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Friday, December 5, 2008

साहित्य धंधा नहीं है, जनाब!

यह आम बात है कि कई बार बातचीत के दौरान वक्ता अपनी बात को रखने के लिए कुछ ऐसे मुहावरों को प्रयोगकर लेते हैं जो गैर जरूरी तरह की टिप्पणी भी हो जाती है। जो अपने मंतव्य में वक्ता के ही उदगारों के विरुद्ध हो जारही होती है। ऐसी स्थितियां क्या कई बार रचनाओं में भी नहीं दिख जा रही होती हैं ? मुझे लगता है कि अवचेतन मेंमौजूद किसी विषय की अस्पष्टता ही ऐसी गैर जरूरी टिप्पणियों के रूप में रचनाओं में भी और बातचीत में दिखजाती है। वरना अध्यनशील लोगों के लिए यह चिन्हित करना कोई मुश्किल काम नहीं कि क्या बात तार्किक रूप सेगलत है और जिसे नहीं कहा जाना चाहिए। वो तो अवचेतन ही है जहां हमारे मानस की वह महीन बुनावट होती हैजिसमें हम अपनी तमाम कमजोरियों के साथ पकड़ लिए जाते है। कथाकर जितेन ठाकुर का यह आलेख ऐसी हीस्थितियों पर चोट करता है और गैर जरूरी तरह से की जाने वाली टिप्पणियों की पड़ताल करता है।

जितेन ठाकुर

मौका था एक उदीयमान लेखक के पहले कथा संग्रह पर आयोजित संगोष्ठी का। संगोष्ठी में चर्चाओं का दौर, सहमति-असहमति, शिक्षा-दीक्षा सभी कुछ उफान पर था। पुस्तक की समीक्षा में सम्बंधों का निर्वाह भी हो रहा था और निर्ममता भी बरती जा रही थी। 'मैं लिखता तो ऐसे लिखता" की तर्ज पर कहानियों की चीर-फाड़ जारी थी। तभी महफिल की शमा एक स्वनामधन्य कवि के सामने पहुँच गई। कविराज ने अपने पहले ही वाक्य में साहित्य को 'धंधा" बतलाया तो मुझे हंसी आ गई। बात गम्भीर थी- हंसी की तो बिल्कुल भी नहीं थी। पर पता नहीं क्यों मुझे हंसी आ गई। मुझे समझ लेना चाहिए था कि यह वक्ता का नितांत व्यक्तिगत अनुभव है और इसे वक्ता से ही जोड़ कर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। पर सोच की जिस पैनी कनी ने मुझे तत्कला छील दिया था वह यह थी कि अगर साहित्य को धंधा मान लिया जाए तो लेखकों को तो धंधे वाला कह कर निपटाया जा सकता है पर लेखिकाओं को कैसे सम्बोधित किया जाएगा।
बहरहाल! मेरे हंसने के बाद वक्ताश्री सतर्क हो गए और अपनी कही हुई बात को सिद्ध करने की मुहिम में लग गए। अनेक उदाहरण देकर उन्होंने सिद्ध किया कि हम सब झूठ घड़ते हैं। ये झूठ की हमें साहित्यकार बनाता है, स्थापित करवाता है और बदले में ढेरों लाभ भी दिलवाता है। अब ये उन स्वनाम धन्य कवि का स्वानूभूत सत्य था, अतिरेक था या फिर अति आत्मविच्च्वास। पर ये जो भी था साहित्य के परिप्रेक्ष्य में व्यावसायिक दृष्टिकोण के साथ नकारात्मक सोच के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था।
जिस प्रकार कोई भी धंधा साहित्य नहीं हो सकता ठीक उसी प्रकार साहित्य भी धंधा नहीं हो सकता। साहित्य से जुडे अन्य सभी कर्म यथा छापाखाना, जिल्दसाजी विक्रय और प्रबंधन धंधा हो सकते हैं। साहित्य की आड़ लेकर पद, प्रतिष्ठा और पुरुस्कार हथियाने के लिए पैंतरे बाजी करना भी धंधा हो सकता है। साहित्यक चेले इठे करके महंत हो जाना, प्रायोजित चर्चाएं करना-करवाना, पुरुस्कारों की होड़ में सौदे पटाना, इसको उठाना- उसको गिराना यानी साहित्य की आड़ में ये सब धंधे हो सकते हैं पर इन सब कृत्यों की नींव में दफ्न साहित्य न कल धंधा था- न आज धंधा है। साहित्य को धंधा बना दिया जाए ये और बात है पर साहित्य धंधा हो जाए- ये मुमकिन ही नहीं है। इसलिए परिस्थितियों का सरलीकरण करते हुए साहित्य को धंधा कहने या फिर साहित्य कर्म को 'झूठ घड़ने" का फतवा देने से पहले आवच्च्यक है कि आत्म मंथन किया जाए। यह शोभनीय नहीं कि हम अपने को अपने से ही छुपाने की को्शिश में उन सब पर कीचड़ उछाल दें जो आज भी साहित्य को साहित्य ही मानते हैं- धंधा नहीं।
दरअसल, साहित्य जीवन की एक द्रौली है। तटस्थ और शुश्क इतिहास की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है। तीर और तलवार से पैनी और बारूद से अधिक विध्वंसक होते हुए भी जल से ज्यादा शीतल और प्रवाहमय है। साहित्य समय की अर्न्तधारा है, केवल स्थूल चित्रात्मकता नहीं। समाज की शिराओं में बहता हुआ लहू हैं साहित्य। साहित्य कंठ से नीचे उतरता कौर नहीं है बल्की श्वास नलिका में रिसती हुई प्राण-वायु है। साहित्य संस्कार है, आचमन है और तर्पण भी है साहित्य। शवों की सीढ़ियाँ चढ़ कर सिंहासन तक पहुँचने वालों के लिए चुभते रहने वाली कील है साहित्य। और यही साहित्य किसी प्रलंयकारी रात में सूरज की उम्मीद भी है।
साहित्य चेतना है, स्वाभिमान है और आत्ममंथन के लिए भी है। ऐसे में साहित्य को धंधा कहना किसी व्यापारी का दृष्टिकोण तो हो सकता है पर किसी साहित्यकार का नहीं।
साहित्य न तो त्रिवेणी में डुबकी का मोहताह है न हज का। न तो अमृत छकने में साहित्य बनता है और न ही शराब में भीगी रोटी जुबान पर छुआने से। इसे न तो कालिंदी तट की रास लीलाएँ दरकार हैं और न ही किसी आराध्य की एकांत उपासना। कोई दृद्गय, कोई स्थिति, कोई विचार, समय या समाज इनमें से कुछ भी अकेला साहित्य हो जाए ये सम्भव ही नहीं हैं- पर साहित्य इनमें से कुछ भी हो सकता है। क्योंकि साहित्य अनुकृति नहीं है सृजन है और सृजन की सीमाएँ नहीं होतीं। जिसकी सीमाएँ नहीं उसका व्यापार कैसा?
दरअसल जब हम साहित्य को धंधा कहते हैं तो हम आत्मप्रवंचना से भरे हुए होते हैं। हमें लगता है कि हमारा कहा हुआ वाक्य ही समय है और यही युगों के शिलालेख पर अंकित होने जा रहा है। आत्मकुंठा और आत्ममुग्धता के बीच की स्थितियों से गुजरते हुए, अपने होने के अहसास को बनाए रखने के लिए हम कई-कई बार ऐसी घोषणाएँ करते हैं- जो हमारे वजूद के लिए दरकार होती हैं। हम मान लेते हैं कि हमारा झूठ समय का झूठ है, हमारी कुंठा समय की कुंठा है। हम अपनी प्रवंचना को समय के साथ गूंथ कर उसे कालजयी बना देना चाहते हैं। हम यह सिद्ध कर देना चाहते हैं कि हम श्वास नहीं लेते फिर भी जीते हैं, हम नेत्र नहीं खोलते फिर भी देखते हैं। हमारे कान वो सब सुन सकते हैं जो पीढ़ियों पहले से वायुमण्डल में अटका हुआ है और हमारी जीह्वा जो कहती है- वही सत्य है। इसलिए जब हम कहें कि साहित्य धंधा है- तो उसे धंधा मान ही लिया जाए। नहीं तो इसे सिद्ध करने के लिए हमारे पास दलीलें हैं। हम जिरह कर सकते हैं और इस जिरह के लिए लावण्यमयी भाषा भी घड़ सकते हैं।
मुझे याद आता है कि वर्षों पहले अनेक संगोष्ठियों में साहित्य के कुछ पंडित अपना पांडित्य प्रदर्शित करते हुए बार-बार एक ही बात कहते थे कि साहित्य के पास अब पाठक नहीं रहा। साहित्य के पास पाठक रहा या नहीं- ये एक अलग बहस की बात हो सकती है पर उनके इस कथन में जो अर्थ निहित था वो यही था कि 'हे लेखक! हमारी शरण में आ जाओ क्योंकि साहित्य में तुम्हें स्थापित करने वाला पाठक अब शेष नहीं है। हमारे शरणागत होने के बाद ही तुम स्थापित और चर्चित हो पाओगे।" बहुत से लेखकों ने इस कथन के निहितार्थ को भांपा और शरणागत हुए। ऐसे ही साहित्य को धंधा बताने वाले स्वनामधन्य भी यदि नये लेखकों को अपने धंधे के गुर सिखाने के लिए कोई नया संस्थान खोल लें तो आश्चर्य नहीं।
अरविंद त्रिपाठी ने एक बार कहा था कि यह महत्वपूर्ण है कि हम अपनी रचना के साथ कितना समय बिताते है। इसका यही अर्थ है कि हमने जो लिखा उसका गुण-दो्ष हमें तुरंत ही पता नहीं चलता क्यों कि हम लम्बे समय तक अपनी रचना के सम्मोहन में जकड़े रहते हैं। इस सम्मोहन से मुक्त होने के बाद ही हम तटस्थ होकर अपने लिखे हुए का विश्लेषण कर सकते हैं। फिर ये कितना उचित है कि किसी संगोष्ठी में प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न हुए विचार से कोई स्वयं ही इतना सम्मोहित हो जाए कि उसे प्रमाणिक बनाने और मनवाने के लिए इतना जूझे कि विवेक को ही ताक पर रख दे। पर शायद कुछ लोगों का यही धंधा है क्योंकि उनके लिए यही साहित्य है।

