सूरज प्रकाश
9930991424
बात 1972 के शुरुआती दिनों की है। तब मैं डीबीएस
कॉलेज, देहरादून से सुबह के सेशन में बीए कर रहा था। 6:00
से 6:30 बजे तक अंग्रेजी का पीरियड होता था और
6:30 से 7:30 तक हम खाली होते थे। एक दिन
पहले किसी स्थानीय अखबार में मेरी एक कविता छपी थी और मैं वह कविता कॉलेज के सामने
चाय की दुकान में अपने एक सहपाठी को सुना रहा था। तभी बीए फाइनल का एक छात्र चाय
पीने के लिए आया। मुझे कविता सुनाते देख कर मुझसे बोला - यह कविता तुम्हारी है? जब मैंने हां कहा तो उसने बताया - अच्छी है, मैंने
पढ़ी है। तुम एक काम करो। कनाट प्लेस में वैनगार्ड प्रेस में कवि जी सुखबीर
विश्वकर्मा जी से मिलो। वे देश भक्ति की कविताओं का एक संकलन निकाल रहे हैं।
तुम्हारी कविता भी ले लेंगे।
मैं बहुत हैरान
हुआ कि क्या इस तरह के सहयोगी संकलन भी होते हैं। अब तक मैं शहर में या देश में
किसी भी रचनाकार को नहीं जानता था। मेरा पढ़ना लिखना खुशीराम लाइब्रेरी में
पत्रिकाएं पढ़ने और घर के पास चलने वाली लाइब्रेरियों में ₹3 महीना देकर रोज एक किताब किराए पर लेकर
पढ़ने तक सीमित था। इन किताबों में गुलशन नंदा, रानू, दत्त भारती, वेद प्रकाश कंबोज, कर्नल रंजीत, इब्ने सफी हुआ करते थे और पत्रिकाओं
में अधिकतर फिल्में पत्रिकाएं। मैं छिटपुट कविताएं लिखा करता था लेकिन वे कितनी
कविताएं होती थीं और कितनी नहीं, इसके बारे में मुझे तब तक
कोई अंदाजा नहीं था। कोई बताने वाला भी नहीं था।
सुबह के वक्त
चाय की दुकान में एक सीनियर छात्र से वह मुलाकात एक तरह से साहित्य की दुनिया में
मेरे प्रवेश के लिए दरवाजे खोलने वाली होने वाली थी। मेरी दुनिया उस दिन के बाद
बदल जाने वाली थी। बेशक मेरा विधिवत लेखन शुरू होने के लिए मुझे अभी कम से कम
पंद्रह बरस और इंतजार करना था लेकिन शुरुआत तो उसी दिन ही हो गयी थी।
अगले दिन मैंने
देशभक्ति की दो तीन कविताएं लिखीं और उन्हें ले कर में वैनगार्ड प्रेस में कवि जी
के पास गया। अपना परिचय दिया कि बीए में पढ़ता हूं और कविताएं लिखता हूं। मुझे पता
चला है कि आप देशभक्ति की कविताओं का एक संकलन निकाल रहे हैं। मैं भी दो तीन
कविताएं लाया हूं। उन्होंने कविताएं देखीं और उन्हें तुरंत ही रिजेक्ट कर दिया और
कहा कि कविता हमेशा 16 मात्राओं की होनी चाहिए
और उन्होंने मुझे साधुराम इंटर कॉलेज के हिंदी अध्यापक कौशिक जी के पास कविता ठीक
कराने के लिए भेज दिया। यह अलग कहानी है कि मेरी कविता किस रूप में छपी।
मेरी कविता देहरादून
के सभी रचनाकारों के साथ एक सहयोगी संकलन में छपेगी इससे मुझे बहुत खुशी हुई। मैं तब
तक बीस बरस का भी नहीं हुआ था और मेरी शुरुआती कविता ही शहर के सहयोगी संकलन में
छपने जा रही थी। अब मैं अक्सर कवि जी के पास के पास जाने लगा। वहीं जाकर पता चला
कि इस संकलन में शहर के कौन-कौन से कवि शामिल हो रहे हैं। जब भी मैं वहां जाता तो हमेशा
