विजय गौड
एक कवि और एक क्रिकेट खिलाड़ी में फर्क होता है और यह फर्क होना भी चाहिए। क्रिकेट बाजारवादी प्रवृत्तियों का रोमांचकारी प्रतीक है। दुनिया के दूसरे खेल भी बाजार के लिए अपने तरह से स्पेश छोड़ते, अपनी-अपनी स्थितियों के कारण, कमोबेश वैसे ही हैं जैसा क्रिकेट। लेकिन स्पेश की दृष्टि से क्रिकेट तो हर क्षण विज्ञापन परोसने का एक खुला मैदान बनाता है। बावजूद इसके कह सकते हैं कि क्रिकेट के विरोध में जब हम बहुधा दूसरे खेलों को बढ़ावा देने की वकालत कर रहे होते हैं तो उस वक्त एक बड़ी पूंजी के खिलाफ छोटी (पिछड़ती जा रही) पूंजी की स्वतंत्रता को स्थापित करने के लिए ही बात कर रहे होते हैं। योरोप में बड़ी पूंजी का खेल क्रिकेट से इतर फुटबाल में दिखायी देता है। क्रिकेट के खिलाफ अन्य खेलों के प्रति हमारी पक्षधरता लोकतांत्रिक पूंजीवादी दुनिया की स्थापना के लिए एक प्रयास ही होता है। खेलो के भीतर छिपा वह तत्व जो पक्ष और प्रतिपक्ष को एक दूसरे के विरुद्ध रणनीति और कार्यनीति बनाने वाला होता है, उसी में छुपी होती है रोमांचकता और उसी रोमांच के बीच बहुत चुपके से बैठ जाने वाला बाजार (पूंजी ) उसे उत्तेजक बना देता है। बाजार का बाजारुपन हर चीज के बिकाऊपन के साथ झट से हावी हो जाना चाहता है और रोमांच के क्षणों को इतनी तेजी से उत्तेजना में बदल देता है कि दर्शक भी खिलाड़ी में तब्दील होने लगते हैं। इधर सटोरियों की चांदी और उधर - घूमते हुए बल्ले के साथ एक साधारण से व्यक्ति का नायक बनते जाना दर्शकों के बीच से ही अच्छे खिलाड़ियों की संभावना का वह प्रस्थान बिन्दू है जो आरम्भ में ही बहुत छोटे-छोटे बच्चों की भ्रष्ट स्कूलिंग के साथ होता है।
क्रिकेट में उत्तेजना के क्षणों की यह आकस्मिकता इतनी आक्रामक होती है कि रोमांचक क्षण पल भर में ही परदे से दूर हट जाते हैं। उत्तेजना के चरम को हिंसा में तबदील करने वाला बाजार इतना चिढ़ाऊ होता है कि हार के बावजूद बेशर्म चेहरों के साथ उत्पाद की मार्केटिंग करने वाले नायक खलनायक में बदल जाते हैं और प्रशंसकों की नाराजगी बेजुबान चीजों पर कहर ढााती है। वरचुल उपस्थिति के साथ बार बार एक नये उत्पाद को खिलखिलाते चेहरे वाले उनके नायक, नायक नहीं रह पा रहे होते है। उनसे सीधे संवाद न कर पाता भविष्य का संभावित खिलाड़ी-दर्शक आदर्श का जो पाठ पढ़ रहा होता है उसमें पूंजी की महिमा का गीत उसकी नसों में नशा बन कर बहने लगता है। पैसा ही सब कुछ है, ऐसे आदर्शो का ललचाऊ आकर्षण उनके मानस को बहुत कम उम्र में ही विकृत बनाने वाला होता है। विकृति का खास कारण वह उम्र ही होती है जब स्थितियों के विश्लेषण की कोई उछल-कूद उस मस्तिष्क में हो ही नहीं सकती। यदि अपने आस-पास देखें तो पायेगें कि बचपन के सारे क्रिकेटर यदि क्रिकेट मैदान के बहुत नामी खिलाड़ी नहीं बन पाये तो दुनिया के दूसरेे मैदानों में उनके चौके-छककों को रोकने वाला विधान उनके हुनर के आगे अपाहिज सा नजर आता है। उनकी कलाइयों के जौहर से सरक गयी गेंद को ताकने के सिवा, किसी के भी पास काई दूसरा रास्ता नहीं।
वे बुजुर्ग जो जमाने के उस ठंडेपन के दौर में क्रिकेट के दीवाने रहे और आज भी उसके प्रति वैसा ही अनुराग रखते है, इस तरह के आरोपों से बरी हो जाते हैं। उनके दौर का क्रिकेट भी दूसरे अन्य क्षेत्रों के आदर्श से खड़ी बांडरी के ऊपर से गेंद बाहर फेंकने की ताकत हांसिल न कर पाया था। आज के दौर का क्रिकेट इसीलिए अपने मूल्य स्थापनाओं में उस दौर के क्रिकेट से नितांत भिन्न है। पांच-पांच दिनों तक धूप-ताप में तपने वाले खिलाड़ियों के बहते पसीने के चित्र यूं तो उपलब्ध न थे पर कानों पर कान सटाकर सुनी जा रही कमेंटरियों में उनका जिक्र पिचके हुए गाल वाले खिलाड़ियों की तस्वीर ही कल्पना में गढ़ रहा होता था। बाजार भी उस वक्त इतना बदमिजाज न हुआ था, होने-होने को था। आज उसके बरक्स जो एक दिवसीय से लेकर कुछ घंटों के उत्तेजक मंजर वाला लोकप्रिय क्रिकेट दिखायी दे रहा है, उसी बाजार की फटाफट