Wednesday, August 13, 2008

कविता क्रिकेट की गेंद नहीं

विजय गौड

एक कवि और एक क्रिकेट खिलाड़ी में फर्क होता है और यह फर्क होना भी चाहिए। क्रिकेट बाजारवादी प्रवृत्तियों का रोमांचकारी प्रतीक है। दुनिया के दूसरे खेल भी बाजार के लिए अपने तरह से स्पेश छोड़ते, अपनी-अपनी स्थितियों के कारण, कमोबेश वैसे ही हैं जैसा क्रिकेट। लेकिन स्पेश की दृष्टि से क्रिकेट तो हर क्षण विज्ञापन परोसने का एक खुला मैदान बनाता है। बावजूद इसके कह सकते हैं कि क्रिकेट के विरोध में जब हम बहुधा दूसरे खेलों को बढ़ावा देने की वकालत कर रहे होते हैं तो उस वक्त एक बड़ी पूंजी के खिलाफ छोटी (पिछड़ती जा रही) पूंजी की स्वतंत्रता को स्थापित करने के लिए ही बात कर रहे होते हैं। योरोप में बड़ी पूंजी का खेल क्रिकेट से इतर फुटबाल में दिखायी देता है। क्रिकेट के खिलाफ अन्य खेलों के प्रति हमारी पक्षधरता लोकतांत्रिक पूंजीवादी दुनिया की स्थापना के लिए एक प्रयास ही होता है। खेलो के भीतर छिपा वह तत्व जो पक्ष और प्रतिपक्ष को एक दूसरे के विरुद्ध रणनीति और कार्यनीति बनाने वाला होता है, उसी में छुपी होती है रोमांचकता और उसी रोमांच के बीच बहुत चुपके से बैठ जाने वाला बाजार (पूंजी ) उसे उत्तेजक बना देता है। बाजार का बाजारुपन हर चीज के बिकाऊपन के साथ झट से हावी हो जाना चाहता है और रोमांच के क्षणों को इतनी तेजी से उत्तेजना में बदल देता है कि दर्शक भी खिलाड़ी में तब्दील होने लगते हैं। इधर सटोरियों की चांदी और उधर - घूमते हुए बल्ले के साथ एक साधारण से व्यक्ति का नायक बनते जाना दर्शकों के बीच से ही अच्छे खिलाड़ियों की संभावना का वह प्रस्थान बिन्दू है जो आरम्भ में ही बहुत छोटे-छोटे बच्चों की भ्रष्ट स्कूलिंग के साथ होता है।

क्रिकेट में उत्तेजना के क्षणों की यह आकस्मिकता इतनी आक्रामक होती है कि रोमांचक क्षण पल भर में ही परदे से दूर हट जाते हैं। उत्तेजना के चरम को हिंसा में तबदील करने वाला बाजार इतना चिढ़ाऊ होता है कि हार के बावजूद बेशर्म चेहरों के साथ उत्पाद की मार्केटिंग करने वाले नायक खलनायक में बदल जाते हैं और प्रशंसकों की नाराजगी बेजुबान चीजों पर कहर ढााती है। वरचुल उपस्थिति के साथ बार बार एक नये उत्पाद को खिलखिलाते चेहरे वाले उनके नायक, नायक नहीं रह पा रहे होते है। उनसे सीधे संवाद न कर पाता भविष्य का संभावित खिलाड़ी-दर्शक आदर्श का जो पाठ पढ़ रहा होता है उसमें पूंजी की महिमा का गीत उसकी नसों में नशा बन कर बहने लगता है। पैसा ही सब कुछ है, ऐसे आदर्शो का ललचाऊ आकर्षण उनके मानस को बहुत कम उम्र में ही विकृत बनाने वाला होता है। विकृति का खास कारण वह उम्र ही होती है जब स्थितियों के विश्लेषण की कोई उछल-कूद उस मस्तिष्क में हो ही नहीं सकती। यदि अपने आस-पास देखें तो पायेगें कि बचपन के सारे क्रिकेटर यदि क्रिकेट मैदान के बहुत नामी खिलाड़ी नहीं बन पाये तो दुनिया के दूसरेे मैदानों में उनके चौके-छककों को रोकने वाला विधान उनके हुनर के आगे अपाहिज सा नजर आता है। उनकी कलाइयों के जौहर से सरक गयी गेंद को ताकने के सिवा, किसी के भी पास काई दूसरा रास्ता नहीं।

वे बुजुर्ग जो जमाने के उस ठंडेपन के दौर में क्रिकेट के दीवाने रहे और आज भी उसके प्रति वैसा ही अनुराग रखते है, इस तरह के आरोपों से बरी हो जाते हैं। उनके दौर का क्रिकेट भी दूसरे अन्य क्षेत्रों के आदर्श से खड़ी बांडरी के ऊपर से गेंद बाहर फेंकने की ताकत हांसिल न कर पाया था। आज के दौर का क्रिकेट इसीलिए अपने मूल्य स्थापनाओं में उस दौर के क्रिकेट से नितांत भिन्न है। पांच-पांच दिनों तक धूप-ताप में तपने वाले खिलाड़ियों के बहते पसीने के चित्र यूं तो उपलब्ध न थे पर कानों पर कान सटाकर सुनी जा रही कमेंटरियों में उनका जिक्र पिचके हुए गाल वाले खिलाड़ियों की तस्वीर ही कल्पना में गढ़ रहा होता था। बाजार भी उस वक्त इतना बदमिजाज न हुआ था, होने-होने को था। आज उसके बरक्स जो एक दिवसीय से लेकर कुछ घंटों के उत्तेजक मंजर वाला लोकप्रिय क्रिकेट दिखायी दे रहा है, उसी बाजार की फटाफट जरुरत है। फटाफट ऐसा कि फटाफट होता रहे। हर क्षण खबर को अप-डेट करता हुआ भी। यह नहीं कि साल भर में सिर्फ कोई एक तय श्रृंखला के लिए ही खबरनवीश इंतजार करते रहें। अपने कल्पनालोक के दौर में डूबे आज भी कुछ बूढे ऐसे हैं जो क्रिकेट के प्रति इस मान्यता से असमर्थ होंगे। वे युवा जो उस फटाफट के कायल है उनकी असहमति तो जमाने के साथ है। लेकिन असहमति की भाषा को सुनते हुए यदि संयम न खोए तो इस फर्क को अलग-अलग रख पाने का जरुरी काम संभव है। वरना सिर्फ और सिर्फ अराजकता में आलोचना करते हुए अटैक करते नजर आने का खतरा दिखाने वाले ज्यादा मुखर हो जाते हैं। फिर तो क्या तर्क और क्या कुतर्क। एक संयत आलोचना की जिम्मेदारी है कि वे जमाने के बदलते हुए आदर्श को परिभाषित करते हुए ही खिलाड़ी के उन तमाम सॉटस की व्याख्या करे जो अपनी कलात्मकता के साथ भी खूबसूरत खेल के प्रदर्शन हैं या फिर सटोरियों के हिसाब से खेले गये किसी सॉट के प्ार्याय हैं। एक सॉट मतलब एक लाख् रुपये या भविष्य में एक करोड़ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

यहां हम कवि और क्रिकेटर के बीच के अन्तर पर बात करना चाहते थे। क्रिकेट की बाजारु प्रव्रत्ति के कारण भी और अन्तर्निहित पक्ष-प्रतिपक्ष की रणनीति के कारण भी क्रिकेट एक कवि के मानस के अनुरूप नहीं। फ़िर जब एक कवि भी क्रिकेटर नजर आये तो माना जा सकता है कि कवि जमाने के चालाकियों से पका और उसी में इतना रमा है कि हर क्षण अपने अर्जित हुनर से पाठक को चौंका रहा है। पाठक उसका प्रशंसक है, ऐसा जानते हुए भी वह प्रतिद्वंद्वी की तरह उस पर अपनी कविताओं के प्रहार करता है। और कविताओं से असहमति दर्ज करने वाले पाठक के विरुद्ध बार-बार चीख-चीख कर उसके आऊट होने की अपील इम्पायरनुमा उन आलोचक की ओर निगाहों को उठकार करता है जो अपने निर्णायक फैसलों में उसके पक्ष में दिखायी देते हैं। वे बताते हैं कि कवि की हर पंक्ति उन अंधेरे कोनो की पड़ताल है जिसमें एक ऐसा "डिस्कोर्स" है जो जनतांत्रिक स्थापनाओं के लिए एक माहौल रचता है। या ऎसा ही कोई और भारी भरकम आशयों से भरा वक्तव्य। उनके आशय की पड़ताल क्रिकेट की भाषा में करें तो कहा जा सकता है कि कवि एक अच्छा बॉलर है जो अपने पाठक को अपना प्रशंसक बनाये रखने के लिए ठीक वैसे ही चौंका रहा है जैसे एक खिलाड़ी-बॉलर अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी-बैट्समैन को छकाने के लिए ही अज्रित की गई कुशलता का प्रयोग करता है। या कई बार एक बैट्समैन की भूमिका में होता हुआ अपने प्रतिपक्ष में खड़े हो चुके बॉलर पर। कई बार बैट्समैन कवि, यह जानते हुए भी कि क्या गलत है और क्या सही, वह अपने अभ्यास की कुशलता से उन गेंदों को, जो उसकी रचना की आलोचना के रुप में होती है, बिना टच किये ही यूंही निकल जाने दे रहा होता है। उसकी बैटिंग की इस खूबसूरती का बयान भी ढेरों कमेंटरेटर अपने अपने अनुबंधित चैनलों पर उसके नये से नये सॉट का रिपले दिखा-दिखा कर ही करते हैं। वे उसके उन सॉट्स के जिक्र न कर पाने के इस अवकाश के साथ होते है कि देखो अभी कितना खूबसूरत सॉट खेला गया। कितनी कलात्मकता है उसके इस नये सॉट में। बेवजह अटैक करने वाले पाठक तो एक खास मानसिकता से ग्रसित हैं। उनकी समझदारी में ही है गड़गड़ जो उसकी रचनाओं से ऐसे अनाप-शनाप अर्थ निकाल रहे हैं। जबकि बल्लेबाज कवि को तो देखो जो पहले के तमाम उन बल्ले बाजों, जो ऐसे ही सॉटों के लिए जाने जाते रहे, उनसे बहुत आगे निकल रहा है अपने हर सॉट में। तथ्यात्मक आंकड़ों की यह बाजीगरी कई बार एक कवि को भी क्रिकेटर बना दे रही होती है।