दो-चार कवि वहां मिल ही जाते। इनमें सुभाष पंत, अवधेश, सुरेश उनियाल, मनमोहन
चड्ढा, जितेन ठाकुर, देशबंधु, अतुल शर्मा आदि थे। वे सब पहले से छपते रहे थे और एक दूसरे से परिचित थे।
मैं एकदम नया था और लिखने पढ़ने के नाम पर मेरी डायरी में मुश्किल से दस पंद्रह कविताएं
थीं। स्थानीय अखबारों में छपी हुई दो तीन। जब मैं इतने बड़े कवियों से मिलता तो
संकोच से भर जाता। लेकिन सब वरिष्ठ लोग बहुत प्यार से मिलते।
आपस में परिचय
कराते तभी मुझे पता चला कि इस संकलन के एक कवि सुभाष पंत की कहानी गाय का दूध सारिका
में छपी है और उसकी खूब चर्चा है। उनसे अब तक मेरा संवाद नहीं हुआ था। यह पहली बार
हो रहा था कि मैं किसी लेखक को आमने सामने देख रहा था। मुझे बहुत संकोच होता उनसे बात
करने में। यह किसी भी लेखक से बात करने का पहला मौका होता। मैं पढ़ने लिखने के नाम
पर एकदम शून्य था। मैं देहरादून में जिस मुहल्ले में मच्छी बाजार में रहता था, वह गुंडों,
मवालियों और शराबियों का इलाका था। देर रात तक गालियां सुनायी देतीं और अक्सर चाकू
चलते। ऐसे इलाके में रहते हुए भला लिखने पढ़ने के संस्कार कहां से आते। पंत जी
से मुलाकात और संवाद आने वाले पचास बरस के लिए एक बहुत ही आत्मीय, स्नेह से भरपूर और लेखक के रूप में मुझे
दिशा देने वाले और मुझे समृद्ध करने वाले रिश्ते की शुरुआत थी।
पंत जी की वह कहानी मैंने पढ़ी थी और
हैरान हो गया था कि कहानी इस तरह से भी और ऐसी स्थितियों पर भी लिखी जा सकती है।
अब तक मैं गुलशन नंदा और रानू की नकली दुनिया में ही भटक रहा था। जीवन से आयी
कहानी से यह पहला परिचय था। पंत
जी से बात होती थी लेकिन उन्होंने कभी भी नहीं दर्शाया कि मैं नौसिखिया हूं और
साहित्य में जगत में प्रवेश कर रहा हूं।
खैर, जब तक दहकते स्वर छपता, सभी साथी रचनाकारों से अच्छा परिचय हो गया था और सबने मुझे भी एक सहयोगी
कवि के रूप में स्वीकार कर लिया था। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी कि मैं देहरादून
की लेखक बिरादरी में शामिल कर लिया गया था। देखा देखी मैंने कुछ और कविताएं लिखीं
और वे वैनगार्ड अखबार में और कवि जी की मदद से कुछ और अखबारों में छपीं।
अब मैं
देहरादून की लेखक मंडली में विधिवत शामिल कर लिया गया था और सबकी गप्प गोष्ठियों
में शामिल होता था। बेशक मैं बोलता नहीं था और सिर्फ सुनता रहता था लेकिन यह बहुत
बड़ी बात थी कि मैं इस मंडली में शामिल था। धीरे-धीरे मैं पंत जी के और अवधेश के
संपर्क में आने लगा था और उनसे बहुत कुछ सीखने लगा था।
मुझे वे दिन बहुत
याद आते हैं। पंत जी, कवि जी और देश बंधु के पास पुरानी साइकिलें होती थीं। तब एक
बहुत अच्छी परंपरा देहरादून में थी कि सब साहित्यकार जब शाम को मिलते या घंटाघर के
पास बने बैठने के इकलौते ठीये डिलाइट रेस्तरां में बैठते तो देर तक खूब बातें होतीं
और फिर सिलसिला शुरू होता सबको घर तक छोड़ कर आने का। यह अद्भुत और हैरान कर देने
