जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य सुधीर सुमन के हवाले से जारी यह प्रेस बयान प्रतिरोध की एक जरूरी पहल है, इसी आशय के साथ इसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
समसुंग कंपनी और साहित्य अकादमी की ओर से दिया जा रहा टैगोर साहित्य पुरस्कार साहित्य अकादमी की स्वायत्ता, भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा और टैगोर की विरासत के ऊपर एक हमला है। दे्श की तमाम भाषाओं के साहित्यकारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों को इस प्रवृत्ति का सामूहिक तौर पर प्रतिरोध करना चाहिए--- साहित्य अकादमी को सत्तापरस्ती और पूंजीपरस्ती से मुक्त किया जाना चाहिए।
जिस तरह साहित्य अकादमी ने लेखकों का नाम चयन करके पुरस्कार के लिए समसुंग के पास भेजा है वह भारतीय साहित्यकारों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला कृत्य है और इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। क्या अब इस दे्श की साहित्य अकादमी समसुंग जैसी कंपनियों के सांस्कृतिक एजेंट की भूमिका निभाएगी? यह खुद अकादमी के संविधान का उपहास उड़ाने जैसा है।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिए जाने वाला यह पुरस्कार स्वाधीनता और जनता के लिए प्रतिबद्ध इस दे्श की लंबी और बेमिसाल साहित्यिक परंपरा पर कुठाराघात के समान है। बेशक दे्श की ज्यादातर पार्टियां और उनकी सरकारें साम्राज्यवादपरस्ती और निजीकरण की राह पर निर्बंध तरीके से चल रही हैं। दे्शी पूंजीपति घराने भी साहित्य-संस्कृति को पुरस्कारों और सुविधाओं के जरिए अपना चेरी बना लेने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, बावजूद इसके दे्श के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों की बहुत बड़ी तादाद अपनी रचनाओं में इनका विरोध ही करती रही है। साहित्य अकादमी और समसुंग के पुरस्कारों के जरिए इस विरोध को ही अगूंठा दिखाने का उपहासजनक प्रयास किया जा रहा है और इसके लिए समय भी सोच समझकर चुना गया है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पूरे देश को एक तरह का संकेत देने की तरह है कि जैसी साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी अर्थनीति पिछले दो दशक में इस दे्श पर लाद दी गई है, वैसे ही मूल्यों को साहित्य में प्रश्रय दिया जाएगा और साहित्य अकादमी जैसी अकादमियां इसका माध्यम बनेंगी। बे्शक साहित्य अकादमी सरकारी अनुदान से चलती है, मगर इसी कारण उसे सरकारी संस्कृति का प्रचार संस्थान बनने नहीं दिए जा सकता। जिस पैसे के जरिए यह अकादमी चलती है वह पैसा जनता के खून-पसीने का है और इसीलिए उस संस्था का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जशन का ठेकेदारी ले लेना आपत्तिजनक है। इस पुरस्कार का विरोध करना साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ इस दे्श की जनता का भी फर्ज है।
साहित्य अकादमी को और भी स्वायत्त बनाने और सही मायने में एक लोकतांत्रिक दे्श की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी बनाने की जरूरत है। जिस शर्मनाक ढंग से समसुंग के समक्ष समर्पण किया गया है उसे देखते हुए सवाल खड़ा होता है कि क्या साहित्य अकादमी की विभिन्न समितियों में जो लेखक हैं, वे इस हद तक पूंजीपरस्त हो चुके हैं। उनका यह विवेकहीन निर्णय इस जरूरत को सामने लाता है कि अकादमी को लोकतांत्रिक बनाया जाए और उसे सत्तापरस्ती से मुक्त किया जाए।
टैगोर ने साहित्य-संस्कृति, शिक्षा और विचार को जनता से काटकर इस तरह समसुंग जैसी किसी कंपनी की सेवा में लगाने का काम नहीं किया था। जबकि आज साहित्य अकादमी ठीक इसके विपरीत आचरण कर रही है। यह टैगोर की विरासत के साथ भी दुर्व्यवहार है। देश के तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और लोकतंत्रपसंद-आजादीपसंद जनमत का ख्याल करते हुए पुरस्कृत लेखकों को भी एक बार जरूर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे किन मूल्यों के साथ खड़े हो रहे हैं और इससे वे किनका भला कर रहे हैं। साहित्य मूल्यों और आदर्शों का क्षेत्र है। बेहतर हो कि वे उसके पतन का वाहक न बनें और इस पुरस्कार को ठुकराकर एक मिसाल कायम करें। 25 जनवरी को पुरस्कार समारोह के वक्त अपराह्न 3 बजे जन संस्कृति मंच के सदस्यों समेत दिल्ली के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी ओबेराय होटल के सामने जो शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होना चाहिए।
6 comments:
बेकार का प्रलाप कर रहे हो आप लोग। क्या साहित्य और साहित्य के लिये दिये जा रहे पुरस्कार केवल वामपंथी लेखकों की ठेकेदारी है? हिन्दी के हर प्रकार के लेखन को प्लेटफार्म और प्रोत्साहन मिलना चाहिये और् अच्छा है कि उद्योग जगत इस प्रोत्साहन में आगे आ रहा है।
ओह!! मै तो भूल ही गई। कहीं एसा तो नहीं कि इस बार पुरस्कार में कुछ वामपंथी ठेकेदार छूट गये?