Tuesday, July 22, 2008

सहमति और असहमति के बीच सामान की तलाश




सामान की तलाश असद जैदी की कविताओं का ऐसा संग्रह है जिसने समकालीन हिन्दी रचनाजगत में एक हलचल मचाई हुई है। इस हलचल के कारण क्या है, उसमें उलझने की बजाय, यह देखना समीचीन होगा कि क्या कोई सार्थक बहस जन्म ले रही है या नहीं। सामान की तलाश की कविताओं, उस पर प्रकाशित समीक्षाओं और उन समीक्षाओं पर की जा रही समीक्षात्मक टिप्पणियों ने न सिर्फ कवि मानस को उदघाटित किया है बल्कि आलोचकों (समर्थक एवं असमहमति रखने वाले - इसमें एक हद तक दोनों को शामिल माना जा सकता है। यहां तक कि इस टिप्पणी के लेखक को भी।) की कुंठाऐं, आग्रह और सामाजिक-राजनैतिक सवाल पर उनकी समझदारियों को सामने लाना शुरु किया है। व्यक्तियों को देखकर पक्ष और विपक्ष में खडे होने के चालूपन ने न सिर्फ संग्रह को ही विवाद के घेरे में ला खड़ा किया बल्कि पाठकों की इस स्वतंत्रता पर भी प्रहार किया है कि वे अपने-अपने तरह से कविताओं के पाठ कर सकें। एक ओर आंकड़ों की सांख्यिकी के आधार पर तर्क रखे जा रहे हैं कि असद न जो लिखा इससे पहले ऐसे ऐसे महानों ने ऐसा लिखा ही है। वहीं दूसरी ओर प्रतिपक्ष में भी कुछ टिप्पणियां ऐसी हैं जिनकी आव्रति में सुना जा सकता है कि असद ने जो लिखा वह एक मुसलमान का हिन्दुओं के विरुद्ध विष-वमन है। हालांकि विरोध की ऐसी टिप्पणियां असद के समर्थन में बहस को गलत तरह से खोलने की उपज में ही ज्यादा हुई हैं।
इस पूरे मामले पर असद के संग्रह की कविता के मार्फत ही कहूं तो -

एक कविता जो पहले से ही खराब थी
होती जा रही है अब और खराब

कोई इन्सानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती है
एक स्थायी दुर्घटना है।

इतिहास के पन्नों पर निश्चित ही यह विवाद एक स्थायी दुर्घटना बन जाने वाला है। मुझे लगता है संग्रह में शामिल कुछ कविताऐं कवि ने घोर निराशा में घिर कर ही रची हैं। उनकी कविताओं पर मौजूदा विवाद उन्हें उस निराशा से उबारने की बजाय उसी में धकेलने वाला है। एक ऐसी बहस चल पडी है जो एक रचनाकार को खुद से टकराने भी नहीं देती। बल्कि उसे अपनी द्विविधाओं में और उलझाती चली जाती है। जरुरत है तो रचनाओं के पाठ रचना के भीतर से ही करते हुए उभर रहे सवालों पर तर्कपूर्ण तरह से बात करने की। असद साम्प्रदायिक है, ऐसा कहने वालों से अपना विरोध है। अपना उनसे भी मतभेद है जो असद की कविताओं पर आयी आलोचनाओं को हिन्दू मानसिकता से लिखी गयी मानते हैं।
एक कवि की कविताओं पर यदि कोई आलोचक अपना पक्ष रखता है तो जरुरी नहीं कि हर एक की उससे सहमति हो। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कोई अपनी राय भी न रख सके। पर ऐसा कहकर कि ये तो हिन्दू मानसिकता से लिखी गयी है, एक खराब बात है। निंदनीय भी।
इससे अच्छा क्या होगा कि एक कवि की रचनाऐं पढ़ी जा रही है और लोग उस पर खुलकर अपनी राय भी रख रहे हैं।
असद की कविताओं पर आलोचनात्मक दृष्टि रखने वाले हिन्दू मानसिकता से असद पर अटैक कर रहे हैं, इस विवेचना की तो जम के मुखालफत होनी ही चाहिए। असद के प्रति समर्थन में की जा रही यह टिप्पणी तो निश्चित ही खतरनाक मंसूबों से भरी है। मेरी निगाह में अभी तक उस संग्रह पर जो भी समीक्षअ आयी है वह ऐसे नाम नहीं है जिनको इस घेरे में लिया जा सके।
जिन कारणों से मैं असद को साम्प्रदायिक मानने को तैयार नहीं हो सकता उन्हीं आधारों पर उन आलोचकों के बारे में भी ऐसी कोई राय नहीं बनायी जा सकती। लेकिन मेरा उद्देश्य इनमें से किसी भी एक का समर्थन या दूसरे का विरोध करने का नहीं है, यह लिखी गयी टिप्पणी से भी स्पष्ट हो ही जायेगा। उसके लिए मुझे अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं।
मेरा मानना है कि सामान की तलाश संग्रह में प्रकाशित कविताऐं समकालीन राजनैतिक माहौल पर सीधी-सीधी टिप्पणी है। शहर दर शहर और मुहल्ले दर मुहल्ले छप रहे हिन्दी अखबारों के अनगिनत संस्करणों की खबरों ने, जिसके सामाजिक मानस को क्षेत्रवाद, जातिवाद, धार्मिक-अंध-राष्ट्रवाद से भरा है। हिंसा के माहौल को जन्म देने वाली कार्रवाइयों से भरे आलेखों का एक संगठित ताना-बाना इनकी लोकप्रियता के रुप में आज छुपा नहीं है। असद की कविता इस सच को ही बयान करती है -

हैबत के ऐसे दौर से गुजर है कि
रोज़ अखबार मैं उल्टी तरफ से शुरु करता हूं
जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अखबार हो
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पलटता हूं एक और सफ़ा/ प्रादेशिक समाचारों से भाप लेता हूं /राष्ट्रीय समाचार

गर्ज़ ये कि शाम हो जाती है बाज़ औकात/ अखबार का पहला पन्ना देखे बिना।

समकालीन दौर पर असद की ये बेबाक टिप्पणियां ही उनकी कविताओं के कथ्य के रुप में है। लेकिन एक दिक्कत भी इन कविताओं के साथ है कि जो प्रतीक इनमें चुने गये हैं वे अर्थ का अनर्थ कर दे रहे हैं। इन प्रतीकों के उत्स भी मुख्यधारा की समकालीन राजनीति में ही मौजूद हैं। "जैसे यह हिन्दी का नहीं उर्दू का अखबार हो" भाषा को प्रतीक बना कर लिखी गयी यह पंक्ति उसी राजनीति की उपज है, जो सामाजिक सौहार्द के माहौल को दूषित करने के लिए भाषा को भी धर्म के साथ जोड़कर देखती है। स्पष्ट है कि दक्षिणपंथी राजनीति ने भाषा का यह बंटवारा भी धर्म के आधार पर किया हुआ है। लेकिन असद का ऐसी राजनीति से विरोध होते हुए भी उनके यहां जिन कारणों से ऐसी ही अवधारणा को बल मिलता है, उसकी जड़ में वही राजनीति है जो साम्प्रदायिकता की मुखालफत करते हुए वह भी दक्षिणपंथियों के द्वारा तथ्यों को तोड़ मरोड़कर कर रखी जा रही बातचीत को ही अपना एजेन्डा बनाकर संख्यात्मक बल के आधार पर दक्षिणपंथ को सत्ता से बाहर रखने की कवायद कर रही है। इसके निहितार्थ उस चालाकी को भी छुपाये हैं जिसमें सम्राज्यवादी मंसूबों की मुखालफत पुरजोर तरह से न कर पाने का तर्क छुपा है। असद की दूसरी कविताओं में इस स्वर को ज्यादा मुखरता से सुना जा सकता है -

खत्म हुए सावधानी और आशंका के छह साल
अब नहीं कहना पड़ेगा उन्हें : आखिर
हम भी तो ब्राहमण हैं! और सेक्यूलर हैं तो क्या/हिन्दू नहीं रहे ?

या एक अन्य कविता -

बी जे पी के उम्मीदवार बंगलौर शहर से भी जीते हैं और
नौबतपुर खुर्द से भी
मुझे लगता है कि प्रतिक्रियावाद की इस बाढ़ का राज
कुछ इस ज़मीन में है, कुछ बुजुर्गों के कारनामों में, कुछ गन्ने में भरे रस में है कुछ बादलों के गरजने में, और कुछ
आपके इस तरह मुंह मोड़ लेने में।

साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ी जा रही इस तरह की लड़ाई से संभवत: असद के भीतर भी एक द्वंद है और उस पर संदेह भी। लेकिन दूसरा कोई स्पष्ट रास्ता जब दिखायी नहीं देता तो थोड़ा हिचकते हुए वे फिर उसी चुनावी दंगल को ही अपना रास्ता मान लेते हैं -

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहां भी हो अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूलकर भी न लगा देना/उस फूल पर निशान।

यह असलियत है कि रचनाकार बिरादरी के एक बड़े खेमे को यह राजनीति इसलिए भी सूट करती है क्योंकि अपनी जड़ताओं के साथ प्रगतिशील बने रहने में यहां कोई दित नहीं। आप उसमें होते हुए बाहर रह सकते हैं और न होते हुए भी उसमें मान लिए जा सकते हैं। क्योंकि ऐसा करने के लिए कुछ खास मश्कत नहीं, थोड़ा ठीक-ठाक लिखना जान लेने पर गुटबाजी के शानदार खेल, जो ऐसी स्थितियों के चलते जारी है, के आप भी खिलाड़ी बन जाइये बस। फिर गात के भीतर जनेऊ छुपाये हुए भी अपने को सेक्यूलर कहलाने का एक सुरक्षित स्पेस यहां हर वक्त मौजूद है। अपने अन्तर्विरोधों से टकराने की भी यहां कोई जरुरत नहीं। जब ऐसे किसी सवाल पर आलोचना ही नहीं तो आत्म-आलोचना का तो सवाल ही कहां ! बल्कि कोई आलोचना करे तो आलोचना करने वाले पर ही पिल पड़ो कि अमुक तो है ही साम्प्रदायिक। एक गम्भीर बहस हो और समाज ऐसे किसी घृणित विचार के उस बुनियादी कारणों को जानने की ओर अग्रसर होते हुए जो धर्म की अवैज्ञानिक धारणा पर ही चोट कर सके, तो उसको पीछे धकेलने के लिए भी ऐसा करना इन्हें अनिवार्य सा लगने लगता है।
लेकिन इस तरह की समझदारी के बावजूद भी रचनाकारों की इस बिरादरी को साम्प्रदायिक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अपनी सीमाओं के चलते मनुष्यता को बचाने की कोशिश भी आखिर यही वर्ग कर रहा है। और इसी से उम्मीद भी बनती है। इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता।
असद की तीन कविताओं पर विवाद ज्यादा गहराया है। 1857- सामान की तालाश, हिन्दू सांसद और पूरब दिशा। इन तीनों कविताओं के जो मेरे पाठ बन रहे हैं उनके आधार पर भी असद को साम्प्रदायिक मुसलमान मानने वालों से मेरा मतभेद बना रहेगा। बस अपने वे पाठ जो इस संग्रह कि कविताओं से सहमतियों ओर असहमतियों के साथ हैं, रख पाऊं, सिर्फ इतनी ही कोशिश है। मेरा पाठ ही अंतिम हो, ऐसी भी कोई ज़िद नहीं।

