कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
आपके व्यवहार में बराबरी का भाव, हमारे बीच उम्र के फासले को भी नहीं रहने देता था। फिर चाहे किसी निजी और घरेलू समस्या से ही क्यों न घिरे हों, आपस में हम उसे शेयर कर पाते रहे और उनसे निपटने के संभावित रास्ते भी ढूंढते रहे। यह अलग बात है कि नतीजे हमारी सीमाओं के दायरे में ही रहते थे। समस्याएं उन सीमाओं से बाहर बनी रहती थीं। सामाजिक ताना-बाना भी हमारी सीमाओं की परिधि खींचे रहता ही था। सामाजिकता की एक सीख ऐसी भी थी जो सीमाओं के भीतर बने रहते हुए हमें संकोची भी बना देती थी। आप जैसा बौद्धिक साहस वाला व्यक्ति भी अक्सर उसकी चपेट में होता तो मुझ जैसे का क्या। वह किस्सा तो याद होगा।
उस वक्त साहित्य की दुनिया में आप ‘सितारे’ की तरह
चमकने से पहले शाम के धुंधलके में थे। ‘हंस’ का वार्षिक आयोजन था- 30 जुलाई,
कथाकार प्रेमचंद की स्मृति का दिवस। वर्ष कौन सा था, यह तत्काल याद नहीं। बस उस
कार्यक्रम से कुछ माह पहले ही आपकी कविताओं को ‘हंस’ ने छापा था। ‘हंस’ के उस
आयोजन में आप मुख्य वक्ता की तरह आमंत्रित थे। आपके जीवन का वह अभूतपूर्व दिन था
जब साहित्य के ऐसे किसी गौरवमय कार्यक्रम में आप एक वक्ता ही नहीं, मुख्य वक्ता
की तरह शिरकत करने वाले थे। अपने संकोच से उबरने के लिए आपने मुझे भी साथ चलने को
कहा था, ‘’तुम भी साथ चलो तो अच्छा रहेगा। रात को ही लौट आएंगे।‘’ आपने इतने
अधिकार से कहा था कि मैं मना कैसे करता। मेरा संकोच मुझे यदि रोक रहा था तो इसी
बात पर कि आप तो मंच में बैठ जाएंगे और मैं कहां और किसके साथ रहूंगा। लेकिन दूसरे
ही क्षण यह सोच कर श्रोता समूह के बीच खामोश बने रहते हुए तो बैठा ही रह सकता हूं,
मैंने हां कर दी थी। आप भी मेरे संकोचपन से वाकिफ थे और इसीलिए आपने रात की बस से
ही लौटने पर जोर दिया था। ‘हंस’ के उस आयोजन में संभावित लिक्खाड़ों के बीच आप भी
तो अपने को अनजान सा ही पाते थे।
दिल्ली उतरकर हम सीधे ‘हंस’ कार्यालय पहुंचे थे। ‘हंस’
संपादक राजेन्द्र यादव अपने दफ्तर में थे। दफ्तर में कुछ दूसरे लोग भी थे। सामान्य
आपैपचारिकताओं के बाद ही हम दोनों अकेले हो गए थे। उसी वक्त कवि और कलाकार हमारे
दून के निवासी अवधेश कुमार भी पहुंचे। यद्यपि अवधेश जी की उपस्थिति हमारे
अनाजनेपन को भुला देने वाली हो सकती थी,
लेकिन अवधेश ही नहीं देहरादून के दूसरे साथियों के व्यवहार में आप अपने लिए उस
आदर को न पाने के कारण उन्हें बा्रह्मणी मानसिकता से ग्रसित मानते थे, और उसी
प्रभाव में मैं भी अवधेश जी से कोई निकटता महसूस नहीं कर सकता था। कुछ ही समय पहले
घटी वह घटना मेरे जेहन में थी जब एक रोज मैंने अवधेश जी से झगड़ा-सा किया था। उस
झगड़े के कारणों को रखने से सिर्फ इसलिए बचना चाहता हूं कि अभी की यह बात विषयांतर
की भेंट चढ़ जाएगी।
अवधेश जी का उन दिनों दिल्ली आना जाना काफी रहता था।
बहुत से प्रकाशकों के लिए पुस्तकों के कवर पेज बनाने के करार उन्होंने इस वजह से
किए हुए थे कि उनकी बेटी का विवाह तय हो चुका था। अवधेश जी गजब के कवर डिजाइनर थे।
वे हां कर दें तो काम की कमी उनके पास हो नहीं सकती थी और उस वक्त वे उसी तरह की
जिम्मेदारी के काम से लदे थे।
अवधेश जी की उपस्थिति आपको तो असहज करने वाली थी ही,
मैं भी पिछले दिनों घटी एक घटना के कारण सामान्य नहीं महसूस कर सकता था। उस घटना का जिक्र फिर कभी करूंगा।
‘हंस’ कार्यालय में हंसी-ठट्टे की आवाजें थी, लेकिन हम दोनों ही अपने को अकेला पा रहे थे। वहां के अकेलेपन से छूट कर हम दोनों एक दूसरे के साथ हो जाने की मन:स्थिति में थे, लिहाजा हंस कार्यालय से बाहर निकल लिए। एक दुकान में चाय पी और फिर यह समझ न आने पर कि कहां जाएं, क्या करें, बस पकड़ कर मंडी हाऊस चले गए। कार्यक्रम मंडी हाऊस इलाके की ही किसी एक इमारत में था, लेकिन इस वक्त अपनी यादाश्त पर जोर देने के बाद भी मैं उसका नाम याद नहीं कर पा रहा। कुछ घंटे मंडी हाऊस के आस-पास बिताने के बाद हम तय समय से कार्यक्रम में पहुंच गए थे। कार्यक्रम हॉल के भीतर