संकुचन और विरलन की घटनायें प्रकृति की द्वंद्वात्मकता का इजहार है। जिसके प्रतिफल भौगोलिक संरचना के रूप्ा हो जाते हैं। खाइयां और पहाड़, समुद्र और वादियां, मैदान और पठार न जाने कितने रूपाकारों में ढली पृथ्वी अपने यथार्थ में अन्तत: एक रूपा है। भूगोल की दूरी पैमानों पर दर्ज होती हुई दूरी ही है लेकिन सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यता के हवाले से विकास की हर वह कोशिश जो ब्रहमाण्डीय सीमाओं के साथ सामंजस्य बैठाते हुए जारी रही है, एक रूपा होने की अवश्यम्भाविता के साथ है। युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य के सद्य प्रकाशित संग्रह पृथ्वी पर एक जगह में भी ऐसे ही विचार यात्रा के पड़ावों पर रुका जा सकता है-
समन्दर को पुकारने लगते थे पहाड़
और समन्दर पहाड़ों को
हालांकि दोनों के बीच बहुत लम्बा फासला था।
कविता पुस्तक का शीर्षक है ''पृथ्वी पर एक जगह"। उसे दो तरह से पढ़ पा रहा हूं। एक, पृथ्वी पर एक -जगह और दूसरा पृथवी पर एऽऽक जगह। कौन सा पाठ ज्यादा उपयुक्त है ? कह सकता हूं कि यह तो कविताओं को पढ़ने के पाठ पर निर्भर है। 'पृथ्वी पर एक -जगह", पढ़ता हूं तो भीतर की कविताओं के मंतव्य किसी निश्चत भू-भाग के बारे में रचे गए होने का भान देता हैं लेकिन यदि पृथवी पर एऽऽक जगह पढ़ता हूं तो इस पृथ्वी के बहुत से भू-भाग जो किन्हीं खास वजहों से समानता रखते हो सकते हैं, दिखने लगते है। दो भिन्न अर्थों से भरे इस पदबंध में अपने-अपने तरह से स्थानिकता की पहचान की जा सकती है। बहुधा स्थानिकता को परिभाषित करते हुए शीर्षक का पहला पाठ लुभाने लगता है और उस वक्त जो स्थानिकता उभरती है वो इतनी एकांगी होती है कि उसे क्षेत्रियततावाद की गिरफ्त मेंे फंसे हुए देखा सकता है। स्थानिकता का दायरा किसी निश्चित भू-भाग तक ही हो तो कविताओं की व्यापप्कता चूक सकती है। हां किसी देखे जाने गये भूगोल के इर्द-गिर्द होती हुई भी यदि वे अन्य स्थितियों के विस्तार में भिन्न भूगोल को भी स्थानिक बना देने की क्षमता से भरी हों तो उनकी सार्वभौकिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। शिरीष कविता स्थानिकता की पड़ताल में ज्यादा साफ और सही रूप्ा से सार्वभौमिक होने के ज्यादा करीब है -
पृथ्वी में एक जगह भूसा है।
पृथ्वी में एक जगह जहां हल हैं, दोस्त हैं।
सार-सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय वाला दर्शन आज उपभोक्तावाद ने हथिया लिया है। यूज एण्ड थ्रो जैसा नारा उसके गहराते संकट से उबरने की चालाकी है, जिसके कारण एक ऐसी संस्कृति जन्म लेती जा रही है जिसमें व्यक्ति खुद को ही हीन समझने के लिए मजबूर है। उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी ? हर अगले दिन पैदा होता उसका उत्पाद पिछले दिन पैदा किये अपने ही उत्पाद को कमतर बताने के साथ है। उसका दर्शन सिर्फ मुनाफे पर टिका है। आपसी रिश्तों की ऊष्मा