युगवाणी एक लोकप्रिय व्यवसायिक पत्रिका है। लिहाजा ‘स्वप्नदर्शी’ समय और ‘दहशतगर्द’
स्थितियों की एकसाथ प्रस्तुति उसमें प्रकाशित होना पेशेवर ईमानदारी के दायरे में
ही कही जाएगी। ‘स्वप्नदर्शी’ समय जिनकी प्राथमिकता हो वे किसी भी स्टॉल से युगवाणी
खरीद कर पढ़ सकते हैं।
युगवाणी के जुलाई 2019 के अंक में प्रकाशित राजेश
सकलानी के कॉलम ‘अपनी दुनिया’ का एक हिस्सा यहां प्रस्तुत है।
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वो फुर्तीला और चौकन्ना है। उसकी ओर देखो तो डर लगता है। एक सिहरन उठती है और शरीर बचाव के लिए तैयार होने लगता है। एक सुरक्षात्मक प्रतिहिंसा जायज हो जाती है।
ऐसा अक्सर होता है कि हम आत्मीयता की तलाश में अचानक एक खूंखार नजर आने वाले
कुत्ते के सामने पड़ जाते हैं। आप तुरन्त अस्थिर हो जाते हैं और दिल की धड़कनें तेज
हो जाती हैं। मनःस्थिति घबराहट में चली जाती है। न आगे कदम बढ़ता है और न पीछे। तभी
मेजबान मुस्कराते हुए प्रकट होते हैं, आपकी खराब हालत की परवाह न करते हुए सिर्फ
एक वाक्य कहते हैं, ‘’यह काटता नहीं है।‘’
यह तो कोई बात न हुई। इतनी बुरी हालत और अनियंत्रित रक्तचाप पैदा करने की
जिम्मेदारी तो आखिर उन्हीं की बनती है। जिन्हें किसी से भी सद्भावना और प्रेम न हो
वे हमेशा दूसरों को धमकाने के लिये डरावना कुत्ता पाल सकते हैं और उस पशु पर अपने
नियंत्रण को ताकत का हथियार बना सकते हैं। पशु का क्या भरोसा। देखते न देखते वह
हमला कर काट भी सकता है। अपने मालिक को वपफादारी का सबूत दे सकता है।
कोई समूह या संगठन ऐसी विचारधारा का प्रसार कर सकते हैं जिससे उनकी धाक
नागरिकों को बेचैन करती हो। हमेशा एक अनिश्चितता में डाले रहती हो। फिर वे ताकत और
अधिकार के भाव से यह कहते हों कि यह काटता नहीं है। लेकिन वह एक दिन काट लेता हो
और फिर वे धमका कर कहें जी हाँ,
जो
हमारे रास्ते नहीं चलता ये उसे काट लेता है।
कुछ तो कुत्तों को काटने के लिये तैयार करते हैं पर कहते जाते हैं कि यह काटता
नहीं है। यह प्रवृत्ति संस्थागत भी होती है। लोगबाग ऐसे संगठन बना लेते हैं। अपने
सदस्यों को समझा-बुझा देते हैं। काल्पनिक दुश्मनों की तस्वीरें दिखला देते हैं।
सामाजिक व्यवस्था के भीतर अपना दबदबा बना लेते हैं। ऐसे संगठनों की गीली जीभ हवा
में धमकती है। पैने और नुकीले दांत चमकते रहते हैं। यदि आप उनके समर्थक नहीं हैं
तो बस डरते रहिये और उनका रौब स्वीकार कर लीजिये। वे वाचाल होते हैं और
कुतर्कशास्त्र में महापण्डित होते हैं। वे इतिहास, भूगोल, राजनीति और समाजशास्त्र
को अपनी मनमानी से बदल देते हैं। वे लोकतंत्र की आजादी का मजा लेते हैं और
लोकतांत्रिक भावना का कचूमर निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जाहिर है वैज्ञानिक पद्धति
के तर्क में वे हमेशा कमजोर पड़ते हैं और तुरन्त धर्म और परम्परा के खोल में घुस
जाते हैं। फिर जमकर कोलाहल मचाते हैं। परम्परायें निरन्तर प्रवाहमान होती हैं और
ऐतिहासिक चरणों में नया रूप लेती हैं। वे अपनी निरर्थक होती कोशिकाओं को छोड़ देती
हैं और जीवन की नई धारा को ओढ़ लेती हैं। जो तत्व सामाजिक सहृदयतापूर्ण और मानवीय
होते हैं वे बाराबर बने रहते हैं। लेकिन संकीर्ण और अलोकतांत्रिक राजनैतिक संगठन
परम्परा को जड़ बना डालते हैं। जो उनकी ताकत से असहमत होता है तो भौंकने की आवाज
आने लगती है। वे संविधान और देश के कानूनों से परे जा कर अपनी सेनाएँ बनाने की
हास्यासपद और समाजविरोधी हरकत करते हैं। सामाजिक मंचों पर यही कहते हैं कि यह
काटता नहीं है।