केलांग को मैं अजेय के नाम से जानने लगा हूं। रोहतांग दर्रे के पार केलांग लाहुल-स्पीति का हेड क्वार्टर है। अजेय लाहुली हैं। शुबनम गांव का। केलांग में रहता हैं।
पहल में प्रकाशीत उनकी कविताओं के मार्फत मैं उन्हें जान रहा था। जांसकर की यात्रा के दौरान केलांग हमारे पड़ाव पर था। कथाकार हरनोट जी से फोन पर केलांग के कवि का ठिकाना जानना चाहा। फोन नम्बर मिल गया। उसी दौरान अजेय को करीब से जानने का एक छोटा सा मौका मिला। गहन संवेदनाओं से भरा अजेय का कवि मन अपने समाज, संस्कृति और भाषा के सवाल पर हमारी जिज्ञासाओं को शान्त करता रहा। अजेय ने बताया, लाहौल में कई भाषा परिवारों की बोलियां बोली जाती हैं। एक घाटी की बोली दूसरी घाटी वाले नहीं जानते, समझते। इसलिए सामान्य सम्पर्क की भाषा हिन्दी ही है। भाषा विज्ञान में अपना दखल न मानते हुए भी अजेय यह भी मानता हैं कि हमारी बोली तिब्बती बोली की तरह
बर्मी परिवार की बोली नहीं है, हालांकि
ग्रियसेन ने उसे भी बर्मी परिवार में रखा है। साहित्य के संबंध में हुई बातचीत के दौरान अजेय की जुबान मे। शिरीष, शेखर पाठक, ज्ञान जी (ज्ञान रंजन) से लेकर नेट पत्रिका
कृत्या"" की सम्पादिका रति सक्सेना जी के नाम थे। एक ऐसी जगह पर, जो साल के लगभग 6 महीने शेष दुनिया से कटी रहती है, रहने वाला अजेय दुनिया से जुड़ने की अदम्य इच्छा के साथ है। उनसे मिलना अपने आप में कम रोमंचकारी अनुभव नहीं। उनकी कविताओं में एक खास तरह की स्थानिकता पहाड़ के भूगोल के रुप में दिखायी देती है। जिससे समकालीन हिन्दी कविता में छा रही एकरसता तो टूटती ही है।
केलांग में रात रुके। सुबह जब अजेय से विदा लेने के बाद हम दारचा निकलने के लिए केलांग बस स्टैण्ड पहुंचे तो बस स्टैण्ड पर भीड़ थी कि पूछो मत। मानों पूरा केलांग बस स्टैएड पर था। और हो भी क्यों न। उनके छोटे-छोटे बच्चे, जो केलांग स्कूल में दर्जा चार-पांच में पढ़ते थे, स्कूली खेलकूद-जलसा, जो दारचा में आयोजित हो रहा था, उसमें हिस्सेदारी करने जा रहे थे। 25 जून से शुरू होने वाली खेलकूद प्रतियोगिताएं चार दिन तक चलनी है, ये हमने वहां मौजूद लोगों से पूछ कर जान लिया था। खेलकूद प्रतियोगिताओं के साथ, शाम को रंगारंग कार्यक्रम भी होने थे। खिलाड़ियों के बीच ही वे बच्चे भी थे जिन्हें रंगारंग कार्यक्रमों में भाग लेना था। कुछ ऐसे भी थे जो मैदान में दौड़-भाग भी करने वाले थे और शाम को अपने दूसरे साथियों के साथ मंच पर भी जिन्हें थिरकना था- कोई लाहुली समूह नृत्य या फिर किसी फिल्मी धुन पर। बस स्कूल के बच्चों से पूरी तरह खचा-खच भरी हुई थी। ऐसी भीड़ कि खड़ा हो पाना भी मुश्किल। हमारे जैसे अन्य भी यात्री थे। कुछ विदेशी भी। जिन्हें आगे निकलना था। यात्री तो यात्री, केलांग के स्थानीय निवासी, जिन्हें क्वार्लिंग, गिमूर, कोलंग, खनकसर, जिप्सा, दारचा, रारिक या छीका जाना था, वे भी बस में चढ़ नहीं पा रहे थे। बस की छत पिट्ठुओं से लद चुकी थी। स्कूल के बच्चों के पिट्ठुओं के साथ जलसे की सजावट का सामान- कनाते, लाऊडस्पीकर, बांस के लम्बे-लम्बे डंडे और कार्यक्रम के दौरान कलाकारों द्वारा इस्तेमाल होने वाली पोशाकों से भरे लोहे के बक्से जैसा ढेरों सामान था जो दारचा जा रहा था। स्कूल के ये विद्यार्थी भी ऐसे कि एक बारगी लगेगा कि दूध पीते इन बच्चों को चार दिन और चार रातों के लिए उनके माता पिता उनका विछोह करना ठीक नहीं।
बस की भीड़ को देखकर हम अनिश्चित-से हो गए- दारचा कैसे पहुंचेंगे ?
