Friday, July 15, 2022

आत्म सम्मान की चेतना

हिन्दी आलोचना का परिदृश्य इस कदर उदार है कि बहुत सामान्य रचना को भी असाधारण साबित कर देने में हर वक्त उपलब्ध रहता है। पाठकों को उसके लिए इंतजार नहीं करना पड़ता । जैसे ही किसी परिचित या दोस्त-रचनाकार की रचना के प्रकाशन की सूचना आती है, रचना के प्रकाशन के अगले दिन ही उसके असाधारण होने के प्रमाणपत्र जारी होने शुरु हो जाते हैं। लेकिन आलोचना की उदारता के ऐसे उपक्रम से जारी प्रमाणपत्र को पाना हर किसी रचनाकार के लिए आसान नहीं। वरना पाठक चंद रचनाकारों और उनकी ही रचनाओं से परिचित होते रहने को अभिशप्तन न होते।          खैर,अभी हम हिंदी के एक लगभग अज्ञात से लेखक की कहानियों से थोड़ा रुबरू होने की कोशिश कर लेते हैं। 85 वर्ष की उम्र से ऊपर के इस लेखक के उस पहले कहानी संग्रह से परिचित हो लेते हैं, जीवन भर लेखक द्वारा 400 से अधिक लिखी गयी कहानियों के बावजूद वह मात्र 22 कहानियों की एक जिल्दा के रूप में ‘’अन्तू से पूर्व’’ होकर देखने में आ रहा है। अलबत्ता इस संग्रह से पूर्व लेखक के आठ उपन्यास,एक लघुकथा संग्रह और आत्मकथा प्रकाशित है। तब भी इस साधारण से लेखक की साधारण-सी कहानियों में से एक असाधारण कहानी को ढूंढना और उस पर बात करना क्यों जरूरी है ? क्या यह कोशिश भी हिंदी आलोचना के उस परिदृश्य की ही तरह की कोशिश है, जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है, या, इसके मायने इस धारणा पर निर्भर कर रहे कि आलोचना का कर्म एक जिम्मेदारी का कर्म बन सके ? इन सवालों के हल ढूंढने से पहले ''अन्त से पूर्व'' कथा संग्रह के लेखक मदन शर्मा के नाम से परिचित हो जाना जरूरी है। उम्‍मीद की जा सकती है कि उनके द्वारा लिखे गये बेहद आत्मीय संस्मरणों से इस ब्लाग के पाठक अच्‍छे से परिचित होंगे।                                                    ‘सुबह होने तक’, ‘भीतर की चीज’, ‘बाबर’, ‘चोर’, ‘रफ ड्राफ्ट’, ‘देश’ एवं ‘मिस्टार और मिसेस सिन्हा्’, इस संग्रह में ये सात कहानियां ऐसी हैं जिनके कथ्य ही नहीं, बल्कि उसके ट्रीटमेंट का तरीका और उस ट्रीटमेंट से प्रकट होते कथा के आशय मदन शर्मा को अन्य किसी भी हिंदी लेखक से जुदा कर देते हैं। अपने आशयों के कारण इन कहानियों की मौलिकता अनूठी है। ‘भीतर की चीज’ इस ब्लाभग के पाठकों के लिए यहां बानगी के तौर पर पुन: प्रकाशित की जा रही है।            ‘भीतर की चीज’ का कथ्य इस बात की ताकीद कर रहा है कि आत्म सम्‍मान की रक्षा का पाठ कामगार की चेतना ही नहीं, बल्कि मालिक-दुकानदार की चेतना का भी वारिस हो सकता है। शोषण के प्रतिरोध में शोषित के प्रति सदइच्छााओं वाली रचनाओं के संसार के बीच उल्लेखित कहानी का यह कथ्य उस मौलिकता का स्प्ष्ट साक्ष्य है जिसके जरिये यह देखना संभव हो जा रहा है कि कहानी के मालिक-दुकानदार की शक्ल् ओ सूरत डिजीटल भाषा में संदेशों को दोहराने वाले उस मालिक-दुकानदार से भिन्न है, विकसित होती गयी तकनीक को जिसकी सेवादारी में तत्पर रूप से प्रयोग किया जा रहा है। कहानी का यह पात्र देशी बाजार का वह मालिक-दुकानदार है, बड़ी पूंजी ने जिस पर हमला इतना तीखा किया है कि आज उसको ढूंढना ही मुश्किल है। कहीं कस्बों, देहात में उसके रंग रूप की छटा दिख जाये, बेशक। प्रताड़ना को झेलने के अभ्यास ने कामगार को इस कदर सक्षम बनाया है कि वह तो बद से बदतर स्थितियों के बीच भी जीवन संघर्षों की राह में आज भी नजर आ जाता है, लेकिन बाजार के षडयंत्रों से पस्त हो चुका देशी दुकानदार आज लगभग विलुप्ति के कगार पर है। अपने चरित्र में मुनाफाखौर होते हुए भी कुछ छद्म नैतिकता और आदर्शों से वह खुद को बांधे रहता था। वह झलक कथाकार मदन शर्मा की एक अन्य कहानी, ‘’बाबर’’ में भी अपने तरह से आकार लेती है, जिसमें वह देशी बुर्जुवा, सरकारी कर्मचारी के रूप में मौजूद है। एक ऐसा पिता जो अपने पुत्र की बेरोजगारी के कारण चिंतित है और अनुकम्पा के आधार पर उसे नौकरी मिल सके यह सोचते हुए ही उस गल्प की स्मृति में है जो पाठ्य पुस्तकों में दर्ज होता रहा है कि असाधय रोग की गिरफ्त में पड़े बेटे  हुमायूं के स्वस्थ होने की कामना में ही बाबर यह दुआ मांगते हुए होता है कि बेटे का रोग उसे मिल जाये और रोगी बेटा पूरी तरह स्वस्थ हो जाये। आइये प्रस्‍तुत कहानी के पाठ से कथाकार मदन शर्मा की उस मौलिकता से साक्षात्‍कार करते हैं जो बेहद सामान्‍य होते हुए भी असाधारण हो जाने की ओर सरकती है।                     विगौ 


  

कहानी

भीतर की चीज़

                                             मदन शर्मा

      वह मेरे मुंह पर तमाचा-सा मारकर चला गया। चेहरा अभी तक तमतमा रहा है। दिल की धड़कन तेज़ है। शायद भीतर बनियान भी पसीने से तरबतर हो गई है।

 थोड़ा संतुलित होता हूं और याद करने की कोशिश करता हूं, कि बार-बार क्यों ऐसा हो जाता है।

 वह तीन महीने पहले मेरे पास आया था। उससे पहले मेरे बचपन के दोस्त रामदयाल का फोन आया था। कहा था, ‘‘एक मेहनती और जहीन लड़के को तुम्हारे पास भेज रहा हूं। आस-पास किसी दुकान पर इसे रखवा देना। यह काम करना ज़रूर है।’’

 मैंने उसे देखा। बातचीत से वह अच्छे घर का मालूम पड़ा। बी0 एस0 सी0 सैकेण्ड डिवीजन में किया था। नौकरी कहीं नहीं लगी थी। पिता जी पिछले साल चल बसे, घर की हालत खस्ता है।

 मैंने कहा, ‘‘चाहो तो मेरी दुकान पर ही रह जाओ, जब तक कोई और काम नहीं मिलता, मैं समझता हूं, साढ़े चार सौ रूपये, कुछ बुरा नहीं रहेगा।’’

 मैं तुरन्त मान गया।

तीन में से एक सेल्समैन दो सप्ताह पूर्व बिना नोटिस दिये ही ग़ायब हो गया था। अब तक उसका पता नहीं था। इसलिये मुझे एक आदमी चाहिये ही था।

‘‘मुझे क्या काम करना होगा?’’ उसने भोलेपन से पूछा, मेरी हंसी निकल गई। कहा,‘‘इस की चिंता तुम क्यों करते हो? साढ़े चार सौ दूंगा, तो नौ सौ का काम लूंगा ही। यह सरकारी नौकरी तो है नहीं कि...’’

 ‘‘फिर भी..’’

  ‘‘बस, दुकान का हिसाब-किताब बनाना है और शाम को दो-ढाई घंटे काउंटर पर खड़े होकर, ग्राहकों क्राॅकरी दिखानी है और उनकी जेब से पैसे निकलवा कर मेरी जेब में डालने हैं। भई, तुम बी0 एस0 सी0 हो, मेरे कोई लेबार्टरी तो है नहीं, जहां तुम्हें खड़े कर सकूं।’’

  ख़ैर, वह काम सीखने लगा। सभी रजिस्टर और कैशबुक का काम उसे बहुत जल्द समझ में आ गया। मगर मैंने महसूस किया, कि काउंटर पर खड़े उसे कुछ परेशानी हो रही है। सोचा, थोड़ा शर्मिला है दो-चार दिन में ठीक हो जायेगा।

