विलुप्त होती भाषा बोलियों की चिन्ता जिस तरह सेअनुवादक यादवेन्द्र जी को दुनिया भर के रचनात्मक साहित्य तक जाने को मजबूर करती है, पत्रकार अरविंदशेखर की वैसी ही चिंताएं तथ्यात्मक आंकड़ों के रुप में दर्ज होते हुए हैं। प्रस्तुत है विलुप्त होती भाषा बोलियों पर अरविंदशेखर की रिपोर्ट ।
वक्तकीअंधीसुरंगमेंगुमहोजाएगीराजीबोली
अरविंदशेखर, देहरादून
किसीभीभाषाबोलीकेबचेरहनेकीगारंटीक्याहोतीहै, यहकिउसकीभावीपीढ़ीउसकोबोले।मगरउत्तराखंडकीसबसेअल्पसंख्यकराजीजनजातिकीराजीबोलीवक्तकीअंधीसुरंगमेंगुमहोजानेवालीहै।वजहसाफहैउसके 20 प्रतिशतबच्चेअपनीबोलीमेंबातचीतकरनाहीपसंदनहींकरतेक्योंकिवेसमझतेहैंकिअपनेपूर्वजोंकीबोलीकीबजायकुमाऊंनीबोलनाज्यादाफायदेमंदहै। 60 प्रतिशतलोगअपनीबोलीकेप्रतिबेपरवाहहैं, जबकिकेवल 20 प्रतिशतकोअपनीबोलीमेंबातकरनाभाताहै। 2001 कीजनगणनाकेमुताबिकभारतमेंराजीयावनरावतोंकीआबादीमहज 517 है।यहछोटी-सीखानाबदोशजनजातिनेपालकीसीमासेसटेउत्तराखंडकेपिथौरागढ़औरचंपावतजिलोंमेंरहतीहै।इसकेमहजपांचफीसदीलोगहीसाक्षरहैं।ऐसेमेंराजीबोलीकाकेवलमौखिकरूपजीवितहै।हालमेंहीदूनआईंलखनऊविश्वविद्यालयकीरीडरडा. कवितारस्तोगीकासर्वेक्षणइसबोलीकेअंधेरेभविष्यकीओरसंकेतकरताहै।डा.रस्तोगीकेसर्वेकेअनुसार 90 प्रतिशतराजियोंकामाननाथाकिराजीबोलनेसेकोईफायदानहीं, जबकि 60 फीसदीकोअपनीजबानसेकोईमतलबहीनहींथा। 26 से 35 सालके 65 फीसदीतो 16 से 25 सालके 60 फीसदीयुवाओंकोअपनीभाषामेंबोलनापसंदनहीं। 26 से 35 सालके 40 प्रतिशतलोगोंकोअपनीभाषासंस्कृतिपरकोईगर्वनहींतो, 16 से 35 सालके 80 फीसदीतो 36 से 45 सालके 70 फीसदीराजीनहींमानतेकिराजीबोलनाअच्छाहै।डा. रस्तोगीकेमुताबिकदरअसलराजीलोगोंमेंधीरे-धीरेअपनीभाषा-संस्कृतिकेप्रतिहीनताबोधघरकररहाहै।इसलिएवेधीरे-धीरेकुमाउंनीयाहिंदीपरनिर्भरहोतेजारहेहैं।राजीलोगअपनीबोलीका 84 फीसदीइस्तेमालधार्मिककर्मकांडकेदौरानहीकरतेहैं।बोलीकाघरोंमें 75 फीसदीतोदूसरेस्थानोंपरकेवल 30 फीसदीहीइस्तेमालहोताहै।राजीबोलीपरदेशमेंपहलीपीएचडीकरनेवालेभाषाविज्ञानीडा. शोभारामशर्माकाकहनाहैकिकिसीभीभाषाबोलीकेजिंदारहनेकेलिएउसकेबोलनेवालेसमाजकाउसकेप्रतिझुकावऔरउसकीभौतिकपरिस्थितियांजिम्मेदारहैं।उन्होंनेबतायाकेपिछलीकांग्रेससरकारनेराजीजनजातिपरसंकटभांपतेहुएजनजातिकेलोगोंकोज्यादासंतानपैदाकरनेपरपुरस्कृतकरनेऔरसुविधाएंमुहैयाकरानेकीघोषणाकीथीलेकिनउसकाक्याहुआपतानहीं।जिनभाषाओंमेंजीविकाकाजुगाड़नहींहोतावेमरजातीहैं।राजीबोलीकाखत्महोनादेशहीनहींदुनियाकीअपूरणीयक्षतिहोगा।सरकारकोचाहिएकिवहभाषाईविविधताकीरक्षाकेलिएराजीजनजातिऔरउनकीबोलीकेसंरक्षणकेलिएप्रयासकरें।
बोलियों को बचाकर ही भाषा को बचाया जा सकता है. कुछ इसी तरह की फिक्र इधर भी निमाड़ी-मालवी को लेकर है. इस दिशा में कुछ सार्थक प्रयास भी हो रहे हैं. लगातार बोलियों में समर्थ साहित्य की रचनाएं सामने आ रही है. इस दिशा में किसी बड़ी पहल की जरूरत है.