समानों से भरे अपने बड़े-बड़े पिट्ठू, राशन-टैन्ट, बर्तन और मिट्टी तेल के डिब्बों से भरे किट कहां रखेंगे ?
पर गलतफहमी में थे। हमारे भीतर की आशंका हमारी उस पृष्ठभूमि से उपजी थी जहां नितांत अपने को केन्द्र में रखकर ही किसी भी समस्या के बारे में सोचा जाता है और जैसे तैसे उससे निपट लेने पर फिर किसी दूसरे की चिन्ता करना बेइमानी हो जाता है। हमारी फिक्र करने को पूरा समूदाय था - केलांगवासी जो अपने बच्चों को बस तक छोड़ने आए थे, केलांग से दारचा तक के रास्ते पर पड़ने वाले गांवों को जाने वाले वे स्थानीय सवारियां जिन्हें अभी खुद ही नहीं पता था कैसे जाएंगे और स्कूल के अध्यापक और दूसरे कर्मचारी जो जलसे में इस्तेमाल होने वाले समानों और छत पर लाद दिए गए बच्चों के पिट्ठुओं को बांधने में जुटे थे, सभी की चिन्ताओं में हम भी शामिल थे। वे हमारे सामान को छत पर लदवाने लगे। नीचे जलसे का सामान, बच्चों के पिट्ठू और उनके ऊपर हमारे भारी-भारी किट को लाद दिया गया। तभी दो विदेशी यात्री भी- एक पुरूष और एक स्त्री, जिन्हें दारचा जाना था, अपने पिट्ठू समेत आ पहुंचे। उनके पिट्ठुओं को भी छत में ऊपर खींच लिया गया। हमारे सामानों की तरह उनके लिए भी जगह निकल आई। स्कूल वालों के पास रस्सियों की कमी न थी। बस के ऊपर लद चुके सामान के पहाड़ को स्कूल के कर्मचारियों ने और हमारे साथियों ने मिलकर बांध दिया। रस्सी हमारे पास भी थी। जो भी सामान जैसे ठूंसा जा सकता था, ठूंस दिया गया बस्स। न सिर्फ छत पर सामान रखने की जगह बल्कि बस की छत का वह भाग, ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी के साथ जो एक प्लेटफार्म सदृश्य था और जिसमें सामान को टिकाए रखने के लिए ओट जैसा भी कुछ नहीं था, बहुत से सामानों से ढक गया। रस्सियों के जाल से वहां रखे गए सामानों को भी दूसरे सामानों के साथ कस दिया गया। बस चलने को तैयार हो चुकी थी।
बस पूरी तरह से भर गई थी, अन्दर जाने की भी जगह नहीं। कैसे तो जैसे तैसे घुसे भर ! पर जिस मुद्रा में थे, उसी में रहने के सिवा कोई दूसरा चारा न था। हाथ-पांव भी हिला-डुला नहीं सकते थे। अभी बहुत से यात्री जगह न मिल पाने की वजह से नीचे खड़े थे। उनमें ज्यादतर युवा थे। जो बस के भीतर जगह न मिलने पर भी छत पर बैठकर यात्रा के आनन्द को लूटना चाहते थे। बस कंडेक्टर उन पर चिल्ला रहा था जो छत पर बैठने के लिए सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे। कंडेक्टर किसी भी कीमत पर छत पर बैठने नहीं देना चाहता था। कंडेक्टर की दृढ़ता के आगे मनमानी कर पाने की वे हिम्मत न कर पा रहे थे-
"कहां बैठे फिर---? सीट तो है ही नहीं।"
"पैर रखने की भी तो जगह नहीं है अन्दर।"
वे युवा यात्री कंडेक्टर से लड़ रहे थे।
"जगह तो छत पर भी नी है। अबे कोई मर-मरा गया तो कौन लेगा जिम्मदारी ?"
