कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
आपको स्मरण करते हुए यूं तो देहरादून की उस गोष्ठी के प्रकरण को ही दर्ज
करना चाहता था, जिसने हिंदी में दलित साहित्य की पूर्व पीठिका तैयार की। लेकिन
इधर यह खबरें सुनने में आ रही है कि वर्णवादी संस्कारों में हिंसा का ताण्डव
रचने वाले अपने तीखे नाखूनों से प्रहार करने लगे हैं। उनके प्रहारों की ‘सांस्कृतिक’ बानी का रूप भी दिखने लगा है। वे
आपकी आत्मकथा ‘जूठन’ को पाठ्यक्रम से हटा देना चाहते हैं। उनके कुतर्कों का
पर्दाफाश करते हुए ही आलोचक वीरेन्द्र यादव को लिखना पढ़ा है कि ‘जूठन’ को न
पढ़ाए जाने की मांग करने वालों का मानना है, ‘’इसको पढ़ाते हुए आध्यापकों की
भावनाएं आहत होती हैं।‘’ समझना मुश्किल नहीं कि आहत भावनाओं वाले वे अध्यापक कौन
हो सकते हैं, जैसे यह समझना मुश्किल नहीं कि इस रिपोर्ट को लिखने वाले पत्रकार के सरोकार क्या होंगे जो इस बात का ‘खुलासा’ करता है, ‘रूसा पाठ्यक्रम में अंग्रजी
विषय के छठे सेमेस्टर में आजादी से पूर्व ओमप्रकाश वाल्मीकि के लिखे जूठन उपन्यास
के अनुवादित अंश शामिल किए गए हैं।‘ यह 'खुलासा' इस बात का गवाह है कि वर्तमान को ही ठीक से न जानने वाली यह समझ इतिहास को
किस तरह से तोड़ती मरोड़ती होगी। दिलचस्प तथ्य है कि मुख्यधारा की राजनीति करने
वाले दो भिन्न धाराओं के छात्र संगठनों के बीच यहां कोई
मतभेद नहीं। दोनों ही इस तरह की गफलत फैलाना चाहते हैं। तिस पर
राजनेताओं का आलम यह कि वे तथ्यों के बारे में अनभिज्ञ होते हुए मामले की जांच
करने की बात कहें तो।
क्या वे जानते हैं कि दलित आत्मकथाओं का इतिहास चेतना का सबक है ? ‘जूठन’
लिखकर तो आपने वह महती काम किया, बल्कि आपने ही क्यों, अन्य दलित रचनाकरों ने भी
आत्मकथाओं का लिखकर इस बात को सुनिश्चित किया कि षड्यंत्रकारियों के लिए भविष्य
में दलित रचनाकारों को उनकी पृष्ठभूमि से विलगाना संभव ही नहीं हो सकेगा। आप अक्सर
कहा करते थे, ‘’ब्राह्मणवादियों ने बड़ी चालाकी से यह काम किया कि दलित-कामगार
तबके का जो भी बौद्धिक दिखाई दिया उसे पुराणों में दर्ज करते हुए उन्होंने उसे
ब्राह्मण मूल का ही बताया। इस तरह से सारे ज्ञान ध्यान का ठेका सिर्फ ब्राह्मणों
के खाते में ही डाले रखा।‘’ अपनी बातों के पक्ष में आपके पास अकाट्य तर्क रहते थे।
आत्मकथा लिखने के पीछे रचना का सुख प्राप्त करना जैसा तो उददेश्य था भी नहीं
फिर आपका। आप तो दलित जीवन को दुनिया के सामने रख देने की जिम्मेदारी से भरे थे।
अपने वर्तमान से प्रश्न करना चाहते थे। ‘’इस पीड़ा का अहसास उन्हें कैसे होगा
जिन्होंने घृणा और द्वेष की बारीक सुइयों का दर्द अपनी त्वचा पर कभी महसूस नहीं
किया ? अपमान जिन्हें भोगना नहीं पड़ा? वे अपमान-बोध को कैसे जान पाएंगे ? रेतीले ढूह की तरह सपनों के बिखर जाने की आवाज
नहीं होती। भीतर तक हिला देने वाली सर्द लकीर खींच जाती है जिस्म के आर-पार।‘’[i]
जैसे दूसरे लोगों की जिज्ञासाएं होती होंगी कि दलित लेखक शुरू में ही अपनी आत्मकथएं
क्यों लिख देते हैं, मेरी भी रहती थी। पर आपकी बातें मुझे सोचने को मजबूर करती
थी। मुझे यह समझने में दिक्कत नहीं आ रही थी कि दलित आत्मकथाओं को रचनाकारों का
चूक जाना न मानू जैसा कि मुख्यधारा में मान लिया जाता है कि जब रचनाकार एक हद तक
अपने रचनात्मक लेखन में कुछ जोड़ने के साथ नहीं रहता तो ही उसे आत्मकथा लिखनी
चाहिए। दलित आत्मकथाओं को समझने के लिए यह तर्क कतई लागू नहीं किया जा सकता।
बल्कि उन्हें तो इतिहास को बिगाड़ने वाली ताकतों के खिलाफ युद्ध के रूप में देखते
हुए ही परिभाषित किया जा सकता है। इतिहास को बिगाड़कर प्रस्तुत करने वाले लाख
चाहकर भी अपने षड्यंत्रों में सफल नहीं हो पाएंगे। दलित आत्मकथाओं का सच उनके हर
झूठ का पर्दाफाश कर देगा और दुनिया भर के दलितों, शोषितों की उम्मीदों का चीराग
बना रहेगा। एक रचनाकार के जीवन-संघर्ष, शोषित वर्ग के हर व्यक्ति को प्रेरित करते
रहेंगे। उनकी रोशनी में वे दुनिया के षड्यंत्रकारियों को चुनौती देना सीखते रहेंगे।
