हाल में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि हर महीने दुनिया से दो भाषायें विलुप्त हो रही हैं।।। अभी कुल करीब 7000 भाषाओं का पता है। इस संदर्भ में कुछ अच्छी कविताएं लिखी गयीं हैं।।। नेट पर अंग्रेजी में उपलब्ध, उनमें से कुछ, कविताओं के हिन्दी अनुवाद यादवेन्द्र जी ने किए हैं। प्रस्तुत हैं उनमें से कुछ कविताएं-
गवाह
डब्ल्यू एस मेरविन (यू एस ए)
मैं बताना चाहता हूं
कि पहले कैसे दिखते थे ये वन
पर इसके लिए
जो भाषा मुझे बोलनी पड़ेगी
अब तो उसे भूल गए हैं सब लोग।
भूली बिसरी भाषा
डब्ल्यू एस मेरविन (यू एस ए)
वाक्यों को पीछे छोड़ सांस आगे बढ़ जाती है
जो अब नहीं लौटेगी कभी दुबारा
फिर भी बड़े बूढ़े उन बातों का सम्मान करते ही हैं
जिन्हें कह देने की इच्छा उनके मन में साल दर साल घुमडती रही है निरंतर।
वे अब यह भी भांप गए हैं कि
लोग उन विस्मृत वस्तुओं का शायद ही यकीन करेंगे।
और उन बचे कुचे शब्दों से जुड़ी तमाम वस्तुएं
बाती लेकर ढूंढे तो भी मिलेंगी कहां ?
जैसे किसी अभिशप्त व्ृाक्ष से सट कर कोहरे में खड़े होने की संज्ञा
या मैं के लिए क्रिया।।।
बच्चे उन मुहावरों का अब कभी नहीं दुहरा पायेंगे
जिन्हे दिन रात घडी घडी बोलते बतियाते गुजर गये उनके मां बाप।
जाने किसने उन्हें घुट्टी पिला दी
कि हर बात को नये ढंग से कहने में ही बेहतरी है आज के दौर में
और ये कि इसी तरह मिलेगी उन्हें तारीफ और शोहरत
सुदूर देशों में।।।
जिन्हें कुछ पता ही नहीं हमारी चीजों के बारे में
उनसे भला कह ही क्या पायेंगे हम ऐसे में।
दरअसल हमें गलत और काला समझती है
नये आकाओं की शातिर निगाहें
कुछ समझ नहीं आता
दिनभर क्या क्या बकता रहता है उनका रेडियो।
जब कभी दरवाजे पर होती है कोई आहट
सामने खड़े मिलता है कोई न कोई अचिन्हा
सब जगह, कोनो अतरों में
जहां तैरेते होते थे हजार चीजों के नाम
अब पसर गयी है झूठ की काली सी चादर
कोई भी तो नहीं है यहां
जिसने अपनी आंखो देखा हो घट रहा कुछ
न ही आता है याद किसी को खास कुछ
इस जगह शब्द धीरे धीरे बदल रहे हैं अपना रंग रूप्ा
यहीं तो होंगे किसी कोने में पड़े हुए विलुप्त करार दिये हुए पंख
और यहीं तो कहीं होगी हमारी खूब जानी पहचानी हुई वो बरसात।
भूली बिसरी भाषा
शेल सिलवरस्टिन (यू एस ए)
कोई जमाना ऐसा भी था जब मैं बोल लेता था भाषा फूलों की
कोई जमाना ऐसा भी था जब मैं समझ लेता था लकड़ी उमें दुबक कर बैठे कीट का भी
बोला एक-एक शब्द
कोई जमाना ऐसा भी था जब गौरयों की बतकही सुनकर
चुपकर मुस्करा लिया करता था मैं
और बिस्तर पर जहां तहां बैठी मक्खी से भी
दिल्लगी कर लिया करता था
एक बार ऐसा भी याद है जब
मैंने झिंगूरों के एक एक सवाल के गिन गिन कर बकायदा जवाब दिये थे
जी जान से शामिल भी हो गया था।
कोई जमान ऐसा भी था
जब मैं बोल लिया करता था भाषा फूलों की।।।।
पर ये सब बदलाव हो कैसे गया।।।
ऐसे सब कुछ यूं लुप्त कैसे हो गया ??????
अनुवादक: यादवेन्द्र
11 comments:
बहुत अच्व्छी कविताएं । बहुत ही अच्छा अनुवाद भी।
यादवेन्द्र जी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। मुझे भी उन्होंने ब्रेटन नामक लुप्त होती भाषा की कुछ कविताएं अनुनाद के लिए भेजीं।
उन्हें बधाई
और विजय आपको `कैसे हो?´
संगीता जी एवं शिरीष भाई बहुत आभार। मित्र अपना पता ठिकाना तो छोडो तब तो हाल समाचारनुमा बतकही संभव होगी।
विजय आपने मेरा पता-ठिकाना पूछा है !
मैं अपना पूरा पता लिख रहा हूं -
शिरीष कुमार मौर्य,
उपाचार्य हिंदी, डी0एस0बी0 परिसर,
नैनीताल - 263 002
shirish.mourya@gmail.com
Phone: 9412963674
अच्छी कवितायें..
मर्मस्पर्शी कविताएं । मैं स्वयं अपनी मातृभाषा नहीं बोल पाती और सदा इस भूल का एहसास रहता है ।
घुघूती बासूती
हिन्दी और कुछ भारतीय भाषाओं के लिए भी लोग सन् 3008 में कुछ ऐसी ही कवितायें लिखेंगे, अगर इन्सान उस समय भी बचे रहे तो.
बहुत अछि कवितायें है...अब तो सिर्फ ताकत की भाषा ही बचती दिख रही है
mervin ki dusri kavita me 9vi pankti me abhishapt vriksh ka vriksh chhut gaya hai..mitro isko sudhar kar padhenge to kuchh naya chamatkar hoga
बहुत बहुत आभार मित्र, गलती की ओर ध्यान दिलवाने का. दुरस्त कर दिया जा रहा है।
hame hindi ke sath-sath sanskirt bhasha par bhi dhayan dena chahiye nahi se vah din door nahi jab sanskirt bhi vilupt bhasha ke kagar par khadi hogi|
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