Friday, January 16, 2009

खास तुम्हारे लिये

जिस वक्त यह ब्लाग बनाया गया था, एक विचार मन में था कि बहुत कुछ ऎसा जो बहुधा और कहीं प्रकाशित नहींहोता, या जिसको ज्यादा से ज्यादा लोगों तक जाना चहिए, मित्रों से लिखवाकर इस पर डालते रहेंगे और एकपत्रिका की तरह ही इसे चलाएंगे। अभी तक इसे ऎसे ही चलाने की कोशिश भी हुई है। पर यदा कदा जब समय पर ऎसा कुछ नहीं मिला तो अपनी रचनाओं से भी काम चलाना पडा है। फ़िर भी कोशिश जारी है। इस कोशिश का ही यह परिणाम है कि कथाकार नवीन नैथानी ने यह आलेख लिखा। ब्लाग में इसे देते हुए भाई नवीन का आभार व्यक्त करना चाह्ते हैं।
नवीन एक महत्पूर्ण कथाकार हैं। अपनी कल्पनाओं के सौरी को उन्होंने अपनी कहानियों मेंजिन्दा किया है। ग्यानपीठ से सौरी की कहानियां उनका प्रकाशनाधीन कथा संग्रह है। वर्ष २००५ में नवीन को उनकी कहानी पारस पर रमा कान्त स्म्रति सम्मान प्राप्त हुआ इससे पूर्व कथा सम्मान से भी वे सम्मानित हुए हैं। प्रस्तुतआलेख में नवीन अपने देहरादून को याद कर रहे हैं



