बदलते श्रम संबंधों ने सामाजिक, सांस्कृतिक बुनावट के जिस ताने बाने को बदलना शुरू किया, उसका बखान करना जब काव्य भाषा में संभव न रहा तो गद्य साहित्य का उदय हुआ। कहानी और उपन्यासों की विस्तार लेती दुनिया उसका साक्ष्य होती गई। लोक संस्कृतियों के संवाहक गीत, नृत्य और दूसरे कला माध्यम हाशिए पर जाने लगे। न जाने कितने ही विलुप्त भी हो चुके हैं। सभ्यता, संस्कृति के इस इतिहास के अध्याय के संरक्षण और विलुप्ति को खोजने की कार्रवाई उसका ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण है। नन्द किशोर हटवाल की हाल में प्राकशित पुस्तक चांचड़ी झमाको पहाड़ी संस्कृति की ऐसी ही एक गीत विधा के भौगोलिक क्षेत्र विशेष की विभिन्नता के बाद भी एक रूपता को स्थापित करती मान्यताओं की स्थापना का कार्यभार धारण करती है। उत्त्राखण्ड के जनमानस को उद्देविलत करते उसके विभिन्न कलारूपों को एकत्रित कर उनका संग्रहण और विश्लेषण चांचड़ी झमाको में हुआ है। यूं स्वभाविक विकास के चलते अप्रसांगिक हो जाने वाली किसी भी वस्तु, स्थान या किसी भी तरह का कलारूप यदि चिन्ता के दायरे में हो तो उसे नॉस्टेलजिक होना कहा जा सकता है। लेकिन औपनिवेशिक दासता की आरोपित स्थितियों के कारण विलृप्त होती गयी सभ्यता, संस्कृति या जातीयता का दस्तावेजीकरण इतिहास की गहरी पर्तों की तहकीकात के लिए एक साक्ष्य होती है। नन्द किशोर हटवाल की पुस्तक के बहाने चांचड़ी लोक गीतों पर बात करना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसके तई लोक संस्कृति के नाम पर जारी उस भौंडेपन की मुहिम का खुलासा स्वंय हो जाता है जो विपुल बाजार का रास्ता बनाती हुई है।
श्रमजीवी और शिल्पी समुदाय की रचनात्मक क्रियाशीलता ने चांचड़ी की लोक परम्परा में एक सांस्कृतिक परिदृश्य को रचा है। चांचड़ी उत्तराखण्ड की एक ऐसी लोक विधा है जो उत्तराखण्ड के हर गाँव में गायी जाती रही है। स्थान और भाषा विशेष की भिन्नता के बावजूद उसका रूप एकसार ही है। उत्तराखण्ड में इस गीत नृत्य को चांचरी, झुमेला, दांकुड़ी, थड्या, ज्वौड़, हाथजोड़ी, न्यौला, खेल, ठुलखेल, भ्वैनी, रासौं, तांदी, छोपती, हारूल, नाटी, झेंता आदि कई नामों से जाना जाता है। पुस्तक में ये सभी गीतरूप संग्रहित है। उनसे गुजरते हुए ही देख सकते हैं कि इनकी एकरूपता उस इतिहास से भी टकराती है जिसकी अवधारणा में उत्तराखण्ड का जनमानस देश भर के किन्हीं आर्थिक समृद्ध स्थानों से विस्थापित होकर निवासित हुआ बताया जाता रहा है। तथ्यों की नजरअंदाजी के चलते एवं औपनिवेशिक शिक्षा की एकांगी समझ ने स्थान विशेष के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और जीवन दर्शन पर हमेशा पर्दा डाले रखा। बल्कि विभ्रम को भी तार्किक आधारों पर पुष्ट करने के लिए बुद्धिजीवियों की ऐसी जमात पैदा किया जिसने जाने या अनजाने वजह से साम्प्रदायिक विचार की घ्रणित व्याख्या का ऐसा पाठ प्रस्तुत करना ही अपना कर्तव्य समझा जो स्थानीयता के विचार को कुचलने वाला साबित हुआ है। मुगलकाल के दौर में विस्थापन की कथा का ताना बाना एक गैर ऐतिहासिक विश्लेषण है। जातिगत समानता की उचित व्याख्या के अभाव