1857 की लड़ाइयां जो बहुत दूर की लड़ाइयां थीं
आज बहुत पास की लड़ाइयां है।

निश्चित ही आज दुनिया का ढांचा बदल रहा है। गरीब और साधनहीन मुल्कों को गुलाम बनाने की साजिश, साधन सम्पन्न मुल्क, मानवीय मुखोटों को ओढ़कर, ज्यादा कुशलता से रच रहे हैं। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में 1857 ऐसी ही भौंडे चेहरे वाली औपनिवेशिक सत्ता की मुखालफत का आंदोलन रहा। जनता के छोटे-छोटे विद्राहों ने जिस 1857 के महा विपल्व को जन्म दिया, इतिहासकारों की एक बड़ी जमात ने उस विद्रोह के रुप में तमाम राजे-रजवाड़ों के सेनापतियों और राजाओं की पहलकदमी को ही ज्यादा महत्व दिया और उन्हीं के नेतृत्व को स्थापित किया। यहां बहस यह नहीं है कि उस विद्रोह के वास्तविक नेता कौन थे। कविता में असद भी बहस को इस तरह नहीं खोलते हैं। लेकिन 1857 की उस लड़ाई को औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ मानते हुए आज के दौर में उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए उसे याद करते हैं -

पर यह उन 150 करोड़ रुपयों का शोर नहीं
जो भारत सरकार ने "आजादी की पहली लड़ाई" के
150 साल बीत जाने का जश्न मनाने के लिए मंजूर किये हैं
उस प्रधानमंत्री के कलम से जो आजादी की हर लड़ाई पर
शर्मिंदा है और माफी मांगता है पूरी दुनिया में
जो एक बेहतर गुलामी के राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए कुछ भी/कुरबान करने को तैयार है।

मौजूदा व्यवस्था के रहनुमाओं का दोहरा चरित्र, जो एक तरफ तो औपनिवेशिक सत्ता के इशारों पर तमाम नीतियों को लागू करता है या सीधे-सीधे उसके आगे नतमस्तक दिखायी देता है। वहीं दूसरी ओर उसके विरोध में लड़ी गयी लड़ाई का झूठा जश्न मनाते हुए दिखायी देता है। इस झूठ के जद्गन के लिए 1857 के बाद से लगातार जारी स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतीकों ईश्वरचंदों, हरिश्चंद्रों की वन्दना होती है। उनकी तस्वीरों पर फूल मालायें चढ़ायी जाती हैं। भगत सिंहों, चन्द्रशेखरों और अश्फ़ाकों (हालांकि कविता में ये नाम नहीं आये हैं पर कविता की परास तो इन नामों तक भी पहुंचती ही है। ) को देवताओं की तरह पूजे जाने का कर्मकाण्ड जारी रहता है। यहां सवाल है कि क्या झूठ के इस जश्न की कार्रवाई के कारण क्या इन स्थापित जननायकों को खलनायक मान लिया जाये। यदि असद इस अवधारणा के साथ भी हैं तो भी कोई दित नहीं, बशर्ते वे ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अपने पक्ष को मजबूत तरह से रखते। अपने आग्रहों के चलते या किन्हीं तथ्यों के आधार पर भी यदि वे ऐसा मानते हों तो उस तथ्य को रखे बगैर कविता में मात्र एक दो पंक्ति को जजमेंटल तरह से रख कर इतिहास की अवधारणा को नहीं बदला जा सकता, इस पर असद को भी गम्भीरता से सोचना चाहिए। बल्कि हर सचेत रचनाकार को इतिहास के साथ छेड़-छाड़ करने से पहले अपने स्तर पर कुछ काम तो करना ही चाहिए और फिर उससे अपने पाठकों को भी अवगत कराना चाहिए। पर ऐसा लगता है कि असद ऐसा करने से चूक गये हैं और मौजूदा व्यवस्था के दोहरे चरित्र पर चोट करने की तात्कालिक प्रतिक्रिया में वे 1857 से शुरु हुई तमाम भारतीय एकता की सामूहिक कार्रवाई को परवर्ती दौर में बांटती चली गयी राजनीति के लिए, उस दौर के आंदोलनरत स्थापित प्रतीकों पर ही प्रहार करने लगते हैं। समय काल के हिसाब वे उन आंदोलनकारी लोगों की समझ और उनकी प्रगतिशीलता पर आलोचनात्मक दृष्टि रखते तो संभवत: ऐसी चूक, जो विवाद का कारण बनी, उस पर वे अपने विश्लेषण को रखने से पूर्व रखते ही। असद के बारे में मेरा यह विश्लेषण उनकी अन्य रचनाओं के पाठ से बन रहा है। गैर जरुरी तरह से असद के मानस की आलोचना किये बगैर मुझे इस दौर के एक महत्वपूर्ण कवि को उसकी कुछ चूकों की वजह से कटघरे में खड़ा करना तर्क पूर्ण नहीं लगता। मैं असद की चूकों को भी समकालीन सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर अधूरे विश्लेषण से भरी राजनीति को ही जिम्मेदार मान रहा हूं। वह राजनीति जिसने जनता की पक्षधरता का झूठा प्रपंच रचा हुआ है और उसकी पहलकदमी पर भी रोक लगायी हुई है। असद ही नहीं पूरा समाज जिसके कारण घोर निराशा में जीने को मजबूर हुआ है। असद की निराशा को तो हम उनकी रचनाओं में पकड़ पाते हैं। उसी निराशा के जद में असद विकल्पहीनता में आत्महत्या करते किसानों को अतार्किक तरह से 1857 के धड़कते हुए आंदोलन की तरह की कार्रवाई मान रहे हैं। जबकि किसानों की आत्महत्या की दिल दहला देने वाली कथाऐं उसी दो मुंही राजनीति का परिणाम है।
चूंकि संग्रह की ज्यादातर कविताऐं समकालीन राजनीति के समाजविरोधी रुप पर चोट करती है तो तय है कि बिना किसी राजनीतिक समझदारी के ऐसा संभव नहीं। यानी असद की कविताओं से भारतीय राजनीति का जो पक्ष दिखायी दे रहा है वह वैसे तो निश्चित ही प्रगतिशील है पर संसदीय राजनीति के बीच संख्याबल के खेल में मशगूल उसकी सीमायें भी हैं। असद भी उस प्रभाव से पूरी तरह बाहर नहीं निकल पाये हैं। फिर ऐसे में जब एक ही जगह पर कदमताल करते हुए अटेंशन होना पड़ता है तो ऐसा स्वाभाविक ही है कि कदम कुछ लड़खड़ा जायें।
"हिन्दू सांसद" एक ऐसी ही लड़खड़ाहट है जो सिर्फ इस शब्द के कारण ही विवाद के घेरे में है। जबकि आज हर आम भारतीय के, मौजूदा सांसदों से रिलेशन, असद की कविता से अलग तस्वीर नहीं बनाते -

मेरा वोट लिए बगैर भी/ आप मेरे सांसद हैं
आपको वोट दिये बगैर भी/मैं आपकी रिआया हूं

अचानक आमने सामने पड़ जाने पर/ हम करते हैं एक दूसरे को
विनयपूर्वक नमस्कार।

सबसे खराब कविता है "पूरब दिशा"। जो पूरे संग्रह ही नहीं बल्कि इस दौर की सबसे खराब राजनीति के पक्ष में चली जाती है। वही राजनीति जो कौमों के आधार पर भाषा का विभेद मानती है। फिर चाहे वह किसी भी धर्म के व्यक्ति के मुंह से छूटा वाक्य हो। तय है भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा न तो ऐसा मानता है और न ऐसे मानने वालों का पैरोकार हो सकता है। दरअसल इसीलिए वह कविता नहीं बल्कि एक "कौम को जगाने" का ऐलान सा बन जाती है और भोली-भाली जनता को बरगलाने और भड़काने के लिए की जा रही कार्रवाई करते कुत्सित दिमागों की जुबा में चढ़ जाने के लिए "खूबसूरत" अभिव्यक्ति है।

संग्रह में बहुत से ऐसी कविताऐं हैं जिन पर बात करते हुए ज्यादा सुकून मिलता, पर चल रहे विवाद ने उन कविताओं को जैसे दरकिनार सा कर दिया है। बहिर्गमन, नायकी कान्हड़ा, शेरों की गिनती, दुर्गा टाकीज, तबादला,कुंजडों का गीत, निबंध प्रतियोगिता, मौखिक इतिहास आदि। ऐसी कविताओं पर भी अवश्य बात होनी चाहिए जो एक कवि के खूबसूरत पक्ष का बयान करती हैं। ऐसी अन्य और भी कविताऐं हैं जो अपने सीधे-सीधे अर्थों या व्यंग्योक्तियों के कारण मुझे प्रिय हैं। इसीलिए तथ्यात्मक आंकड़ो के आधार पर मैं असद के इस संग्रह को एक ऐसी किताब मान रहा हूं जो वर्तमान स्थितियों से टकराने को उद्वेलित कर रही है। अपनी पसंद की कविताओं में से एक कविता को रखना चाहता हूं। बहुत ही छोटी और सुन्दर कविता है
घर की कुर्सी

दादी पिछले माह चल बसीं यह उनकी कुर्सी है
रज़ाई गददा और दरी तो फ़कीर ले गया
निवाड़ का पलंग जो था हमारे एक गरीब रिश्तेदार को चला गया

एक बात कहूं, इस कुर्सी पर बैठे हुए मुझे आप बहुत भले दिखायी देते हैं।


-विजय गौड

Saturday, May 31, 2008

एक विषय दो पाठ


(ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी गयी हैं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।)

तोप शब्द से हमारी स्मृति में कुछ आजादी से पहले की यादें भी जुड़ी हैं। वह विनाश का उपकरण तो है ही लेकिन सत्ता के अहंकार और निरंकुशता का प्रतीक भी है। "क्या तू अपने को तोप समझता है ?" इस तरह के वाक्य हमारी बातचीत में भी आते हैं। वीरेन डंगवाल तोप का मखौल उड़ाते हुए बताते हैं कि तोप कितनी भी बड़ी हो कभी न कभी उसका मुंह बन्द होना ही होता है। जनता उसको अपने संघ्ार्ष से अर्थहीन कर देती है।असद जैदी पुश्तैनी तोप के बारे में कहते हैं कि हमारा दारिद्रय कितना विभूतिमय है। यह संभवत: जड़ परम्पराओं को सहेज कर रखने की प्रवृति के विरोध हैं। इनके पीछे गतिशीलता नहीं है। इसीलिए विरोधियों को भी इस पर हंसी आ जाती है। यह तोप है जो कभी भी समाज के काम नहीं आ सकती।

तोप
वीरेन डंगवाल


कम्पनी बाग के मुहाने पर
धर रखी गयी है यह सन 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल, विरासत में मिले
कम्पानी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार.

