Tuesday, July 19, 2022

कहानी के बारे में

हिंदी कहानी में गंवई आधुनिकता की तलाश करते हुए अनहद पत्रिका के लिए कहानियों पर लिखे गये मेरे आलेखों की श्रृंखला का एक आलेख मुक्तिबोध की कहानि‍यों पर था। गंवई आधुनिक प्रवृत्ति के बरक्‍स जिन रचनाकारों की रचनाओं में मैंने आधुनिकता के तत्‍वों को पाया- भुवनेश्‍वर, यशपाल, रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाडी’, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय, यह आलेख उसकी पूर्व पीठिका भी माना जा सकता है। । मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखा गया आलेख वर्ष 2016 के अनहद में है और शेष रचनाकार  भुवनेश्‍वर, यशपाल, रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाडीऔर रघुवीर सहाय कहानियों के मार्फत आधुनिकता को परिभाषित करने वाला आलेख सोवियत इंक्‍लाब के शताब्‍दी वर्ष को केन्‍द्रीय थीम बनाकर निकले अनहद के वर्ष 2017 में प्रकाशित है। 2017 वाले आलेख में ही अल्‍पना मिश्र की कहानी छावनी में बेघर को अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं में आधुनिक मानते हुए उसके उस पक्ष को देखने की कोशिश की थी जो इधर के दौर में सैन्‍य राष्‍ट्रवाद के रूप में दिखता है। छावनी में बेघरउस सैन्य राष्‍ट्रवाद को ही निशाने पर लेती है। 2017 के उसी आलेख में युद्धरत कहानियों की अवधारणा की बात करते हुए ही चन्‍द्रधर शर्मा गुलेरी की गंवई आधुनिक कहानी उसने कहा थाके बरक्‍स युद्ध के सवालों पर रमाप्रसाद घिल्डियाल पहाडी, भुवनेश्‍वर और रघुवीर सहाय की कई कहानियों के जरिये आधुनिकता की तलाश करने की कोशिश हुई। बाद में युद्धरत कहानियों पर आलोचक गरिमा  श्रीवास्‍तव जी के आलेख में पहाडी जी कहानियों और अल्‍पना मिश्र की कहानी पर की गयी टिप्‍पणी को बिना किसी संदर्भ के साथ गरिमा जी ने जिस तरह से अपने आलेख में उसे अपनी मौलिक अवधारणा के साथ रखा और समालोचन के संपादक अरुण देव जी ने युद्धरत हिंदी कहानियों पर गरिमा जी के आलेख को पहला मौलिक काम कह कर प्रस्‍तुत किया था, वह देखकर ही मैं उस वक्‍त क्षुब्‍ध हुआ था।

खैर। यह टिप्‍पणी लिखने के पीछे के बात इतनी से है कि इस वक्‍त मैं 2016 में कथाकार सुभाष पंत द्वारा हिंदी कहानियों पर लिखी उस टिप्‍पणी को यहां प्रकाशित करके सुरक्षित कर लेना चाहता हूं जो उन्‍होंने मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखे आलेख की प्रतिक्रिया में एक मेल के जरिये मुझे भेजी थी। आज उसे प्रकाशित करने का औचित्‍य सिर्फ इसलिए कि अपने उस मेल को फारवर्ड करते हुए सुभाष जी ने मुझसे कल फिर जानना चाहा कि उन्‍होंने यह टिप्‍पणी क्‍यों लिखी थी, इसका संदर्भ क्‍या था। वे स्‍वयं याद नहीं कर पा रहे। उनको दिये जाने वाले जवाब ने ही प्रेरित किया कि चूंकि हिंदी कहानियों पर यह सुभाष जी की एक महत्‍वपूर्ण टीप है, तो इसे सार्वजनिक करना ही ठीक है ताकि लम्‍बे समय तक सुरक्षित भी रखा जा सके।

विगौ














सुभाष पंत 
  

आलोचना 

                                      सुभाष पंत


      तुम्हारा आलेख बहुत अच्छा है और एक बार फिर से मुक्ति बोध के गद्य साहित्य को पढने को उत्साहित करता है। मुक्तिबोध की कहानियों के धूमिल से एक्सप्रैसन दिमाग़ होने की वजह से तुम्हारे आलेख पर कोई टिप्पणी जल्दबाजी होगी। लेकिन इसकी प्रस्तावना में कहानी पर भाषा और कहानीपन के जो मुद्दे तुमने उठाए हैं, उन पर एक कामचलाऊ, त्वरित टिप्पणी दे रहा हूं, इस पर विचार किया जा सकता है। यह संभवतः तुम्हारे अगले समीक्षाकर्म में किसी काम आ सके।