वाली बात होती थी कि सब साइकिल थामे धीरे-धीरे चल रहे हैं और बारी-बारी से सबको
एक-एक के घर छोड़ रहे हैं। कभी पंत जी के घर उन्हें छोड़ा जा रहा है, कभी अवधेश को उसके घर छोड़ा जा रहा है और
इस तरह घर छोड़ कर आने का सिलसिला देर रात तक चलता रहता। आखिर में जब दो ही लोग रह
जाते तो अक्सर ऐसा होता कि वे दोनों एक ही घर में सो जाते। यह दुनिया में अकेली और
निराली प्रथा रही होगी। मुझे भी कई बार इस तरह से सभी मित्र घर पर छोड़ने आए या
मैं बारी-बारी से सब को घर छोड़ने के लिए जाता रहा।
उन दिनों एक और
बात अच्छी बात थी। चाहे सीमित साधनों में सही, सब साथियों के जन्मदिन मनाए जाते हो। सब लोग मिलते और देर तक खाने पीने
के दौर चलते। मुझे पंत जी के घर पर उनके जन्मदिन पर जाना याद है। देर रात तक हेम
भाभी जी सबके लिए पकौड़े बनाती रही थीं।
जब सब मिलते तो देर तक साहित्य की बातें होतीं। लिखने
के तौर तरीके और बेहतर तरीके से लिखने की बातें होतीं। नयी लिखी रचनाएं सुनायी
जातीं और पढ़े गये साहित्य पर बात होती। किताबों और पत्रिकाओं का आदान प्रदान
होता। चलते चलते एक चक्कर पलटन बाजार में नेशनल न्यूज एजेंसी का लगाया जाता कि कोई
नयी पत्रिका आयी हो तो खरीद ली जाए। मुझे अभी भी सबकी बातों में शामिल होने में
बहुत संकोच होता। एक नयी दुनिया थी जो मेरे सामने खुल रही थी। जिस तरह का जीवन मैं
जीने के लिए अभिशप्त था, उससे बिलकुल अलग।
मेरे सामने पंत जी थे अवधेश था। उम्र में भी बड़े और कद में भी बहुत बड़े थे। पंत
जी सारिका के चर्चित लेखक थे।
पंत जी बेहद
शानदार किस्सागो हैं और अपने खास अंदाज में खूब किस्से सुनाया करते। वे किसी भी
बात को, किसी भी मामूली घटना
को, मामूली से मामूली लतीफे को किस्सागोई के अंदाज में
सुनाने में माहिर हैं। उन्हें सुनना बहुत अच्छा लगता था। वे जिस भी मंडली में बैठे
होते, केन्द्र में वे ही होते। महफिल उनके आसपास ही जमती। वे
हमारे स्टार लेखक थे और उन्हें सब बहुत आदर से मिलते।
उनका सुनाया एक
बहुत पुराना किस्सा याद आ रहा है।
किस्सा कुछ यूं
है – एक जनाब अपनी कोठी के लॉन में शाम के वक्त टहल रहे थे। शाम का वक्त था। तभी
उन्होंने देखा कि कोई मिलने वाले गेट पर खड़े हैं। उन्होंने अपनी छड़ी वहीं लॉन
में मिट्टी में धंसायी और लपक कर गेट खोलने चले गये। मित्र रात को देर से लौटे।
सुबह के वक्त
उन्हें छड़ी के बारे में याद आया। सोचने लगे, कहां रखी है। तभी याद आया कि दोस्त के आने पर उन्होंने अपनी छड़ी लॉन में
ही मिट्टी में धंसा दी थी। लपक कर लॉन में गये तो देखते क्या हैं कि छड़ी में
अंकुए फूट आए हैं। वे सोचने लगे कि जिस शहर में लॉन की मिट्टी ही इतनी उर्वरा है
तो शहर के बाशिंदे कितनी सर्जनात्मकता से लैस होंगे। हर आदमी कवि और लेखक होगा। इस
किस्से को पंत जी ने देहरादून की क्रिएटिविटी से जोड़ा था। ऐसा बहुत कम होता था कि
