कवि राजेश सकलानी के कविता संग्रह पर नवीन कुमार नैथानी की यह टिप्पणी है इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि बिगडैल अलोचना जिस तरह से सिर्फ़ नामों के आधार पर लांग नाइन्टीज का निर्धारण कर रही है उससे हिंदी कविता पर समग्र द्रष्टि नहीं दिखायी देती और वक्त बेवक्त गिरोहगर्द हुई आलोचनाओं में उभरे नाम ही वहां उपस्थित दिख रहे हैं । राजेश सकलानी पिछले २५ वर्षों से लगातार लिख रहे हैं और हिंदी कविता का जो रूप उनके यहां दिखायी दे रहा है उसको दरकिनार करके पिछले २५ वर्षों की कविता पर बात करना सिर्फ़ एक सीमित दायरे में उभरे नामों को ही लांग नाइन्टीज कहना है। हिन्दी की गिरोहगर्द आलोचना की सीमा है कि वह अपने गिरोह से बाहर देखने में असमर्थ रही है। - वि. गौ. |
पुश्तों का बयान राजेश सकलानी का दूसरा कविता-संग्रह है.पहला कविता संग्रह सुनता हूं पानी गिरने की आवाज ग्यारह वर्ष पूर्व आया था.
राजेश प्रकाशन-भीरु कवि हैं.निपट अकेली राह चुनने की धुन उन्हें समकालीन कविता के परिदृश्य में थोडा बेगाना बानाती है-उनकी कविताओं का शिल्प इस फ़न के उस्तादों की छायाओं से भरसक बचने की कोशिश करते हुए नये औजारों की मांग करता है.अपने लिये नये औजार गढ़ना किसी भी कवि के लिये बहुत मुश्किल काम है. राजेश वही काम करते हैं.अस्सी से ज्यादा कविताओं के इस संग्रह से कोई प्रतिनिधि कविता चुनना दुरूह है- मुझे तो हर पृष्ठ पर एक नायाब मोती दिखा है. फिर भी जोखिम मोल लेते हुए एक कविता अमरूदवाला को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं हो पा रहा
लुंगी बनियान पहिने अमरूदवाले की विनम्र मुस्कराहट में
मोटी धार थी, हम जैसे आटे की तरह बेढब
आसानी से घोंपे गये
पहुंचे सीधा उसकी बस्ती में
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते पुलटते
थोडे से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गये कई बार का उनका
छोड दिया गया रोना फैला फ़र्श पर
एक तीखी गन्ध अपनी राह बनाती,
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज का
यहां विचलित करने वाले समय की गंध को पकडने की बेचैन कोशिश ध्यान खींचती है. कविता कीआखिरी पंक्ति मुझे उनके पहले संग्रह की याद दिलाती है-‘सुनता हूं बारिश के गिरने की आवाज’ शीर्षक कविता में एक पंक्ति यह भी है-
जानता हूं चीजों को जहां से वह उठती है.
वहां आवाजों पर पूरा भरोसा था.
अमरूदवाला कविता की आखिरी पंक्तियां है-
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज का
पहले संग्रह में कवि बहुत भरोसेमन्द अन्दाज में चीजों को उनकी आवाजों के साथ जानने की जगह में खडा है.लगभग बीस वर्ष बाद कवि अमरूदवाले को देखते हुए एक भरोसे के ढहे जाने की व्यथा कह रहा है और इस बहाने समय की विडम्बना को खोल कर रख दे रहा है.
कवि वही है,उसकी दृष्टि वही है,दृष्टिकोण भी वही है;समय बदल गया है. यह समय बाजार का समय है.यह बाजार चीजें और सहूलियतें देने वाला बाजार नहीं है जिसके बारे में गालिब कह आये थे
और बाजार से ले आयेंगे गर टूट गया
जामे-जम से ये मेरा मिट्टी का सिफाल अच्छा है.
यह बाजार बहुत ज्यादा बदल गया है.लुंगी बनियान पहने अमरूदवाला अब यहां नजर नहीं आयेगा.वे बच्चे जिनका कई बार का छोड़ दिया गया रोना फ़र्श पर फैला है,अब कहीं नजर नहीं आयेंगे.वे कई बार रोए हैं.वह रोना छोड दिया गया है.अमरूद की गन्ध भी कहां है?माल्स की जगर-मगर आवाजों के बीच जैविक खाद से तैयार उत्पादों वाले किसी ब्राण्ड में वह अमरूद भी होगा!वहां अमरूद की गन्ध नहीं होगी.यह आज का बाजार है.
एक तीखी गन्ध अपनी राह बनाती
कवि अमरूद की बात नहीं कह रहा है ,उसकी चिन्ता तो अमरूदवाले पर केन्द्रित है,जिसकी मुस्कराहट में मोटी धार थी.विनम्र मुस्कराहट में यह मोटी धार क्या है? महीन धार की कत्ल कर देने वाली मुस्कराहटों के बर-अक्स यह मासूमियत भी नहीं है-इसमें विद्रूप है.
मुझे यह बात भी आश्चर्य में डालती है कि बेहद चुप्पे और शब्द-कृपण कवि राजेश के यहां आवाजें किस तरह घुसपैठ कर जाती हैं.उत्तराखण्ड आन्दोलन की पृष्ठ्भूमि में लिखी गयी कविता ‘दीदियों और भुलियों’ की आखिरी पंक्तियां-
जिन्हें सत्ता की भूख ने खूनी बना दिया है
वे तुम्हारी आवाज से पस्त होते हैं.
