Monday, August 10, 2009

कला-साहित्य का सलवा जुडुम



अपनी आक्रामक कार्रवाईयों को चालू रखने वाला और जन-प्रतिरोध की आंशका से घिरा प्रभु वर्ग किस कदर जनतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ा रहा है, उसको देखने और समझने के लिए जरूरी नहीं कि कहा जाए हबीब के नाटक चरणदास चोर पर प्रतिबंध लग गया।
हमारे देहरादून के साथी मुहम्मद हम्माद फारूखी के शब्दों में कहूं तो 19 अगस्त से दिल्ली में आयोजित होने जा रहे एक कला आयोजन, जिसे दिल्ली की सरकार और कुछ आर्ट गैलरियां मिल कर रही है, में भी एक अघोषित किस्म का प्रतिबंध जारी है, जहां हुसेन की पेंटिगों को प्रदर्शन के लिए रखा ही नहीं जाना है। वे बताते है कि यह तथ्य है कि पिछले वर्ष आयोजित उस कार्यक्रम का यह एजेंडा ही था जिसके विरोध में सहमत ने एक अन्य आयोजन किया।


यह कहने की जरूरत नहीं कि महत्वाकांक्षाओं की लिप्सा में डूबे रचनाकारों की भी भूमिका भी यहां चिहि्नत की जानी चाहिए जो प्रभु वर्ग की चालाकियों में फंसकर अपने प्रतिरोधी चरित्र को भी संदिग्ध बनाती है। पुरुस्कारों का मायाजाल और निहित राजनैतिक उद्देश्यों के लिए आयोजित होने वाले प्रभु वर्ग के ऐसे आयोजनों की चमक से हतप्रभ उनकी उपस्थितियां, साहित्य का सलमा जुडूम रचने में कैसे सहायक हो रही है, यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए ? क्यों नहीं व्यापक एकता के दम पर ही ऐसी हिसंकता के प्रतिरोध को स्वर दिया जाना चाहिए ?

हबीब छत्तीसगढ़ की पहचान हैं। सतनामी संप्रदाय के बहाने चरणदास चोर की स्क्रिप्ट को बैन करना साहित्य का सलमा जुडुम ही है- मुहम्मद हम्माद फारूखी ।


सभी तस्वीरें इंटरनेट से साभार ली गई हैं। यदि किसी को आपत्ति हो तो दर्ज करें, जरूरी समझने पर हटा दी जाएंगी।

6 comments:

Anonymous said...

सचमुच खेदजनक है और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन ही है .

Ek ziddi dhun said...

ap ki baat theek hai. thos ranniti ke sath ladai ki jarurat hai. lalchi artists se kya ummeed karen

अजेय said...

ऐसा हर युग मे होता आया है.

हबीब जी को जीते जी इन तिकड़्मो का असर न हुआ. अब कोई उनका क्या बिगाड़ लेगा?

pranay krishna said...

जी ऎसा ही है. चाहता हूं कि सभी जनपक्षधर ताकतें इसका हस्ताक्षर अभियान से लेकर सड़कों पर प्रदर्शन तक, जहांजो संभव हो, उसके ज़रिए प्रतिरोध करें. प्रणय कृष्ण

Vineeta Yashsavi said...

yah to afsosjank hai...

Arun Aditya said...

सतनामी समाज बरसों से इस नाटक को देखता आ रहा है। इसमें कुछ सतनामी कलाकारों ने काम भी किया है। फिर अचानक आपत्ति क्यों हो गई। इसके पीछे क्या कारण हैं और कौन इसे संचालित कर रहा है, इन सब चीजों की गहराई में जाना होगा। सतनामी समाज को विश्वास में लेकर ही यह लड़ाई लडऩी चाहिए, ताकि छत्तीसगढ़ सरकार की विभाजनकारी नीति की पोल खोली जा सके। सतनामी समाज की आपत्ति की आड़ लेकर चरणदास चोर को प्रतिबंधित करना अगर जायज है तो क्या इसी तर्क का आधार पर ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताडऩा के अधिकारी जैसी चौपाई पर स्त्रियों और शूद्रों की आपत्ति के कारण रामचरित मानस पर भी प्रतिबंध लगाया जा सकता है? क्या छत्तीसगढ़ सरकार ऐसा करने की हिमाकत कर सकेगी?
2007 में एक साक्षात्कार के दौरान हबीब साहब ने कहा था-‘सवाल सिर्फ मेरे नाटकों का नहीं है। सवाल अभिव्यक्ति की आजादी का है। आप कोई फिल्म बनाते हैं, तो बवाल हो जाता है। पेंटिंग बनाएं तो बवाल। लेखक को भी लिखने से पहले दस बार सोचना पड़ता है कि इससे पता नहीं किसकी भावना आहत हो जाए और जान-आफत में। दुख की बात यह है कि सरकार इस सब पर या तो चुप है, या उन्मादियों के साथ खड़ी नजर आती है।'
उनकी बात एक बार फिर सही साबित हो गई है।