से उसका कोई लेना देना नहीं। इसीलिए वहां रिश्तों के अपनापे में संबंधों को परिभाषित करने की कोई कोशिश भी संभव नहीं हो सकती। वस्तु के उपयोग और उसकी सार्थकता को भी भिन्न तरह से परिभाषित करते किसी भी वैज्ञानिक चिंतन से उसे चिढ़ होती है। शिरीष की कविताएं भिन्नता के उस दर्शन के साथ हैं जिसमें दानेदार फसल और उन दानों को मौसम के थपेड़ों से बचाये रखने में भूसा हो गयी बालियों, दोनों की महत्ता स्थापित हो सकती है।
पृथ्वी में एक जगह हैं ये सब। पर पृथ्वी में वह एक ही जगह नहीं है जहां हैं, ये सब। स्थानिकता का सार्वभौमिकीकरण इनके एक ही जगह मात्र होने पर, हो भी नहीं सकता है। विभिन्न रूपाकारों में ढली पृथ्वी को उसकी भिन्नता से प्रेम करके ही जाना जा सकता है। शिरीष की कविताओं में भिन्न्ता का यह भूगोल उस सांस्कृतिक भिन्नता की पड़ताल करता हुआ भी है जो एक सीमित लोक का विस्तारीकरण करने के लिए आवश्यक तत्व है। उनके पाठ पदबंध के दूसरे पाठ के ज्यादा करीब से गुजरते हैं। लोक के सार्वभौमिकीकरण में ही शिरीष काव्य तत्वों को गुंथता है और उनको बचाये रखने की सुसंबद्ध योजना का आधार तैयार करता जाता है-छोटे शरीर में भी बड़ी आत्माएं निवास करती हैं
छोटे छोटे पग भी
न्ााप सकते हैं पूरी धरती को
उस अपने तरह की सार्वभौमिकता के गान, जो शब्दों में बहुत वाचाल और व्यवहार में संकीर्ण एवं लुटेरी मानसिकता का छलावा बन कर सुनायी दे रहा है, कवि शिरीष कुमार मौर्य की उससे स्पष्ट नाइतफाकी है। स्थानिकता की एक परिभाषा जिस तरह से आज दक्षिणपंथी उभारों तक जाने को उतावली दिखायी देती है ठीक उसी तर्ज पर बहुत चालाकी बरतने वाली सार्वभौमिकता का नारा भी हर ओर सुनायी दे रहा है। यूं दोनों की उपस्थिति से भी दुनिया के दो ध्रुव बनने चाहिए थे लेकिन देख सकते हैं अपने अपने छलावे में दोनों की साठगांठ एक ऐसी मूर्तता को उकेर रही है जिसमें निर्मित होता वातावरण लगभग एक ही ध्रुव की ओर बढ़ता जा रहा है। आंधियों की तरह आती यह सार्वभौमिकता, भौगोलिकरण का दूसरा नाम है, उसमें एक स्वांग है मिलन का। धूल और गर्द उड़ाती, छप्परों को उजाड़ती उसकी आवाज़ का शौर इतना ज्यादा है कि चाहकर भी उदासीन बने रहना संभव नहीं है। एक सचेत रचनाकार की भूमिका उसकी उस प्रवृत्ति को भी उजागर करना है जो हमारी स्थायी उदासीनता का कारण बनती जा रही है और इस स्थायी उदासीनता में वह जिस तरह की खलबली मचाना चाहती है, उसके प्रति भी सजग रहने की कोशिश एक रचनाकार का दायित्व है। शिरीष की कविताओं में दोनों ही स्थितियों से मुठभेड़ करने की कोशिश के बयान कुछ यूं हैं कि आखिर साधो हम किससे डरते हैं? नींद तो केवल अपनी ही बनाई सुरंगों में घ्ाुसे मेढ़कों को आती है।
पृथ्वी पर उस जगह को, जहाँ स्थायी किस्म की उदासी के बावजूद जगर-मगर दुनिया है, एक चिहि्नत भूगोल की स्थानिक रंगत से भरने की एक खास जिद्द इसीलिए शिरीष के यहां भी मौजूद है। कविताओं में जगहों के नामों की उपस्थिति कवि की सायाश कोशिशों की वजह है।