पंत जी किसी महफिल में हों और कोई किस्सा न सुनाएं।
मैं उन्हें
अपने वक्त का श्रेष्ठ किस्सागो मानता हूं। घटना चाहे मामूली हो लेकिन किस्सागोई के
अंदाज में वे उसमें नया रंग नया स्वाद और नई अनुभूति भर देते हैं। किस्सा चाहे
कमलेश्वर जी से जुड़ा हो, शराबखोरी से जुड़ा
हो या नए नए लोगों से मिलने के किस्से हों, वे हमेशा अपने
अंदाज में हमें किस्से सुनाते नजर आते हैं।
जून 1974 में मैं नौकरी के सिलसिले में
हैदराबाद चला गया और वहां से पत्रों के माध्यम से पंत जी, अवधेश
और धीरेंद्र अस्थाना और बाकी रचनाकारों से संपर्क बना रहा। मैं सबके साहित्य से जुड़ा
रहा। सबकी कहानियां पढ़ता रहा। मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं अभी भी लिखना शुरू नहीं
कर पाया था। वही टूटी फूटी कविताएं मेरे खाते में थीं। 1977 में
जब मैं देहरादून वापिस आया तब भी लिखने के बारे में मैं शून्य था। डेढ़ बरस
देहरादून में रहने के बाद फिर से एक बार शहर छूट गया और मैं दिल्ली चला गया लेकिन
देहरादून के सभी मित्रों से मेरा निकट के नाता बना रहा। 1981 में मुंबई आने के बाद भी मेरे लेखन शुरू नहीं हो पाया था और मेरी छटपटाहट
बरकरार थी। मेरे सभी मित्रों की कई कई किताबें आ चुकी थीं और मैं अभी तक लिखने की
बोहनी भी नहीं कर पाया था। मैं कहीं भी रहा, चाहे मुंबई या
अहमदाबाद या पुणे, मुझे पंत जी के खूबसूरत पत्र मुझे मिलते
रहे। अभी भी मेरे खजाने में उनके पचासों पत्र हैं जो हमेशा मुझे प्रेरित करते हैं।
पंत जी मुझे बताते रहते कि बेशक लिखने में देर हो जाती है कई बार लेकिन लिखने की
तैयारी में लगने वाला समय कभी भी जाया नहीं जाता। मेरा
लेखन 1987 में शुरू हुआ और जब 1988 में मेरी
तीसरी ही कहानी धर्मयुग में आयी
तो देहरादून के मित्रों ने मेरा बहुत उत्साह बढ़ाया है खासकर पंत जी और अवधेश के
पत्र मेरे लिए किसी खजाने से कम नहीं थे। वे पत्र मैंने आज भी संभाल कर रखे हैं।
मैं देहरादून
बहुत कम रहा हूं और पिछले कई वर्षों से यानी लगभग 50
बरस से देहरादून से बाहर हूं लेकिन पंत जी से हमेशा पत्राचार के
जरिए, टेलीफोन के जरिए नाता बना रहा और वह मेरे लेखन पर अपनी
उंगली रखते रहे और बताते रहे कि मैं कहां ठीक काम कर रहा हूं और कहां सुधार की
गुंजाइश है। उनके घर में मेरा हमेशा स्वागत होता रहा। मेरा सौभाग्य है कि इतने
बड़े लेखक, जमीन से और पहाड़ से जुड़े लेखक का मुझे स्नेह और
प्यार मिलता रहा है और मुझे कभी भी नहीं जताया गया कि मैं उनसे बहुत छोटा हूं और
मेरा लेखन उनके लेखन के सामने कहीं नहीं ठहरता। उन्होंने हमेशा मुझे बराबरी का
दर्जा दिया है और अपने परिवार में हमेशा मेरा स्वागत किया है।
पंत जी बता रहे
थे कि बहुत पहले जब वे हिंदी में एमए कर रहे थे तो पेपर देखने पर पता चला कि उनकी
कोई तैयारी नहीं थी। वे कोई भी प्रश्न हल नहीं कर सकते थे। अब तीन घंटे बैठ कर
