Sunday, January 10, 2010

तू दिखयांदी जनि जुन्याली

उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के संघर्ष में सांस्कृतिक कर्मियों की भूमिका और भागीदारी को सुनिश्चित करने की जो कोशिशें दृष्टि देहरादून ने की उनके फलस्वरूप ही उत्तराखण्ड सांस्कृतिक मोर्चे के गठन की प्रक्रिया आगे बढ़ी थी लेकिन जिन कारणों से वह पहल अपने शुरूआती दौर में ही बिखरने लगी थी, उस पर कभी विस्तार से चर्चा करने का मन है। अभी प्रस्तुत है भाई सुनील कैंथोला का विश्लेषण जिसमें राज्य निर्माण के बाद देहरादून में मेले ठेलों की संस्कृति के रूप में फैलते गए प्रदूषण को पकड़ने की कोशिश की गई है। 
सुनील समाजिक सांस्कृतिक उद्यमी हैं, वर्तमान में Mountain Sheperds से जुड़े हैं।






सुनील कैंथोला

टोपियों के थोक विक्रेता

‘‘पहाड़ी आदमी को दो चीज की रक्षा करनी चाहिए - अपनी टोपी और अपने नाम की। टोपी की रक्षा वही कर सकेगा जिसके पास टोपी के नीचे सिर है और नाम की रक्षा वह, जिसके दिल में आग है।’’ ऐसा मेरा दागिस्तानके लेखक रसूल हमजातोब कहते हैं। चूंकि इस लेख में टोपियों के कारोबार पर टिप्पणी करने का प्रयास किया  गया है। अतः रसूल का जिक्र करना मैने उचित समझा। जहां तक इसे लिखने की प्रेरणा है तो राजभवनों की एय्याशियों से सम्बन्धित ताजा सुर्खियां इसका मुख्य कारण है। दिलचस्प बात यह है कि इन खबरों में नया कुछ भी नहीं। ऐसा तो इस लोकतंत्र में आजादी के बाद से ही चल रहा है। वो जब यहां राज करते थे तो उनकी पसंद के चर्चे हर एक की जुबां पर थे। वो जब लखनऊ में थे या फिर दिल्ली में, तब भी उन्होंने ऐसी ही लीलाएं रचाई होंगी। राज भवनों के बाहर संतरी बन्दूकें लेकर खड़े रहे होंगे,
दरअसल उत्तराखण्ड निर्माण के उपरांत प्रदेश में एक विशेष कल्चरल ब्यूरोकेसी का जन्म हुआ, जिसके प्रथम सचिव संस्कृतिकर्म को टेंडर और परियोजना प्रस्तावों के अंतर्गत स्थापित करना चाहते थे। उनके ही सदप्रयासों से तम्बू लगाने वालों और वैरायटी शो दिखाने वालों का धन्धा चमकने लगा। सचिव का प्रसाद उन्हीं को मिलता था, जो सहलाना जानते थे। चूंकि चारण/भाटों की जमात इस कार्य में सिद्ध थी अतः उन्हे भी प्रसाद मिला और कालांतर में प्रसाद वितरण की ऐजेंसियां भी मिल गई। प्रदेश में यत्र/तत्र मेले ही मेले लगने लगे। मूल मुद्दे हवा हो गए और बांदों  गीत (बांकी गोरी के रुप और उनकी मोहक अदा से भरे) पूरे पहाड़ में गूंजने लगे।
और इसी तरह देश की आजादी के 6 दशक गुजर गए। इस घटना को मैं इसी परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश कर रहा हूं। आजादी के बाद इस प्रजाति के नेतृत्व ने भी देश चलाया और इसे कहां ले गए, इस बारे में विचार तो किया ही जाना चाहिए। यदि ये उत्तर प्रदेश को ढंग से चलाते तो भला हमें पृथक पर्वतीय प्रदेश के लिए क्यों संघर्ष करना पड़ता। इससे पहले कि ये छोटा सा पर्वतीय राज्य अपने छोटे-छोटे सपने पूरे करने की दिशा में बढ़ता, इन्हें हमारे ऊपर थोप दिया गया और जैसे कि होना ही था देखते ही देखते हमारे बुग्यालों के फूलों को राज महलों तक पहुंचाने का तंत्र खड़ा हो गया। यहां मैं पुनः अपनी बात को दोहराना चाहूंगा कि यह कोई बड़ी बात नहीं थी। जिसने जिन्दगी भर यही किया हो और जो सिर्फ इसी चीज में पारंगत हो, वह उम्र के इस दौर में भला आपके हिसाब से काम कैसे करेगा? बहरहाल! इस पृष्ठभूमि के साथ, इन्हें फिलहाल यहीं छोड़ते हैं और लेख के मुख्य शीर्षक पर आते हैं।