में एक विकृत ऐतिहासिक अवधारणा ने जन्म लिया है। यही वजह है कि पहाड़ों से गुलामी के दौर में जंगलों पर कब्जे के साथ हुए पलायन के आरम्भिक समय की पड़ताल करने की चूक भी हुई है और जंगल और कृषिभूमि पर कब्जा करने वाले औपनिवेशिक शासन को प्रगतिशील मानने वाली सैद्धान्तिकी ने औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों और उससे पूर्व के सामंती जकड़न में फंसे समाज का ठोस मूल्यांकन करना भी उचित नहीं समझा। जिसका हश्र पहाड़ी समाज के पारम्परिक उद्योग को ध्वस्त करती, कृषि और प्ाशुपालन व्यवसाय को चौपट करती व्ययस्था की लठैती करने में हुआ। एक हद तक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का तंत्र मनिआर्डर अर्थव्यवस्था में तब्दील हुआ। चातुर्वणिय व्यवस्था के प्रवक्ताओं ने पहाड़ की द्विवर्णी समाज व्यवस्था (डोम और बिठ्) का विश्लेषण करने की बजाय ऐसे तर्कां को प्रस्तुत करना शुरु किया जिसमें पहाड़ों पर निवास करती हर जाति किसी न किसी मैदानी इलाके से जान बचाकर भागी हुई दिखायी देती है। बावजूद अपने तर्कों के चातुर्वणीय व्यवस्था के चारों वर्णों- ब्राहमण, क्षत्रीय, वैश्य और शुद्र को स्पष्ट तरह से आज तक चिन्हित कर पाने में असमर्थ है। वैश्य वर्ण तो सिरे से ही गायब है। आखिर ऐसा क्यो? तिब्बत और उससे लगते इलाकों में रहने वाले भेड़ चरवाहे, नमक, सुहागा और आभूषण आदि का व्यापार करने वाले सिर्फ शौका व्यापारी ही बने रहे या भोटिया कहलाये। शंकराचार्य के हिन्दुकरण अभियान के दौरान छिटके गये जाति व्यवस्था के बीज को वो खाद-पानी नहीं मिल पाया जो उसे मैदानी इलाकों-सा वट वृक्ष बना सकता था और शोषण के अमानवीय तंत्र को उतना ही शक्तिशाली बना सकता। कृषि भूमि जो छोटी जोतों और सीढ़ीनुमा खेतों में विभाजित थी इसका मुख्य कारण रही। बेशक हल लगाने वाले, राज-मिस्त्री का काम करने वाले, कपड़े सिलने वाले और ऐसे ही श्रमजीवी काका, बोडा कहलाये जाते रहे पर उनकी पहचान के लिए एक ही शब्द मौजूद रहा- डोम।
नन्द किशोर हटवाल की पुस्तक में ये सारे सवालों बेशक न उठे हों पर उत्तराखएड के इतिहास की बहस को आगे बढ़ाने में उनकी एकरूपता एक आधार बन रही है।
श्रमजीवी और शिल्पी समुदाय की रचनात्मक क्रियाशीलता ने चांचड़ी की लोक परम्परा में एक सांस्कृतिक परिदृश्य को रचा है। चांचड़ी उत्तराखण्ड की एक ऐसी लोक विधा है जो उत्तराखण्ड के हर गाँव में गायी जाती रही है। स्थान और भाषा विशेष की भिन्नता के बावजूद उसका रूप एकसार ही है। उत्तराखण्ड में इस गीत नृत्य को चांचरी, झुमेला, दांकुड़ी, थड्या, ज्वौड़, हाथजोड़ी, न्यौला, खेल, ठुलखेल, भ्वैनी, रासौं, तांदी, छोपती, हारूल, नाटी, झेंता आदि कई नामों से जाना जाता है। पुस्तक में ये सभी गीतरूप संग्रहित है। उनसे गुजरते हुए ही देख सकते हैं कि इनकी एकरूपता उस इतिहास से भी टकराती है जिसकी अवधारणा में उत्तराखण्ड का जनमानस देश भर के किन्हीं आर्थिक समृद्ध स्थानों से विस्थापित होकर निवासित हुआ बताया जाता रहा है। तथ्यों की नजरअंदाजी के चलते एवं औपनिवेशिक शिक्षा की एकांगी समझ ने स्थान विशेष के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और