हालांकि सभ्य लोग, भले लोगए अच्छे लोगों की परिभाषा गढ़ती हिन्दी की कई कविताएं गिनाई जा सकती हैं लेकिन अरविन्द शर्मा की कविता में व्यंग्य का अनूठापन उसे अन्यों से भिन्न कर देता है। सभ्य लोगों की तस्वीर अरविन्द के भीतर उस कैमरे की आंख से जन्म लेती है जिसके जरिये वह जब वह किसी पेड़ को खास कोण से कैद करता था तो तैयार तस्वीर को देखता हुआ दर्शक चौंकता था एकबारगी। वह पेड़ों के न्यूड चित्र होते। चेहरे पर जबरदस्ती चिपकाई हुई मुस्कानों की तस्वीर उतारने की बजाय वह सड़कों, गलियों के हुजूम या किसी सामान्य से दिखते आब्जेक्ट को अपने कैमरे में कैछ करता रहा। बहुत मुश्किलों से मिन्नतें करते मित्रों के भी फोटो खींचने में वह ऐसा सतर्क रहता कि एक दिन अचानक से सामने तस्वीर होती और देखने वाला चौंकता और याद करने की कोशिश करता किस दिन खींचा है कम्बख्त ने- एक-एक भाव चेहरे पर उभर रहा है। वह काली-सफेद तस्वीर होती। "टिप-टॉप" की की कुर्सी पर बैठा एक अकेला व्यक्ति होता जबकि जब तस्वीर खींची गई होती वहां टंटों की भरमार मौजूद होती। देहरादून के रचनाकारों के अड्डे "टिप-टॉप" को आबाद करने वाला वह अकेला होलटाइमर था। कविता फोल्डर "संकेत" निकाला करता था, जिसका सम्पर्क पता "टिप-टॉप", चकराता रोड़, देहरादून ही दर्ज रहता। कहने वाले कह सकते हैं "टिप-टॉप" शहर की बदलती आबो-हवा के कारण उजड़ा लेकिन यह असलियत है कि दिन के 14 घंटे "टिप-टॉप" में बिताने वाले अरविन्द के अहमदाबाद चले जाने के बाद खाली वक्तों के सूनेपन ने "टिप-टॉप" के मालिक प्रदीप गुप्ता को उदासी से भर दिया। प्रस्तुत है अरविन्द शर्मा की कविता जो कविता फ़ोल्डर फ़िलहाल ५ के प्रष्ठों से साभार है। |
सभ्य लोग
अरविन्द शर्मा
सभ्य लोग देर तक
कोई नाम याद नहीं रखते
बिना गरज बात नहीं करते ।
घर का पता
फोन नम्बर
डायरी के इतने पृष्ठ रंग देते हैं कि
स्मृतियों के चिह्न दर्ज करने के लिए
कुछ बचता ही नहीं ।
सभ्य लोग कागज के फूलों से
बेहद लगाव रखते हैं
जो न कभी खिलते हैं और
न कभी मुरझाते हैं।
अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।
8 comments:
सभ्य लोग पारंगत अभिनेता होते हैं
जीने का अभिनय करते करते
इतना डूब जाते हैं
कि सब कुछ समझते हुए भी
अपने नाटक को असल ज़िन्दगी
मान लेते हैं
सभ्य लोग एक दिन पछ्ताते हैं
और समझ नहीं पाते
कि आखिर किस बात का
हो रहा है पछ्तावा...
सुन्दर पोस्ट. मुझे अपने एक क़रीबी दोस्त की याद हो आई. किसी दिन मैं उसे ये कविता भेंट करूंगा.
यह कविता पहली ही नज़र में प्रभावित करती है...कारण यह कि यह जो सवाल खड़े करती है वे बेहद स्पष्ट और समीचीन हैं. सभ्य समाज की सभ्यता की परतें खोलती इस कविता का शिल्प और भाषा दोनों ही उस पैशन को साफ़ दिखाती है जिस पर आपसे लम्बी बहस हो चुकी है.
यह न केवल अपने समय से सीधे भिड़ती है बल्कि एक अनकहा विकल्प भी. यह अनकहा ही इसे विशिष्ट बनाता है और वह विभाजक रेखा पार कराता है जो कविता और अच्छी कविता के बीच होती है.
arre yaar wo hai kahan, chalo uski khair khabar lete hain, koi tanta hai jis key pass Ahmedabad jane ka time ho ! kitna kharcha lagega, ek hafte key leyea hi sahi, us kambakth ko bulwana chahiyea
sunil kainthola
पिछले दिनों सुखद अहसास की तरह कोई सत्रह बरस बाद अरविंद का फोन आया था। उसने विविध भारती से किसी कार्यक्रम में मेरे ब्लाग से ली गयी रचना बायें हाथ से काम करने वालों का दिन सुनी थी और कई जगह फोन खटखटाने के बाद आखिर उसने मुझे खोज ही लिया बधाई देने के लिए। अरविंद से मेरी कई यादे अहमदाबाद और देहरादून की जुड़ी हैं। वह जितना अच्छा कवि है उससे बेहतर तस्वीरें खींचना चानता है। मेरी कई तस्वीरे खींची हैं उसने। जब देहरादून में था वो 1991 के आस पास तो टिपटाप के ऊपर कमरे में उसने मेरा कहानीपाठ रखवाया था। देहरादून का वही इकलौता कहानीपाठ याद आता है मुझे।
उसे छाप के तुमने अच्छा काम किया है विजय
काफ़ी कुछ कह जाती है...
यह छोटी सी कविता..
धन्यवाद.
सभ्य लोगों पर से परदा उठाती है, यह कविता। पैना व्यंग!
सच्चाई को उकेरती शानदार रचना।
सभ्य लोग देर तक
कोई नाम याद नहीं रखते
बिना गरज बात नहीं करते ।
सच्चाई को उकेरती रचना।
Post a Comment