Thursday, May 26, 2016

महानता के मारे



यह जो ऊपर शीर्षक है – ‘’महानता के मारे’’, यह इस बात को नहीं बताता कि किस महानता की बात हो रही। लिखने वाले चाहें तो लिख ही सकते हैं संबंधित क्षेत्र- क्रिकेटर/ वैज्ञानिक/ लेखक/ कवि/फेसबुकिये, आदि आदि।

लिखा तो यहां भी जा सकता था। पर अभी मेरे भीतर कोई ऐसी ग्रंथी फूलने को नहीं जिसको देखकर लोग मुझे आदतन मुफ्त की चिकित्‍सकीय सलाह बांटने लगें। यद्यपि दावे से मैं भी नहीं कह सकता कि सच में ही ऐसी किसी ग्रंथी का रोग मेरे भीतर भी न हो। इस तरह की कोई चिकितसकीय जांच मैंने नहीं कराई है। वैसे भी मुझे स्‍वंय की चिकित्‍सा करने का रोग तब से ही लगा हुआ है जब से मैंने होम्‍योपैथी चिकितसा पद्धति को अपनाना शुरू किया। कभी असमान्‍य महसूस करता हूं तो चिकित्‍सक के पास जाने की बजाय, एक सीमा तक अपना इलाज खुद ही कर लेता हूं। कई बार घर परिवार के लोगों और दोस्‍तों को दवा देने की हिमाकत कर चुका हूं। वैसे उनका कुछ बिगड़ा नहीं, ठीक हो ही गये। हां, होम्‍योपैथी की उन छोटी छोटी ओर अचूक गोलियां बेशक उनके भीतर सम्‍मान न पा पाईं, उन्‍हें तो यही लगा कि जैसे उन्‍हें कोई ऐसी बीमारी हुई नहीं थी, स्‍वस्‍थ ही थे। 

होम्‍योपैथी को जानने समझने और बहुत सी दवाओं को जरूरत पड़ने पर फिर फिर इस्‍तेमाल करने को जुटाने का मेरा अपना ही तरीका रहा। कभी किसी बीमारी ने घेरा तो डाक्‍टर को दी जाने वाली फीस और खरीदी जाने वाली संभावित दवाओं की कीमत, जो उससे पहले के जीवन के अनुभव रहे, का अनुमान लगाकर उन्‍हें सिर पर आ पड़ा खर्चा मान, मैंने उस उस समय पर होम्‍योपेथी चिकितसा पद्धति की किताबें और रोग लक्षणों के आधार पर चुन ली गयी दवाओं की कितनी ही शीशियां खरीदी हुई हैं। यहां तक कि सुगर बाल और किसी को कभी दवा बना कर देने के अनुमान से खाली खोखे भी। एक आला, एक प्रेशन नापने का यंत्र और एक थर्मामीटर भी, जबकि उनकी जरूरत मुझे शायद ही कभी पड़ी हो। मैं तो रोग को पहचानने के लिए लक्षणों पर यकीन करने लगा हूं और जितनी भी तरह की व्‍याधियां दिख रही हों उनके लिए एक अचूक दवा तलाश कर ही रोग का निवारण करने में सफल रहा हूं। बताता चलूं कि मैंने जब भी खुद को रोगी पाया है तो मेरे सम्‍पूर्ण को, खण्‍ड खण्‍ड करके तमाम तरह की रोग जांचों वाली चिकितसा पद्धति से मैंने अपने को बचाने पर ही यकीन नहीं किया, बल्कि उन जांचों के बाद प्रस्‍तावित की जाने वाली तरह तरह की दवाओं से अपने को बचाया है। बल्कि उन अनाप सनाप दामों में लुटने से भी बचाया हे जिनमें वे बिकती हैं।  लेकिन यह भी सच है कि ऐसा करते हुए कइ्र बार मैं भी कमजोर साबित हुआ और शुभेक्षुओं की सलाह पर उस पद्धति को ही अपनाने और उन दवाओं पर ही पैसा लुटाने के लिए मजबूर हुआ। ऐसी स्थितियों में भी बहुत जिद्द के साथ मैं अपनी होम्‍योपैथी की दवाओं को पूरी तरह से परित्‍यााग करने वालों से लोहा लेता रहा और साथ साथ उन्‍हें भी इस्‍तेमाल करते रहने की छूट लेता रहा हूं।

अरे, बात तो शीर्षक में आदि आदि वाले क्षेत्रों की हो रही थी। तो मैं यहां उन आदि आदि क्षेत्रों के नाम नहीं देना चाहता, वैसे भी वह कोई एक निश्चित क्षेत्र नहीं, जिनमें महानता के मारे बहुत वाचाल हुए जाते हैं। यह मैं उन लिक्‍खाड़ों के लिए छोड़ता हूं जो जमाने की प्रवृति को खण्‍ड खण्‍ड में देखने पर यकीन करते हैं। वैसे आप देख सकते हैं कि कि फेसबुक पर महानता के मारे बहुत से लोगों की आमद इस बीच बढ़ी है। वे रोज कोई न कोई ऐसा किस्‍सा लेकर सामने होते हैं कि आदि आदि के मारे लिक्खाड़ो को मौका मिल ही जाता है जो लिख/कह ही देते हैं -  महानता के मारे फेसबुकिये। उस वक्‍त उन्‍हें भी महानता के मारे रोग से तो ग्रसित माना ही जा सकता है न शायद।

2 comments:

कविता रावत said...


कीड़ा कुलबुलाता है,
शौक चर्राता
तो फेसबुक हैं न
कोनु चिंता की बात नहीं

चलती है गाड़ी चलने दो
थोड़ी हवा आने दो

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-05-2016) को "आस्था को किसी प्रमाण की जरुरत नहीं होती" (चर्चा अंक-2356) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'