वह चाय सुड़क रहा था। वह चाय घकेल रहा था। वह चाय सिप कर रहा था। वह चाय पी रहा था। वह चाय नहीं, चाय उसे पी रही थी।’

 इतना कह देने के बाद मुझे नहीं लगता की चाय पीनेवाले पात्र के विषय में कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती है। यह उसके वर्गचरित्र के साथ उसके संस्कार, मिजाज, शिक्षा के स्तर वगैरह के विजुअल्स निर्मित कर देती है। एक सार्थक भाषा वही है, जिसे पढ़ते हुए बिम्ब स्वयं ही निर्मित होते चले जाएं। यह ताकत हर भाषा में होती है लेकिन जैसे जैसे भाषा देसज से अभिजन में बदलती जाती है वैसे वैसे यह अपनी इस ताक़त खोती जाती है। जब एक पिता अपने बच्चे को डांट रहा होता है, ’अबे स्साले दिनभर चकरघिन्नी बना रहता है’-यहां स्साले गाली न रहकर पिता की बच्चे के भविष्य की चिंता और ममता है। और चकरघिन्नी शब्द तो हवा में घूमती फिरकी का अनायास आंखों के सामने नाचता हुआ बिम्ब है। हर शब्द का अपना एक बाहरी और भीतरी जगत, इतिहास, संस्कार, छवि, लय और ध्वनि है। स्थिर दिखते शब्द परमाणु में घूमते न्यूट्रॉन की तरह भीतर ही भीतर गतिमान रहते है और सही तरह से प्रयोग में लाए जाने से ऊर्जा प्रवाहित करते है। शब्दों से भाषा बनती है और भाषा से अभिव्यक्ति। अभिव्यक्ति साध्य है, भाषा अभिव्यक्ति का साधन है, लेकिन उसका सटीक प्रयोग लेखकीय जिम्मेदारी है, वह इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। हिन्दी भाषा की दूसरी ताकत उसके मुहावरे हैं। हर मुहावरे के भीतर कहन का एक संसार बसा होता है। ’नाच न जाने आंगन टेढ़ा’, ’राड़ से बाड़ भली’ बस दो ही उदाहरण है। इन्हें खोलकर देखिए कितनी बातें उनमें छिपी हुई हैं। हर लेखक के लिए जरूरी है कि वह रचना में अपने मुहावरे भी गढे। अफसोस है कि अपने मुहावरे गढ़ने की बात तो दूर लेखन से मुहावरे गायब हो रहे हैं और भाषा नंगी होती जा रही है। रचना में कोमल भाषा मुझे बहुत परेशान करती है। उसमें उसकी अक्खड़ता, अकड़, करेर और बांकपन होना चाहिए। जब जीवन ही कोमल नहीं है तो भाषा की कोमलता उसका गुण नहीं हो सकती, भले ही उसमें माधुर्य हो।

तुम्हारी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि रचनात्मक भाषा शब्दकोश से नहीं, उनसे सीखी जाती है, जो भाषा का व्याकरण नहीं जानते। मुझे एक्सप्लाइटर के लिए शब्दकोश ने ’शोषक’ शब्द सिखाया था लेकिन एक मजदूर ने मेरा शब्दसंस्कार करके बताया कि उसे ’नोचनिया’ कहते हैं। इस शब्द में ज्यादा ताकत है और अनायास बनता बिम्ब भी है।

सरलता भाषा का तीसरा गुण है, लेकिन इसे साधना उसी तरह मुश्किल है, जैसे फ्री हैंड सरल रेखा खींचना। किसी भी बच्चे के हाथ में पेंसिल पकड़ा दो तो वह फूल, पत्ती, चिड़िया वगैरह बना लेगा लेकिन फ्रीहैंड सरल रेखा खींचना तो पिकासो के लिए भी संभव न होता। मुक्तिबोध यहां मुझे कविता और गद्य दोनों में कमजोर दिखाई देते हैं। सरल भाषा का अर्थ सरलीकरण कतई नहीं है। मैंने तो आजतक जितने भी महान रचनाकारों-प्रेमचंद, गोगोल, दास्तोयास्की, चेखब, गोर्की, स्टेनबैक, हेनरी, हैमिंगवे, बक, सेस्पेडिस वगैरह की रचनाएं पढ़ी है, उनमें भाषा की सरलता में जादू रचने का कौशल देखा है।

