प्रेम
जब प्रेम तुम्हें बुलाये, उसके साथ जाओ,
चाहे उसका मार्ग कठोर और बेहद कठिन ही क्यों न हो।
और जब उसके पंख तुम्हें अपने में समेट लें ,उनमें समा जाओ.
हालांकि उसके पंखों में छिपी तलवार तुम्हें घायल कर सकती है।
और जब वो तुमसे मुखातिब हो , उस पर विश्वास करो
चाहे उसकी आवाज़ तुम्हारे सपनों को ऐसे बिखेर क्यों न दे
जैसे उत्तरी हवा बागीचे को बर्बाद कर देती है।
यदि प्रेम तुम्हे ताज पहनाता है तो यह तुम्हें सलीब पर भी लटकायेगा, यदि यह तुम्हें बड़ा करता है तो यह तुम्हारी काट-छांट भी करेगा।
जैसे यह तुम्हारी ऊँचाई तक पहुँच कर सूरज में कांप रही नर्म शाखाओं को सहलाता है,
वैसे ही यह तुम्हारी जड़ों तक उतर कर उन्हें ज़मीन से हिला भी देता है.
यह तुम्हें मक्के की पूलियों की तरह अपने में समेटता है,
निरावरण कर देने के लिये तुम्हें कूटता है।
यह तुम्हें तुम्हारे छिलकों से आज़ाद करता है।
यह तुम्हें पीसता है उजलेपन के लिये
यह तुम्हें तब तक गूंथता है जब तक तुम इकतार नहीं हो जाते।
और तब यह तुम्हें उसकी पवित्र आग में झोंक देगा, ताकि तुम भगवान की पवित्र दावत में उसकी पवित्र रोटी बनो।
यह सभी चीजें तुम्हें प्रेम देंगी ताकि तुम अपने दिल के राज़ जान सको, और यह ज्ञान ज़िन्दगी के दिल का टुकड़ा बनेगा।
पर यदि तुम अपने डर में सिर्फ प्रेम की शांति और प्रेम का सुख तलाशोगे,
तब फिर तुम्हारे लिये अच्छा होगा कि तुम अपनी नग्नता को ढक लो और प्यार की पिसने वाली ज़मीन से निकल जाओ।
मौसम-विहीन संसार में तुम हँसोगे, पर तुम्हारी सम्पूर्ण हंसी नहीं , और रोओगे, पर तुम्हारे सम्पूर्ण आंसू नहीं
प्रेम स्वयं के सिवा कुछ नहीं देगा और कुछ नहीं लेगा स्वयं से।
प्रेम नियंत्रण नहीं रखता न ही इसे नियंत्रित किया जा सकता है;
प्रेम के लिये प्रेम में होना काफी है।
जब तुम प्रेम में होगे तब तुम्हें नहीं कहना चाहिये ‘भगवान मेरे दिल में है’ तुम्हें कहना चाहिये ‘मैं भगवान के दिल में हूँ।’
और यह नहीं सोचो की तुम सीधा प्रेम तक जा सकते हो, प्रेम के लिये, यदि वह तुम्हें अमोल पायेगा तो सीधा तुम तक आ जायेगा।
प्रेम की स्वयं को सम्पूर्ण करने के सिवा कोई ख्वाहिश नहीं होती।
पर यदि तुम प्रेम करते हो और ख़्वाहिश करना जरूरी हो तो, इन्हें अपनी ख़्वाहिश बनाओ:
पिघलो और एक छोटी सी नदी की तरह बहो जो रात को अपना संगीत सुनाती है।
बहुत अधिक प्रेम का दर्द जानो।
स्वयं के प्रेम की समझ से स्वयं को घायल करो ;
और खुशी-खुशी अपने को लहूलुहान कर दो।
सुबह उठो खुले दिल के साथ और एक और अच्छे दिन के लिये शुक्रिया कहो ;
शाम को आराम करते हुए और प्रेम के आनन्द का ध्यान करते हुए ;
अहसान के साथ घर वापस लौटो ;
और फिर सो जाओ एक प्रार्थना के साथ उन प्रियजनों के लिये जो तुम्हारे दिलों में रहते हैं और अपने होंठों पर प्रेम का गाना गाते हुए।
अनुवाद: विनीता यशस्वी
10 comments:
सुन्दर लेखन।
बढ़िया प्रस्तुति...
अच्छी कविता।
युद्ध और संघर्ष पर ब्रेख्त की कविताएँ आम तौर पर देखने में आती हैं, लेकिन प्रेम पर रची यह कविता नया पक्ष उद्घाटित करती है। सुन्दर अनुवाद की बढ़िया प्रस्तुति।
कितनी व्यख्याये है प्रेम की .....फिर भी अब तक रहस्यमयी है ......
आपके ब्लॉग पर यदा- कदा पहुंचती रहती हूँ | आपकी कविता पढ़ी, बेहद संवेदन शील कविता ! धन सिंह राणा की चिट्ठी मन दुखाती है| जिनको संबोधित है उन पर असर देखने को मिले तो बात बने |
प्रेम पर ब्रेख्त की कविता पढ़ी | कितनी ही व्याख्याए करें , प्रेम पर लिखना अधूरा ही रहेगा |
सादर
इला
ये कविता हमेशा धैर्य बंधाती है ..जब भी पढ़ो
@परमेन्द्र सिंह
दरसल यह कविता खलील जिब्रान की है.गलती से पहले ब्रेख्त का नाम चला गया था.इसके लिये खेद है
very sensibal n touching poem.....
यदि प्रेम तुम्हे ताज पहनाता है तो यह तुम्हें सलीब पर भी लटकायेगा, यदि यह तुम्हें बड़ा करता है तो यह तुम्हारी काट-छांट भी करेगा
बहुत ही बेहतरीन
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