पहल सम्मान-2006, जबलपुर में वरिष्ठ कथाकार संजीव जी की कहानी ज्वार पर टिप्प्णी को आधे-अधूरे तरह से ही रख पाया था। आलेख पढ़ते हुए आये गतिरोध के कारण पढ़ना बीच में ही रोक देना पड़ा था। जो पढ़ना चाहता था उसे यहॉं दे देने का मन हुआ तो प्रस्तुत कर दिया।
ज्वार के बहाने
किसी भी रचना पर बात करने से पहले उस रचना के परिप्रेक्ष्य को जान समझ कर ही उसके मंत्ाव्य विचार करते हुए उसकी व्याख्या की जा सकती है। एक परिप्रेक्षय रचना का अपना होता है जिसमें वो रची गयी होती है दूसरा जिस दौर में वो प्ाढ़ी जा रही होती है। हो सकता है दोनों ही परिप्रेक्ष्य एक समान भी हो सकते हैं और भिन्न भी। यही वजह है कि ये परिस्थितियां विशेष ही रचना के पाठ को निर्धारित करती हैं। क्या ही संभव हो कि कोई रचना अपने दौर और अपने समाज का बयान करते हुए भी हर दौर में अपने निश्चित मंत्ाव्य को ही प्रक्षेपित करती रहे। स्पष्ट है कि कथाकार संजीव की कहानी 'ज्वार" का परिप्रेक्ष्य साम्प्रदायिक हिंसा है और मंसूबा उसकी मुखालफ्त है, सर्वधर्म सम्भाव का विचार जिसका उत्स है। इसमेंं कोई दो राय नहीं कि संजीव जनवाद के प्ाक्षधर, मानवीय मूल्यों के संरक्षक, धर्म निरपेक्ष और ईमानदार व्यक्ति के रुप्ा में अपनी तमाम रचनाओं के माध्यम से बिखरे पड़े हैं। चाहे सावधान नीचे आग है, सूत्रधार, जंगल जहां से शुरु होता है या कहानियों के रुप्ा में अभी याद आ रही- सागर और सीमांत, आरोहण, तिरबेनी का तड़बना, उनका ऐसा रचना संसार है जिसमें एक प्रतिबद्ध और सचेत रचनकार के दर्शन होते हैं। इन रचनाओं के आधार पर संजीव की मंशाओं और जिस नीयत को मैं जान पाया हूं उसमें वे ऐसे ही नजर आये है।ज्वार कहानी के परिप्रेक्ष्य में जो माहौल है उसमें बाबरी विध्वंस के बाद गुजरात तक का दौर स्थानीय स्तर पर और अंतराष्टीय स्तर पर तालीबानी नृशंसता के साथ साथ उस नृशंसता के खिलाफ एक सैद्धान्तिकी को रचते हुए एक तरफा हिंसा का दौर है और हाल ही में रचा गया कैरिकैचर कांड और उसके विरोध में उपजी हिंसा का माहौल। देखना यह है कि क्या ज्वार ऐसी स्थितियों से टकराने वाली रचना बन पा रही है। इसके निष्कर्षों को यदि लागू कर दिया जाये या स्थितियां ऐसी बन जाये कि वे लागू हो जाये तो स्थितियां बदल सकती हैं। साथ ही इन निष्कर्षों को लागू होने की शर्त क्या है? उसके लिए हर सचेत व्यक्ति को क्या करना होगा? यह मूल प्रश्न ही इस कहानी को समझने और उसके विश्लेषण करने में मद्दगार हो सकते है। स्ंाजीव की कहानी ज्वार के मंतव्य, जो कि मानवीय मूल्यों की स्भापना के लिए हैं, से सहमत होते हुए भी इसकी परास की एक सीमा दिखायी देती है। कहा जाये कि हिन्दी बौद्धिक जगत और साहित्य के भीतर साम्प्रदायिकता के सवाल पर जारी बहस और उन बहसों से बनती दृष्टि से उपजी ज्यादातर रचनाये, जिनमें साम्प्रदायिकता जैसे समाज विरोधि, मनुष्यता विरोधि विचार से निपटने के लिए सर्वधर्म सम्भाव का विचार है और संवेदनात्मक स्तर पर उस विचार की वकालत है। अपनी इस सीमा का अतिक्रमण ज्वार भी नहीं कर पाती है। है। साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी गयी इन रचनाओं की विशेषता है कि वे संवेदना के धरातल पर विचलित तो करती हैं पर साम्प्रदायिकता के मूल स्रोत- धर्म को