बहुत कठिन होगा इन बोलियों को बचा पाना. मुझे मेरी अपनी बोली की चिंता करते करते दशकों बीत गए. कुछ नही किया जा सकता. सिवा डॉक्युमेंटेशन के. ज़िन्दा तो नहीं बच पाएगीं ये बोलियाँ. मामला इमोशनल ज़रूर है, लेकिन इस का क्या हो कि हम अपनी बोलियों को ले कर उत्सुक ही नहीं हैं. ठीक भी है प्रयोजन क्या है?
तेज़ी से मेल्टिंग pot में बदलती दुनिया में सब कुछ एकमेक हो रहा है. ऐसे में बचेगा वही जो किसी न किसी आर्थिक हित से जुड़ा हो. संभव है किन्हीं अलग थलग कोनों में बचा रह जाय कुछ.
यह तो कुछ ऐसी बात है कि कोई गाड़ी किसी जीव को कुचल गई हो और वह सड़क पर मरणासन्न पड़ा हो. और हम दूसरी गाड़ी पर सवार, उस घायल प्राणी पर अपनी जजमेंट देते हुए आगे निकल जा रहे हैं. पत्ते हर पेड़ से झड़ते हैं, पेड़ ठूंठ हो जाते हैं, यह कुदरती तौर पर हो तो दिल पर चोट हल्की लगती है. अकाल मृत्यु का सदमा भारी होता है. सोचा जाए कि बोलियां और भाषाएं अकाल मृत्यु की शिकार हैं, उनका गला घोंटा जा रहा है या स्वाभाविक मौत मर रही हैं. पहाड़ी में बोलते हैं अग्गैं दौड़ पिच्छें चौड़. सभ्य नागरिक के तौर पे कहीं हम अपने अतीत से हाथ झाड़ने की जल्दबाजी तो नहीं कर रहे. -अनूप सेठी
सही कह रहे हैं अनूप भाई.ham sab emotional hain is baat ko le kar. लेकिन सॉल्युशन क्या है? # साहित्य रचें ? कितनी भाषाओं में? # संविधान मे मान्यता दिलवाएं?कितनी बोलिओं को? और उस से क्या होगा? हम जैसे लोग तमगे लटकाए फिरॆंगे.बोलियँ तब भी न बचेंगी. # मराठी भाषियों की तरह आन्दोलन(?) करें?
और बड़े भाई, मृत्यु अकाल कैसे हो सकती है? वह जब आ ही गयी तो सीधा सा मतलब है कि काल आ गया था. आप के बलॉग पे लिखा था मैं ने - गलियो,बज़ारों मे जो भाषाएं विकसित हो रही है, कितनी ज़िन्दा हैं! मैं तो उन्हे देख् कर विस्मित, हर्षित हूँ. अपनी प्यारी पटनी बोली का रोना रोता फिरूं ,इस से कहीं बह्तर ये होगा इन नई भाषाओं का इस्तेमाल करना सीखूँ.
