Saturday, July 23, 2022

क्रूर सलाहों के विरुद्ध

जीवन तकलीफों की खान है। तकनीक के विकास की जितनी भी कोशिशें हैं, तकलीफदेय स्थितियों को कम करते जाने और जीवन परिस्थितियों को सहज बनाने की अवधारणा उसके मूल में निहित दिखाई देती है। नैतिकता और आदर्श की स्थापनाओं के ख्यालों से भरा सारा मानवीय उपक्रम ही नहीं, बल्कि छल-छद्म को रचने वाले विध्वंसक कार्यरूप भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष में जीवन को सहज बनाने की अवधारणा से प्रे‍रित होकर ही किये जाते रहे हैं। यही मानवीय लीला है। मनुष्य और अन्य जीवों के बीच यही फर्क, चेतना के रूप में दिखायी देता है। इस फर्क ने ही मनुष्यं को खुद की गतिविधियों की आलोचना करने का भी सऊर दिया है। इसी से समझना आसान होता है कि जीवन को खुशहाल बनाने की बजाय उदास करने वाले उपक्रमों से असहमति एवं विरोध ही कला और साहित्य के कार्यभार हैं। यदि कोई रचना इस तरह के उददेश्य से निरपेक्ष है तो कला की कसौटी पर उसे रचना मानने से परहेज किया जाना चाहिए। रचना की शर्त ही है कि बेहतर जीवन स्थितियों के लिए बेचैनी का विचार वहां होना चाहिए। कान्ता घिल्डियाल की कविताओं में प्रकृति की जो छटाएं हैं, देख सकते हैं कि वे सिर्फ सौन्दीर्य की प्रस्तुति नहीं है, बल्कि मनुष्य जीवन की बेहतरी के लिए उस सौन्दर्य की भूमिका का आंकलन और उसकी अवश्यम्भाविता की पहचान वहां स्‍पष्‍ट है। उसको बचाने की बेचैनी है- '' मैं खोना नहीं चाहती,/ मन ही मन बतियाना पक्षियों से/ निहारना भिन्न्ता को''



हाल ही में कान्ता घिल्डियाल ने हिमांशु जोशी के उपन्यास 'कगार की आग' का गढवाली अनुवाद किया है जो 'बीस बीसि' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इससे पूर्व कान्ता घिल्डियाल दो अन्य पुस्तकों 'शहीद अब्दुल हमीद' अर 'मटकू बोलता है' का भी गढ़वाली भाषा में अनुवाद कर चुकी हैं। ये दोनों ही अनुवाद राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (NBT) से प्रकाशित हैं। अनुवाद के ये काम कान्ता घिल्डियाल के उस व्याक्तित्वत से परिचित होने का अवसर देते हैं जिसमें एक व्यक्ति के लेखन की ओर उन्मुख होने के कारणों को तलाशा जा सकता है। अपनी धरती, अपनी भाषा और उस भाषा की समृद्धि का ख्याल, कान्ता घिल्डियाल के व्‍यक्तित्‍व की विशेषता बन रहा है। उनके व्याक्तित्व के इस पहलू को जानकर भी उनकी रचनाओं के पाठ तक पहुंचने के रास्ते पर चला जा सकता है।उनकी हिंदी कविताओं का संग्रह 'मुट्ठी भर रंग' शीर्षक से प्रकाशित है। 

प्रस्तुत हैं देहरादून में रहने वाली कान्ताा घिल्डियाल की कुछ नयी कविताएं।


विगौ

कान्ता घिल्डियाल


मेरा वसंत

 

अलसुबह रोज़ र्बोगेनवेलिया पर

आने लगी हैं

घिंडुड़ी, सिंटुली, बुलबुल, तोते, कौऔं

और नन्‍हीं चिड़ियां

 

सूरज की आमद से पहले

शुरू हो जाता है एक सुरीला ऑर्केस्ट्रा

अफसोस कि पड़ोस में है कसमसाहट

नींद में पड़ रहा खलल  

नहीं जानते वे

गाँव और शहर के बीच पुल बन रही बेल

मन-प्राणों पर छा सकती है

सुगंध की तरह,

 

अक़्सर मिलती हैं

बोनसाई बनाने की क्रूर सलाहें

 

मैं खोना नहीं चाहती,

मन ही मन बतियाना पक्षियों से

निहारना भिन्‍नता को

 

वैसे कभी-कभी तो मुझे भी हो ही जाती है शिकायत

बढ़ जाता है बोझ एक अतिरिक्त काम का

हवा से गलबहियां करती शाखें

जब झरती हैं फूल, पत्तियां

 

पर सच कहूं

बोगेनवेलिया के बेल

मेरा वसंत है

तकिया है ,नींद और सपने है

और हर सुबह की 

सुनहरी शुरुआत है।

 

 

मेरा हौंसला हो तुम

 

 

चिड़ियों !