भाषा पर और भी बातें हो सकती हैं। फिलहाल इतनी ही।

अब कहानी में कहानी की बात।

प्रेमचंद युग की कहानियों में कहानी का एक सुगठित ढांचा है। कहानी अपने मिजाज में बहुत संवेदनशील है। वह हर दशक में अपना मिजाज बदलती जाती है। नई कहानी के दौर में उसका शहरीकरण हुआ। जाहिर है जब कहानी गांव से शहर आई तो उसे अपना लिबास, भाषा, शिल्प, तेवर वगैरह बदलने ही थे। उसने बदले। प्रेमचंदीय कहानी के ढांचे पर प्रहार हुआ। यह ढांचा पूरी तरह से नहीं टूटा। यह कहीं संघन  और कहीं विरल रूप में मौजूद रहा। इन कहानियों में शिल्प और भाषा का नयापन है लेकिन इनकी सामाजिकता संकुचित है और भोगा हुआ यथार्थ का नारा देकर इन्होंने अपनी सामाजिकता को और भी ज्यादा संकीर्ण कर लिया और कहानियों के केंद्र में खुद स्थापित हो गए। कमलेश्वर की आरम्भिक कस्बे की कहानियों में कहानीपन मौजूद है और ये कहानिया जैसें-राजा निरबंसिया, नीली झील, देबा की मां आदि महत्वपूर्ण कहानियां हैं। दिल्ली और मुम्बई के दौर की उनकी कहानियों में कहीं यह ढांचा बना रहता है और कंहीं टूटता है और दोनों ही प्रकारो में उनके पास मांस का दरिया और जो लिखा नहीं जाता जैसी महत्वपूर्ण कहानियां हैं। यादव की कहानियों में कहानीपन कम है लेकिन उनके पास कोई अच्छी कहानी नहीं है सिवा जहां लक्ष्मी कैद है, उसमें कहानीपन मौजूद है। मोहन राकेश की सबसे महत्वपूर्ण कहानी-मलवे का मालिक में भी कहानीपन की रक्षा की गई है। इसके अलावा उस समय की अमरकांत और भीष्म साहनी की बड़ी और चर्चित कहानियां, हत्यारे, डिप्टी कलक्टरी, दोपहर का भोजन, अमृतसर आ गया, चीफ की दावत वगैरह में कहीं न कहीं कहानीपन है।