इस पृथ्वी पर एक जगह है
जिसे मैं याद करता हूँ
आक्षांश और देशान्तर की सीमाओं में बांधे बगैर
जीवन की यात्रा के ढेरों पड़ाव भी शिरीष की कविता में दर्ज पाये जा सकते हैं। उनका संग-साथ अतीत से आती हवाओं में देखा जा सकता है, मित्रों की उपस्थितियों के साथ उनका होना महसूसा जा सकता है और हमेशा एक विनम्र किस्म की, बहुत भीतर तक से उठती, बेचैन हूक में उसे सुना जा सकता है। आत्मीयजनों को समपर्ण के भाव कविता के शीर्षक के साथ गुंथे हुए देखे जा सकते हैं। पर आत्मीयजनों को समर्पित होते हुए भी मात्र उनके लिए ही नहीं हैं वे। उनका दायरा चिहि्नत आत्मियताओं से होता हुआ अचिहि्नतों तक पहुँचता है। कवि चन्द्रकांत देवताले को समर्पित एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं-
मेरे पास
बहुत पुराने दिनों की हवाँए हैं
इतिहास से आती इन हवाओं में भावुक मोहकता नहीं बल्कि पूर्वजों की महान विरासत का स्मरण है। लोक तत्वों की पुष्टी भी बिना ऐतिहासिक चेतना के कहां संभव हो सकती है ? भीतर की धूल को उड़ा देने वाली उस इतिहास चेतना की तीव्रता इतनी ज्यादा है कि बहुत चालाक होकर छुपायी जा रही 'आधुनिकता" भी उसकी चपेट में आने से बच नहीं पा रही। वातावरण को नरम और मुलायम बनाने वाली, अतीत से आती, इन हवाओं का संग-साथ युवा कवि की काव्य चेतना में इस कदर रचा बसा है कि बहुत हताशा के क्षणों में भी वह गुस्से के इजहार के साथ अपनी ऊर्जा को समेट लेना चाहता है। नर्वस एनर्जी एक शब्द है, जिसका प्रयोग उस भाव को व्यक्त करने में मेरे प्रिय कवि राजेश सकलानी करते हैं, जो बहुत मुसीबतों के समय अचानक से व्यक्ति को कुछ भी अप्रत्याशित कर देने की ताकत दे देती है और मुसीबत में फंसा व्यक्ति उसके ही बल पर बाहर निकल आता है। कवि कुमार विकल की स्मृतियों में रची गयी कविता की पंक्तियां शिरीष को भी उसी नर्वस एनर्जी से सवंद्र्धित कर रही हैं-
ओ मरे पुरखे!
आखिर क्या हो गया था ऐसा
कि अपनी आखिरी नींद से
पहले तुम दुनिया को
सिर्फ अपनी उदासियों के बारे में बताना चाहते थे।
आज का रचनाकार अतीत से भविष्य तक की अपनी यात्रा में अपने वर्तमान की उपस्थिति से, बेखबर नहीं रहना चाहता है। रास्ते में पड़ने वाले दोस्तों के डेरे शिरीष के भी पड़ाव हैं। ऐसे ही डेरों में शाम बिताते हुए उन अवसरों को तलाशा जा सकता है जो आत्म मंथन के लिए जरूरी भी हैं।
जैसे आटे का खाली कनस्तर
जैसे घ्ाी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आख्ािरी सिा।
मित्रों के इन अड्डों पर ही वे बेपरवाह टिप्पणियां सुनी जा सकती हैं जिन में आत्मालोचना करना जरूरी लगने लगता है-
जैसे तालाब को खंगाले उसकी लहर
जैसे बादल को खंगाले उसकी गरज
हमने खंगाला खुद को।