सुबह-शाम कम्पानी बाग में आते हैं बहुत सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने जमाने में

अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियां ही अक्सर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
खास कर गौरैयें

वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उसका मुंह बन्द


पुश्तैनी तोप
असद जैदी

आज कभी हमारे यहां आकर देखिये हमारा
दारिद्रय कितना विभूतिमय है

एक मध्ययुगीन तोप है रखी हुई
जिसे काम में लाना बड़ा मुश्किल है
हमारी इस मिल्कियत का
पीतल हो गया है हरा, लोहा पड़ चुका है काला

घंटा भर लगता है गोला ठूंसने में
आधा पलीता लगाने में
इतना ही पोजीशन पर लाने में

फिर विपक्षियों पर दागने के लिए
इससे खराब और विश्वसनीय जनाब
हथियार भी कोई नहीं
इसे देखते ही आने लगती है
हमारे दुश्मनों को हंसी

इसे सलामी में दागना भी
मुनासिब नहीं है
आखिर मेहमान को दरवाजे पर
कितनी देर तक खड़ा रखा जा सकता है।

Tuesday, May 27, 2008

एक विषय दो पाठ

(ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी गयी हैं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।)

नागार्जुन साधारण के अभियान के कवि हैं। वे बड़ी सहजता से सौन्दर्य और व्यवहार की हमारी बनावटी और जन विरोधी समझ को तहस नहस कर डालते हैं। इतना ही नहीं वे पाठक को नए सौन्दर्य आलोक से परिचय कराते हैं। वो सच्ची समझ और आनन्द से भर उठता है। क्योंकि अपनी दुनिया को फिर से अन्वेषित कर पाने के लिए ज़रुरी नैतिक तार्किकता और विश्वास उनकी रचनाओं में बिना किसी बौद्धिक पाखंड के उपलब्ध हो जाता है। "पैने दांतों वाली" रचना में मादा सूअर मादरे हिन्द की बेटी है। हम जानते हैं कि सूअर, उससे जुड़े लोग और परिवेश को हिकारत से ही देखा जाता है। यह कविता बड़ी आसानी से इस दृष्टिकोण को तोड़-फोड़ देती है। मादा सूअर के बारह थन, जैसा कि सामाजिक उर्वरता को केन्द्र में लाकर रख देते हैं। भाषा ओर शिल्प साधने की अखरने वाली कोशिश नागार्जुन की कविता में ढूंढनी मुश्किल है। कविता का बीज कथा की ऊष्मा में ही स्फुटित होता है। 'मादरे हिन्द की बेटी' मुहावरा देशकाल को विस्तृत और सघन करता है।

वीरेन डंगवाल की रचना में बारिश में घुलकर सूअर अंग्रेज का बच्चा जैसा हो जाता है। हमारे बीच बातचीत में अंग्रेज शब्द व्यक्तित्व की शान ओ शौकत के लिए भी किया जाता है। सौन्दर्यबोध की हमारी इस जड़ता को इस पद में ध्वस्त होते देखना भी सुकून देता वाला है। हमारे जीवन की बुनावट आने वाली पंक्तियों में लगाव और कौतुक के साथ व्यक्त होती है। इसमें गाय, कुत्ता,घोडा भी शामिल हैं। चाय-पकौड़े वाले या बीड़ी माचिस वाले भी हैं। डीजल मिला हुआ कीचड़ भी अपने जीवन का हिस्सा है। बारिश में सभी जमकर भीगते हैं। सूअर के साथ हमारे हृदय में ठंडक सीझ कर पहुंचती है ओर आनन्द से भर देती है।

पैने दांतों वाली
नागार्जुन

धूप में पसर कर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर---

जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!

लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुंहे छौनो की रग-रग में
मचल रही है आखिर मां की ही तो जान!

जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पसर कर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है!
पैने दांतों वाली---

सूअर का बच्चा
वीरेन डंगवाल

बारिश जमकर हुई, धुल गया सूअर का बच्चा
धुल-पुंछकर अंग्रेज बन गया सूअर का बच्चा
चित्रलिखी हकबकी गाय, झेलती रही बौछारें
फिर भी कूल्हों पर गोबर की झांई छपी हुई है
कुत्ता तो घुस गया अधबने उस मकान के भीतर
जिसमें पड़ना फर्श, पलस्तर होना सब बाकी है।

चीनी मिल के आगे डीजल मिले हुए कीचड़ में
रपट गया है लिये-दिये इक्का गर्दन पर घोड़ा
लिथड़ा पड़ा चलाता टांगें आंखों में भर आंसू
दौड़े लगे मदद को, मिस्त्री-रिक्शे-तांगेवाले।

राजमार्ग है यह, ट्रैफिक चलता चौबीसों घंटे
थोड़ी सी बाधा से बेहद बवाल होता है।

लगभग बन्द हुआ पानी पर टपक रहे हैं खोखे
परेशान हैं खास तौर पर चाय-पकौड़े वाले,
या बीड़ी माचिस वाले।
पोलीथिन से ढांप कटोरी लौट रही घर रज्जो
अम्मा के आने से पहले चूल्हा तो धौंका ले
रखे छौंक तरकारी।

पहले दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले
आंख ने पहले-पहले अपनी उजास देखी है
ठंडक पहुंची सीझ हृदय में अदभुद मोद भरा है
इससे इतनी अकड़ भरा है सूअर का बच्चा।

