Saturday, February 16, 2013

किसी के लिए लौटकर नहीं आऊंगा मैं



(इब्बार रब्बी की कविताओं की कड़ी में आज प्रस्तुत हैं दो कवितायें)

संसार 


मुझे नहीं चाहिए 
तुम्हारा ये संसार 
तुम पर रोता 
अपने पर हंसता 
ऐसे ही चला जाऊंगा मैं 
तुम तरसोगे मुझे देखने को 
मेरे मित्रो 
और शत्रुओ 
किसी के लिए लौटकर नहीं आऊंगा मैं 
अपने खंजर फ़ेंक दो 
फिर पछताने से भी 
हाथ नहीं आऊंगा 
मेरा नहीं है ये संसार  
चला जाऊंगा 
अपने मित्रों के साथ अपनी दुनिया में 
जहाँ लोग कविता जीते हैं 
जहाँ खेत लंगड़े नहीं होते 
जहाँ बच्चे भूखे नहीं सोते  
तुम औरों पर हंस रहे होगे 
अपने में मस्त 
नशेड़ी की तरह गाता चला जाऊंगा 
अपने संसार में चला  जाऊंगा  मैं 
सपनो में खो जाऊंगा 
मुझे रत्ती भर  चिंता नहीं है 
तुम्हारी इस सड़ी  हुई दुनिया की 



     चुपचाप 


ऐसे ही चला जाऊँगा 
मैं चुपचाप 
किसी को पता नहीं चलेगा 
इधर उधर देखेंगे दोस्त 
साथी और घर वाले 
मैं कहीं नहीं होऊंगा 
दोस्त लौट कर आयेंगे 
बस स्टैंड तक 
वहां नहीं होऊंगा मैं 

थैला नहीं होगा मेज़ पर 
कोट नहीं होगा कुर्सी पर 
मेरा कोई निशान नहीं 
होगा दुनिया में 

        दोस्त ढूढेंगे मुझे 
        ढूढेंगे घर वाले  
        प्रेमी और भाई 
        मैं चुपचाप चला जाऊंगा 

ऐसे ही बिना बताये 
न चीखूंगा, न रोऊंगा 
न हसूंगा, न कुछ कहूँगा 
मैं ऐसे ही गायब हो जाऊंगा  
देखते-देखते 

तुम पीछे मुड़ोगे  
मैं नहीं होऊंगा 
तुम कौर तोड़ोगे 
मैं नहीं होऊंगा 
तुम चाय का प्याला रखोगे 
मैं नहीं होऊंगा 
तुम्हारा  दोस्त 
तुम्हारा साथी 
किसी का पिता 
किसी का दामाद 
चुपचाप 
गायब हो जाऊंगा मैं 
जैसे रुक जाती है हवा 
जैसे उड़ जाती है टिटहरी 
मेरी किताबें वहां नहीं होंगी 
मेरी सिगरेट नहीं होगी 
मेरी हंसी 
मेरी लिखावट 
मेरी बात 
मेरा भोलापन 
मेरी मक्कारी 
यहाँ नहीं बचेगी 
पर तुम्हारे मन में रहूँगा मैं 
किसी के भी दिमाग से तो 
नहीं जाऊंगा मैं 




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