Sunday, December 16, 2018

कि बस जरा गौर से देखिए

सहज, शांत से दिखने वाले शैलेंद्र जी आजकल शैलेंद्र शांत के नाम से लिखते हैं। वे एक लम्बे समय से कविता की दुनिया में अपने साथी कवियों के सहयात्री की तरह अपनी उपस्थिति को दर्ज करते रहे हैं, बिना इस बात को ध्यान में रखते हुए कि उनकी कविताओं पर हिंदी का ‘प्रबुद्ध’ संसार क्या राय रखता है।

शैलेंद्र जी की कविताओं में उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता की स्पष्ट छाप है। विभिन्न समयअंतरालों पर लिखी गई उनकी कविताओं में सतत बहती एक ऐसी धारा है जो कविताओं में मौजूद उनकी वैचारिकता को श्रृंखला का रूप प्रदान करती है। उनकी एक कविता का शीर्षक ‘कि बस जरा गौर से देखिए’ यहां दी जा रही कविता श्रृंखला के शीर्षक पर कहीं ज्याादा सटीक नजर आ रहा है। इसीलिए अन्य कविताओं को उनके मूल शीर्षक के साथ ही इस शीर्षक के भीतर रखते हुए पढ़ने के लिए प्रस्तुत किया गया है। शैलेन्द्र जी की कविताएं इस ब्लॉग का मान बढ़ा रही है।

शैलेन्द्र जी का आभार कि उन्‍होंने अपनी कविताओं को सांझा करने का अवसर दिया।

      

शैलेंद्र शांत

शंका


तुममें नहीं रही
कि मुझमें ही
वह बात
अब कौन बताये 
तस्वीर बिला शक 
धुंधली सी नजर 
आती है 
राहगीर !
जरा ठहरो 
हमारी दूर करो 
शंका !


घातक



किससे करें
कितनी बार
और क्यों
शिकायत
अनसुनी
जब रह जानी है !
बहुत घातक होता
है यह अहसास
टूट-बिखर जाता है
विश्वास 


बताओ पलाश


कोई टूंक ले पत्तियां
चाहे ले जाये शाख
कोई आए ना आये
सुस्ताने तुम्हारे पास
तुम होते नहीं उदास
तुम होते नहीं हताश
कहां से जुटाते हो तुम
जीवन रस, जीवन गंध
कैसे काटते हो मधुमास
बताओ, बताओ पलाश

जाने क्यों


मुझे शक होता है
जाने क्यों
कभी-कभी
बहुत ज्यादा
कि इतने अच्छे
प्रवचनों
इतनी अच्छी
डिजिटल सदिच्छाओं
इतनी अच्छी
मातृ भक्ति
इतने रसों में डूबे
सुरकारों
तबलचियों
अनंत प्रतिस्पर्धा
में उतरे कलमचियों
के बावजूद
शक की गुंजाइश
बनी ही रहे क्यों
कहीं आवरण तो
नहीं चढ़ाया जा रहा
स्वरों को कोरस से
अलगाया तो नहीं जा रहा
उत्सव के शोर में
जबरन चंदे की उगाही के
जुल्म को तो नहीं छुपाया जा रहा
मुझे शक होता है, जाने क्यों !

निष्कलंक ! 


सवाल थक गये
पहाड़ चढ़ते-चढ़ते
सहरा में भटकते-भटकते
खटखटाते कपाट ईश्वरों के
अरे ! जवाब तो वहां था
उपवास पर बैठा
उसे भी जवाब चाहिये था
मालूम नहीं किससे, मगर
कितनी अच्छी विधि है यह -
निष्कलंक ! निष्पाप !

कबूतर


गिद्धों से भर गया है आकाश
हां, हां, तू है बहुत डरा हुआ
बहुत -बहुत ज्यादा है हताश
फिर भी तू गा, सुना गुटर गू
शायद तब देर -अबेर ही सही
रेंगे उनके कानों में जूँ !

मन की बात


सुन सको तो
सुन लिया करो जी
कभी - कभार
खेतों के
बागानों के
वनों के
खदानों के
छोटे - छोटे
कल - कारखानों के
हाट - दुकानों के
मन की बात !
अपनी ही सुनाते रहोगे
आखिर कब तक ?

तोता



तोता बन
तोता बन
बना रह तोता
हरि-हरि बोल
हरि-हरि बोल
तौबा-तौबा
भूले से ना कभी
खरी-खरी बोल !

बोलो



यह जो झूठ है
बोलता बहुत है
चुप्पी से तो बंद
नहीं किया जा सकता 
इसका मुंह सच बाबू !
अच्छा हो चाहे बुरा 
असर तो होता ही है 
बोलने का,  बोलो 
बोलो झूठ के खिलाफ 
कि हालात हो ना जाये बेकाबू !


कब तक ?


कितना मनाएं मातम
कितनी बार जलाएं मोमबत्तियाँ
कितनी बार करें इजहार गुस्से का
लानतें भेजें किस-किस को
नहीं, यह महज दंड का नहीं
मानसिकता का मामला है ज्यादा
अरे वह वस्तु नहीं, वस्तु नहीं
नहीं है महज मांस का लोथड़ा
सोच ही समाज का है भोथरा
सो उस सोच को बदलिए
जुबान को बदलिए
हैवान में तब्दील रहे
इंसान को बदलिए
जैसे भी हो बदलिए
आखिर कब तक मनायेंगे मातम
कब तक जलाते रहेंगे मोमबत्तियाँ !

कि 


देख लूं
दर्पण
एक बार फिर
तो कुछ कहूं !


1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-12-2018) को "हमेशा काँव काँव" (चर्चा अंक-3188) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक