Monday, January 11, 2016

यह कैसी सांस्‍कृतिक होड़ है

तकनीक पर पूरी तरह से अपनी गिरफ्त डाल कर मुनाफे की हवस से गाल फुलाने वाले बाजार ने विकास के मानदण्‍ड के लिए जो पैमाने खड़े किये हैं, उसने वैयक्तिक स्‍वतंत्रता तक को अपना ग्रास बना लिया है। मनुष्‍यता के हक के किसी भी विचार को शिकस्‍त देने के लिए उसने ऐसे सांस्‍कृतिक अभियान की रचना की है, हमारे मध्‍यवर्ग मूल्‍य भी उसके आगोश में खुद ब खुद समाते जा रहे हैं। विभ्रम फैलाते उसके मंसूबों को पहचानना इसलिए मुश्किल हुआ है। सौन्‍दर्य प्रतियोगिताओं का फैलता संसार उसकी ऐसे ही षडयंत्रों की सांस्‍कृतिक गतिवि‍धि है। देख सकते हैं पिछले कई सालों से दुनिया भर के तमाम पिछड़े इलाकों में उसकी घुसपैठ ने सौन्‍दर्य प्रसाधनों का आक्रमण सा किया है। ऐसे ही एक अाक्रमण के प्रति पत्रकार जगमोहन रौतेला की चिन्‍ताएं देहरादून से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका युगवाणी के जनवरी 2016 के पृष्‍ठों पर दिखायी दी है जिसे यहां इस उम्‍मीद के साथ पुन: प्रस्‍तुत किया जा रहा है कि बाजारू संस्‍कृति के आक्रमणकारी व्‍यवहार पर एक राय बनाने में मद्द मिले।
- वि.गौ.          