मेरी तरह शायद कुछ और लोग भी मानते होंगे कि मात्र राज आश्रय पर चलने वाले संस्कृतकर्म की अंतिम परिणिति चारण और भाटों के रूप में ही होती है। चारण/भाटों की मूल प्रतिबद्धता राजतंत्र से होती है और संस्कृतिकर्मियों की अपनी जड़ों  से। जब तक सत्ता के केन्द्र, महलों के रूप में संचालित होंगे तब तक चारणों की रोजी-रोटी चलेती रहेगी या इसे यूं भी कह सकते हैं कि तब तक जनपक्षीय राजनीति और संस्कृतिकर्मी इन महलों को ध्वस्त करने में जुटे रहेंगे। इस जटिल समाज/नृवंशास्त्रीय गणित में संस्कृतिकर्मियों और चारण/भाटों का परस्पर आंकड़ा हमेशा 36 का ही रहेगा। यहां एक बात और है कि चारण/भाटों का चोला हमेशा संस्कृतिकर्मियों का ही होता है और इनकी असली पहचान के अवसर यदा-कदा ही आते हैं। ऐसा ही एक दुर्लभ अवसर उत्तराखण्डी कवि और गायक नरेन्द्र सिंह नेगी के नौछमी गीत के प्रचारित होने के उपरांत आया था। तब टोपियों के थोक विक्रेता अपना आपा खो बैठे थे।
दरअसल उत्तराखण्ड निर्माण के उपरांत प्रदेश में एक विशेष कल्चरल ब्यूरोकेसी का जन्म हुआ, जिसके प्रथम सचिव संस्कृतिकर्म को टेंडर और परियोजना प्रस्तावों के अंतर्गत स्थापित करना चाहते थे। उनके ही सदप्रयासों से तम्बू लगाने वालों और वैरायटी शो दिखाने वालों का धन्धा चमकने लगा। सचिव का प्रसाद उन्हीं को मिलता था, जो सहलाना जानते थे। चूंकि चारण/भाटों की जमात इस कार्य में सिद्ध थी अतः उन्हे भी प्रसाद मिला और कालांतर में प्रसाद वितरण की ऐजेंसियां भी मिल गई। प्रदेश में यत्र/तत्र मेले ही मेले लगने लगे। मूल मुद्दे हवा हो गए और बांदों (बांकी गोरी के मोहक अदा से भरे) गीत पूरे पहाड़ में गूंजने लगे।
ऐसा माहौल बना कि जैसे सब पा लिया गया है। यह चारणों के प्रमोशन का काल था। कलम हो या जुबां, सब पर सत्ता के प्रसाद का अंकुश था। ऐसे में सत्ता के गलियारों में चरम आनन्द के सुमन पनपे और सरकार के साहित्य एवं कला मंचों में जाकर खिले। यह लम्बी फेरहिस्त है। जब यह सब हो रहा था, तब टोपियों के विक्रेता अपनी प्रसाद एजेंसी के विस्तार के गठजोड़ में लीन थे। पिछले दस बरसों में यहां अजब तमाशे हुए। कोई साहित्यकार नेता जी को प्रदेश का पिता बनाने पर तुला है तो कोई खिचड़ी खाऊ ठेकेदार बिरादरी का झंडाबरदार है। कहीं बायोग्राफी लिखी जा रही है तो कोई इनके जीवन पर वृत्तचित्र बना रहा है। कुटिल केन्द्रीय राजनीति का अहसास तो उत्तराखंड को अपने जन्म के समय से ही हो गया था। जब उसके नामकरण से लेकर राजधानी तक के निर्णयों से उसे अलग रखा गया। जब देहरादून के परेड ग्राउण्ड में 9 नवम्बर 2000 को उसके वैधानिक जन्म की पार्टी में शामिल होने के अगले ही दिन उ.प्र.के मुख्यमंत्री ने मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों में से एक अनन्त कुमार सिंह पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने से मना कर दिया। तब धर्म से बड़ी जात हो गई थी।