  एक दिन, वह किसी ग्राहक को लेमनसेट दिखा रहा था। अचानक फ़र्श पर, कांच के टूटकर बिखरने की आवाज़ सुनकर मैं चैंका। दुकान पर, उस तरह का एक ही सेट था। मुझे बेहद अफ़सोस हुआ। उससे भी बढ़कर अफ़सोस इस बात का था, कि उसका कहना था, गिलास ग्राहक के हाथ से छूटा है और ग्राहक इसका उल्ट बता रहा था। जो भी था, नुकसान मेरा हुआ था। और मुझे बुरी तरह ताव आ रहा था। ग्राहक के जाते ही, मैंने आदतन, उसकी तबीयत हरी कर दी।

 लताड़ खाकर वह काफी सुस्त हो गया था। कुछ देर बाद मेरा पारा उतरा, तो मैंने उसे पास बुलाया और सस्नेह दुकानदारी की दो-एक बातें समझाने के बाद कहा, मेरी बात का बुरा मत माना करो, मेरे दिल में कुछ नहीं है।’’

  वह संतुष्ट हो गया। मैंने भी सोच लिया, लड़का भावुक है, ज़रा-सी बात का भी बुरा मान जाता है। मगर मेरी तरह शायद वह भी दिल का बुरा नहीं।

  किन्तु कुछ ही दिन बाद, एक अठारह-उन्नीस साल की गोरी-सी लड़की दुकान पर आई और उससे हंस-हंस कर बातें करने लगी। उसे क्रॉकरी खरीदनी थी इसलिये मुझे, उनकी जान-पहचान या हंसी पर कोई आपत्ति न थी। किन्तु जैसे ही वह क्रॉकरी का बंधा पैकेट संभाल दुकान से बाहर हुई, मैंने श्रीमान जी को दबोच लिया।

 ‘‘यह घाटे का सौदा किस खुशी में तय किया?’’

 ‘‘मेरे चाचा की लड़की थी।’’

 चचा की थी या मामा की, थूक तो मुझे लगा गई?

‘‘आप मेरे वेतन से काट लीजियेगा।’’

 ‘‘क्या कहा?’’

  मेरे लिये इतना पर्याप्त था। मेरा अपना लड़का होता, तो ऐसी बात कहने पर मैं मुक्के मार-मारकर उसकी पीठ तोड़ डालता। इसकी यह मजाल, कि मेरे सामने ऐसी बात कह जाये। उठा कर अभी दुकान से बाहर दे मारूंगा। समझता क्या है आपने को।

  तब मैं पिल ही पड़ा उस पर। बच्चू को दिन में ही तारे नज़र आ गये। उसकी आंखों में लगातार आंसू बह रहे थे। मुझे पछतावा हो रहा था, मैं क्यों इस तरह बेकाबू हो जाता हूं। डाक्टरों ने कितना समझाया है! खाने-पीने के कितने परहेज़ बताये हैं। जिनको मैं कभी नहीं भूलता। मगर यह दूसरा परहेज़, इस पर तो मैं बिल्कुल ध्यान नहीं दे पाता। डाक्टर कहता है, ऐसी हालत में कभी कुछ भी हो सकता है। मगर अपने इस स्वभाव का क्या करूं? पता ही नहीं चलता, अचानक क्या हो जाता है।

  उसकी आंखें अब खुश्क थीं। किन्तु अभी तक उनमें गहरी उदासी मौजूद थी। मैंने उसे पास बुलाया और समझाया, ‘‘तुम मेरे बेटे जैसे हो। मैंने तुम्हें पहले भी बताया था, मेरी बात का बुरा नहीं मानना चाहिये। तुम मुझे समझने की कोशिश करो। तुम तो पढ़े-लिखे हो। सब कुछ समझ सकते हो। मैं ज़बान का थोड़ा सख्त हूं। मगर इतना बता दूं, कि जो लोग जबान के मीठे होते हैं, वे भीतर से तेज़ छुरी होते हैं। समझ गये न?’’