विजय भाई, अपनी मातृ भाषा पटनी बोली के बारे बता दूँ कि आज की तरीख मे मेरी और मुझ से पिछली पीढ़ी में लग भग 10-12 हज़ार लोग आदिम भाषा को समझने वाले हैं. लेकिन इसे नियमित व्यवहार मे लाने वाले दो अढ़ाई हज़ार भी नहीं रह गए हैं.अगली पीढ़ी के बारे मेरा अनुमान है कि इस की हैसियत् कूट भाषा जैसी हो जाएगी. मतल्ब यह तभी बोली जाएगी, जब आप थर्ड पर्सन से बात शेयर नही करना चाहेंगे. तो डॉकुमेंटेशन ही न ? कि भईया हमारे टाईम मे ये चीज़ें हुआ करती थीं.और वह भाषाविदों का काम है , लगे हैं विद्वान लोग.(सरकारी मदद से!) बाकी संजय पते की बात कह रहे हैं. बड़ा महँगा काम है भाईयो , बोलियाँ ही क्यों, लोक मे बिखरी ऐसी बे शुमार नैमतों क खज़ाना बचा पाना.हम् से अफोर्ड न होगा. अपनी कविता मे भी कितना बचा लेंगे हम ? यहाँ स्वयम कविता को बचा पाना एक चुनौती है.
considering that hindi in itself is almost dying in some ways and looking at the quality of english we speak, english won't really come alive as a language. we'll probably hang mid-air with a half-baked language. now, if that is the scenario of the languages we use daily, who will think about some dialect in some corner of the country. at the same time, if we take the death of a language/dialect as a parameter reflecting the socio-politcal-economic negligence meted out to that given region; yes, perhaps then, we indeed should be worried.
bhasha ko bachaye rakhne ki ye chinta Anuj Johsi G ki lagbhag sabhi filmon me bhi apni upasthiti darshati hai, aur uska samadhan yahi hai ki boli bhasha ko bachaye rakhne ke liye uske documentation se jyada zaruri, use bolne valon ki hai, hum srinagar cross karte hi garhwali bhool jate hain, Tyuni vikasnagar Cross karte hi, Bangani- Jaunsari bhool jate hain, yahan tak ki gaon me pale badhe bachche bhi shahar me aane par apni mool bhasha ko bolne me asahaj mahsoos karte hain, maamla puri tarah se bhavnatmak hi hai, isliye ilaz bhi bhavnaon me hi chhipa hai, boli ke prati prem aur samman ka bhav! apne bachchon ko gaon zarur le jayen, unme gaon k prati prem aur samman jagayen aur unse apni boli me baat karen, varna aane vale samay me......Aaj jivit prateet hoti boliyan bhi kal vilupt hone se nahi bachengi.
7 comments:
बोलियों को बचाकर ही भाषा को बचाया जा सकता है. कुछ इसी तरह की फिक्र इधर भी निमाड़ी-मालवी को लेकर है. इस दिशा में कुछ सार्थक प्रयास भी हो रहे हैं. लगातार बोलियों में समर्थ साहित्य की रचनाएं सामने आ रही है. इस दिशा में किसी बड़ी पहल की जरूरत है.
बहुत कठिन होगा इन बोलियों को बचा पाना. मुझे मेरी अपनी बोली की चिंता करते करते दशकों बीत गए. कुछ नही किया जा सकता. सिवा डॉक्युमेंटेशन के. ज़िन्दा तो नहीं बच पाएगीं ये बोलियाँ. मामला इमोशनल ज़रूर है, लेकिन इस का क्या हो कि हम अपनी बोलियों को ले कर उत्सुक ही नहीं हैं. ठीक भी है प्रयोजन क्या है?
तेज़ी से मेल्टिंग pot में बदलती दुनिया में सब कुछ एकमेक हो रहा है. ऐसे में बचेगा वही जो किसी न किसी आर्थिक हित से जुड़ा हो.
संभव है किन्हीं अलग थलग कोनों में बचा रह जाय कुछ.
यह तो कुछ ऐसी बात है कि कोई गाड़ी किसी जीव को कुचल गई हो और वह सड़क पर मरणासन्न पड़ा हो. और हम दूसरी गाड़ी पर सवार, उस घायल प्राणी पर अपनी जजमेंट देते हुए आगे निकल जा रहे हैं. पत्ते हर पेड़ से झड़ते हैं, पेड़ ठूंठ हो जाते हैं, यह कुदरती तौर पर हो तो दिल पर चोट हल्की लगती है. अकाल मृत्यु का सदमा भारी होता है. सोचा जाए कि बोलियां और भाषाएं अकाल मृत्यु की शिकार हैं, उनका गला घोंटा जा रहा है या स्वाभाविक मौत मर रही हैं.