ऐसे समय में, ऐसा नहीं कि भाई लोग जानते न थे। सभी, सब कुछ जानते समझते थे। पर मंचों का मोह, महलों से घनिष्ठता का नशा और विशेषकर प्रसाद वितरण व टोपी पहनाने के विशेषाधिकार ने उन्हें न नर, न नारी की श्रेणी में खड़ा कर दिया और जिसके लिए यह पदवी गढ़ी गई थी, वह अपनी कथित जनसेवा में आकण्ठ डूबा रहा। उसने इस हेतु विशेष ओ.एस.डी. भी नियुक्त कर डाले। जब नरेन्द्र सिंह नेगी के गीत ने इस आधुनिक मुहम्मद शाह रंगीले की सतत् मधु चंद्रिका का पर्दाफाश किया तो गजब हो गया। कानूनी और गैर कानूनी शब्द जनता के लिए गढ़े गए हैं, सत्ता उनसे ऊपर है। वह सेंसर बोर्ड से लेकर मसूरी जैसे छोटे शहर तक अपनी धौंस जमा सकती है। उसने ऐसा ही किया। इस अभियान में वे सब भी शामिल हो गए, जो नरेन्द्र सिंह नेगी के रचनात्मक युग के खात्मे का बरसों से इन्तजार कर रहे थे। उनके पास इसके लिए खिसियाहट भरे अपने तर्क थे। परन्तु इसके मूल में उस विराट मधुचन्द्रिका में खलल पड़ने का आक्रोश था, जो जन संघर्षो से उपजे इस राज्य के शीर्ष में मनाई जा रही थी।
नौछमी नारायण का एक दूसरा पहलू भी है कि आखिर एक गीत में इतनी ताकत कि भोगतंत्र चरमरा उठे और यह भी कि यदि आरंभ से ही ऐसे गीतों की परंपरा होती तो संभवतः आज राज्य की दशा और दिशा कुछ और ही होती। इसी से जुड़ा एक और सवाल कि उत्तराखण्ड आन्दोलन में संस्कृतिकर्मियों की सशक्त भूमिका के उपरांत भी ऐसा क्यों न हो पाया? राज्य स्थापना के उपरांत इस सन्दर्भ में संस्कृतिकर्मियों के बीच यह चर्चा भी हुई थी कि अब राज्य के लाभार्थी बनें या इसके दिशासूचक का जिम्मा लें। जो लाभार्थी बनना चाहते थे, उनमे एका रहा और बाकी गैर रचनात्मक बहसों का शिकार हो गए। यहीं से टोपियों का धन्धा चल निकला। ये सब भी अपने ही लोग हैं, कोई पराये नहीं। सच कहूं तो ये बेईमान भी नहीं। सत्ता का मायाजाल अच्छों-अच्छों को सम्मोहित कर देता है, ये उसी का शिकार हुए। परन्तु इतिहास बड़ा ही निरपेक्ष और निर्मम है। इतिहास के गर्भ में यह सवाल इनके लिए सदैव जीवित रहेगा कि जब एक गीत इस लोकतंत्र के छद्म आवरण को गिरा रहा था, तब आपके टोपी-टोपी के खेल और प्रेमचंद के शतंरज के खिलाड़ियों में कितनी समानता/भिन्नता थी। मुझे लगता है यहां पाश की निम्न पंक्तियों को रखना कोई अभद्रता न होगी
‘‘सबसे खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए’’
अब पाश़ के बाद और कहने को यूं बचा ही क्या है, पर अभी हाल ही में केन्द्रीय गृह मंत्री द्वारा भारत में माओवाद को नेस्तनाबूद करने के लिए साठ हजार सैनिक/अर्धसैनिक बलों की तैनाती सम्बन्धी बयानों से मुझे झुरझुरी आने लगती है। कहीं ऐसा भी पढ़ा था कि आंध्र प्रदेश के राजभवन की रंगरेलियों का भांडा तब फूटा, जब माल सप्लाई के एवज में खनन का पट्टा दिए जाने का वादा रंगीले नवाब पूरा न कर पाये। क्या ये खनन पट्टे उन्ही  क्षेत्रों में आवंटित होने थे जहां माओवादियों को नेस्तनाबूद करने की मुहिम शुरू की जा रही है? न जाने कितने रंगीलों ने, कितने सप्लाईयरों को, न जाने किस की कीमत पर, जाने क्या-क्या देने का वादा कर रखा हो! नारायण-नरायण!!





