Wednesday, February 25, 2009

खतरे में भाषा-बोलियाँ

अरविंद शेखर युवा हैं। एक प्रतिबद्ध पत्रकार हैं। नेपाल में जिन दिनों जनता का एक निर्णायक संघर्ष जारी था, उस दौरान अरविन्द ने नेपाल की स्थिति पर पैनी निगाह रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण आलेख लिखे। उसी दौरान अरविन्द को उमेश डोभाल स्म्रति सम्मान से भी सम्मानित किया गया। वर्तमान में अरविंद शेखर दैनिक जागरण, देहरादून मे काम कर रहे हैं। भाषा के सवाल पर उनकी यह रिपोर्ट पिछले दिनों दैनिक जागरण में प्रकाशित हुई थी। यहां प्रस्तुत करने का खास कारण यह है कि भाषा को लेकर ऎसी ही चिन्ता इससे पूर्व हमारे वरिष्ट साथी यादवेन्द्र जी रख चुके है। अरविन्द ने हमारे बिल्कुल आस पास उन स्थितियों को पकडते हुए अपनी चिन्ताओं को रखा है।


अरविंद शेखर

गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो समेत उत्तराखंड की दस बोलियां भी खतरे में है। इनमें से दो बोलियां तोल्चा रंग्कस तो विलुप्त भी हो चुकी हैं। यूनेस्को ने अपने एटलस आफ दि वल्र्ड्स लैंग्यूएजेज इन डेंजर में सूबे की इन भाषाओं को शामिल किया है। यूनाइटेड नेशंस एजुकेशनल, साइंटिफक एंड कल्चरल ऑर्गेनाइजेशन (यूनेस्को)के एटलस के मुताबिक उत्तराखंड की पिथौरागढ़ जिले में बोली जाने वाली रंग्कस और तोल्चा बोलियां विलुप्त हो चुकी हैं। इसके अलावा उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को लगभग 12000 लोग बोलते हैं। यह भी विलुप्ति के कगार पर है। पिथौरागढ़ की ही दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड और देहरादून की जौनसारी बोलियों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। एटलस के मुताबिक दारमा बोली को 1761 लोग, ब्यांसी को 1734 , जाड को 2000 और जौनसारी को अनुमानत: 114,733 लोग ही बोलते समझते हैं। एटलस के मुताबिक गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो बोलियां पर भी खतरा मंडरा रहा है। इन्हें असुरक्षित वर्ग में रखा गया है। यूनेस्को के मुताबिक अनुमानत: दुनिया में 279500 लोग गढ़वाली, 2003783 लोग कुमाऊंनी और 8000 लोग रोंगपो बोली के क्षेत्र में रहते हैं मगर इसका मतलब यह नहींकि इन क्षेत्रों में रहने वाले सभी लोग ये बोलियां जानते ही हों। मालूम हो कि 30 भाषाविदों के अध्ययन पर आधारित यह भाषा एटलस शुक्रवार को जारी हुआ है। यूनेस्को के मुताबिक विश्व में 200 भाषाएं पिछली तीन पीढि़यों के साथ विलुप्त हो गईं। दुनिया में 199 भाषा-बोलियां ऐसी हैं जिन्हें महज 10-10 लोग ही बोलते हैं। 178 को 10 से 50 लोग ही बोलते समझते हैं। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषाविद डॉ. शोभाराम शर्मा का कहना है हालंाकि यूनेस्को ने पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों की राजी जनजाति की बोली को एटलस मे शामिल नहीं किया है मगर यह भाषा भी विलुप्ति की कगार पर है। 2001 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में राजी या वनरावत जनजाति के महज 517 लोग ही बचे हैं। डॉ. शर्मा के मुताबिक उत्तराखंड की बोलियां उन पर हिंदी-अंग्रेजी के वर्चस्व, असंतुलित विकास पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन, विकास परियोजनाओं की वजह से विस्थापन बढ़ते शहरीकरण की मार झेल रही हैं। मानव विज्ञान सर्वेक्षण के अधीक्षक डॉ.एसएनएच रिजवी के मुताबिक खतरे में पड़ी इन भाषा बोलियों का संरक्षण बहुत जरूरी है अन्यथा मानव समाज अपनी बहुमूल्य विरासत को खो देगा।

5 comments:

राजीव तनेजा said...

चिंता का विष्य है.....

batkahi said...

behad khatarnak sthiti hai,par us se bhi jayda bhayavah ye hai ki sari baten is bare me videshi log hi kah rahe hain...kya bharat ki bauddhik duniya me isse koi halchal nahi machti?maine jab kuchh kavitayen anuvad ke bad vijayji ko bheji thi,uske pahle hindi ki kuchh kavitayen dhund raha tha...kai lekhak kavi mitro se bhi puchha,kisi ne nahi batayi is chinta ko vyakt karnewali kisis hindi kavita ki babat.
mujhe jaha tak maloom hai,lucknow univ me koi kaviaji hain,jo raji bhasha ke punaruddhar ke liye shodh aur prayatn kar rahi hain.

naveen kumar naithani said...

यह सिर्फ बोलियों का ही संकट नहीं है, व्यापक रूप में भाषा का भी संकट है.लघु समाजों की विलुप्ती वस्तुतः जनतांत्रिक समय के खात्मे की सू्चना है.हम पर्यावरण में तो जैव विविधता की चिन्ता में रत दीख पड्ते हैं किन्तु सामाजिक बहुलता की उपेक्षा कर रहे हैं.उस आखिरी आदमी की कल्पना कीजिये जो एक मरती हुई भाषा के साथ मर रहा हो.इस अकेलेपन की कल्पना ही रोंगटे खडे करने के लिये पर्याप्त है.

svetlana said...

indeed a matter to ponder over... with the rapid pace of life our language and culture are fading away... but does anyone really have time to look back.. i work in mumbai, how my each day goes, i know not.. time just flies by and its onli after some epic like periods i realise that it has been so long.. i am a garhwali and i can barely speak the language... i do understand it though.. it isn't that i would not like to learn it and keep it alive but where is the time to do so? if i look at my social and cultural responsiblities, there are plenty of other things that come much above on the priority list... for me survival of a human being is certainly more important than survival of hundreds and thousands of languages.. which more often than not create another criteria of division and classification in our already well divided society... emotional ties i understand.. but survival of fittest darwin said..

Anonymous said...

This phenomenon is the symbolic reflection or sympton of imbalanced profit orianted development process without human values.After the defeat of socialist ideology, neo liberals have increased the attacks on indegenious development,to grab markets and to create consumers for there product.They also want to spread rotten capitalist values. this is happening allover the world, thats why languages and dialects are in danger zone.