बचाये रखने की भी, अन्जाने में ही चाहे हो, वकालत करने लगती है और साम्प्रदायिकता से निपटने में नाकाम रही धर्मनिरपेक्षता की वह परिभाषा, भारतीय गणतंत्र के साथ जिसने जन्म लिया था उसी की रोशनी को बिखेरने लगती है। जबकि लगातार हिंसक होते गये वातावरण ने उसकी प्रसांगिकता पर खुद ही प्रश्न चिहन लगा दिया है। यही कारण है कि ऐसी रचनायें जहां किसी समाज विशेष में साम्प्रदायिकता के विरोध में होती हैं वहीं किसी दूसरे पहले के विपरीत समाज में साम्प्रदायिक शक्तियों का हथियार बन जाती हैं। स्ाम्प्रदायिकता, जो अपनी प्रवृत्ति में एकांगीपन, संकीर्णता और नफरत की उपज है, का मूल स्रोत धर्म है। इसलिए साम्प्रदायिकता की आलोचना करते हुए धर्म की आलोचना से बचते हुए रची गयी कोई भी रचना यथार्थ का काल्पनिक आख्यान बन कर ही रहने वाली है। ऐसा मेरी समझदारी कहती है। सिर्फ हिसा की आलोचना साम्प्रदायिकता की बेहद स्थूल किस्म की आलोचना है। धर्म के भीतर निहित आध्यत्मिक गौरव की अभिव्यक्ति, परलौकिक सत्य की अवधारणा- जीवन के वास्तविक यथार्थ से दूर जाना है। धर्म के पीछे अन्धे होकर दौड़ते समुदायों का एकांगी और संकीर्णता की अन्धि गलियों में भटकने का यह एक ऐसा कल्पना लोक है जिसका आधार तर्क का निषेध और आस्था और अन्धविश्वास की जमीन पर खड़ा है। स्वतंत्र विचार की बजाय समर्पण की मांग जिसकी पहली शर्त है। मौजूदा वैज्ञानिक दौर में प्ाढ़े लिखे बौद्धिक समाज का आस्था के इस अतार्किक तंत्र को कुतर्क के सहारे उसके कर्मकाण्डिय क्रिया कलापों पर वैज्ञानिकता का जामा पहनाने की जिद निश्चित ही अवैज्ञानिक है जिसके निहितार्थ खतरनाक हिंसक माहैल से आबद्ध है। विवेक के अनुशासन से रहित भावनाओं के इस ज्वार को उन्माद की हद तक पहुॅचाने की यह खतरनाक पहल है। कहा जाता है कि धर्म तो जीवन जीने की एक प्ाद्धति है। अब सवाल है कि यह प्ाद्धति आखिर कौन से कालखण्ड की उत्पति है। स्पष्ट है कि प्रकृति की विराटता में घ्ाटती घ्ाटनाओं से अन्जान और चौंकता हुआ मनुष्य जब उस दौर के सीमित ज्ञान की सीमा की वजह से कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाता रहा तो शक्तिरुपा अज्ञात ईश्वरों की कल्पनायें उसने कटनी शुरु की और उन्हीं अज्ञात अन्जान ईश्वरों की स्थापनाओं का कार्यभार धार्मिक कर्मकाण्ड के रुप्ा में स्थापित हुआ है। इसलिए धर्म तर्क से परे की चीज हो गयी। सिर्फ भावनाओं और आस्थाओं के इस अवैज्ञानिक दृष्टिकोण ने समय समय पर अपनी श्रेष्ठता की स्थापना के लिए खून खराबे भी किये जिसे साम्प्रदायिक उन्माद कहा जा सकता है। इसलिए साम्प्रदायिकता की मुखालफत बिना धर्म पर चोट किये, उससे समाज को मुक्त किये बगैर संभव नहीं। इतिहास गवाह है कि समाज को बदलने के लिए प्राचीन काल से आज तक जितनी भी विचार प्रक्रियायें आगे बढ़ी और जिसने भी धर्म पर चोट किये बगैर सामाजिक संरचना को बदलने के लिए कुछ सीमित परिवर्तनों का या भावनात्मक संवेदनों के तहत मानवीय दृष्टिकोण का प्रचार प्रसार किया, उसकी परिणति भी अन्तत: कर्मकाण्डिय ही होती चली गयी। बैद्ध धर्म जो ईश्वर की कल्पना को पूरी तरह से ध्वस्त करने के विचार से परहेज करते हुए सामने आया, अन्तत: उसी का शिकार होता चला गया। भक्ति आंदोलन का पूरा दौर जिसने तमाम सामाजिक