाओगे। तुम्हारी रचनाओं का अनुवाद करके यहां के मित्रों को अक्सर सुनाता रहता हूं- वे अपने आंसुओं को नहीं रोक पाते हैं। पर इन्हें यहां कैसे प्रकाशित करवाया जाए, समझ में नहीं आता। एक बार यदि तुम्हारा नाम प्रतिष्ठित कर पाऊं तो अपने आपको परम सौभाग्यशाली समझूंगा।

2 comments:

विवेक सिंह said...

बेहतरीन संकलन !

naveen kumar naithani said...

याद्वेन्द्र्जी का शुक्रिया.विजायदान देथा की पुस्तक रुख मे इन दोनो की मित्रता के बारे मे जाना था.यहा यह भी उल्लेख्नीय है कि गुरूदेव ने बोस को आविश्कारो के पेतेन्त कराने के पक्श मे सलाह दी थी जिसे बोस ने शायद नही माना.मार्कोनी से पहले बोस रेदियो तरन्गो के सन्चार का प्रयोग प्रदर्शित कर चुके थे.आगे भी आपकी पोस्त का इन्तजार रहेगा