खुद को खंगालना इतना आसान भी नहीं होता। बहुत पीड़ादायक होता है अक्सर उससे गुजरना भी। टूटन होती है ऐसी कि जिसको व्याख्यायित करने की कोई भी कोशिश अधूरी ही रह जाती है। कई बार आपसी रिश्तों की टूटन की आवाज़ों को सुनना होता है। अवसाद भरी नाजुकताएं इच्छाओं की भीत पर इस कदर असर डालने वाली हो जाती है कि नींद और जाग की मनोदशाओं मेंं डूबता मन अस्वस्थता का कारण होने लगता है।
हम जहाँ से कहीं जाते
वहाँ से
कोई नहीं आता हमारे पास।
यकीन भरी आत्मीय पुकार के ये अड्डे शिरीष के यहां बहुत भरोसे के साथी के रूप्ा में दर्ज है। उनमें रुकना सिर्फ भौतिक रूप्ा से रात काटना भर नहीं बल्कि बहुत कुछ को बचा लेने की संभावनाओं का तलाशना जाना है-
बचे रहे हम
जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य।
'पोस्टकार्ड" इस संग्रह की एक बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है। दुनियादारी को निभाने में आज के संचार की ढेरों युक्तियां आज हमारा समाज संजोता जा रहा है। ऐसे में पोस्टकार्ड के खुलपेन को याद करना न सिर्फ एक संदेश को पहुंचाने की युक्ति को याद करना है बल्कि उस झूठ का पर्दाफाश करना भी है जो एक तरह से ज्यादा पारदर्शी होने का भ्रम पैदा कर रही है।
कैसा है मेरा रंग
हल्का भूरा धूसर पीला मटमैला
कुछ
कहा नहीं जा सकता
लेकिन कहा जा सकता है
क्या लिखा जाएगा मुझ पर
आख्ािर दुनिया में बातें ही कितनी हैं
जिनको
लिखा जाएगा खुलकर ?
वर्तमान दुनिया ने ख्ुाशियोंे को चंद मुटि्ठयों में दबोचा हुआ है और दु:ख और संताप से भरी एक भीड़ को जन्म दिया है।
हम बाहर हैं इस समूचे संसार से
जो लोगों से नहीं सूचनाओं से बना है।
लेकिन अफसोस इस बात का है कि दु:ख और संताप में डूबी उस बड़ी भीड़ का हर व्यक्ति इतना अकेला है कि अपनी बेचैनी, तकलीफें और अपनी खुशियों को बहुत सामूहिक तौर पर शेयर करने की स्थितियां भी उसके पास नहीं हैं।
तुम्हारे भीतर एक उलझा हुआ जाल है
धमनियों और शिराओं का
और वे भी अब भूलने लगी हैं तुमहारे दिमाग तक
रक्त पहुंचाना
इसीलिए
तुम कभी बेहद उत्तेजित
तो कभी
गहरे अवसाद में रहते हो।
निराशा और पस्ती के ऐसे वक्त में एक सचेत रचनाकार की भूमिका सिर्फ इतनी ही नहीं हो सकती कि वह स्थितियों का जिक्र मात्र करके मुक्त हो जाए। यथास्थिति को तोड़ने की कोशिश और वैकल्पिक दुनिया की तस्वीर की कल्पना के बिना रचना की सार्थकता तय नहीं हो सकती है। शिरीष एक जिम्मेदार रचनाकार की भूमिका में दिखाई देते हैं। अपने पाठक को निराशा में डूबने नहीं देना चाहते-
अब तुम
अपने भीतर के द्वार खटखटाओ
तो तुम्हें सुनाई देंगी सबसे बुरे समय की मुसलसल
पास आती पदचाप
अब तुम्हारा बोलना कहीं ज्यादा अर्थपूर्ण
और मंतव्यों से भरा होगा।
गहन उदासी की रुलाई में भी नमक के खारेपन पर शिरीष का यकीन है। समुद्र के अथाह पानी में अपने आंसुओं को मिलाती मछलियों और दूसरे जलचरों से ली जाती प्रेरणा एक अनूठी युक्ति है उस चेतना के प्रकटीकरण की जो पाठक को निराशा और पस्ती में घ्ािरने नहीं देती। शिरीष की कविताओं की एक उल्लेखनीय विशेषता है कि वस्तुगत यथार्थ की उपस्थिति के साथ वहां उम्मीदों को बांधे रखने वाला एक संगत स्वर लगातार मौजूद है