Wednesday, April 2, 2008

अतीत ने ही रचा है वर्तमान


ओम प्रकाश वाल्मीकि

भविष्य की कल्पना करने से पूर्व वर्तमान और बीते हुए कल का आकलन जरुरी लगता है। बीता हुआ यानि अतीत। हिन्दी कथा-साहित्य का शुरुआती दौर भारतीय संस्कृति की महानता के यशोगान का दौर था। जिससे अतीत के गौरवशाली पक्ष को पुन: स्थापित करने की चिन्ताऐं मौजूद थी। वहॉं जनतांत्रिक मूल्यों का कोई स्वरुप दृष्टिगोचर नहीं होता। बीच-बीच में राष्ट्रप्रेम, जिसे धर्म संस्कृति तक ही सीमित रखा गया था, को ऊंचे स्वर में बखाना गया हिन्दी कथा-साहित्य अनेक उतार चढ़ाव से होता हुआ आगे बढ़ा है। 'उसने कहा था' की लोकप्रियता से होते हुए प्रसाद प्रेमचंद, जैनेंद्र और नयी कहानी की महीन कताई बुनाई से होते हुए, अकहानी, जनवादी कहानी, समांतर कहानी, सेक्स बनाम जनवादी कहानी और फिर दलित कहानी आदि के रुपों में हमारे सामने आती है। कुछ विद्धानों का मानना है कि आठवें दशक और उसके बाद कहानी का क्षितिज काफी व्यापक हुआ है। समकालीन कहानी अपने समय और समाज की जटिलताओं को अधिक विश्वसनीय और सहज रुप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। जो पाठकों के सामने जीवन अनुभवों को शब्दबद्ध कर रही है।
लेकिन एक प्रश्न बार-बार उठता है कि कथा-साहित्य के आलोचकों के पास कहानी के भीतर घुसकर उसे खंगालने, विश्लेषित, व्याख्यायित करने का समय नहीं है। वजह चाहे जो भी हो, सबके अपने-अपने तर्क हैं, सीमायें हैं, आरक्ष्सण हैं, गठबंधन हैं।
हिन्दी कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं - 'साहित्य की जनतांत्रिकता इस बात पर है कि वह विपक्षी को पराजित नहीं करती, वह उसकी वेदना को समझती, यथासंभव उसकी वेदना को उसी के भावबोध के ढांचे में चित्रित करती है।" (वसुधा, कहानी विशेषांक, अंक 33-34, दिस। 1995, रीवा, पृष्ठ -16)
1950 के आसपास आलोचकों ने एक सवाल उठाया था कि कहानी की संभावनायें समाप्त हो गयी हैं और प्रेमचंद्र पर भी कई तरह के आक्षेप लगाये थे। उनके साहित्य को द्वितीय कोटी का कहा गया था, यह भी कहा गया था कि कहानी ही नहीं बल्कि साहित्य की मुख्यधारा के सहज-स्वाभाविक विकास को कभी प्रयोग, कभी आधुनिकता, कभी अनुभववाद, कभी व्यक्ति स्वातंत्रय और कभी शिल्प-कला के नाम पर अवरुद्ध करने की कोशिशें भी जारी रही। यानि कुल मिलाकर कथा साहित्य के विकास में कई प्रकार के टोटके अपनाये गये। पश्चिमी पूंजीवादी देशों के साहित्यिक मूल्यों को हिन्दी कहानी में ज़्बरन स्थापित करने की कोशिशें की गयी। भारतीय जीवन के विषमतापूर्ण सामाजिक वर्चस्व को लगातार अनदेखा किया जाता रहा। साधारण जन-मानस की आशा-निराशा, आकांक्षा, सुख-दुख, चिन्तायें, सरोकार आदि को साहित्यक अभिव्यक्ति में शामिल करने की बजाये, आयातित जीवन मूल्यों को रुपायित करने की कोशिश की जाती रही। और कहानी का वस्तुगत ढांचा खड़ा करने की तमाम कोशिशें बिखरती रही। ये कोशिशें बदलते सामाजिक मूल्यों और संघर्ष की पेचीदिगियों को समझने के बजाये सम्वेदना का वाहय रूप ही अभिव्यक्त करती रहीं। इस संघर्षशील तबके की उदात्त भावनाओं, संघर्षों, प्रेम और भाई चारे की सम्भावनाओं को दरकिनार करके, बौद्धिकता और दार्शनिकता से लबरेज़ कहानियां सिर्फ कला और शिल्प की अभिव्यक्ति बनकर रह गयीं। जिसका आम आदमी के जीवन-संघर्ष से सीधे-सीधे कोई संबंध नहीं था। इसमें उस मध्यवर्गीय जीवन की अनेक अनछुई स्थितियां तो निर्मित हुई, लेकिन कहानी का जो सामाजिक परिदृश्य उभरना चाहिए था, वह कहीं गुम होता गया। इस दौर में साहित्यिक क्षितिज पर उभरे जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय आदि अलग-अलग घ्रुवों पर खड़े थे। प्रेमचंद्र की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले रचनाकारों में यशपाल का नाम आता है, जिन्होंने भारत विभाजन की त्रासदी पर 'झूठा-सच" जैसी कृति की रचना की और अपने समय की सच्चाई को बयान किया। जो भारतीय जीवन के एक दुखद अध्याय का जीवंत दस्तावेज बना, लेकिन प्रेमचंद्र की सामाजिक सम्वेदनां की जो गहनता थी, उसका यहां भी अभाव दिखायी देता है, इसके बावजूद भी यशपाल ने अपने समय और समाज के विघटनकारी तत्वों के साथ जो द्वंदात्मक टकराव किया, वह बेजोड़ हैं। उन्होंने वर्तमान को जिया। अतीत को वर्तमान से जोड़कर, जीवन-संदर्भों की गहरी पड़ताल की।
भारतीय जीवन में मौजूद साम्प्रदायिकता, जातिवाद, ब्राहमणवाद, सामंतवाद की छाया में हिन्दी कथा-साहित्य परवान चढ़ा है। इसीलिए आदर्शोन्मुखी है। और कथनी करनी का भेद मौजूद है। लेकिन इन विसंगतियों, अंतर्द्वंद्वों के बावजूद हिन्दी कथा-साहित्य ने स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों को स्वीकार किया। नयी कहानी के दौर में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, परसाई, मनु भण्डारी की कहानियों में जो भारतीय जीवन का फलक उभरा वह हिन्दी कहानी की विकास यात्रा का एक अहम पड़ाव था। जिसमें जीवन-संघर्ष था, विडम्बनाओं की त्रासदी थी।
बदलते जीवन की सच्चाई को पकड़ने की ललक ने हिन्दी कहानी को सामाजिक परिवर्तनों से जोड़ने के प्रयास किये। लेकिन इन प्रयासों में लुका-छिपी का खेल जैसी प्रवृत्ति भी दिखायी देती है। काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, स्वंयप्रकाश, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर आदि ने हिन्दी कहानी को समय से जोड़ने, उसे गम्भीर सरोकारों के प्रति उत्तरदायी बनाने, अपने समय की गम्भीर ज्वलंत चिंताओं को विषयवस्तु में शामिल करने की कोशिशें की। इनमें से कुछ विचारधारा के समर्थक रहे तो कुछ बाहयतौर पर विशिष्ट धारा से जुड़ने का भ्रम दिखाते रहे, लेकिन उनकी कहानियों में विचार गायब था, सिर्फ स्थितियां थी।
यही स्थिति 'स्त्री-विमर्श" को लेकर भी रही है। आंतरिक द्वंद्वों से टकराने और वर्तमान की दारूण विसंगतियों को कथा-कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में रचनाकार गहरे अंतर्द्वंद्वों में उलझे रहे। यह हिन्दी कथा साहित्य का एक पक्ष है जिसे शिल्प की , भाषा की तमाम उत्कृष्टताओं के बावजूद वैचारिक विचलन ही कहा जायेगा।
च्रित्रों की बौद्धिकता को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की प्रवृत्ति भी रही है, 'शेखर-एक जीवनी" में साफ-साफ देखी जा सकती है। जो अपनी बौद्धिकता से लबरेज है। व्यक्ति की आंतरिकता को तात्विक ढंग से विश्लेषित तो किया जाता है, लेकिन द्वंद्व का यह खेल दार्शनिकता घेरे में बांधकर मानवीय अवधारणाओं को अमूर्तता प्रदान करता है।
इन तमाम विरोधाभासों के बीच कुछ ऐसे उपन्यास भी आये हैं, जो भारतीय ग्रामीण जीवन अल्पसंख्यक समुदाय की उन आंतरिक सच्चाईयों से परिचय कराते हैं, जिन्होंने जीवन की तमाम सम्भावनाओं, विश्वासों, मान्यताओं को जकड़ कर रखा हुआ था। श्री लाल शुक्ल का 'राग दरबारी" , राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव" , रेणु का 'मैला आंचल" , ये तीनों ऐसे उपन्यास हैं , जो हिन्दी कथा-साहित्य को समय सापेक्ष ही नहीं बनाते बल्कि समाज की विषमताओं से भी टकराते हैं।

हिन्दी कहानी यदि अपने वर्तमान से बचकर, उसकी जटिलताओं को बाहय रूप में ही पकड़ती है, तो वह अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख होती हैं। कहानी की सार्थकता भी इसी में है कि वह भविष्य के लिए अपनी भूमिका तय करे। अपने समाने खड़ी चुनौतियों और खतरों का समाना करे।
कहानी में समाज और चरित्र अधिक स्पष्ट और ठोस रूप में रेखांकित होते हैं। इसीलिए उसका उत्तरदायित्व भी ज्यादा गहरा होता है। उसकी आंतरिक चिंताऐं भी ज्यादा घनीभूत होनी चाहिये।

दुनिया के कथा-साहित्य पर एक दृष्टि डालें तो दक्षिण अमेरिका के कथा-साहित्य में गार्सिया मार्क्वेज, रिचर्ड राईट ने भविष्य निर्माण किया है, और कथा-साहित्य को गरिमा देकर भविष्य की महत्वपूर्ण विधा की विश्वसनीयता उसकी द्वंद्वात्मकता के कारण बनती है। जब हम भविष्य की बात करते हैं तो हमारे सामने वर्तमान ही होता है।
वर्तमान को जब साहित्य से जोड़कर देखते हैं तो एक शब्द बार-बार सामने आता है, जिसे सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक संदर्भों में 'मुख्यधारा" कहते हैं। मुख्यधारा का साहित्य, समाज की मुख्यधारा, राजनीति की मुख्यधारा या फिर राष्ट्र की मुख्यधारा, जो भी इस धारा से बाहर रहा उसे जबरन इस धारा में लाने के प्रयास हुए। मुख्यधारा यानि वर्चस्व की धारा। तो न हमारे वर्तमान को दिशा देती है, न भविष्य को। कुछ मुठ्ठी भर लोग जो सत्ता केन्द्रित वर्चस्व थामें हुए है। यह उनकी धारा है, जो न दूसरों को समझना चाहती है, न जानना। अपने ही निर्मित प्रभामण्डल में जीती है और परिधि में गोल-गोल चर काटती है। इस मुख्यधारा ने यथास्थिति बनाये रखने में अहम भूमिका निभायी है। जब भी भारतीय जीवन में कोई संकट आया, या कोई उथल-पुथल हुई, कोई सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की सम्भावनायें बनी, तब-तब इस मुख्यधारा ने चुप्पी साध ली या फिर दर्शन, आध्यात्मिक या प्रकृति प्रेम या फिर धार्मिक नायको के यशोगान आदि में डूबे रहे या समय आने का इंतज़ार करना, चीजों को पकाने का इंतज़ार करना ही ज्यादा रहा। जबकि मुख्यधारा से बाहर छिटके लोगों ने ज्यादा तत्परता दिखायी। वे ज्यादा जागरुक और उत्तरदायित्व के साथ वर्तमान के निष्कर्षों के साथ भविष्य की सीमायें निर्धारित करने में जुटे रहे। उनका कथा सहित्य इस बात की जद्दोजहद करता है, न कि जड़ता की।
भविष्य का निर्माण वर्तमान से जुड़कर होता है, उससे तटस्थ रह कर नहीं। कथा-सात्यि के भविष्य पर चिन्ता करते समय वर्तमान और उससे जुड़े सरोकारों, सम्वेदनों पर विचार करना निहायत ही ज़रुरी है। कथा-साहित्य का भविष्य इसी तथ्य पर निर्भर करता है कि वह वर्तमान के संघर्षों में कितनी हिस्सेदारी निभाता है।
कथा-साहित्य में वर्तमान की मात्र छाया या संकेत, या प्रतीक ही काफी नहीं है, उसकी सम्वेदना संघर्ष, जिजीविषा, उसकी वेदना का आकलन जरुरी लगता है। इसलिए मुख्यधारा के तथाकथित कथा-साहित्य को अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, स्त्रियों, दलितों, कमज़ोर पिछड़े, दबे-कुचले लोगों की और ध्यान देना होगा उन्हें मुख्यधारा के दिशाहीन भुलावे में खींच कर लाने के विमर्श की जगह, उन्हें समझने-जानने के विमर्श को तरज़ीह देने की आवश्यकता है। क्योंकि वे ही इस देश की अस्मिता की लड़ाई लड़ हैं। इस लड़ाई में मुख्यधारा को उनके साथ जुड़ना होगा। तभी हिन्दी कथा-साहित्य का भविष्य ठोस रूप में और अधिक सुदृढ़ होगा।
आज हिन्दी प्रांतों में कहीं भी कोई ऐसा आंदोलन दिखाई नहीं पड़ता जो मानवीय गरिमा को बचाये रखने की चिंता कर रहा हो। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, आतंकवाद, अमेरिकावाद, बाज़ारवाद के विरुद्ध खड़ा हो। जो यह विश्वास जगाये कि सामाजिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोई जद्दोजहद जारी है। हमारी आस्थायें, मूल्य किस रूप में और कैसे एक बेहतर इन्सान बनने में हमारी मद्द कर सकती है, इस तरह की चिंतायें नयी कहानी के दौर में भी उठीं थी। जब भोगा हुआ यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता जैसे मुहावरे बहुत जोर शोर से उठे थे। आज दलित साहित्य भी कुछ इसी तरह की चिंताओं के साथ बदलाव की कामना करता है, और अतीत को वर्तमान के साथ जोड़कर एक रास्ता चुनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। कुछ आलोचक दलित साहित्य पर आरोप लगाते हैं कि बीती बातों का रोना रोते रहना ही साहित्य नहीं है। आज कहां है जातिवाद, उत्पीड़न शोषण, लेकिन ये आरोप लगाते समय वे भूल जाते हैं कि 'मील का पत्थर" बनी हिन्दी कृतियां अतीत पर ही रची गयी हैं। वर्तमान की सच्चाई को वे शिल्प के आवरण में ढंक कर रास्ता बदल लेते हैं। बौद्धिक विवरण, आध्यात्मिक, दार्शनिक नुक्ते उनकी मद्द नहीं करते।
इन स्थितियों में हिन्दी कथा-साहित्य को आत्म्श्लाघा से बाहर आकर आत्म्विश्लेष्ण की जरूरत है, ताकि भविष्य की ओर जाते-जाते कही अन्धेरे काल्खन्ड मे ही तो चक्कर नही काट रहे है. वर्तमान से पलायन और कलात्मक शिल्प, समकालीनता के साथ बौदधिक विमर्श हिन्दी कथा-साहित्य के भविष्य के निर्माण में कितनी मद्द कर पायेगें, इस पर विचार भी ज़रुरी लगता है। वरना कथा-साहित्य की भी वही स्थिति होगी - 'अंधा बांचे बहरा सुने" ।


(हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि ने यह आलेख उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं कथाक्रम, लखनऊ द्वारा आयेजित संगोष्ठी - हिन्दी कथा-साहित्य, दिनांक 11 फरवरी 2008, में प्रस्तुत किया था। आज हिन्दी की दलित धारा समकालीन रचना जगत को न सिर्फ अपनी रचनाओं से बल्कि आलोचना से भी समृद्ध कर रही है। यह आलेख उसकी एक बानगी है। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन 2008, जो कि 11 अप्रैल 2008 को चंद्रपुर, महाराष्ट्र में होने जा रहा है, ओम प्रकाश वाल्मीकि वहां आमंत्रित है और कार्यक्रम की अध्यक्षता करेगें। इसी कड़ी में उनका अध्यक्षीय भाषण 11 अप्रैल को हमारे ब्लाग पर आप देख पायेगें।)

ब्लाग पर

अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - मजबूत घेरे की सघनता के विरुद्ध बेघर हा जाने की कथा, क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौड की लघु-कथा .

Tuesday, March 18, 2008

कहानी पर टिपण्णी

पहल सम्मान-2006, जबलपुर में वरिष्ठ कथाकार संजीव जी की कहानी ज्वार पर टिप्प्णी को आधे-अधूरे तरह से ही रख पाया था। आलेख पढ़ते हुए आये गतिरोध के कारण पढ़ना बीच में ही रोक देना पड़ा था। जो पढ़ना चाहता था उसे यहॉं दे देने का मन हुआ तो प्रस्तुत कर दिया।
ज्वार के बहाने
किसी भी रचना पर बात करने से पहले उस रचना के परिप्रेक्ष्य को जान समझ कर ही उसके मंत्ाव्य विचार करते हुए उसकी व्याख्या की जा सकती है। एक परिप्रेक्षय रचना का अपना होता है जिसमें वो रची गयी होती है दूसरा जिस दौर में वो प्ाढ़ी जा रही होती है। हो सकता है दोनों ही परिप्रेक्ष्य एक समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। यही वजह है कि ये परिस्थितियां विशेष ही रचना के पाठ को निर्धारित करती हैं। क्या ही संभव हो कि कोई रचना अपने दौर और अपने समाज का बयान करते हुए भी हर दौर में अपने निश्चित मंत्ाव्य को ही प्रक्षेपित करती रहे। स्पष्ट है कि कथाकार संजीव की कहानी 'ज्वार" का परिप्रेक्ष्य साम्प्रदायिक हिंसा है और मंसूबा उसकी मुखालफ्त है, सर्वधर्म सम्भाव का विचार जिसका उत्स है। इसमेंं कोई दो राय नहीं कि संजीव जनवाद के प्ाक्षधर, मानवीय मूल्यों के संरक्षक, धर्म निरपेक्ष और ईमानदार व्यक्ति के रुप्ा में अपनी तमाम रचनाओं के माध्यम से बिखरे पड़े हैं। चाहे सावधान नीचे आग है, सूत्रधार, जंगल जहां से शुरु होता है या कहानियों के रुप्ा में अभी याद आ रही- सागर और सीमांत, आरोहण, तिरबेनी का तड़बना, उनका ऐसा रचना संसार है जिसमें एक प्रतिबद्ध और सचेत रचनकार के दर्शन होते हैं। इन रचनाओं के आधार पर संजीव की मंशाओं और जिस नीयत को मैं जान पाया हूं उसमें वे ऐसे ही नजर आये है।ज्वार कहानी के परिप्रेक्ष्य में जो माहौल है उसमें बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात तक का दौर स्थानीय स्तर पर और अंतराष्टीय स्तर पर तालीबानी नृशंसता के साथ साथ उस नृशंसता के खिलाफ एक सैद्धान्तिकी को रचते हुए एक तरफा हिंसा का दौर है और हाल ही में रचा गया कैरिकैचर कांड और उसके विरोध में उपजी हिंसा का माहौल। देखना यह है कि क्या ज्वार ऐसी स्थितियों से टकराने वाली रचना बन पा रही है। इसके निष्कर्षों को यदि लागू कर दिया जाये या स्थितियां ऐसी बन जाये कि वे लागू हो जाये तो स्थितियां बदल सकती हैं। साथ ही इन निष्कर्षों को लागू होने की शर्त क्या है? उसके लिए हर सचेत व्यक्ति को क्या करना होगा? यह मूल प्रश्न ही इस कहानी को समझने और उसके विश्लेषण करने में मद्दगार हो सकते है। स्ंाजीव की कहानी ज्वार के मंतव्य, जो कि मानवीय मूल्यों की स्भापना के लिए हैं, से सहमत होते हुए भी इसकी परास की एक सीमा दिखायी देती है। कहा जाये कि हिन्दी बौद्धिक जगत और साहित्य के भीतर साम्प्रदायिकता के सवाल पर जारी बहस और उन बहसों से बनती दृष्टि से उपजी ज्यादातर रचनाये, जिनमें साम्प्रदायिकता जैसे समाज विरोधि, मनुष्यता विरोधि विचार से निपटने के लिए सर्वधर्म सम्भाव का विचार है और संवेदनात्मक स्तर पर उस विचार की वकालत है। अपनी इस सीमा का अतिक्रमण ज्वार भी नहीं कर पाती है। है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी गयी इन रचनाओं की विशेषता है कि वे संवेदना के धरातल पर विचलित तो करती हैं पर साम्प्रदायिकता के मूल स्रोत- धर्म को बचाये रखने की भी, अन्जाने में ही चाहे हो, वकालत करने लगती है और साम्प्रदायिकता से निपटने में नाकाम रही धर्मनिरपेक्षता की वह परिभाषा, भारतीय गणतंत्र के साथ जिसने जन्म लिया था उसी की रोशनी को बिखेरने लगती है। जबकि लगातार हिंसक होते गये वातावरण ने उसकी प्रसांगिकता पर खुद ही प्रश्न चिहन लगा दिया है। यही कारण है कि ऐसी रचनायें जहां किसी समाज विशेष में साम्प्रदायिकता के विरोध में होती हैं वहीं किसी दूसरे पहले के विपरीत समाज में साम्प्रदायिक शक्तियों का हथियार बन जाती हैं। स्ाम्प्रदायिकता, जो अपनी प्रवृत्ति में एकांगीपन, संकीर्णता और नफरत की उपज है, का मूल स्रोत धर्म है। इसलिए साम्प्रदायिकता की आलोचना करते हुए धर्म की आलोचना से बचते हुए रची गयी कोई भी रचना यथार्थ का काल्पनिक आख्यान बन कर ही रहने वाली है। ऐसा मेरी समझदारी कहती है। सिर्फ हिसा की आलोचना साम्प्रदायिकता की बेहद स्थूल किस्म की आलोचना है। धर्म के भीतर निहित आध्यत्मिक गौरव की अभिव्यक्ति, परलौकिक सत्य की अवधारणा- जीवन के वास्तविक यथार्थ से दूर जाना है। धर्म के पीछे अन्धे होकर दौड़ते समुदायों का एकांगी और संकीर्णता की अन्धि गलियों में भटकने का यह एक ऐसा कल्पना लोक है जिसका आधार तर्क का निषेध और आस्था और अन्धविश्वास की जमीन पर खड़ा है। स्वतंत्र विचार की बजाय समर्पण की मांग जिसकी पहली शर्त है। मौजूदा वैज्ञानिक दौर में प्ाढ़े लिखे बौद्धिक समाज का आस्था के इस अतार्किक तंत्र को कुतर्क के सहारे उसके कर्मकाण्डिय क्रिया कलापों पर वैज्ञानिकता का जामा पहनाने की जिद निश्चित ही अवैज्ञानिक है जिसके निहितार्थ खतरनाक हिंसक माहैल से आबद्ध है। विवेक के अनुशासन से रहित भावनाओं के इस ज्वार को उन्माद की हद तक पहुॅचाने की यह खतरनाक पहल है। कहा जाता है कि धर्म तो जीवन जीने की एक प्ाद्धति है। अब सवाल है कि यह प्ाद्धति आखिर कौन से कालखण्ड की उत्पति है। स्पष्ट है कि प्रकृति की विराटता में घ्ाटती घ्ाटनाओं से अन्जान और चौंकता हुआ मनुष्य जब उस दौर के सीमित ज्ञान की सीमा की वजह से कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाता रहा तो शक्तिरुपा अज्ञात ईश्वरों की कल्पनायें उसने कटनी शुरु की और उन्हीं अज्ञात अन्जान ईश्वरों की स्थापनाओं का कार्यभार धार्मिक कर्मकाण्ड के रुप्ा में स्थापित हुआ है। इसलिए धर्म तर्क से परे की चीज हो गयी। सिर्फ भावनाओं और आस्थाओं के इस अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ने समय समय पर अपनी श्रेष्ठता की स्थापना के लिए खून खराबे भी किये जिसे साम्प्रदायिक उन्माद कहा जा सकता है। इसलिए साम्प्रदायिकता की मुखालफत बिना धर्म पर चोट किये, उससे समाज को मुक्त किये बगैर संभव नहीं। इतिहास गवाह है कि समाज को बदलने के लिए प्राचीन काल से आज तक जितनी भी विचार प्रक्रियायें आगे बढ़ी और जिसने भी धर्म पर चोट किये बगैर सामाजिक संरचना को बदलने के लिए कुछ सीमित परिवर्तनों का या भावनात्मक संवेदनों के तहत मानवीय दृष्टिकोण का प्रचार प्रसार किया, उसकी परिणति भी अन्तत: कर्मकाण्डिय