कुरीतियों पर जम कर प्रहार किया लेकिन उस दौर के सीमित ज्ञान की वजह से धर्म पर चोट न कर पाने की वजह से खुद उसी की गिरफत में चला गया। कबीर जैसा क्रांतिकारी कवि अन्तत: रहस्यवादी होता चला गया। अन्जाने अज्ञात भय, आशंका में दबे ढके कारणों पर से विज्ञान ने आज काफी हद तक पर्दा उठा दिया है और जिन घ्ाटनाओं के कारणेंा की वास्तविक पड़ताल आज तक भी भले ही नहीं की गयी हो उसके विश्लेषण के दर्शन जो कार्य-कारण संबंधों से संभव है कि दार्शनिकता को जन्म दिया है जिसकी रोशनी में ऐसे ही दौरों में पैदा होते गये धर्मो की प्रासंगिकता पर संदेह किया जा सकता है। इसलिए आज के दौर में साम्प्रदायिकता की मुखालफ्त बिना धर्म पर चोट किये संभव नहीं जान पड़ती। अपने बेहद मानवीय रुपों वाला धर्म भी कट्टरता की उन्हीं हदों को छूने लगता है जहां धर्म विशेष की सर्वोच्चता का तर्क आस्था का सवाल बन कर खड़ा होता है। ऐसी आस्था जो तर्क से परे है। वो आस्था जो अन्जानी घ्ाटनाओं को न सिर्फ दैवीय प्रकोप मानने को विवश करती है बल्कि उसके कारणों के विश्लेषण पर भी अंकुश लगाने पर आमादा है। धर्म यदि एक जीवन प्ाद्धति है तो उससे उपजी संस्कृति निश्चित ही अन्य धर्म से भिन्न ही होगी। यानी उसके मूल में ही खुद को विशिष्ट और एक मात्र उचित दिशा मानने की गैर जनवादी अवधारणा जिद की हद तक निहित है। इसकी जद में दुनिया में अभी तक उदय हो चुके सारे ही धर्म आते हैं। तय है कि यह धार्मिक एकता संख्याबल में बढ़ जाने पर संख्या बल में अल्प पड़ गये धार्मिकों को अपनी ही संस्कृति अपने ही धर्म के आचरण को मनवाने के लिए हिंसकता पर उतारु हो जाती है। फिर सुधारवादी आंदोलन के जरिये या अहिंसा का जाप करते हुए क्या ऐसी हिंसकता का मुकाबला संभव है? मानवीय गरिमा को बचाये रखने के लिए सिर्फ संवेदनात्मक स्तर पर साम्प्रदायिक हिंसा की मुखालफत करते हुए धर्म पर चुप्पी साधकर रची गयी कोई भी रचना साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़े जाने वाले संघ्ार्ष में कोई खास ऊर्जा प्रदान करने वाली नहीं है और न ही मानवीयता की गरिमा को बचाये रखने में मद्दगार हो सकती है। संजीव की कहानी ज्वार भी एक ऐसी ही कहानी है।भारतीय परिपे्रक्ष्य में यदि बात करें तो सामाजिक संरचना में सामंती अवशेषों के बीच पनपा मध्यवर्ग अपने सामंतीपन के साथ है जो तर्क की गुजाईश तो कतई नहीं छोड़ता। आज भी बड़े बूड़ों के सामने तमाम आधुनिक कहलाने वाले परिवारों के भीतर भी तर्क की कोई जगह नहीं है। जबकि आधुनिकता की तस्वीर बिखेरता यह मध्यवर्ग जिस तरह से इतराता फिरता है उससे उसकी पोल खुद ही खुलने लगती है। उपभोक्तवादी संस्कृति के फलस्वरुप्ा आरोपित आधुनिकता के ढोंग के बावजूद धर्म और आस्था की खाद ने उसके सामंतीपन को मुरझाने नहीं दिया है और समय बेसमय उन्माद के माहौल को पैदा करने में उसकी अग्रणी भूमिका है। एक ओर बड़ी पूंजी की दलाली और दूसरी ओर उसकी सामंती अकड़ ने माहौल्ा को बेहद खौफनाक बना दिया है और राजकीय हिंसा का ऐसा प्रपंच रचा है जो बेशर्मी की हद तक जन आंदोलन को कुचलने में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाने वाला है। बेहद चालाकी और कुशलता से उसने योग और सिद्धियों की दुकान खड़ी करनी शुरु कर दी है। साथ ही जनता के खिलाफ चालू अमानवीय आर्थिक तंत्र को मजबूत आधार प्रदान करते हुए उसके विरोध के नाम पर पुरातनपंथी अवधारणाओं को पुर्नस्थापित करने का सिलसिला भी बढ़ाया हुआ है। जनविरोधि नीतियों के चलते बढ़ती तकलीफों के वास्तविक कारणों को छुपाये हुए ऐसे कल्पना लोक को खड़ा किया जा रहा है जिसमें दुविधा और हताशा की स्थितियां जन्म लेने लगी है। फलत: साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथों गुरिल्ला कार्यवाहियों के लिए तमाम दलित आदिवासियों की फौज खड़ी दिखायी दे रही है, हिंसा के माहौल में लूटपाट का तोहफा देकर उसकी बदहाली के कारणों पर परदा डालने का दोे मुंहा खेल खेलना भी जिससे आसान हो गया है। भावनात्मक मुद्दों को उछाले जाने का और धृणा के सृजन का कृचक्र चालू है। ऐसे में फिर वो उदारतावादी विचार जो सर्वधर्म सम्भाव की बात करता है, अन्तत: उसी आधुनिक से दिखते साम्प्रदायिक वर्ग के हित साधने में ही तो अपनी उर्जा गंवायेगा जिसकी उसको बेहद जरुरत है। सबके बीच भाईचारे का तर्क बाजार के सुचारु रुप्ा से चलते रहने का भी तो तर्क है। यानी साम्प्रदायिक धार्मिक और गैर साम्प्रदायिक धार्मिक के बीच की यह नूरा कुश्ती अपने आप में एक झूठे जनतंत्र का सृजन कर रही है। हिंसा के माहौल में बिना वास्तविक कारणों पर चोट किये आंसू बहाती संवेदना एक ढकोसला ही है जो आये दिन बढ़ती आक्रमकता को रोकने में सफल्ा नहीं हो पायेगी। ऐसे में साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखी जाने वाली रचना सिर्फ चुभन का अहसास भर कराये तो फासीवादी की ओर संक्रमित होते दौर के खिलाफ आखिर लामबंदी कैसे संभव होगी। इस कहानी की यह विशेषता उल्लेखनीय है कि इसके भीतर नागरिक और राज्य की पहचान को धर्म से इतर देखने की कोशिश हुई है। लेकिन ऐसा भी कहा जा सकता है कि अवचेतन में स्थित किन्हीं दुविधाओं की वजह से यह विचार बहुत प्रभावी नहीं बन पाया उसकी एक सूक्ष्म सी लकीर ही दिखायी देती है जो बांग्लादेश के गठन के बाद भी कहानी के पात्रों के द्वारा उसे पाकिस्तान ही मानते रहने वाली मानसिक पर्तो को खोलने का प्रयास करती है। लेकिन अवचेतन में उपस्थित धर्म को बचाये रखने वाली मानसिकता ही यहां भी आड़े आ जाती है। फिर अपने प्रिय पात्र जो खुद लेखकीय मानसिकता से संचालित होते दिखायी देते है, साम्प्रदायिक कैसे हो सकते है। यानी कहानी की मां और अणिमा के अवचेतन में धंसी हिन्दू मानसिकता क्या इसलिए साम्प्रदायिक नहीं है क्योकि वो हिंसक नहीं है। क्या हिंसा के बीज बोने वालों के लिए अणिमा और मां का चरित्र एक मॉडल नहीं है? हिसा से बचे रहने के लिए अणिमा की अपने पूर्व धर्म का परित्याग कर देने की असहायता और उन स्थियों से साक्षात्कार करने वाली दृष्टि से आंखें चुराने की असफल चेष्टायें क्या साम्प्रायिक शक्तियों को अपने हिंसक विचार को फैलाने में मद्दगार नहीं हैं ? आखिर बांगल्ाादेश की लेखिका तसलिमा की रचनाओं को बैन करने वाली और उन्हीं रचनाओं के सहारे अपने यहां हिंसा का माहौल रचने वाली दृष्टि क्या एक ही नहीं है। मेरी निगाह में ज्वार ऐसे सवालों से टकराना तो छोड़ो उसका विरोध भी करने का साहस नहीं करती और न ही प्रेरित करती है।
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