आज जो ये आपके लेखन के दुश्मन हुए जा रहे हैं, वे थके हुए एवं हारे हुए लोग
हैं। हिंसा को फैलाते हुए ही जिन्होंने हमेशा मेहनतकश तबके को शारीरिक ही नहीं मानसिक
रूप से भी दबाए रखने के लिए हर हथकंडे का इस्तेमाल किया है। याद करो अपने पिता की
कही वह बात जिसे आपने खुद ही दर्ज किया था, ‘’बेट्टे, तू एक गरीब चूहड़े का बेट्टा
है ... इसे हमेशा याद रखियो...’’ [ii]
पिता ने आपको जिस ‘गरीब चूहड़े’ के जीवन
को हमेशा याद रखने की हिदायत दी, यह वैसी ही हिदायत नहीं थी जो उसी जीवन के गलीचपन
में डूबोने वाली थी। वरना आप जानते ही हैं आज जो ये आपको पाठ्यक्रम से निकालने की बात
करने वाले लोग हैं, उस हेडमास्टर कलीराम से भिन्न कहां जो उस स्कूल से निकाल न
पाने की स्थिति में पढ़ने से वंचित रखने और चूहडे़ के लड़के को चूहड़े का ही रहने
देने के हालत बना देने में माहिर था।
‘’एक रोज हेडमास्टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, ‘क्या नाम है बे
तेरा ?’
’आमेप्रकाश’।
’चूहड़े का है ?’ यह वही हेडमास्टर था जिसे देखते ही बच्चे सहम जाते थे।
‘जी ।‘
’ठीक है... वह जो शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियां तोड़के णड़ू
बना ले। पत्तों वाली झाड़ू बनाना। और पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा
तो यह खानदानी काम है। जा...फटाफट लग जा काम पे।‘’[iii]
काश कि आपको व्यवस्थित पढ़ाई करने का मौका मिला होता। इतिहास, समाज, शिक्षा,
धर्म, जाति- कितने ही तो विषय थे जिनसे आप रूबरू होने की इच्छा रखते थे। प्रश्नों
को चुनौती की तरह स्वीकारते थे। एक समय तक जिस तरह से आप डॉ अम्बेडकर तक से
परिचित न हो सके, ‘’मेरे लिए डॉ अम्बेडकर उस समय तक एक अपरिचित नाम था। मैं
गांधी, नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्ण, विवेकानंद, टैगोर, शरत, तिलक,
भगतसिंह, सुभाष बोस, चंद्रशेखर आजाद, सावरकर आदि के विषय में तो जानता था। लेकिन
डॉ अम्बेडकर से अनजान था। ‘त्यागी इंटर कॉलेज, बरला’ में कक्षा बारह तक पढ़ाई
करके भी किसी भी रूप में यह नाम मेरी जानकारी में नहीं आया था। उस पुस्तकालय में
भी अम्बेडकर पर कोई पुस्तक नहीं थी।‘’[iv]
आज आपको पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर तमाम
दलित विद्यार्थियों से आपको परिचित न होने देने का उनका षड्यंत्र ही है जो उस पत्रकार
की लेखनी से उतरा है जिसमें वह आपके इस दुनिया से विदाई को आपकी पैदाइश के समय से
भी वर्षों पहले लिख रहा है। वह अनाजने में की गई गलती नहीं है, एक षड्यंत्र ही है।
जबकि आज सूचनाओं का इतना ढेर है। एक क्लिक में आपका नाम लिखकर भी आपके जन्म और
विदा की तिथियों को कौन नहीं पा सकता था। आप ही ने तो उन्हें चेताया हुआ है कि एक
पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर और उन्हें पढ़-पढ़कर ही तो आप डॉ अम्बेडकर से
परिचित होते गए। ‘’किताब लेकर मैं घर आ गया था। प्रारम्भ के पृष्ठों पर कुछ ऐसा
नहीं था जिसे विशिष्ट कहा जा सके। लेकिन जैसे-जैसे मैं इस पुस्तक के पृष्ठ
पलटता गया, मुझे लगा, जैसे जीवन का एक अश्याय मेरे सामने उघड़ गया है। ऐसा अध्याय
जिससे मैं अनजान था। डॉ अम्बेडकर के जीवन-संघर्ष ने मुझे झकझोर दिया था।‘’[v]
2 comments:
अच्छा लग रहा है आपके स्मृति मंथन को सिलसिलेवार पढ़ना। एक रचनाकार के जीवन और उनके विचारों का परिचय तो मिल ही रहा है इन स्मृति चित्रों द्वारा दलित चेतना का ऐतिहासिक परिदृश्य भी स्पष्ट हो रहा है। ऐसे अकादमिक लोगों की तंग सोच पर तरह आता है जो जूठन जैसी रचनाओं को पाठ्यक्रम से हटवाने के प्रयास में हैं लेकिन इस तरह के उद्यमों से इतिहास तो बदल नहीं सकता है सवर्णवादी तंगनजरी का सबूत जरूर मिलता है। अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-01-2018) को "आओ कुत्ता हो जायें और घर में रहें" चर्चामंच 2844 पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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