चित्रकार
इमरोज इस दुनिया को कुछ ही दिन पहले अलविदा कह गए। बिना किसी किंतु परंतु के यह सर्व व्याप्त है कि इमरोज को अमृता प्रीतम के साथी के रूप में जानने वालों के दिलों में इमरोज अपने जीवन काल में ही एक मिथ की तरह स्थापित हो चुके थे। अमृता और इमरोज के दोस्ताने की दास्तान रही ही इतनी खूबसूरत जिसे अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में खुद अमृता ने दर्ज किया है। पिछले दिनों अमृता की आत्मकथा रसीदी टिकट के छोटे छोटे अंश और उनके ही कविता संग्रह कागज और केनवास से चुनी हुई कविताओं से तैयार एक कोलाज “आजाद रूह " से साक्षात्कार करने का अवसर राजपुर रोड स्थित वेली ऑफ वर्ल्ड में हुआ था। दरअसल उस दास्तान का अंदाज था ही इतना अनूठा कि स्मृतियों में अमिट हो गया। वह एक एकल अभिनय था शर्मिष्ठा का। अमृता प्रीतम की स्मृति की वह यादगार शाम थी - 4 नवम्बर 2023। इस बार शर्मिष्ठा ने इमरोज की स्मृति को एक दूसरे अंदाज में रखा है- कविता के रूप में। यह कविता उसी “आजाद रूह " का अपने तरह से विस्तार है जो एक कलाकार, कवि के भीतर छुपी बैठी अमृता प्रीतम को सामने लाने की कोशिश है। शर्मिष्ठा अपने मिजाज में मूलत: एक रचनाकार हैं। अंग्रेजी में लिखती हैं। एक उपन्यास प्रकाशित है- Endless longings, journey of a kashmiri girl, कविताओं एक संकलन Resurrection प्रकाशित है और अगले संग्रह के प्रकाशन की तैयारियां लगभग अंतिम मुकाम पर है। |
एक बार, तेरे इर्द-गिर्द घूम कर ही,
मैने पूरी दुनियाभर का
फेरा लिया था!
और आज, इस दुनियाभर के, हर फेरे से,
रिहा हो कर,
मै, हमारी, दुनिया
का, हो गया हूं।
मेरी बरकते, मेरी कायनात, मेरी रंग-रेज,
तुझसे, मै
हर पल, मिलता रहा हूं ।
कभी केनवास की लकीर मेंं, तो कभी,
सर्दी की धूप मे या फिर बहुत ही,
पुरानी सी किताबों की, खुश्क खुशबू में।
तुम्ही ने कहा था, एक यकीन के साथ,
'मैं तेनु फिर मिलागीं'।
मैंं, उसी यकीन से, तुमसे,
रोज मिलता रहता हूं, तुम्हें पाता रहता हूं।
तुम्हारे होने के एहसास
से, जीता रहा हूं।
सुनो, एक लंबे और नये, सफर पर जाने से पहले,
मैने सब संभाल के रखा है-
तुम्हारी हर नज्म, तुम्हारी हर किताब,
तुम्हारी हर कलम, तुम्हारी
खाली सिगरेट की डिब्बी भी।
मेरे केनवास मे 'तुम्हारी हर तस्वीर'
रंगों में लिपटी तुम्हारी
हर नज्म, महफूज है।
तुम्हारी बेफिक्री, तुम्हारी आजाद रूह को,
मैने पलंग पर बिछाई, चादर की सिलवटो मे ही,
बसने दिया है।
एक खाली प्याला और साथ मेंं, एक भरा कप,
आज तक, मेज
पर ही सजा रखा है।
तुझे पता है भी, इस दुनिया ने,
मुझे तेरे नाम से जोड़कर,
किस किस तरह से, सजा रखा है?
कोई अमृता का इमरोज कहता है,
तो कोई कागज और केनवास
कहता है।
और, मैंं, तेरा 'इम', यह सब सुन, बस मुस्करा देता हूं।
अब, मैं भी, तुमसे फिर मिलने निकला हूंं,
खुद को खुद से, रिहा
कर चला हूं।
तेरा घर, एक जादू का घर, बहुत,
बडा-सा होगा, कायनात
के हर कण से।
मैंं, खुद के सिवा और क्या, लेकर आऊ?
तू उसी बेफिक्री से, खड़ी
होकर
कायनात के हर कण मे, हाजिर होकर,
मेरे आने की चाह मेंं, मेरा इंतजार कर रही है।
देख, मैंं, इसलिए, एकदम रीता होकर, आया
हूं-
तुझसे ही, जरूर
मिलने के लिए,
फिर एक बार तेरा, 'इम' 'इमरोज' और 'आज' होने के लिए।
8 comments:
बहुत सुंदर रचना, भावों को शब्दों में पिरो दिया है आपने।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २६ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह!!!
वाह
कृपया ब्लॉग फौलोवर बटन उपलब्ध कराएं |
वाह !! बहुत सुन्दर.., हृदयस्पर्शी सृजन ।
वाह!!!!
लाजवाब 👌👌👌
बेहतरीन
बहुत सुंदर
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