8 comments:

अजेय said...

महत्वपूर्ण आलेख. उत्तराखंड आन्दोलन की कुछ और सच्चाईयाँ उजागर हुईं. इतना तो मालूम ही था कि वास्तविक उद्देश्य पूरे नहीं हुए . कैसे, इस लेख से जाना. सुनील जी को आगे भी प्रस्तुत करें.

शिरीष कुमार मौर्य said...

मेरा पूरा बचपन कुछ शानदार गढ़वाली लोकगीतों के बीच बीता और उन्होंने आने वाले जीवन में मेरे नैतिक जीवन मूल्यों और कवि संस्कारों की दिशा तय की है. इनमें भरपूर प्रेम था, रिश्ते थे और दुखों के सघनतम बखान से शुरू होने वाली एक अनिवार्य लड़ाई भी. सुनील भाई का आलेख अत्यंत विचारवान और सही को बचा लेने की छटपटाहट से भरा हुआ है. उन्हें मेरा शुक्रिया. और तुम्हें भी प्यारे विजय भाई.

अनूप शुक्ल said...

बहुत कुछ पता लगा इस पोस्ट से। सुन्दर आलेख।

arvind said...

आज उत्तराखंड में सच कहना इतना कठिन हो गया है की क्या कहें
मुझे बस इतना कहना है वह भी बहादुर शाह जफ़र के शब्दों में
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी.
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी.

Anonymous said...
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Dr. Dinesh Sati said...

I can’t print my comments in Hindi but I wish to congratulate dr. kainthola for boldly bringing forth the cultural development (cultural erosion!) vis-à-vis overall development scenario in Uttarakhand since the state came in to existence. I believe, like many other fellow Uttarakhandies that we never imagined of a state with such a sorry state of affairs for which we are ashamed, but this is the reality. Unfortunately those who were struggling for separate state, they were separated by the state and those opposing the movement became the rulers (in successive governments). I strongly feel that somewhere in between the inception and birth of the state a new front was getting shape just to grab opportunities if statehood is granted! So, those who dreamed their own land of distinct identity were marginalized by that time and the untimed birth of the state could not get the cuddle of nurturing hands at early stage of its development. The big question now is - Will it be our own Uttarakhand sometimes! Narayan-Narayan!!!

रोहित said...

bahut khoob

SANDEEP PANWAR said...

जानकारी देने का आभार