क्या तुम्हें

धूल-धूसरित आसमान में उड़ते हुए

किसी बहेलिए का डर नहीं सताता ?

 

पुष्पकलिकाओं !

क्या तुम्हें खिलखिलाकर हँसते हुए

मसले जाने का ख़ौफ़ नहीं होता ?

 

गर्भ में पल रही,

जन्म लेने को आतुर बच्चियों !

क्या तुम नहीं जानती हो

बड़ी-बड़ी टोही आँखे

हाथों में हथियार लिए

कत्ल करने को तैयार हैं ?

 

नृशंस हत्याओं के धुंध इरादे

खून की लकीरें खींच रहे लगातार

मुझे तो हर पल डराता है

तुम सब मेरा हौंसला हो पर

तुम्‍हें बेखौफ बने रहना है इसी तरह।   

 

 

ए‍क जरूरी भाव

 

 

अपमान की अग्नि

नज़र नही आती

पर बढ़ तो जाता ही है

शरीर का ताप

अंतस की

भीतरी तहों को भेदकर

डस जाती है

सर्पजिभ्या

आत्मा का कोई भी हिस्सा

नहीं रहता घाव विहीन....

 

  

गुलाबी गाँव

 

एक

चैत के महीने भीटों पर

खिली फ्योंली को देख

भले ही पियरी पहने चहक उठता हो गांव

पर गुलाबी नहीं होता

 

रोटी की तलाश में जा चुके बेटों के

कभी-कभार लौटने से भले ही

हरी हो जाती हो गांव की रंगत

पर गांव ग़ुलाबी नहीं होता

 

खेतों को बिलाकर बनी सड़क पर

धूल उड़ाती गाड़ी से उतरती

नई-नवेली दुल्हन को देख

बेशक सतरंगी हो जाता है गाँव

पर गुलाबी नहीं होता

 

गुलाबी हो उठता है गाँव

जब उसे वर्षों बाद दूर धार में दिखती है

अपने पास आती हुई कोई ब्याही बेटी ,

अचानक हो जाते हैं हरे

उससे गलबहियां करने को आतुर

खेतों के किनारे खड़े

भीमल खड़ीक के पुराने पेड़,

चूडियों भरी हथेलियों को चूमकर

स्वागत गीत गाने को आतुर होता है

खुदेड स्वरों में बहता मंगरों का मीठा पानी ,

बरसों बाद उसकी छुअन महसूस कर

उसके पदचिन्हों को चूमती हैं

बचपन के खेलों की गवाह टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ ,

खारे नमकीन पानी से भीग जाती हैं

तिबारी के छज्जे में

माथे पर झुर्रियों भरे हाथ टिकाए

बाट जोहती बूढ़ी आँखें ,

सूनी गलियां सुहागन बन पूछती हैं

कुटुंब-परिवार की कुशल-क्षेम ,

जंक लगे तालों संग

आँखों के कोरों को पोंछती हैं

सीलन और उदासी से नम हो चुकी

खाली खूंटों की पहरेदारी करती

गोबर मिट्टी से लिपी दीवारें ,

सुहाग की सलामती के साथ

दूधो नहाओ पूतो फलो के

आशीषों से नवाजते हैं

वीरान पड़े देवी-देवताओं के मंडुले ,

संबंधों में गरमाहट का गवाह

गांव के बीचोबीच खड़ा पीपल

अंग्वाळ बटोरकर पूछता है हाल

लाडो ! 

गाँव तो बेटियों के होते हैं

जब तक बेटियाँ न बिसराएँगी इसे

तब तक गुलाबी ही रहेंगे गाँव।

 

दो

गाँव से शहर ब्याही गयी

बेटियों के सपनों में रोज़ आते हैं

छूट चुकी नदी , पहाड़

और सीढ़ीनुमा खेत

 

नदी की गोद में गिरता झक्क सफ़ेद झरना

सुरों में बहने लगता है

कानों में संगीत घोलती है

गाँव को जाती सड़क

चीड़ , देवदार , काफ़ल और बुरांस

शहर की उमस भरी गर्मी को सोख लेना चाहते हैं

देह और आत्मा में ठंडक घोलता है

धारे-मंगरों का ठंडा-मीठा पानी

उदास मुख पर

उजास बिखेरता है

गाँव की सुबह का बाल सूरज

 

तीन

सूरज की किरणों से 

बिखरता है सोना पहाड़ पर

हवा संग गलबहियां कर

गीत गाते हैं पत्ते

उड़ती चिडियाँ

छज्जे पर आकर

घर के साथ जोड़ती है

पहला संवाद।

पहाड़ के हँसने , रोने , गाने

और नाराज़ होने की

पहली राज़दार होती हैं नदियाँ..


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