क्या करें। कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने क्वेश्चन पेपर की जगह तीन घंटे में एक पूरी
कहानी का ड्राफ्ट लिख लिया था। वे साफ-सुथरे छोटे छोटे अक्षरों में लिखते हैं और
कहीं कोई काट छांट नहीं होती।
जब मैं स्टोरीमिरर से जुड़ा तो सबसे
पहले मैंने ये काम किया कि वहां से पंत जी, जितेन
ठाकुर और धीरेन्द्र अस्थाना के कहानी संग्रह छपवाये। सीरीज और लंबी चलती लेकिन
मनमुटाव के कारण मैंने संस्था ही छोड़ दी। पंत जी के कहानी संग्रह का जब लोकार्पण
जब मुंबई में होना था तो पंत जी ने इच्छा जाहिर की कि किताब का लोकार्पण अगर प्रसिद्ध
लेखक और कार्टूनिस्ट आबिद सुरती करें तो बेहतर। आबिद सुरती आये थे और पंत जी की
किताब का लोकार्पण किया था।
और आखिर में
चूंकि यह किस्सा पंत जी का ही सुनाया हुआ है तो यहां पर दर्ज करने में कोई हर्ज
नहीं है।
बात बहुत
पुरानी है। पंत जी अवधेश
से मिलने उसके घर गए। दरवाजा बंद था। आवाज दी। अवधेश के साथ वाले कमरे में उसके
पिताजी रहा करते थे। उन्होंने पूछा – कौन है। पंत जी ने जब अपना नाम बताया तो
अवधेश के पिता जी ने उन्हें भीतर बुला लिया और अपने पास बिठाकर समझाने लगे कि तुम
अवधेश से बड़े हो और वो तुम्हारी बात मानता है। उसे समझाओ। वह बहुत पीने लगा है।
घर की तरफ, बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देता और पता नहीं कहाँ
कहाँ घूमता रहता है। वे बहुत देर तक पंत जी को समझाते रहे। पंत जी के पास और कोई
उपाय नहीं था सिवाय सुनते रहने के। बाद में उन्हें भी लगा कि पिताजी ठीक कह रहे
हैं। अवधेश को पीना बंद कर देना चाहिए। उठते हुए पंत जी ने तय किया कि वे आज ही
अवधेश से मिलकर उसे समझाएंगे कि वह पीना बंद कर दे और परिवार की तरफ ज्यादा ध्यान
दे। वे यह सोच कर चले कि अगर अवधेश कहीं मिल जाए तो आज ही ये नेक काम करते चलें।
संयोग ऐसा हुआ की न्यू एंपायर थिएटर के पास सामने से
अवधेश आता दिखायी दिया। पंत जी खुश कि इतनी जल्दी ये मौका मिल गया। बातचीत शुरू
हुई। पंत जी बोले – अवधेश, तुमसे ज़रूरी बात
करनी है। अवधेश ने कहा – जरूर, लेकिन ऐसे यहाँ खड़े खड़े कैसे
बात करेंगे। चलिए, सामने बार है। बार में बैठ के बात करते
हैं। पंत जी को लगा, लंबी बात होगी, बैठ
कर बात करना ठीक रहेगा। दोनों बार में बैठे। पंत जी बात शुरू कर पाते, इससे पहले अवधेश ने पूछा - एक एक पैग मंगवा लें। खाली बैठे अच्छा नहीं
लगेगा। पैग आ गये। पंत जी ने उसे समझाना शुरू कर दिया कि शराब पीने से उसे क्या
क्या नुक्सान हो रहे हैं। उसे तुरंत पीनी छोड़ देनी चाहिये। ये और वो। पंत जी देर
तक समझाते रहे और अवधेश पूरी बात ध्यान से सुनता रहा और सहमति में सिर हिलाता रहा।
पैग आते रहे, बात होती रही।
किस्सा यहां खत्म होता है कि जब दोनों दो ढाई घंटे बाद
बार से निकले तो दोनों पूरी तरह से टुन्न थे।
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