कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
आपमें यदि बौद्धिक साहस और एक चेतना के साथ सतत लिखने का माददा न होता तो कहा नहीं जा सकता कि वंचितों की आवाज बनकर लिखी जा रही रचनाओं के स्वर को दलित साहित्य की संज्ञा से पहचाने जाने में अभी कितना वक्त लगता। पत्रकार मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा, ‘अपने-अपने पिंजरे’ तो छप ही चुकी थी। लेकिन उसे दलित साहित्य की रचना तो उस समय नहीं माना गया था। आपकी लगातार की जिदद भरी कोशिशों ने ही उस वातावरण का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाई कि जिस ‘सदियों के संताप’ को छापते हुए भी उसे दलित साहित्य की रचना न कह पाने की हमारी कमजोरियां उसे दलित कविताओं की पुस्तक के रूप में स्थापित कर गई। हमारी कमजोरियों का कारण वह वातावरण भी तो था जो आलोचना के गैर पेशेवराना मिजाज के कारण नामगिनाऊ था। और उस नाम गिनाऊ आलोचना में आपकी कोई जगह ही न थी। फिर एक अकेले व्यक्ति में इतना साहस कहां से पैदा हो जाता कि पहली ही किताब को दलित साहित्य कह पाए। कोई संगठन होता, कोई बड़ा आंदोलन चल रहा होता तो निश्चित ही वैसा लिख देने का साहस हम बटोर ही लेते।
आपको ध्यान होगा कि पुस्तक छपने के बाद नेहरू युवक केन्द्र, ई सी रोड़,
देहरादून के उस प्रांगण में जहां लीचियों के पेड़ झूमते थे, सिर्फ स्थानीय
रचनाकारों की उपस्थिति में ही आयोजित हुई ‘फिलहाल’ की गोष्ठी में पुस्तक का
लोकापर्ण और चर्चा हुई थी। अवधेश कौशल जी की वजह से नेहरू युवक केन्द्र दून के
रंगकर्मियों के सर्वसुलभ जगह थी। उनका अड्डा थी। इस नाते हमारे गोष्ठी के लिए वह
सर्वसुलभ ही थी। वरना गोष्ठी करने को भी तो कोई जगह हमारे पास नहीं थी। घरूवा
गोष्ठी के रूप में सदियों के संताप के छप जाने का कोई मतलब नहीं था।
यूं उसे लोकार्पण भी तो नहीं कहा जा सकता। पुस्तक लोकार्पण कैसे होता है, इसका भी तो हमें अनुभव कहां था।
बस मित्र इक्टठे हुए, आने कविताएं पढ़ी और उन पर चर्चा हुई। पुस्तक पर सम्पूर्ण
रूप से कोई बात नहीं हुई। हां, इतना जरूर हुआ कि उसके बाद पुस्तक को बेचना हमने
शुरू कर दिया। शुरूआती दिनों तक तो वह अनाम ही रही, फिर जब आपकी कविताएं पहली बार ‘हस’
मासिक में छपी और हिंदी की दुनिया में उन्हें दलित साहित्य के रूप में पहचाना
जाने लगा तो कितने ही पत्र पुस्तक की मांग के संबंध में आने लगे। यहां तक कि
उनमें से कई पत्र तो इस तरह के होते थे जो ‘फिलहाल प्रकाशन’ को एक लगातार का
प्रकाशन मानने की गलतफहमी में पूरा कैटलॉग भेजने की बात लिखते थे। सीमित प्रतियों
को बेच लेने के बाद हम उन बहुत से पाठकों को पुस्तकें भेज सकने में असमर्थ थे।
हमारा अंदाज भी कोई पेशेवराना नहीं था कि उन पत्रों के जवाब ही देते। वे बिना
जवाबी खत होने लगे। यद्यपि यह जरूर हुआ कि बहुत जिददी लोगों को पुस्तक की कुछ
फोटो कॉपी उस वक्त मुफ्त भेजी गयी। वह हमारे देहरादून में फोटोकॉपी मशीन के आ
जाने का शुरूआती समय था।
हिंदी में दलित साहित्य की अनुगूंज को जगाने का
श्रेय बेशक ‘हंस’ और उसके सम्पादक राजेन्द्र यादव को दिया जाता रहे, पर आपके बौद्धिक
साहस और सतत चेतना की जिदद के साथ आपके लिखने को दरकिनार नहीं किया जा सकता। वह भी
तब, जबकि हिंदी साहित्य की मुख्यधारा की पत्रिकाओं में छपने से आपकी रचनाएं
वंचित रहती जा रहा थी। आप तो वहां भी दलित की तरह ही ‘दलित’ पत्रिकाओं में ही छप
रहे थे। कुछ नाम याद आते है, मुगेर, बिहार से निकलने वाली मरगिल्ली सी पत्रिका ‘पंछी’,
राजस्थान से निकलने वाली ‘मरूगंधा’, देहरादून से निकलने वाला द्विभाषीय दैनिक ‘वैनगार्ड’,
देहरादून से हस्तलिखित पत्रिका ‘अंक’, कविात फोल्डर ‘संकेत’ और फिलहाल’, घोषित
रूप से मासिक लेकिन कभी कभी अनियमित हो होकर छपने वाली ‘नयी परिस्थितियां’, नागपुर
से निकलने वाला मराठी साप्ताहिक ‘नागसेन’। बेशक हिंदी में आलोचना का कोई
पेशेवराना रूप आज भी नहीं तो भी हिंदी साहित्य के इतिहास पर जब भी कुछ लिखा जाएगा
तो आपाको जम्प करके निकल जाना किसी के लिए भी मुश्किल ही होगा। हिंदी में आलोचना
का पेशेवराना रूप होता तो ऐसा हो नहीं सकता था कि शुद्ध साहित्य और पाप्लुर पर
चलने वाली बहसें आज इतना शोर मचाती। या फिर फेसबुक पर छपने वाली रचनाओं को बिना
पढ़े ही सिरे से खारिज करने वाली आवाजें ही ज्यादा गंभीर मानी जाती। पेशेवर आलोचक
उनकी भी पड़ताल पेशेवराना ढंग से करते और आलोचना का कोई वस्तुनिष्ठ रूप उभरता।
या यूं भी कि किसी एक आलोचक के बस चंद लेखक ही प्रिय नहीं होते, वह उन पर भी नाम
गिनाऊं तरह से पुनारवृत्ति भरे आलेख भर नहीं लिखता, बल्कि उन पुस्तकों और लेखकों
को भी खोजता जो बहुत नामालुम सी पत्रिकाओं में छपते और किसी अनजाने शहर के बांशिंदे
होते। यहां चूंकि मैं अभी ऐसे उन बहुत से अनाम रह गई रचनाओं और रचनाकारों के बारे
में बात नहीं करना चाहता। यहां तो सिर्फ आपकी ही बात करूंगा। क्योंकि, आप भी
जानते हैं अच्छे से स्थापित हो जाने के बाद ही आपकी रचनाओं पर लिखा और सुना
गया। जबकि, उन रचनाओं की त्वरा तो हमेशा ही एक जैसी रही। अपने लिखे जाने के वक्त
भी और छप जाने के वक्त भी।
# स्मृति
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-11-2017) को "दूरबीन सोच वाले" (चर्चा अंक-2799) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर ब्लॉग। कृपया ब्लॉगर का अनुसरणकर्ता गैजेट लगायें ताकि ब्लॉग का अनुसरण किया जा सके और समय समय पर छपने की सूचना प्राप्त होती रहे।
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