जीवन दर्शन पर हमेशा पर्दा डाले रखा। बल्कि विभ्रम को भी तार्किक आधारों पर पुष्ट करने के लिए बुद्धिजीवियों की ऐसी जमात पैदा किया जिसने जाने या अनजाने वजह से साम्प्रदायिक विचार की घ्रणित व्याख्या का ऐसा पाठ प्रस्तुत करना ही अपना कर्तव्य समझा जो स्थानीयता के विचार को कुचलने वाला साबित हुआ है। मुगलकाल के दौर में विस्थापन की कथा का ताना बाना एक गैर ऐतिहासिक विश्लेषण है। जातिगत समानता की उचित व्याख्या के अभाव में एक विकृत ऐतिहासिक अवधारणा ने जन्म लिया है। यही वजह है कि पहाड़ों से गुलामी के दौर में जंगलों पर कब्जे के साथ हुए पलायन के आरम्भिक समय की पड़ताल करने की चूक भी हुई है और जंगल और कृषिभूमि पर कब्जा करने वाले औपनिवेशिक शासन को प्रगतिशील मानने वाली सैद्धान्तिकी ने औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों और उससे पूर्व के सामंती जकड़न में फंसे समाज का ठोस मूल्यांकन करना भी उचित नहीं समझा। जिसका हश्र पहाड़ी समाज के पारम्परिक उद्योग को ध्वस्त करती, कृषि और प्ाशुपालन व्यवसाय को चौपट करती व्ययस्था की लठैती करने में हुआ। एक हद तक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का तंत्र मनिआर्डर अर्थव्यवस्था में तब्दील हुआ। चातुर्वणिय व्यवस्था के प्रवक्ताओं ने पहाड़ की द्विवर्णी समाज व्यवस्था (डोम और बिठ्) का विश्लेषण करने की बजाय ऐसे तर्कां को प्रस्तुत करना शुरु किया जिसमें पहाड़ों पर निवास करती हर जाति किसी न किसी मैदानी इलाके से जान बचाकर भागी हुई दिखायी देती है। बावजूद अपने तर्कों के चातुर्वणीय व्यवस्था के चारों वर्णों- ब्राहमण, क्षत्रीय, वैश्य और शुद्र को स्पष्ट तरह से आज तक चिन्हित कर पाने में असमर्थ है। वैश्य वर्ण तो सिरे से ही गायब है। आखिर ऐसा क्यो? तिब्बत और उससे लगते इलाकों में रहने वाले भेड़ चरवाहे, नमक, सुहागा और आभूषण आदि का व्यापार करने वाले सिर्फ शौका व्यापारी ही बने रहे या भोटिया कहलाये। शंकराचार्य के हिन्दुकरण अभियान के दौरान छिटके गये जाति व्यवस्था के बीज को वो खाद-पानी नहीं मिल पाया जो उसे मैदानी इलाकों-सा वट वृक्ष बना सकता था और शोषण के अमानवीय तंत्र को उतना ही शक्तिशाली बना सकता। कृषि भूमि जो छोटी जोतों और सीढ़ीनुमा खेतों में विभाजित थी इसका मुख्य कारण रही। बेशक हल लगाने वाले, राज-मिस्त्री का काम करने वाले, कपड़े सिलने वाले और ऐसे ही श्रमजीवी काका, बोडा कहलाये जाते रहे पर उनकी पहचान के लिए एक ही शब्द मौजूद रहा- डोम।
नन्द किशोर हटवाल की पुस्तक में ये सारे सवालों बेशक न उठे हों पर उत्तराखएड के इतिहास की बहस को आगे बढ़ाने में उनकी एकरूपता एक आधार बन रही है।
विजय गौड़
पुस्तक: चांचड़ी झमाको
लेखक: नंद किशेर हटवाल
प्रकाशक: विनसर पब्लिशिंग क0
देहरादून
मूल्य: 395
पृष्ठ: 560
3 comments:
बहुत अच्छी समीक्षा पस्तुत की है आपने।
Nandkishore Hatwaal ji kii abhi tak sirf ek kavita padhee thee. Utsukta rahegee is kitaab ko padhne kee.
Thanks.
पुस्तक के कलेवर और स्वरूप का अनुमान हो रहा है, महत्वपूर्ण अध्ययन.
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