उसमें बैलों की ताकत है और लोहे का पैनापन
हल के बारे में कही गयी यह पंक्तियां उस अनूठी कोशिश का एक नमूना है। इसके पाठ के साथ ही एक दृश्य खुलने लगता है और जमीन में खुंपे, ढेलों को पलट पलट देते हल की मूंठ पर थमी हथेली और बैलों को हांकती आवाजों के साथ खेत को उपजाऊ बनाने में जुटे किसान के चेहरे से उत्कट मानवीय इच्छा रूपी पसीने को बहते देखा जा सकना संभव हो रहा होता है। वही हल जिसका गायब हो जाना किसी उन्नत यंत्र से अपदस्थ होती प्रक्रिया का प्रतिफल नहीं है बल्कि गायब कर दिये जाने की एक साजिश है। कर्ज के बोझ से दबे, उन्नत बीजों के नाम पर हाईब्रीड फसलों को उगाने के लिए मजबूर कर दिये गये और चौपट होती फसल के कारण आत्महत्या करने को मजबूर किसानों की बदहाली के चलते भी उसका गायब हो जाना स्वभाविक ही है। शिरीष के यहां उसके गायब होने की कथा ऊंचे ढंगारों वाले पहड़ों पर सीढ़ीदार खेतों की उत्पादक सीमाओं के साथ छूट जा रही खेती भी एक कारण के रूप्ा में मौजूद है। खेती किसानी की दुनिया से लगाव शिरीष की कविताओं में इतना गहरा है कि फसल के साथ काट कर सहेजे जाना वाला भूसा तक वहां उम्मीदों की फसल बन जाता है।
बहरहाल इतना तो साफ है कि इसे भी सहेज रहे हैं लोग
दानों के साथ
इस दुनिया में वे सार भी बटोर रहे हैं
और थोथा।
सार-सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय वाला दर्शन आज उपभोक्तावाद ने हथिया लिया है। यूज एण्ड थ्रो जैसा नारा उसके गहराते संकट से उबरने की चालाकी है, जिसके कारण एक ऐसी संस्कृति जन्म लेती जा रही है जिसमें व्यक्ति खुद को ही हीन समझने के लिए मजबूर है। उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी ? हर अगले दिन पैदा होता उसका उत्पाद पिछले दिन पैदा किये अपने ही उत्पाद को कमतर बताने के साथ है। उसका दर्शन सिर्फ मुनाफे पर टिका है। आपसी रिश्तों की ऊष्मा से उसका कोई लेना देना नहीं। इसीलिए वहां रिश्तों के अपनापे में संबंधों को परिभाषित करने की कोई कोशिश भी संभव नहीं हो सकती। वस्तु के उपयोग और उसकी सार्थकता को भी भिन्न तरह से परिभाषित करते किसी भी वैज्ञानिक चिंतन से उसे चिढ़ होती है। शिरीष की कविताएं भिन्नता के उस दर्शन के साथ हैं जिसमें दानेदार फसल और उन दानों को मौसम के थपेड़ों से बचाये रखने में भूसा हो गयी बालियों, दोनों की महत्ता स्थापित हो सकती है।
-विजय गौड़
पुस्तक का नाम : पृथ्वी पर एक जगह
लेखक का नाम: शिरीष कुमार मौर्य
प्रकाशक: शिल्पायन, दिल्ली
3 comments:
बहुत महत्वपूर्ण समीक्षा है.
-- अरुण कुमार असफल
किताब मंगानी पडेगी
शिरीष की कविताई गहन पड़ताल की माँग करती है. आप ने यह दायित्व लिया , आभार विजय भाई. शिरीष पर अन्य लेखकों की टिप्प्णी भी पढ़ना चाहेंगे .
Post a Comment