जरुरत है। फटाफट ऐसा कि फटाफट होता रहे। हर क्षण खबर को अप-डेट करता हुआ भी। यह नहीं कि साल भर में सिर्फ कोई एक तय श्रृंखला के लिए ही खबरनवीश इंतजार करते रहें। अपने कल्पनालोक के दौर में डूबे आज भी कुछ बूढे ऐसे हैं जो क्रिकेट के प्रति इस मान्यता से असमर्थ होंगे। वे युवा जो उस फटाफट के कायल है उनकी असहमति तो जमाने के साथ है। लेकिन असहमति की भाषा को सुनते हुए यदि संयम न खोए तो इस फर्क को अलग-अलग रख पाने का जरुरी काम संभव है। वरना सिर्फ और सिर्फ अराजकता में आलोचना करते हुए अटैक करते नजर आने का खतरा दिखाने वाले ज्यादा मुखर हो जाते हैं। फिर तो क्या तर्क और क्या कुतर्क। एक संयत आलोचना की जिम्मेदारी है कि वे जमाने के बदलते हुए आदर्श को परिभाषित करते हुए ही खिलाड़ी के उन तमाम सॉटस की व्याख्या करे जो अपनी कलात्मकता के साथ भी खूबसूरत खेल के प्रदर्शन हैं या फिर सटोरियों के हिसाब से खेले गये किसी सॉट के प्ार्याय हैं। एक सॉट मतलब एक लाख् रुपये या भविष्य में एक करोड़ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
यहां हम कवि और क्रिकेटर के बीच के अन्तर पर बात करना चाहते थे। क्रिकेट की बाजारु प्रव्रत्ति के कारण भी और अन्तर्निहित पक्ष-प्रतिपक्ष की रणनीति के कारण भी क्रिकेट एक कवि के मानस के अनुरूप नहीं। फ़िर जब एक कवि भी क्रिकेटर नजर आये तो माना जा सकता है कि कवि जमाने के चालाकियों से पका और उसी में इतना रमा है कि हर क्षण अपने अर्जित हुनर से पाठक को चौंका रहा है। पाठक उसका प्रशंसक है, ऐसा जानते हुए भी वह प्रतिद्वंद्वी की तरह उस पर अपनी कविताओं के प्रहार करता है। और कविताओं से असहमति दर्ज करने वाले पाठक के विरुद्ध बार-बार चीख-चीख कर उसके आऊट होने की अपील इम्पायरनुमा उन आलोचक की ओर निगाहों को उठकार करता है जो अपने निर्णायक फैसलों में उसके पक्ष में दिखायी देते हैं। वे बताते हैं कि कवि की हर पंक्ति उन अंधेरे कोनो की पड़ताल है जिसमें एक ऐसा "डिस्कोर्स" है जो जनतांत्रिक स्थापनाओं के लिए एक माहौल रचता है। या ऎसा ही कोई और भारी भरकम आशयों से भरा वक्तव्य। उनके आशय की पड़ताल क्रिकेट की भाषा में करें तो कहा जा सकता है कि कवि एक अच्छा बॉलर है जो अपने पाठक को अपना प्रशंसक बनाये रखने के लिए ठीक वैसे ही चौंका रहा है जैसे एक खिलाड़ी-बॉलर अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी-बैट्समैन को छकाने के लिए ही अज्रित की गई कुशलता का प्रयोग करता है। या कई बार एक बैट्समैन की भूमिका में होता हुआ अपने प्रतिपक्ष में खड़े हो चुके बॉलर पर। कई बार बैट्समैन कवि, यह जानते हुए भी कि क्या गलत है और क्या सही, वह अपने अभ्यास की कुशलता से उन गेंदों को, जो उसकी रचना की आलोचना के रुप में होती है, बिना टच किये ही यूंही निकल जाने दे रहा होता है। उसकी बैटिंग की इस खूबसूरती का बयान भी ढेरों कमेंटरेटर अपने अपने अनुबंधित चैनलों पर उसके नये से नये सॉट का रिपले दिखा-दिखा कर ही करते हैं। वे उसके उन सॉट्स के जिक्र न कर पाने के इस अवकाश के साथ होते है कि देखो अभी कितना खूबसूरत सॉट खेला गया। कितनी कलात्मकता है उसके इस नये सॉट में। बेवजह अटैक करने वाले पाठक तो एक खास मानसिकता से ग्रसित हैं। उनकी समझदारी में ही है गड़गड़ जो उसकी रचनाओं से ऐसे अनाप-शनाप अर्थ निकाल रहे हैं। जबकि बल्लेबाज कवि को तो देखो जो पहले के तमाम उन बल्ले बाजों, जो ऐसे ही सॉटों के लिए जाने जाते रहे, उनसे बहुत आगे निकल रहा है अपने हर सॉट में। तथ्यात्मक आंकड़ों की यह बाजीगरी कई बार एक कवि को भी क्रिकेटर बना दे रही होती है।
2 comments:
क्या बात है भैया !आपने तो कविता और क्रिकेट के बहाने ऐसी बात लिख दी है कि क्या कहने!
बहुत बढ़िया!!
बधाई !!!
कविता और क्रिकेट की खूब जानकारी है आपको.पाठक की मानसिकता पर भी पूरी पकड है आपकी.आपका ये लेख बहुत से सच समेटे हुए है.स्वतन्त्रता दिवस की बधाई स्वीकार करें.
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