Thursday, March 16, 2023

संघर्ष ही सर्जना है

 राजेश सकलानी


साहित्य लेखन एक पूर्णकालिक व्यवसाय है। एक राजनैतिक कर्म है। हम सभी लोग बचपन में अपने आस पास की जिंदगी में समाजिक पीड़ाएं देख चुके होते हैं और गैरबराबरी से उपजे नतीजों से परिचित हो जाते हैं। साहित्य लेखन के पीछे इसलिए एक व्यवस्था की तलाश अनिवार्यत होती है जहाँ कोई शोषक तकलीफें न पैदा कर सके। इस आयोजन को  प्रकृति और सामाजिक सांस्कृतिक वैविध्य से निसंदेह ताकत  मिलती है। भविष्य के समाज के लिए इसे सुरक्षित करना हमारी बुनियादी प्रतिज्ञाओं में शामिल होता है। इस संदर्भ में हम अपने समय के महत्वपूर्ण कथा लेखक सुभाष पंत के रचनाकर्म को  गर्व और संतोष से देखते है। उनके कथा पात्र हमारे समाज के सामान्य नागरिक है, वे प्रायः निम्र वर्ग से आते है । जीवनयापन करने की मुश्किलों में पंत जी उनके संघर्षों में हमेशा शामिल रहते है। पिछले पांच दशको में प्रकाशित उनके दस कथा संग्रहों और दो  उपन्यासो ( तीसरा उपन्यास शीघ्र प्रकाशय है) के दौरान  जनता के प्रति उनकी निष्ठा में कभी विचलन नही आया है। 

सामान्यतः कथाएं उन चरित्रों के माध्यम से अपनी धारणाएं व्यक्त करती है, जिससे कोई विलक्षणता होती है या उनमें कौतुक पैदा करने वाली घटनाएं होती हैं। लेकिन पंत जी की कहानियों मे पात्र और घटनाएं सामान्य स्तर पर बनी रहती है और लेखक इनमें निहित सुख दुख , यंत्रणा, शोषण और दारिद्र्य के पीछे आधारित व्यवस्था को सूक्ष्मता में पहचान लेते हैं।


सामाजिक व्यवस्था के प्रोटोटाइप की सर्जना करना पंत जी के कथाशिल्प की विशेषता है। उनकी कला किसीभी स्तर पर सामाजिक यथार्थ में विलग नहीं होती। और सामान्य भारतीय नागरिक की व्यथा से अलग वे 'अपने वर्ग हित की कला में नहीं उलझते। अनेको अन्तर्विरोधों से गुजरते हुए वे सामाजिक व्यवहारिक विचलनों को सूक्ष्मता से लक्षित करते हुए वे रचनात्मक तरीके से लोकतान्त्रीक मूल्यों को प्रतिष्ठित करते हैं। 


वे मूलतः समकाल के व्याख्याकार हैं। यह उनकी राजनैतिक प्रतिवद्धता है कि वे हर हाल में गरीब और विवश नागरिक से सन्नध रहे हैं।  अपने पचास साल के  रचनाकाल में उन्होंने कभी अवकाश नहीं लिया। शहरी निम्नवर्गीय जीवन की कथा उनका आवास रहा है। पंत जी की भाषा इसका प्रमाण है कि वे जब लिख नही रही होते है तो उस समय  भी  उनकी जन निष्ठा सक्रिय रहती है।जीवन मूल्यों के तहत उनके लगाव में व्यतिक्रम नहीं है। कभी कभी जिम्मेदारी के परिसर में शौकिया यात्रा करना उनके लेखन का स्वभाव नहीं है। सामाजिक जीवन में ना‌गरिको की बुरी जीवन स्थितियों को अनदेखा करना या उनका सामान्यकरण करने की क्रूरता उनको स्वीकार्य नहीं है।