   कहानी का ढांचा तोड़ने की घोषणा के बावजूद नई कहानी में कहानीपन एक नए रूप में उपस्थित रहा। ये नेहरूयुग के मोहभंग की कहानियां हैं, लेकिन इनमें कोई नया रास्ता तलाश करने की तड़प या संघर्ष दिखाई नहीं देता। कुल मिलाकर ये राजनैतिक दृष्टिशून्य कहानियां हैं। इस दौर की कहानियों का सकारात्मक पक्ष यह है कि कहानी लेखन में महिलाएं भी हिस्सेदार हुई। मैं तो नई कहानी का प्रस्थानबिन्दू ही ऊषा प्रियंवदा की कहानी ’वापसी’ को ही मानता हूं। इस कहानी में भी कहानीपन है। नामवर इसका श्रेय निर्मल वर्मा की कहानी ’परिंदे’ को देते हैं। शायद इसके पीछे उनकी पुरुषवादी मानसिकता रही हो। बहरहाल इस कहानी  में कहानीपन गौण है और लतिका का अकेलापन ज्यादा मुखर है और भाषा-शिल्प का नयापन है। इसके अतिरिक्त उनकी लगभग सभी कहानियां कहानीपन से विरत मऩस्थितियों, अजीब सी उदासी और परिवेश की काव्यात्मक अभिव्यक्तियां है, जिनका एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग है। मनोहरश्याम जोशी की कहानियों में लाजवाब भाषा, विलक्षण शिल्प, विट् के साथ कहानीपन है, लेकिन ये संवेदना का कोई धरातल नहीं छूतीं। इस दौर का सबसे बड़ा कहानीकार शैलेष मटियानी है, जिसके पास भाषा-शिल्प, विश्वसनीयता, कहानीपन, संवेदनशीलता का बेजोड संतुलन है। अगर प्रेमचंद के पास दो-चार विश्वस्तरीय कहानियां हैं, तो मटियानी के पास आधा दर्जन से ज्यादा ऐसी कहानियां हैं। महिला कथाकारों में मन्नूभंड़ारी और कृष्णा सोबती ने कहानीपन बनाए रखने के साथ बहुत सी लाजवाब कहानियां दी हैं। काशीनाथ की कहानियों में भाषा का करेर और विट है और वे कहानियां अपनी बात शिद्दत से कहती हैं। इसके विपरीत दूधनाथ के पास बहुत अच्छी भाषा और शिल्प नहीं होने के बावजूद बेहद सशक्त कहानीपन की अविस्मरणीय कहानियां है। शेखर जोशी के पास सामान्य भाषा और शिल्प होने के बावजूद बहुत अच्छी कहानियां है। उनके पास जहां एक ओर कोसी का घटवार जैसी विलक्षण प्रेम कहानी है तो दूसरी ओर दाज्यु जैसी संवेदनशील कहानी है और तीसरी ओर कारखाने के जीवन की बदबू जैसी कहानी है। इनकी सभी कहानियों में झीना ही सही पर कहानीपन देखा जा सकता है। नई कहानी आंदोलन के बावजूद प्रेमचंद परम्परा की कहानियां इस दौर में जीवित ही नहीं रहीं बल्कि रेणु ने तो उन्हें कलात्मक उत्कर्ष पर भी पहुंचाया। इस परम्परा की कहानियां शिवमूर्ति, यादव, वगैरह आज भी एक नई दृष्टि भाष और शिल्प में लिख रहे हैं। इस दौर में मुक्तिबोध ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिन्होंने कहानी के कहानीपन को फैंटंसी में बदला है। लेकिन उनका रचना विधान जटिल है, जिसके कारण वे एक विशेष बौद्धिकता की मांग करती हैं। यहां एक विचारणीय प्रश्न यह है समतामूलक समाज के निर्माण में, जहां  आदमी के सम्पत्ति वगैरह के बराबर अधिकार की बात की जाती है साहित्य संरचना को इतना दूरूह बनाना न्यायोचित होगा कि वह सामान्य पाठक की पहुंच से दूर हो जाए। 

नई कहानी के बाद उसके समग्र विरोध में अकहानी का दौर आया। कहानी यहां पूरी तरह बदलती दिखाई देने लगी, उसका कहानीपन विरल होता चला गया और एक नई भाषा, कहन के तरीके और भावबोध में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। इस दौर का सबसे महत्त्वपूर्ण लेखक ज्ञानरंजन है। उनकी कहानियां एक साथ भीतर और बाहर की यात्रा करती हैं। उनमें बिल्कुल अलग तरह की बोलती भाषा, अनोखा शिल्प और गजब की पठनीयता है। वे अपने वक्त के संकटों के साथ भविष्य के संकटों की ओर भी संकेत करती हैं।

