Wednesday, April 11, 2018

जब धरती पर जगह पड़ जाती है कम

ऐसा क्यों होता है कि एक स्त्री को हर वक्त अपने स्त्री होने को साबित करना पड़े ? क्या दुनिया भर के समाजों में स्त्री की स्थिति उतनी ही एक जैसी है, जितनी भारतीय समाज में ?

गीता दूबे की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसे सवालों का उठना स्वाभाविक है। भारतीय समाज में स्त्री की स्थितियों को लेकर लिखी गई उनकी कविताओं का सच इस बात की ताकीद करता है कि धरती पर उनके होने को कम कर देने की साजिश तरह-तरह से रची जाती रही है। हर क्षण भय और आतंक के माहौल में वे न जाने कितनी अमानवीयताओं को झेलते हुए जीने को मजबूर हैं। परम्‍पराओं के बंधनों में ही एक स्‍त्री को अपनी मानवीयता का गिरवी रख देना हो जाता है। पिंजरे में कैद चिडि़या की तरह जीना होता है। लेकिन उनका यह स्वर निराशा की उपज नहीं बल्कि जतन से हौंसला बांधने की हिमायत करता हुआ है।

वर्तमान में गीता दूबे आलोचना की दुनिया में सक्रिय हैं। सतत रचनारत हैं। उनकी कविताओं से यह ब्लाग अपने को समृद्ध कर पा रहा है। 

 विगौ

गीता दूबे
9883224359

स्त्री होना


डर- डर कर जीना होता है
सीना होता है गहरे जख्मों को
परम्‍पराओं के बंधन में बंधे हुए 
हर पल अपनी कैफियत देना ह़ोता है।

खुद के दर्द दिल में छुपाकर
होठों पर मुस्‍कान बिछाकर
औरों को सुनना होता है।
 
तकलीफों की आग में
लहराकर परचम आधुनिकता का
रुढ़ियों की चक्की में पिसना होता है ,
आंखों के गीले  कोरों–सा
हौले-हौले  सीझना होता है।

वय हो जरूरी नहीं,
चौंसठ कलाओं में दक्ष होकर
सजी-संवरी देह होना होता है

स्त्री होना
विषैले सांपों की संगत को
तनी हुई रस्सी समझकर चलना होता है।


चिड़ियां


क्‍या चिड़ियां होती हैं लड़कियां ?
फुदकती फिरती हैं जो
घर-आंगन, टोले -मोहल्ले में
जिनके कलरव से चहकता है घर

लड़कियों का हंसना-बोलना तो
सुहाता नहीं ज्‍यादा देर 
वे तो मुस्‍कराते हुए भी
होती हैं पिंजरे की कैद में जीवन भर।

चिड़ियों की तरह ही बेघरबार हो जाती हैं
जो लड़कियां
शिकारियों के जाल से बच नहीं पाती हैं।
बड़े जतन से बांधती हैं घोंसला,
तिनके -तिनके जोड़ती हैं हौंसला।
 चाहती हैं बनाना
 एक  खूबसूरत  आशियाना
पर  उजाड़  दी  जाती हैं।
आंधियों के वार से
हो जाती हैं तार- तार।
तब गेंद बन जाती हैं लड़कियां
सुख और सुकून की तलाश में
दर -दर टप्पे खाती हैं।

हां लड़कियां सचमुच चिडि़यां होती हैं
हिम्मत नहीं हारती
उम्मीदों और अरमानों की डोर थामे
झूलती रहती हैं
परंपरा और आधुनिकता के बीच।
ढेरों सपने देखती हैं,
खूब  पेंगे भरती हैं।
कभी- कभी तो छू  ही लेती हैं आकाश की ऊंचाइयां।

उसे त्रासदी ही कहना ठीक
जब धरती पर जगह पड़ जाती है कम
या जब वे ही थक जाती हैं झूलते -झूलते
हांफने लगती हैं पींगे भरते -भरते
उसी क्षण तो डोरी को फंदा बना
झूल जाती हैं
उड़ जाती हैं अनंत आकाश में
छोड़ जाती हैं प्रश्न,
आखिर क्यों
चिडि़यां ही हो सकती ड़कियां, इंसान नहीं ?



रंग

  
तुम्हारे पास हैं बहुत से रंग हैं
दोस्ती, प्यार, इकरार
उम्मीदों और खुशियों के।
सपनों का तो रंग -बिरंगा
चंदोवा ही तान दिया है तुमने।
निश्छल मुस्कान का भी तो ,
एक और रंग है तुम्हारे पास ।
ओ मेरे अनोखे रंगरेज,

रंग दिया है तुमने
मेरी बेनूर दुनिया को
अपने तिलस्मी रंगों के जादू से।

मेरे पास बस एक ही रंग है
समर्पण का।
आओ, रंग दूं तुम्हें।
मौसम भी है और दस्तूर भी।
इस रंग बदलती दुनिया में
आओ, सुरक्षित रख दें हम,
अपने- अपने रंगों को
एक दूसरे के पास।
ताकि बचे रहें ये रंग
और बची रहे यह कायनात भी,
बदरंग होने से।


 प्यार

दोनों ओर खड़े हैं पहाड़
पसारे अपनी बांहें
बुलाते हैं पास
भरने को अंकवार।
दौड़ती हूं भर दम
पर थक-सी जाती हूं
लड़खड़ा जाते हैं पांव ,
उखड़ -उखड़ जाती है सांस।
ओ मेरे प्यारे पहाड़
एक विनती है, सुनोगे,
थोड़ा सा उतर आओ नीचे
बढ़ा दो मेरी हिम्मत,
लगा लो मुझको गले
थोड़ा सा बढ़ आई मैं
आओ
जरा सा उतर आओ तुम भी
यही तो है दोस्ती,
यही तो है प्यार।
मानते हो ना,
ओ मेरे मीत विशाल।
आओ, मिलकर लिखें हम
प्रकृति और मानव के प्रेम का
अनोखा इतिहास।

4 comments:

कविता रावत said...

गीता दुबे जी का सपरिचय रचनाएँ पढ़वाने हेतु धन्यवाद!

Anonymous said...

गीता दूबे की कविताओं ने मर्म को स्पर्श किया।
अनुभवों और अनूठे भाषा प्रयोगों का सम्मिलन कविताओं को समृद्ध बनाता है।
कवयित्री नयी ऊँचाइयों को गले लगाए।शुभकामनाएं।

किरण सिपानी, कोलकाता

Onkar said...

सुंदर कविताएं

batkahi said...

गीता जी की कविताएँ स्त्री विमर्श में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप हैं और प्रेम की नई जमीन तलाशती हैं...हाँलाकि संक्षिप्त मुलाकात में व्यक्तिगत स्तर पर उन्हें जितना चंचल और खिलंदड़ देखा है ये कविताएँ उनका गम्भीर चेहरा उजागर करती हैं।गीता जी को और विजय भाई दोनों को बधाई।.....यादवेन्द्र