ही होती चली गयी। बैद्ध धर्म जो ईश्वर की कल्पना को पूरी तरह से ध्वस्त करने के विचार से परहेज करते हुए सामने आया, अन्तत: उसी का शिकार होता चला गया। भक्ति आंदोलन का पूरा दौर जिसने तमाम सामाजिक कुरीतियों पर जम कर प्रहार किया लेकिन उस दौर के सीमित ज्ञान की वजह से धर्म पर चोट न कर पाने की वजह से खुद उसी की गिरफत में चला गया। कबीर जैसा क्रांतिकारी कवि अन्तत: रहस्यवादी होता चला गया। अन्जाने अज्ञात भय, आशंका में दबे ढके कारणों पर से विज्ञान ने आज काफी हद तक पर्दा उठा दिया है और जिन घ्ाटनाओं के कारणेंा की वास्तविक पड़ताल आज तक भी भले ही नहीं की गयी हो उसके विश्लेषण के दर्शन जो कार्य-कारण संबंधों से संभव है कि दार्शनिकता को जन्म दिया है जिसकी रोशनी में ऐसे ही दौरों में पैदा होते गये धर्मो की प्रासंगिकता पर संदेह किया जा सकता है। इसलिए आज के दौर में साम्प्रदायिकता की मुखालफ्त बिना धर्म पर चोट किये संभव नहीं जान पड़ती। अपने बेहद मानवीय रुपों वाला धर्म भी कट्टरता की उन्हीं हदों को छूने लगता है जहां धर्म विशेष की सर्वोच्चता का तर्क आस्था का सवाल बन कर खड़ा होता है। ऐसी आस्था जो तर्क से परे है। वो आस्था जो अन्जानी घ्ाटनाओं को न सिर्फ दैवीय प्रकोप मानने को विवश करती है बल्कि उसके कारणों के विश्लेषण पर भी अंकुश लगाने पर आमादा है। धर्म यदि एक जीवन प्ाद्धति है तो उससे उपजी संस्कृति निश्चित ही अन्य धर्म से भिन्न ही होगी। यानी उसके मूल में ही खुद को विशिष्ट और एक मात्र उचित दिशा मानने की गैर जनवादी अवधारणा जिद की हद तक निहित है। इसकी जद में दुनिया में अभी तक उदय हो चुके सारे ही धर्म आते हैं। तय है कि यह धार्मिक एकता संख्याबल में बढ़ जाने पर संख्या बल में अल्प पड़ गये धार्मिकों को अपनी ही संस्कृति अपने ही धर्म के आचरण को मनवाने के लिए हिंसकता पर उतारु हो जाती है। फिर सुधारवादी आंदोलन के जरिये या अहिंसा का जाप करते हुए क्या ऐसी हिंसकता का मुकाबला संभव है? मानवीय गरिमा को बचाये रखने के लिए सिर्फ संवेदनात्मक स्तर पर साम्प्रदायिक हिंसा की मुखालफत करते हुए धर्म पर चुप्पी साधकर रची गयी कोई भी रचना साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़े जाने वाले संघ्ार्ष में कोई खास ऊर्जा प्रदान करने वाली नहीं है और न ही मानवीयता की गरिमा को बचाये रखने में मद्दगार हो सकती है। संजीव की कहानी ज्वार भी एक ऐसी ही कहानी है।भारतीय परिपे्रक्ष्य में यदि बात करें तो सामाजिक संरचना में सामंती अवशेषों के बीच पनपा मध्यवर्ग अपने सामंतीपन के साथ है जो तर्क की गुजाईश तो कतई नहीं छोड़ता। आज भी बड़े बूड़ों के सामने तमाम आधुनिक कहलाने वाले परिवारों के भीतर भी तर्क की कोई जगह नहीं है। जबकि आधुनिकता की तस्वीर बिखेरता यह मध्यवर्ग जिस तरह से इतराता फिरता है उससे उसकी पोल खुद ही खुलने लगती है। उपभोक्तवादी संस्कृति के फलस्वरुप्ा आरोपित आधुनिकता के ढोंग के बावजूद धर्म और आस्था की खाद ने उसके सामंतीपन को मुरझाने नहीं दिया है और समय बेसमय उन्माद के माहौल को पैदा करने में उसकी अग्रणी भूमिका है। एक ओर बड़ी पूंजी की दलाली और दूसरी ओर उसकी सामंती अकड़ ने माहौल्ा को बेहद खौफनाक बना दिया है और राजकीय हिंसा का ऐसा प्रपंच रचा है जो बेशर्मी की हद तक जन आंदोलन को कुचलने में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है। बेहद चालाकी और कुशलता से उसने योग और सिद्धियों की दुकान खड़ी करनी शुरु कर दी है। साथ ही जनता के खिलाफ चालू अमानवीय आर्थिक तंत्र को मजबूत आधार प्रदान करते हुए उसके विरोध के नाम पर पुरातनपंथी अवधारणाओं को पुर्नस्थापित करने का सिलसिला भी बढ़ाया हुआ है। जनविरोधि नीतियों के चलते बढ़ती तकलीफों के वास्तविक कारणों को छुपाये हुए ऐसे कल्पना लोक को खड़ा किया जा रहा है जिसमें दुविधा और हताशा की स्थितियां जन्म लेने लगी है। फलत: साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथों गुरिल्ला कार्यवाहियों के लिए तमाम दलित आदिवासियों की फौज खड़ी दिखायी दे रही है, हिंसा के माहौल में लूटपाट का तोहफा देकर उसकी बदहाली के कारणों पर परदा डालने का दोे मुंहा खेल खेलना भी जिससे आसान हो गया है। भावनात्मक मुद्दों को उछाले जाने का और धृणा के सृजन का कृचक्र चालू है। ऐसे में फिर वो उदारतावादी विचार जो सर्वधर्म सम्भाव की बात करता है, अन्तत: उसी आधुनिक से दिखते साम्प्रदायिक वर्ग के हित साधने में ही तो अपनी उर्जा गंवायेगा जिसकी उसको बेहद जरुरत है। सबके बीच भाईचारे का तर्क बाजार के सुचारु रुप्ा से चलते रहने का भी तो तर्क है। यानी साम्प्रदायिक धार्मिक और गैर साम्प्रदायिक धार्मिक के बीच की यह नूरा कुश्ती अपने आप में एक झूठे जनतंत्र का सृजन कर रही है। हिंसा के माहौल में बिना वास्तविक कारणों पर चोट किये आंसू बहाती संवेदना एक ढकोसला ही है जो आये दिन बढ़ती आक्रमकता को रोकने में सफल्ा नहीं हो पायेगी। ऐसे में साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी जाने वाली रचना सिर्फ चुभन का अहसास भर कराये तो फासीवादी की ओर संक्रमित होते दौर के खिलाफ आखिर लामबंदी कैसे संभव होगी। इस कहानी की यह विशेषता उल्लेखनीय है कि इसके भीतर नागरिक और राज्य की पहचान को धर्म से इतर देखने की कोशिश हुई है। लेकिन ऐसा भी कहा जा सकता है कि अवचेतन में स्थित किन्हीं दुविधाओं की वजह से यह विचार बहुत प्रभावी नहीं बन पाया उसकी एक सूक्ष्म सी लकीर ही दिखायी देती है जो बांग्लादेश के गठन के बाद भी कहानी के पात्रों के द्वारा उसे पाकिस्तान ही मानते रहने वाली मानसिक पर्तो को खोलने का प्रयास करती है। लेकिन अवचेतन में उपस्थित धर्म को बचाये रखने वाली मानसिकता ही यहां भी आड़े आ जाती है। फिर अपने प्रिय पात्र जो खुद लेखकीय मानसिकता से संचालित होते दिखायी देते है, साम्प्रदायिक कैसे हो सकते है। यानी कहानी की मां और अणिमा के अवचेतन में धंसी हिन्दू मानसिकता क्या इसलिए साम्प्रदायिक नहीं है क्योकि वो हिंसक नहीं है। क्या हिंसा के बीज बोने वालों के लिए अणिमा और मां का चरित्र एक मॉडल नहीं है? हिसा से बचे रहने के लिए अणिमा की अपने पूर्व धर्म का परित्याग कर देने की असहायता और उन स्थियों से साक्षात्कार करने वाली दृष्टि से आंखें चुराने की असफल चेष्टायें क्या साम्प्रायिक शक्तियों को अपने हिंसक विचार को फैलाने में मद्दगार नहीं हैं ? आखिर बांगल्ाादेश की लेखिका तसलिमा की रचनाओं को बैन करने वाली और उन्हीं रचनाओं के सहारे अपने यहां हिंसा का माहौल रचने वाली दृष्टि क्या एक ही नहीं है। मेरी निगाह में ज्वार ऐसे सवालों से टकराना तो छोड़ो उसका विरोध भी करने का साहस नहीं करती और न ही प्रेरित करती है।

Friday, March 14, 2008

दो वरिस्थ कवियों की कविताएँ

इब्बार रब्बी और भगवत रावत, जिन्होंने हाल ही में अपने-अपने ढंग से दिल्ली को परिभाषित किया.
दिल्ली पर भागवत रावत की कविता “नया ज्ञानोदय” मैं पर्कासित हुई थी और इब्बार रब्बी की कविता “वाक”
मैं. यहाँ इब्बार रब्बी के संग्रह – “लोग बाग” से एक और कविता हैं जिसमें उसी दिल्ली की उनके भीतर
बसी छवी दिखाई देती है. भगवत रावत की कविता उनके संग्रह “निर्वाचित कविताओं” से लिया गया
है. इसे पूर्व ये कविता उनके अपने कविता संग्रह “ऐसी कैसी नींद” में सम्मलित थी.
दोनों ही कविताएँ अपने परिवेश के प्रति लगाव और जुडाव का उदाहार्ण है. यह महज संयोग नहीं बल्कि दो
सचेत और गंभीर नागरिकों का वक्तव्य भी .