*** जगमोहन रौतेला 


महिलाओं को बाजार का हिस्सा बनाने का एक दूसरा षडयंत्र है तरह- तरह की सौंदर्य प्रतियोगितायें . वैसे ये प्रतियोगितायें सालों से होती आ रही हैं , लेकिन पहले इसमें मध्यवर्ग की महिलायें ( लड़कियॉ ) हिस्सा नहीं लेती थी . फैशनपरस्त परिवार की लड़कियॉ ही इसमें हिस्सेदारी किया करती थी . पिछले कुछ दशकों से जब से बाजारवाद ने मध्यवर्ग को भी अपनी चपेट में लेना शुरु किया तब से इस वर्ग की लड़कियों में भी " सुन्दर " दिखने की चाह जाग उठी है . सुन्दर दिखाने की यही चाहत उसे देश और विदेश में सौन्दर्य के नाम पर होने वाली कथित प्रतियोगिताओं की ओर भी आकर्षित कर रही है . यही आकर्षण मध़्यवर्ग की लड़कियों को इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने को " उत्तेजनापूर्ण " तरीके से प्रेरित करता है . बाजारवाद के इस अतिवाद भरे दौर में जब से 1990 के दशक में ऐशवर्या राय को " मिस वर्ड " और सुष्मिता सेन को " मिस यूनिवर्स " बनाया गया तो तब से भारत के मध्यवर्ग में अपनी लड़कियों को सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में भेजने की एक अलग तरह की होड़ सी मची है . कुछ इसी तरह की होड़ राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड में जबरन दिखायी जा रही है . यहॉ के अधिकतर शहर उच्च जीवन शैली वाले न होकर कस्बाई संस्कृति वाले ही हैं . इसके बाद भी कुछ लोग जबरन देहरादून जैसे कथित आधुनिक शहर में सौन्दर्य प्रतियोगितायें करवाते रहते हैं . इसकी चपेट में अब हल्द्वानी को लिया जाने लगा है . कुछ साल पहले देहरादून की निहारिका सिंह ने भी कोई अनजान सी सौन्दर्य की प्रतियोगिता जीत (?) ली थी . उसके बाद वह जब देहरादून आयी तो उसने एक लम्बा - चौड़ा बयान अखबारों को दिया कि उत्तराखण्ड की हर लड़की निहारिका सिंह बन सकती है . कुछ समय तक मीडिया की सुर्खियों में रहने वाली निहारिका सिंह अब कहॉ है और क्या कर रही है ? शायद ही आम लोगों को पता हो ? निहारिका आज जहॉ भी हो लेकिन उत्तराखण्ड में सौन्दर्य का बाजार तलाशने वाले कुछ चंट - चालाक लोगों के मंशूबे अवश्य ही फलीभूत हुये हैं . ऐसे ही लोगों ने कोटद्वार निवासी उर्वशी रौतेला के पिछले दिनों मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पर मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित किया कि वे उत्तराखंड की गरीमा , देश की प्रतीक और भविष्य की उम्मीद हैं . मीडिया और इस तरह की तथाकथित सौन्दर्य प्रतियोगिताओं से जुड़ कर अपना व्यवसायिक हित साधने वाला कार्पाेरेट ऐसा वातावरण बना रहे थे कि मानो उर्वशी समाज के हित में कोई बहुत बड़ा कार्य करने जा रही हो और वह वहॉ से कथित तौर पर जीतकर लौटी तो उत्तराखण्ड और देश की शान में चार चॉद लग जायेंगे . प्रतियोगिता में हिस्सेदारी के लिये लास वेगास जाने से पहले उर्वशी ने देहरादून और कोटद्वार का दौरा भी किया और जगह-जगह लोगों से अपने पक्ष में वोट देने की अपील भी की . उसने अनेक देवताओं के थानों में मत्था टेककर अपने लिये आशीर्वाद तक मॉगा . बाजारवाद की हिमायती हमारी सरकार के मुखिया हरीश रावत ने भी लोगों से उर्वशी के पक्ष में वोट देने की अपील कर डाली .पर जब 21 दिसम्बर 2015 को लास वेगास में उर्वशी के हाथ कुछ नहीं लगा तो उसने अपनी भड़ास आयोजकों पर यह कह कर निकाली कि उसके साथ भेदभाव किया गया और उसे जानबूझकर हराया गया . अतिरेक में वह यह तक कह गयी कि मेरे राज्य उत्तराखण्ड व देश से मुझे ज्यादा समर्थन ( वोट ) नहीं मिला . जिसकी वजह से मैं हार गयी . मतलब ये कि उर्वशी अपनी तथाकथित हार का ठीकरा दूसरों के सिर ऐसे फोड़ रही थी मानो उसे न जीताकर देश और उत्तराखण्ड ने एक भयानक गलती कर दी हो . वास्तव में सौन्दर्य के नाम पर आयोजित की जाने वाली इस तरह की प्रतियोगितायें पुरुषों द्वारा सार्वजनिक रुप से नारी के शरीर को सौन्दर्य के नाम पर कामुकता भरी नजरों से देखने के सिवा और कुछ नहीं हैं . ऐसा नहीं है तो क्यों उसे एक तरह से निरावरण होकर अपने शरीर का कथित सौन्दर्य पुरुषों को दिखाना पड़ता है ? और उसके कथित सौन्दर्य को परखने के पैमाने में शरीर के हर अंग को मापदंड क्यों बनाया जाता है ? सौन्दर्य को परखने की कोई प्रतियोगिता करनी ही है तो उसे महिलायें ही महिलाओं के सामने क्यों नहीं परखती ? क्या नारी अपने सौन्दर्य को खुद नहीं परख सकती है ? उसका पारखी क्या केवल और केवल पुरुष ही हो सकता है ? यदि यही सच है तो फिर ये प्रतियोगितायें सौन्दर्य के नाम पर पुरुषों की कामुक नजरों का " ठंडा " करने के सिवा और कुछ नहीं हैं . तब ऐसी स्थिति में हमें किसी निहारिका सिंह या किसी उर्वशी के इस तरह की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने पर कतई नहीं इतराना चाहिये . ये लोग हमारे समाज की महिलाओं के लिये कतई आदर्श नहीं हो सकते हैं , वह इसलिये भी कि ऐसी कथित प्रतियोगितायें महिला को एक " भोग की वस्तु " के अलावा और कुछ समझने के लिये तैयार नहीं हैं . और ऐसी सोच को बढ़ावा देने से महिलाओं का मान नहीं अपमान ही होता है . **

1 comment:

कविता रावत said...

सौन्दर्य को परखने की कोई प्रतियोगिता करनी ही है तो उसे महिलायें ही महिलाओं के सामने क्यों नहीं परखती ? क्या नारी अपने सौन्दर्य को खुद नहीं परख सकती है ? उसका पारखी क्या केवल और केवल पुरुष ही हो सकता है ? ..सच सटीक सवाल उठाये हैं आपने ..भोगवादी समाज का हिस्सा बनने का जूनून आत्मघाती कदम से कम है .. ..
.सटीक चिंतनशील विचार प्रस्तुति ...