   वह कुछ नहीं बोला, जैसे मुझे एक अवसर और देना चाहता हो। मैंने भी सोच लिया, आगे के लिये अपना क्रोध अन्य दो सैल्समैंनों पर निकाल लिया करूंगा। वे दोनों समझदार हैं। मेरी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। इसीलिये मज़े भी उड़ा रहे हैं। इसे कुछ भी नहीं कहा करूंगा। भले ही यह काउंटर पर कुछ ख़ास योग्य सिद्व नहीं हुआ। मगर हिसाब-किताब में काफी माहिर है। इसके यहां होते, सैल्सटैक्स और इन्कमटैक्स का कोई लफड़ा नहीं हो सकता।

   मगर थोड़े ही दिन बाद की बात है। दुकान पर एक अन्य लड़की आई। काफी गम्भीर लग रही थी। एक मिनट, दोनों के बीच धीरे-धीरे कुछ बात हुई। फिर पांच मिनट की छुट्टी लेकर, वह उस लड़की के साथ चला गया और लौटा पूरे चालीस मिनट बाद।

 ‘‘चली गई वह लड़की?’’ मैंने पूछा।

 ‘‘जी’’, उसने बिना मेरी ओर देखे सपाट-सा उत्तर दिया।

मैंने सोचा, छोड़ो, क्यों बात बढ़ाई जाये। किन्तु दो दिन बाद वही लड़की फिर चली आई। उसी तरह धीरे-धीरे बात हुई और अभी आ रहा हूं कहकर वह उसके साथ चला गया और काफी देर बाद लौटा।

आज भी वह पच्चीस मिनट बाद लौटा था, मैं देखते ही भड़क उठा।

‘‘यह अब हर रोज यहां आया करेगी?’’

‘‘जी?’’ वह तनिक गुर्राया।

‘‘जी क्या! यह दुकानदारी का टाइम है, या लड़कियों को बाज़ार घुमाने का?’’

उसके बाद कुछ याद नहीं, मैं क्या-क्या बोल गया। वह सुनता रहा। किन्तु इस बार वह रोया नहीं, बल्कि ग़ौर से मेरी ओर देखता रहा।

कुछ देर बाद मैं नार्मल हुआ। एक गिलास पानी पिया। चार चाय मंगवाई। एक स्वयं ली अन्य तीनों सैल्समैनों के पास पहुंच गई।

देखा, चाय उसके सामने पड़ी है और वह कुछ सोच रहा है। पूछा, ‘चाय क्यों नहीं पीते?’

उत्तर में वह मुस्करा दिया।

दुकान बढ़ाते हुए देखा, वह बेहद गम्भीर है

मैंने कहा, ‘‘सुनो’’।

‘‘जी’’

‘‘आज मैं तुम्हें बहुत कुछ कह गया। मुझे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये थी। बहुत चाहता हूं, ऐसा न किया करूं। मगर पता नहीं, इच्छा के विरूद्व ज़रा-सी बात हो जाने पर मुझे क्या हो जाता है। मेरी इसी आदत की वजह से, मेरे दोनों लड़के और बहुएं, अपने बच्चों सहित अलग मकानों में रहने लगे हैं। पत्नी कभी मेरे पास आती है, तो कभी लड़-झगड़ कर बच्चों के पास चली जाती है। मगर तुम तो बहुत अच्छे लड़के हो। कोई बात दिल पर मत लाया करो। मैं स्पष्टवादी हूं, मगर भीतर से....’’

वह कहक़हा लगा कर हंसा और फिर पहले की तरह गम्भीर हो गया।

   अकस्मात ही वह निर्मम होकर बोला, ‘‘ठीक से सुन लीजिये मुझे स्पष्टवादी लोगों से सख्त नफरत है। आदमी, जो दूसरों के प्रति अपना व्यवहार ठीक न रख सके, वह आदमी नहीं पशु है। आप बार-बार दिल का रोना क्यों रोते रहते हैं? आपके दिल का किसी को क्या करना है?’’

‘‘यह तुम क्या कहे जा रहे हो!’’ मुझे जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीें हो पा रहा था।

‘‘वही, जो बहुत पहले कह देना चाहिये था। मैं जा रहा हूं। मेरे जितने पैसे आपकी और निकलते हों, उनसे आंवले का मुरब्बा खरीद, उसे चांदी के वर्क लगाकर खाइयेगा, ताकि आपकी यह दिल नाम की चीज़, और भी मज़बूत और मुकम्मल बन जाये!’’

  वह चला गया। कोई अन्य सैल्समैन मुझे मिल ही जायेगा। किन्तु सोचता हूं, यह व्यक्ति, जो किसी की मामूली-सी बात भी सहन करने में असमर्थ है, जीवन में मेरी ही तरह धक्के खायेगा।                           

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