गाय का दूध 'कहानी से अपने लेखन की शुरुआत में ही उन्होंने पाठको  लेखकों और आलोचको का ध्यान आकृष्ट किया और उनकी दर्जनों कहानियां याद में बनी रहती हैं। देश भर में उनको चाहने वाले पाठक है जिनसे उन्होंने रचनात्मक रिश्ता बनाया है। यह मामूली उपलब्धि नही है। कथाकार और  संपादक (पहल) ज्ञानरंजन ने उन्हें अपना प्रिय लेखक बताया है और माना है कि आलोचकों ने उन पर पर्याप्त ध्यान नही दिया है। प्रसंगवश पंत जी का सुलेख बेहतरीन है। कागजों के पुलिन्दो में उनके द्वारा लिखित पृष्ठ चित्रकला की तरह आकर्षक दिखाई देता है। इस संदर्भ में कथाकार योगेन्द्र आहूजा का सुलेख भी दर्शनीय है। कला अभिरुचि,  शांतचित और धैर्य संभवत इस विशेषता की पृष्ठभूमि है।


'इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प  दौड़  ' ,कथा संग्रह अभी हाल में काव्यान्श प्रकाशन, ऋषिकेश से प्रकाशित हुआ है जिसमें चौदह बेहतरीन कहानियां शामिल है। लेखक की उम्र इस वक्त चौरासी वर्ष है अभी अभी उन्होंने अपना तीसरा उपन्यास पूरा किया है। 


इस संग्रह में "मक्का के पौधे ' कहानी सघन कथ्य,  खूबसूरत भाषा और निम्नवर्गीय जीवन स्थितियों के बीच  उन्नत संवेदनाओं के प्रकटीकरण के लिए याद रखी जाएगी। कथानक की विश्वसनीयता, पात्रों और परिवेश का यथार्थवादी चित्रण ,सटीक संवादों और उच्चतर मानवीय मूल्यों की स्थापना के संदर्भ में लेखक का कौशल हमारे समाज के लिए बड़ी उपलब्धी है। लेखक की खूबसूरत भाषा की पीछे गहन माननीय संवेदनाएं, अग्रगामी विचार‌शीलता, संघर्षशील जनता से सम्पृक्ति और मानवीय दृढ़ता मुख्य कारण है।


इस कथानक में लालता और सुगनी का जवान बेटा जो ट्रक ड्राइवर है एक शादी शुदा औरत को घर ले कर आ जाता है। यह दंपति को मंजूर नहीं है। दो औरतो के अन्तर्द्धत बहुत सघनता से व्यक्त हुए हैं।


"चित्रलिखित सी दिलकश, शीशे में उतरती तस्वीर सी , सुगनी को वह फूटी आंख नहीं सुहाई। हुंह, शहराती नखरे हैं । कहते हैं। औरत के माने तो बस एक सीधा-सच्चा गांव है। ये लच्छन उसे नहीं दिया रिझा सकते। धौखेबाज, भ्रष्ट, पतुरिया"


अपनी वर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण करना लेखन का  सबसे बडा संघर्ष है, मध्यवर्गीय चेतना बार बार  प्रतिगामिता की ओर ठेलती है। इसलिए समाज की अस्मितावादी शक्तियों ने हमें फासीवाद के दरवाजे पर पहुंचा दिया है। इस दौर में छद्म बुद्धिजीवियों के नकाब हटते गए हैं। बाहरी तौर पर जो प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढे थे, उनके चेहरों पर संतोष और सुख का भाव उनकी राजनीति बयान कर देता है। 

सुभाष पंत हर हालात में अपनी मेहनतकश जनता के हमदर्द है। उनकी कहानियां  समाज के नागरिकों को परख करने का सलीका देती हैं। हर तरह का लेखन वास्तव में राजनीति का ही हिस्सा होता है। पंत जी का साहित्य अस्मितावादी राजानीति, भेदभाव और शोषण का प्रतिकार है। वे सच्ची सामाजिक आजादी को परिभाषित करता है।

1 comment:

कथाकार said...

मैं राजेश से सहमत हूं कि पंत जी के पात्र आम जीवन से आते हैं और इसीलिए हमें अपने आसपास के लगते हैं। पंत जी जब लिख नहीं रहे होते हैं तब भी रच रहे होते हैं। पात्र बाहर आने और लिखे जाने की प्रोसेस में होते हैं।