भिया, क्यों बेकार छाती पीट रहे हो? कामरेडों ने 'गैंग' बनाकर साहित्य की ऐसी-तैसी कर दी है। वे एक-दूसरे की पीठ ठोकते रहते हैं और घटिया, उबाऊ, बासी साहित्य (नहीं, कचड़ा) परोसते रहते हैं। और गैंग बनाकर 'पुरस्कार' लूटले रहे हैं।
क्या विचार धारा को पुरस्कार की ज़रूरत पड़ सकती है , विजय भाई ?
kya kaha jaye jab bhi koii is tarh ke sawaal khada karta hai to issue ke bajaay doosree baaton ko lekar bahas shuru ho jaate hai. agar kuchh bhi bura nahi hai to nachiye nange hokar. varna to jo vakaii pratibaddh hain,unhen puraskaron kee jarurat nahi hoti. Sanghi tuchhon ki baat ka to khair kya jwaab diya jaay
सेमसंग को पुरस्कार देने के लिए साहित्य अकादमी की क्यों आवश्यकता पड़ गई। वह स्वतंत्र रूप से अथवा किसी संस्था को बना कर भी यह सब कर सकता था। यह तो कुछ दिनों में ही पता लग जाएगा कि पुरस्कार का मंतव्य और हश्र क्या होता है।
सैमसंग खूब बांटे पुरस्कार किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। लोग पुरस्कारों से नहीं लेखक की रचनाओँ से मूल्यांकन करते हैं। और पुरस्कारों का मूल्यांकन भी करते हैं। यह पुरस्कार देने से क्या साहित्य अकादमी गौरवान्वित हो सकेगी?
विरोध प्रस्ताव उचित है।
देखिये कैसे लार टपका रहे हैं ये गैर वामपंथी साहित्यकार होने का दावा करने वाले लोग। अब अगर सैमसंग कहेगा तो ये उसके उत्पादों को हाथ में ले कूल्हे मटकाते स्वरचित ज़िंगल भी गायेंगे। जितने पुरस्कार ये संघी तुक्कड़ और जुगाड़ु बांटते हैं उसकी तुलना किसी से की ही नहीं जा सकती। संत ऐसे बनते हैं मानों बीजेपी के सत्ता में आते ही इन्होंने पद-पुरस्कार के छीछ्ड़ों के लिये चरण वंदनायें ही ना की हों। मुशायरों और कवि सम्मेलनों में कैसी राजनीति चलती है और कितने जुगाड़ लगाये जाते हैं-- कौन नहीं जानता? और अपनी लोकप्रियता का दावा करने वाले इन लोगों कि किताबें कितनी बिकती हैं यह पूछा जाना चाहिये। रहा सवाल ताज़ेपन का तो भैया अभी तो दिनकर की नक़ल तक से आगे बढ़ते नहीं दिखते भाई लोग।
मैने पहले भी लिखा था और अब भी मुतमईन हूं कि यह पुरस्कार जनप्रतिबद्ध और लोलुप लेखकों के बीच की विभाजन रेखा को स्पष्ट करेगा।
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