नवीन नैथानी


मुझे नही लगता कि कोई शहर अपने होने को लेकर इस तरह से आत्म-मुग्ध होता होगा जितना देहरादून. यह शहर उन साहित्यकारों का गढ नहीं रहा जो हिन्दी जगत को अपने ईशारों से नचाते रहे. सम्मान ऒर पुरस्कार पाने ऒर बटोरने वाले लेखक इस शहर की फ़ितरत में ही नहीं हैं. यह उन लेखकों का शहर रहा है ऒर है जो साहित्यिक जीवन की रगों मैं लहू बनकर दॊड्ते हैं. फ़िर भी देहरादून की हवा में कुछ इस तरह की तासीर है कि यहां का लेखक इस शहर से दूर नहीं जा पाता. अगर रोजी-रोटी की मजबूरियां शहर से दूर खेंच के जाती हैं तो भी उसकी सांसें देहरादून में ही प्राण-वायु पाती हैं. अवधेश तो दिल्ली में पूरी तरह से स्थापित होने के बाद देहरादून लॊट आया था- वह एक यायावर की आत्महंता वापसी थी. सुरेश उनियाल तो दिल्ली में रहने ऒर बसने के बाद भी देहरादून इस तरह लॊटते हैं जैसे उनकी गर्भ-नाल देहरादून के किसी मुहल्ले की उस रसोई में गढी हुई है , जहां हिन्दुस्तान की आजादी के तत्काल बाद पंजाब ऒर दूसरे हिस्सों से आयी हुई एक दूसरी सभ्यता देहरादून को रचने लगी थी. यह देहरादून का एक सामान्य परिचय है-थोडा सा रहस्य की धुन्ध में ऒर थोडा कुहरे के कम्बल में- ऒपनिवेशिक समय से बना हुआ शहर जो निरन्तर बनते रहने का भ्रम रचता है. यहां यह उल्लेख अवांछित नहीं है कि कुछ बडे नाम संप्रति स्थाई रूप से देहरादून में रहते हैं- जीवन की उत्तरशती में. पद्मश्री लीलाधर जगूडी इस शहर के उतने ही सम्मानित बाशिन्दे हैं जितने आदरणीय कामरेड विद्यासागर नॊटियाल.
देहरादून संभवतः उन विरल शहरों म्रें है जहां से पत्रिकायें नहीं निकलतीं ऒर शहर के साहित्यकार अपने शहर पर इठ्लाते फ़िरते हैं -
शहर में ढूंढता तुझको तुझी में शहर बसता था
तेरे गेसू से बिखरी जो बासमती की खुशबू थी
(दर्द भोगपुरी)
खैर,इस शहर का बाशिदा मैं भी हूं, यहां मैं शहर को कुछ व्यक्तियों ,कुछ घ्टनाऒ ऒर कुछ संस्थाऒ के बहाने याद करने की कोशिश कर रहा हूं. और इस शुभ काम की शुरूआत हरजीत ऒर अवधेश के जिक्र के साथ क्यों न की जाये!
दर असल मैं ठीक- ठीक समझ नहीं पा रहा हूं कि एक ब्लोग में यह दर्ज करते हुए कितना अपना समय बचा रहा हूं. मुझे स्वीकार करते हुए थोडा कष्ट होता है कि तनिक गम्भीर साहित्यकार इस माध्यम को नितान्त अगम्भीरता से लेते हैं . समय वैसे भी उतना पारदर्शी कहां रहा? इस बात में कष्ट से अधिक विडम्बना झलकती है.
हरजीत से पहले मैं अवधेश से मिला था. इन दोनों से पहले अतुल शर्मा से. ऒर इन सबसे पहले राज शर्मा से! यह संदर्भ १९८६ का है.उन दिनो मैं शोध छात्र था. डीएवी कालेज में .राजेश सेमवाल मेरे साहित्यिक सफ़र का पहला हमकदम था. वे सिर्फ पढ्ने के दिन थे, सेमवाल के साथ मेरा सफ़र १९७९ से शुरू हुआ था- मैं भोगपुर से शहर आया था-पिछले तीस बरस से यह मेरा शहर है. उन दिनों हम खूब पढते थे.जो भी मिल गया वह पढ लिया. तो उन दिनों हम सुनते थे कि देहरादून में दो बडे सहित्यकार हैं-सुभाष पन्त ऒर अवधेश कुमार.अवधेश तो हमारा हीरो था.बाद जब मैं अवधेश से मिला तो आतंक, सम्मान ऒर कॊतुक का भाव जगता रहा-शुरू मैं .यह एक अलग प्रसंग है-इस पर चर्चा अन्यत्र कर चुका हूं .यहां तो जिक्र देहरादून की उस फ़ितरत का हो रहा है-जो आत्म-मुग्धता के बाग में टहलते हुए ऒर मस्त हुई जाती है.
यह शहर कभी भी हडबडाहट में नही दिखता. कम से कम साहित्यिक द्रष्टि से तो नहीं. यहां कभी भी फोन करने के बाद किसी मित्र के यहां जाने का रिवाज नहीं रहा. अब थोडा सा चलन बदला है.जब इस शहर में अवधेश ऒर हरजीत रहते थे तब शहर शाम को अंगडाई लेता ऒर रात उतरने के साथ खामोश सडकों को धुन्ध ऒर कुहरे की चादर में छुपाये लुका-छिपी का मनोरंजक खेल खेलता था.कई बार हम रात के वक्त दूर दूर बिखरे दोस्तों के घरों तक पहुंचकर दरवाजे खटखटा देते. यह देहरादून का ही कलेजा है जो बिना उफ किये पूरी गर्म-जोशी से स्वागत करता ऒर कोई नयी कहानी, कविता सुनने के लिये सहर्ष तैयार रहता . शहर का यह मिजाज आज भी बचा हुआ है. अब न अवधेश है ऒर न ही हरजीत .कभी दर्द भोगपुरी ने कहा था:
उठा भी तू, आया भी तू ऒर फिर पलट लिया
हमने तेरी अंगडाई से कुछ ऒर ही मतलब लिया
अब लगता है कि उन दोनों के जाने के बाद शहर अंगडाई लेना शायद भूल गया है-थोडा सा सयाना हो गया है-एक बुजुर्गियत शहर पर तारी हो गयी है.लेकिन वह बचपना अभी भी कहीं बचा हुआ है. यही इस शहर को बचाये हुए है.विजय गॊड,सुरेश उनियाल ऒर मदन शर्मा के संस्मरण देहरादून के मिजाज को समझने में मददगार हैं. यह शहर शब्दों में बयां नहीं हो पाता.इसे सुनने के लिये ऒर इससे कहने के लिये इसकी हवाओं में मॊजूद रहना पड्ता है.योगेन्द्र आहूजा ने जिस बालकनी का जिक्र किया है, उसी बालकनी में हरजीत को एक सरदारजी(वे ट्र्क-ड्राईवर थे) ने यह शे'र सुनाया था जो वे पता नहीं मुल्क के कॊन से ढाबे से सहेज कर लाये थे-खास हरजीत के लिये (यह हरजीत का प्रिय जुमला था-खास तुम्हारे लिये)
मैखाना-ए-हस्ती का जब वक्त खराब आया
कुल्हड में शराब आयी, पत्ते में कबाब आया
आमीन


भाई योगेन्द्र आहूजा को वर्ष २००८ के विजय वर्मा कथा सम्मान के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं। सम्मान समारोह कल दिनांक १७//२००९ को मुम्बई में सम्पन्न होगा। इस अवसर पर योगेन्द्र जी के द्वारा दिये जाने वाले वक्तव्य को आप कल दिनांक १७//२००९ को यहां पढ सकेंगे।

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छा लगा पढ़कर. ये शेर तो कमाल कर गया:

मैखाना-ए-हस्ती का जब वक्त खराब आया
कुल्हड में शराब आयी, पत्ते में कबाब आया

वाह!! आभार इस शेर को यहाँ लाने के लिए.

डॉ .अनुराग said...

देहरादून में बचपन के कुछ साल गुजारे है .शायद जिन्होंने मुझे आदमी बनने में मदद दी ...आपने उससे जैसे रूबरू कराया .बेमिसाल है...अब तो बहुत बदल गया है