कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
हमारा वर्तमान देवत्व को प्राप्त हो चुके लोगों की ही स्मृतियों को सर्वोपरि मानने वाला है। उसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, उन कारणों को ढूंढने के लिए तो सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शोध ही रास्ता हो सकते हैं। अपने सीमित अनुभव से मैं एक कारण को खोज पाया हूं- हमारी पृष्ठभूमि एक महत्वपूर्ण कारक होती है। ‘पिछड़ी’ पृष्ठभूमि से आगे बढ़ चुका हमारा वर्तमान हमेशा आशंकित रहता है कि कहीं सामने वाला मुझे फिर से उस ‘पिछड़ेपन’ में धकेल देने को तैयार तो नहीं और उसकी बातों के जवाब में हम अक्सर आक्रामक रुख अपना लेते हैं। मैं किसी दूसरे की बात नहीं कहता, अपनी ही बताता हूं, कारखाने में बहुत छोटे स्तर से नौकरी शुरू की। आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं कि उस स्तर पर काम करने वाले कारीगर के प्रति कारखाने के ऑफिसर ही नहीं सुपरवाइजरी स्टाफ तक का व्यवहार कैसा होता है। आप भी उस रास्ते ही आगे बढ़े, जिस पर मेरा वर्तमान गतिशील है। ट्रेड एप्रैटिंस करने के बाद एक दिन ड्राफ्टसमैन हुए, बाद में ड्राफ्टसमैन का पद कार्यवेक्षक में समाहित हुआ तो कार्यवेक्षक कहलाए और इस तरह से सीढ़ी दर सीढ़ी पदोनन्तियों के बाद एक अधिकारी के तौर अपनी सामाजिक स्थिति का वह वर्तमान हासिल करते रहे जो आपको सामाजिक रूप से एक हद तक सम्मानजनक बनाता रहा। आपकी पृष्ठभूमि में तो सामाजिक सम्मान का सबसे क्रूरतम चक्र भी पीछा करने वाला रहा। आपने यदि हमेशा देवत्व को प्राप्त हो गए लोगों को ही अपनी प्रेरणा के रूप में दर्ज किया तो मैं इसमें आपको वैसा दोष नहीं देना चाहता जैसा अक्सर निजी बातचीतों में लोग देते रहे। आपके बारे में दुर्भवाना रखने वाले या अन्यथा भी आपकी आलोचना करने वाले जानते हैं कि उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने के मध्यवर्गीय व्यवहार से मुक्त रहते हुए ही मैंने जब-तब उनकी मुखालिफत की है। साथ ही आपकी पृष्ठभूमि के पक्ष को ठीक से रखने की कोशिश की है, जिसके कारण एक व्यक्ति का वर्तमान व्यवहार निर्भर करता है। यद्यपि यह बात तो मुझे भी सालती रही कि आपने कभी भी अपनी प्रेरणा में ‘कवि जी’ यानी ‘वैनगार्ड’ के संपादक सुखबीर विश्वकर्मा का जिक्र तक नहीं किया। ‘कवि जी’ से मुझे तो आपने ही परिचित कराया था। बल्कि कहूं कि देहरादून के लिखने पढ़ने वालों की बिरादरी का हिस्सा मैं आपके साथ ही हुआ। वह लघु पत्रिकाओं का दौर था, अतुल शर्मा, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी, विश्वनाथ आदि और भी कई साथी मिलकर एक हस्त लिखित पत्रिका निकाल रहे थे। पतिका का नाम था ‘अंक’। ‘अंक’ का पहला अंक निकल चुका था। दूसरे अंक की तैयारी थी, प्रकाशन के बाद उसका विमोचन हम लोगों ने सहस्त्रधारा में किया था। ‘कवि जी’ को उस रोज मैंने पहली बार देखा था। राजेश सेमवाल जी से भी वहीं पहली बार मुलाकात हुई थी। आपने ही बताया था देहरादून में नयी कविता के माहौल को बनाने वाले सुखबीर विश्वकर्मा अकेले शख्स रहे। आपके साथ ही मैं न जाने कितनी बार वैनगार्ड गया। मेरे ही सामने आपने नयी लिखी हुई कितनी ही कविताएं वैनगार्ड में छपने को दी। जरूरी हुआ तो ‘कवि जी’ की सलाह पर कविता में आवश्यक रद्दोबदल भी कीं। ‘कवि जी’ आपको बेहद प्यार करते थे। आप भी उनकी प्रति अथाह स्नेह और श्रद्धा से भरे रहे। हिन्दी में दलित साहित्य नाम की कोई संज्ञा उस वक्त नहीं थी। ‘कवि जी’ की कविताओं की मार्फत ही मैं दलित धारा की रचनाओं के कन्टेंट को समझ रहा था। आप उनकी व्याख्या करते थे और मैं सीखने समझने की कोशिश करता था। वरना आपकी कविताओं में जो गुस्सा और बदलाव की छटपटाहट मैं देखता था, उससे दलित कविता को समझना मुश्किल हो रहा था। उस समय लिखी जा रही जनवादी और प्रगतिशील कविता से उनका स्वर मुझे भिन्न नहीं दिखता था। ‘कवि जी’ की कविता का आक्रोश मिथकीय पात्रों को संबोधित होते हुए रहता था। आप ही बताते थे कि मराठी दलित कविता मिथकीय पात्रों की तार्किक व्याख्याओं से भरी हैं। मराठी कविताएं मैंने पढ़ी नहीं थी। शायद ही ‘कवि जी’ ने भी पढ़ी हों। यह उस समय की बात जब न तो आपने ‘अम्मा की झाड़ू’ (शीर्षक शायद मैं भूल नहीं कर रहा तो) लिखी थी, न ‘तब तुम क्या करोगे’ लिखी थी और न ही तब तक आपकी कविताओं की वह पुस्तिका प्रकाशित हुई थी, जिसके प्रकाशन की जिम्मेदारी देहरादून से प्रकाशित होने वाले कविता फोल्डर ‘फिलहाल’ ने उठायी थी। हां, ‘ठाकुर का कुंआ’ उस वक्त आपकी सबसे धारदार कविता थी। लेकिन हिन्दी कविता की जगर मगर दुनिया और उसके आलोचक तब तक न तो उस कविता से परिचित थे न ही जानते थे कि किसी ओमप्रकाश वाल्मीकि नाम के बहुत नामलूम से कवि की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ हिन्दी में दलित कविता की आहट पैदा कर चुकी है।
उस वक्त आपके मार्फत जिन दो व्यक्तियों को मैं जानता था, उसमें एक कवि जी
रहे और दूसरे उस समय भारत सरकार के प्रकाशन संस्थान के मुखिया श्याम सिंह ‘शशि’। श्याम
सिंह ‘शशि’ जी से मेरी कभी प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं रही। लेकिन आपके मुंह से अनेक
बार उनका नाम सुनते रहने के कारण एक मेरे भीतर उनकी एक आत्मीय छवि बनी रही।
#स्मृति
3 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-11-2017) को "मत होना मदहोश" (चर्चा अंक-2795) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर स्मृति चित्र और बेहद ईमानदारी से लिखा है आपने। इस क्रम को जारी रखें। इससे न केवल एक साहित्यकार के व्यक्तित्व की परतों को समझने में मदद मिल रही है बल्कि हिंदी दलित विमर्श के शुरुआती दौर को जानने का अवसर भी सहज उपलब्ध हो रहा है। बधाई विजय जी। अगली किश्त की प्रतीक्षा रहेगी।
सशक्त और ईमानदार ।बधाई हो
Post a Comment