‘जीवन की कला’ की शुरूआती पंक्तियां
यहां आवाजों के बीच घटता
कहीं दूर किसी कला में
प्रकट होता हूं
शब्दों इतना सटीक,श्लिष्ट और गत्यात्मक बर्ताव राजेश सकलानी की उपलब्धि है. यह संग्रह देखते ही मुझे पिछले संग्रह की एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आ गयीं
नहीं बनाये सीढीनुमा खेत
नहीं लगाये पुश्ते
जडों को मिट्टी में जमाये बिना
इतने वर्ष बारिश में बहा दिये
इस संग्रह की शीर्षक कविता है‘पुश्तों का बयान’.
हम तो भाई पुश्ते हैं
दरकते पहाड की मनमानी
संभालते हैं हमारे कन्धे
यहां पुश्तों का दूसरा अर्थ पीढियों के सन्दर्भ में भी ध्वनित हुआ है.
`हम भी हैं सुन्दर,सुगठित और दृढ़’
इसी कविता की आखिरी पंक्तियां हैं
तारीफों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन.
इन कविताओं का फलक बहुत विस्तृत है.अमेरिका, पाकिस्तान,बगदाद से लेकर कस्बों का दैनिक जीवन इन कविताओं में छाया हुआ है-मछ्लियों,साइकिलों और बाजों की ध्वनियों से धडकता हुआ. फोटो,जूतों जैसी मासूम चीजों के बीच कहीं मटर का दाना अपनी निराली धज के साथ ध्यान खींचता है-
मैं लगा छीलने फलियां
एक दाना छिटक कर गया यहां-वहां
लगा ढूंढने उसे मेज के नीचे
वह नटखट जैसे छिपता हो
आगे की पंक्तियां देखिये
एक और मेरा समय
दूसरी और मटर के दाने का इतराना
ज्यों-ज्यों आगे लगा काम में
लगता जैसे अभी-अभी वह गेंद की तरह
टप्पा खाकर उछला है.
राजेश सकलानी की कविताओं को
प्रतिरोध की शान्त, शालीन और निश्छल टिप्पणी के रूप में भी देखा जा सकता है- उनकी निगाहें हमेशा वहां टिकी रहती हैं जहां जीवन की सामान्य गतिविधियां चल रही होती है और जिन्हें ऐसे ही नहीं छोडा जा सकता है.व्यवस्था से नाराजगी दिखाते हुए भी वे वाचाल नहीं होते.
इतनी सफाई से गुजरता है समय
कोई नहीं दुश्मन मेरी खोज में
बेहद राजनीतिक कविता लिखते हुए भी वे ठेठ अराजनीतिक दिखायी पडते हैं-यह सायास निस्संगता बताती है कि वे कठोर काव्यानुशासन के हिमायती हैं.
‘राज ठाकरे कौन है?’ शीर्षक कविता इस तरह शुरू होती है
ये राज ठाकरे कौन है?
पता नहीं, मैं तो मनु ठाकरे को जानता हूं
अंधेरी वैस्ट में रहता है.
यहां गन्तव्यों तक पहुंचने में लगने वाले समयान्तरालों की सूचना देते हुए जीवन की सहज गतिविधियां पूरी मासूमियत के साथ उपस्थित हैं.बेहद सरल संरचना वाली यह कविता कामकाजी समय के बीच पैदा हो चुके खतरनाक वक्त की शिनाख्त करते हुए
इन पंक्तियों के साथ खत्म होती है-
लेकिन ये वक्त का पहिया कौन चलाता है?
जैसे ये मजदूर जो शहर छोड कर
बाहर की ओर भाग रहे हैं.
राजेश सकलानी की कविताओं में जगहों और लोगों की आमद खासतौर से ध्यान खींचती है.
शहर और कस्बे अपनी अचंचल छवियों के साथ मौजूद हैं- ढाका,लाहौर,देहरादून से लेकर कर्णप्रयाग,चम्बा,चिन्यालीसौड जैसी जगहें इन कविताओं में उपस्थित हैं जहां कहीं‘डी.एल.रोड पर एलेक्जेंडर रहते हैं’.इन शहरों में कहीं
गाय ‘पूंछ के गुच्छे से अपनी पीठ पर थपकी लगाती’
तो कहीं
मियां जी अमरूद बेचते दिखायी पडते हैं –
मियां जी ने दो पत्तों सहित अमरूद रखा तराजू पर
उधर बाट आकाश में झूलने लगा.
इन्हीं शहरों में दुल्हन भी है जो कविता में असामान्य तरीके से प्रवेश करती है
सपनों की त्वचा में रंगभेद नहीं होता
और दुल्हन की साडी की कोई कीमत नहीं होती.
इन्हीं शहरों में गश्ती सिपाही,चौकीदार,चाय वाले नुक्कड ,महिला पुलिस,ड्राइवर सब लोग जीवन की निरन्तरता को बनाये और बचाये रखने के लिय अपने कर्म में तल्लीन नजर आते हैं
.कविता में उनकी उपस्थिति दर्ज करना कवि का अभीष्ट है.‘रात यूं ही नहीं जाती’ शीर्षक कविता में वह कहता है
कोई हमेशा जागता है
तभी मुमकिन होती है नींद.
नवीन कुमार नैथानी
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