पहाड़ी में बोलते हैं अग्गैं दौड़ पिच्छें चौड़. सभ्य नागरिक के तौर पे कहीं हम अपने अतीत से हाथ झाड़ने की जल्दबाजी तो नहीं कर रहे. -अनूप सेठी
सही कह रहे हैं अनूप भाई.ham sab emotional hain is baat ko le kar. लेकिन सॉल्युशन क्या है?
# साहित्य रचें ? कितनी भाषाओं में?
# संविधान मे मान्यता दिलवाएं?कितनी बोलिओं को?
और उस से क्या होगा? हम जैसे लोग तमगे लटकाए फिरॆंगे.बोलियँ तब भी न बचेंगी.
# मराठी भाषियों की तरह आन्दोलन(?) करें?
और बड़े भाई, मृत्यु अकाल कैसे हो सकती है? वह जब आ ही गयी तो सीधा सा मतलब है कि काल आ गया था.
आप के बलॉग पे लिखा था मैं ने - गलियो,बज़ारों मे जो भाषाएं विकसित हो रही है, कितनी ज़िन्दा हैं! मैं तो उन्हे देख् कर विस्मित, हर्षित हूँ. अपनी प्यारी पटनी बोली का रोना रोता फिरूं ,इस से कहीं बह्तर ये होगा इन नई भाषाओं का इस्तेमाल करना सीखूँ.
विजय भाई, अपनी मातृ भाषा पटनी बोली के बारे बता दूँ कि आज की तरीख मे मेरी और मुझ से पिछली पीढ़ी में लग भग 10-12 हज़ार लोग आदिम भाषा को समझने वाले हैं. लेकिन इसे नियमित व्यवहार मे लाने वाले दो अढ़ाई हज़ार भी नहीं रह गए हैं.अगली पीढ़ी के बारे मेरा अनुमान है कि इस की हैसियत् कूट भाषा जैसी हो जाएगी. मतल्ब यह तभी बोली जाएगी, जब आप थर्ड पर्सन से बात शेयर नही करना चाहेंगे.
तो डॉकुमेंटेशन ही न ? कि भईया हमारे टाईम मे ये चीज़ें हुआ करती थीं.और वह भाषाविदों का काम है , लगे हैं विद्वान लोग.(सरकारी मदद से!)
बाकी संजय पते की बात कह रहे हैं. बड़ा महँगा काम है भाईयो , बोलियाँ ही क्यों, लोक मे बिखरी ऐसी बे शुमार नैमतों क खज़ाना बचा पाना.हम् से अफोर्ड न होगा.
अपनी कविता मे भी कितना बचा लेंगे हम ? यहाँ स्वयम कविता को बचा पाना एक चुनौती है.
considering that hindi in itself is almost dying in some ways and looking at the quality of english we speak, english won't really come alive as a language. we'll probably hang mid-air with a half-baked language. now, if that is the scenario of the languages we use daily, who will think about some dialect in some corner of the country.
at the same time, if we take the death of a language/dialect as a parameter reflecting the socio-politcal-economic negligence meted out to that given region; yes, perhaps then, we indeed should be worried.
bhasha ko bachaye rakhne ki ye chinta Anuj Johsi G ki lagbhag sabhi filmon me bhi apni upasthiti darshati hai, aur uska samadhan yahi hai ki boli bhasha ko bachaye rakhne ke liye uske documentation se jyada zaruri, use bolne valon ki hai, hum srinagar cross karte hi garhwali bhool jate hain, Tyuni vikasnagar Cross karte hi, Bangani- Jaunsari bhool jate hain, yahan tak ki gaon me pale badhe bachche bhi shahar me aane par apni mool bhasha ko bolne me asahaj mahsoos karte hain, maamla puri tarah se bhavnatmak hi hai, isliye ilaz bhi bhavnaon me hi chhipa hai, boli ke prati prem aur samman ka bhav! apne bachchon ko gaon zarur le jayen, unme gaon k prati prem aur samman jagayen aur unse apni boli me baat karen, varna aane vale samay me......Aaj jivit prateet hoti boliyan bhi kal vilupt hone se nahi bachengi.
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