अकहानी के बाद कहानियां पूरी तरह भटक गईं। वे सैक्स और स्त्री की जांधों के गिर्द घूमने लगी। ऐसी कहानियों के खिलाफ कमलेश्वर के घर्मयुग में ’अय्याश प्रेतों का विद्रोह’ नाम से तीन या चार बेहद महत्त्व आलेख प्रकाशित हुए। नक्सलवाड़ी का विद्रोह ने भी कहनियों में राजनैतिक चेतना विकसित की। इस बात को बहुत गहराई से महसूस किया जाने लगा कि कहानियों के केन्द्र में आम आदमी और उसके संकटों को जगह दी जानी चाहिए। एक तरह से इसे नई कहानी का ही विस्तार ही कहा जा सकता था। इसमें इतना ही परिवर्तन है कि कहानी के केन्द्र जहां पहले लेखक खुद स्थापित था, उसकी जगह सामान्यजन ने और भोगे हुए यथार्थ की जगह देखें ओर अनुभव किए यथार्थ ने ले ली। यह समान्तर कहानी आंदोलन था, जिसके साथ दलित पैंथर के प्रखर लेखक भी इसके साथ जुड़े जिन्होंने हिन्दी साहित्य में दलित लेखन का दरवाजा भी खोला। संयोंग से संमातर का मधुकर ऐसा लेखक था जिसका समस्त रचनाकर्म दलित चेतना के साथ राजनैतिक चेतना को समर्पित है, लेकिन उसने आत्मदया बटोरने के लिए अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। वह निरंतर पाले बदलकर सीपीआई से एम और फिर एमएल की ओर जाता रहा और झगड़कर जाता रहा तो वामपंथ की साहित्यिक बिरादरी ने उसके साहित्यिक अवदान पर चुप रहीं। इसके बाद इस परिवर्तित साहित्य की राजनीति में उसे इसलिए कभी रेखांकित नहीं किया जिससे दलित साहित्य का सेहरा उसके सिर पर न बंध जाए। बहरहाल संमातर कहानियों में केंद्रित किया गया आम तो जाहिर था कि उसके साथ उसकी कहानियां भी आनी ही थीं। इसी के साथ प्रेमचंद का कहानीपन का मुहावरा भी कहानी में लौटा। संभवतः सुभाष पंत की कहानी ’गाय के दूध’ के साथ यह ठोस रूप में लौटा। यह पुराने ढांचे के पुनःस्थपित करनेवाली टै्रंड सैटर कहानी थी। संभवतः यही कारण था कि यह इतनी पसंद की गई कि इसके अंग्रेजी समेत भारत की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद और नाट्य रूपान्तरण हुए। बाद में इस कहानी के ल लेखक ने कहानीपन की इस जकड़बंदी को विरल करने के लिए सेमी फैटेसी का सहारा लेना भी शुरू किया। इस कहानी आंदोलन में चिंरतर वाम की अवधारणा थी कि जब तक एक भी आदमी हाशिए के बाहर है तब तक लेखक की भूमिका निरंतर विरोध की भूमिका में रहेगा। इस आंदोलन का निराशाजनक पक्ष यह रहा कि यह आमआदमी की दयनीय अवस्था  और उसके लिए सहानुभूति तक सीमित रह गया। उसकी संधर्षकामी जिजीविषा पुष्ठभूमि में चली गई। सहानुभूति लिजलिजी होती है। जीवन सहानुभूति से नहीं संघर्ष से बदलता है। इसके अलावा सारिका में छपने के लिए अवरवादी लेखकों एक जमावड़ा भी इस आंदोलन में जुड़ता चला गया और कहानियां टाइप्ड़ होती चली गई। कमलेश्वर जी के सारिका से हटते ही यह सारा कुनबा बिखर गया। शायद मैं ही एक ऐसी बचा रहा, जो तब भी वैसा ही लिख रहा था और आज भी वैसा ही लिख रहा।          

सारिका के बंद होते ही यादवजी ने इस शून्य का लाभ उठाया और हंस के राइट्स खरीदकर इसे पुनर्जिवित किया। यह उनका हिन्दी साहित्य के लिए अविस्मरणीय योगदान है। उन्होंने स्त्री और दलित विमर्श का मुहावरा अपनाया लेकिन वे सिर्फ उसतक सीमित न रहकर दूसरी तरह की कहानियों को लिए भी अपने दरवाजे खुले रखे। कहानी के क्षेत्र में मार्केज का ’जादुई यथार्थवाद’ का सिक्का उछल रहा था। उदय प्रकाश की कहानियों को जादुई यथार्थवाद की कहानियों कहकर भी हंस ने उसे शीर्ष कहानीकार बना दिया। बहरहाल स्त्री विमर्श की कहानियों में कहानीपन का झीना ढांचा है, दलित विमर्श में सधन और जादुई यथार्थवाद की कहानियों में अतिशयोक्ति भरा।

   बाजार के आक्रमण के साथा कहानियांं में अनाश्यक विवरण, नेट से प्राप्त सूचनाओं, भाषा और शिल्प के चमत्कार से भरी कहानियां बड़ी कहानियां मानी जाने लगी और ऐसा लगने लगा कि अब कहानीयां लिचाने के नियम अब मल्टीनेश्नल ही ही निर्धारित करेंगी। लेकिन यह दौर बहुत छोटा रहा। यह पत्रिकाओं का दौर है। हर शहर से पत्रिकाएं निकल रही हैं। कहानियों का धरातल व्यापक हुआ और विविध मिजाज की कहानियां लिखी जा रही है। कहीं कहानी का पारम्परिक ढांचा मौजूद है और कहीं उसका अतिक्रमण भी हो रहा है।                               

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-07-2022) को
चर्चा मंच      "गरमी ने भी रंग जमाया"  (चर्चा अंक-4496)     पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'