घुसते हुए भी हम उसी तरह साथ थे क्योंकि वहां मौजूद लोगों में आपको पहचानने वाला कोई नहीं था। कार्यक्रम शुरू होने के साथ बाद में जब आपका नाम पुकारा गया, उस वक्त मंच पर जाते हुए हमारे आस-पास बैठे लोगों के लिए भी अनुमान लगाना मुश्किल ही था कि हिंदी में दलित धारा को पूरे दमखम से रखने वाले उस शख्स की शक्ल वे पूरी तरह से याद रख पाएं। उस रोजही कार्यक्रम की समाप्ति पर आपके प्रशंसक सूरज पाल चौहान से, जो आज स्वयं दलित धारा के एक स्थापित नाम है, मेरी मुलाकात हुई। जैसा कि तय था कार्यक्रम की समाप्ति पर हम दून लौट जाएंगे, लेकिन सूरज पाल चौहान जी के स्नेह और आग्रह को ठुकराना आपके न आपके लिए संभव हुआ और न ही मैं जिद्द कर पाया कि लौटना ही है। वह रात हमने सूरज जी के घर पर ही बितायी। उनके परिवार के सदस्यों के साथ।
उसी रोज सूरज जी के घर पर उनके एक पारिवारिक मित्र भी
पहुंचे हुए थे। रात के भोजन से पहले सूरज जी अपने पारिवारिक मित्र की आवभगत में
हमें भी शामिल कर लेना चाहते थे। आप तो पीते नहीं है, सूरज जी यह नहीं जानते थे। उस
वक्त आपने तत्काल सूरज जी यह कह देना भी उचित नहीं समझा और चार गिलासों में ढल रही पनियल धार को दूसरों की
तरह से ही सहजता से देखते रहे। आप जानते थे कि यदि तुरंत ही बता दिया कि पीता नहीं
हूं तो दो स्थितियां एक साथ खड़ी हो सकती हैं, क्योंकि मेजबान अपने प्रिय लेखक के
आत्मीयता में कोई कमी न रहने देने के लिए जिस तरह से पेश आ रहे हैं उसका सीधा
मतलब है किसी दूसरे पेय की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके, उसके लिए शुरु हो जाने
वाली भाग दौड़ रंग में भंग डाल सकती है। फिर यह भी तो आप जानते ही थे कि उस स्थिति
में आपके साथ चल रहे व्यक्ति को तो गिलास में ढलती पनियल धार से यूं तो कोई परहेज
नहीं पर अनजानों या सीमित पहचान वालों की महफिल का हिस्सा न हो पाने में उसके भीतर
का संकोच तो उभर ही आएगा। खामोशी के साथ आपने कनखियों से देखा, आंखों ही आंखों में
संवाद कायम किये रहे। लबालब भरा हुआ आपका गिलास राह देखता रहा कि मैं उसे अब अपने
होठों से छुऊं कि तब। ‘हंस’ कार्यालय में हंसी-ठट्टे की आवाजें थी, लेकिन हम दोनों ही अपने को अकेला पा रहे थे। वहां के अकेलेपन से छूट कर हम दोनों एक दूसरे के साथ हो जाने की मन:स्थिति में थे, लिहाजा हंस कार्यालय से बाहर निकल लिए। एक दुकान में चाय पी और फिर यह समझ न आने पर कि कहां जाएं, क्या करें, बस पकड़ कर मंडी हाऊस चले गए। कार्यक्रम मंडी हाऊस इलाके की ही किसी एक इमारत में था, लेकिन इस वक्त अपनी यादाश्त पर जोर देने के बाद भी मैं उसका नाम याद नहीं कर पा रहा। कुछ घंटे मंडी हाऊस के आस-पास बिताने के बाद हम तय समय से कार्यक्रम में पहुंच गए थे। कार्यक्रम हॉल के भीतर घुसते हुए भी हम उसी तरह साथ थे क्योंकि वहां मौजूद लोगों में आपको पहचानने वाला कोई नहीं था। कार्यक्रम शुरू होने के साथ बाद में जब आपका नाम पुकारा गया, उस वक्त मंच पर जाते हुए हमारे आस-पास बैठे लोगों के लिए भी अनुमान लगाना मुश्किल ही था कि हिंदी में दलित धारा को पूरे दमखम से रखने वाले उस शख्स की शक्ल वे पूरी तरह से याद रख पाएं। उस रोजही कार्यक्रम की समाप्ति पर आपके प्रशंसक सूरज पाल चौहान से, जो आज स्वयं दलित धारा के एक स्थापित नाम है, मेरी मुलाकात हुई। जैसा कि तय था कार्यक्रम की समाप्ति पर हम दून लौट जाएंगे, लेकिन सूरज पाल चौहान जी के स्नेह और आग्रह को ठुकराना आपके न आपके लिए संभव हुआ और न ही मैं जिद्द कर पाया कि लौटना ही है। वह रात हमने सूरज जी के घर पर ही बितायी। उनके परिवार के सदस्यों के साथ।
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-11-2018) को "कार्तिकपूर्णिमा-गुरू नानकदेव जयन्ती" (चर्चा अंक-3164) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
"कार्तिकपूर्णिमा-गुरू नानकदेव जयन्ती" की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर संस्मरण। किस्से के पूरा होने का इंतजार रहेगा।
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