कंडेक्टर का अपना तर्क था।
"कोई नी मरता---"
"अन्दर ही जो सांस घुटकर मर जाएंगे।"
तर्क करते हुए लड़के इस कोशिश में थे कि कंडेक्टर छत में बैठने को कह भर दे और वे बस की छत पर पिट्ठुओं के ऊपर ही लुढ़क जाएं।
"ओए चुपचाप अन्दर चढ़ जाओ। जादा ही जल्दी है तो वहां जाकर एक और बस लगवाओ।"
कंडक्टर ने बहस कर रहे लड़कों के सामने आफिस की ओर ईशारा करते हुए एक चुनौति रख दी थी। लेकिन कोई भी उस ओर न बढ़ा। बस्स जैसे तैसे पायदान पर या जहां भी पैर को फंसा सकने की जगह मिल पा रही थी ठुंस गया। हाथ किसी कुडे या खिड़की पर चिपक गए और आधे शरीर बाहर को लटकाए हुए ही वे आगे के तंग पहाड़ी रास्ते पर हिचकोले खा-खाकर चलने वाली बस में यात्रा करने को तैयार।
बस पूरी तरह से ठसा-ठस हो गई। सीट जो एक व्यक्ति के लिए निर्धारित थी, उस पर चार-चार बच्चे बैठे थे। स्वास्थय सर्वे के लिए निकली
एकेडमी ऑफ मैनेजमेंट, देहरादून की एक टीम के कार्यकर्ता भी बस में थे। डिफेंस कालोनी, देहरादून में अवस्थित उस गैर-सरकारी संस्थान के युवा साथियों से बस में ही मुलाकात हुई। उनसे मिलना एक सुखद एहसास तो था लेकिन यह सोचना भी स्वाभाविक ही था कि लाहौल के इस बीहड़ इलाके में एक छोटी सी जगह का छोटा-सा संस्थान अपने कार्यकर्ताओं से आखिर कैसा सर्वे करवाना चाहता है ! जबकि वे ज्यादातर युवा जो सर्वे के लिए निकले है, लाहौल ही पहली बार आ रहे हैं। गैर-सरकारी संगठनों की ये अव्यवाहरिक गतिविधियां और धड़कते युवाओं का इनकी चालाकियों में फंसकर अपनी ऊर्जा को व्यर्थ गंवाना आखिर चिन्ता का कारण क्यों न हो ? चार-चार लड़कियों के साथ दो लड़के, कुल छै-छै के ग्रुप में पांच-छै टीम इस काम के लिए पूरे लाहौल में तैनात थीं। बस में हमारी सहयात्री-टीम के सभी साथी कोलंग मोड़ से पहले कुर्लिंग गांव पर उतर गए। बस में उनसे बाते हुई। लड़कियां अपनी परेशानी रख रहीं थीं। हिमाचल देखने का सपना संजोए वे केलांग आने को तैयार हुई थीं। वरना दूसरी टीम के साथ, जो उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर निकलीं थीं, उसमें शामिल हो सकती थीं- ऐसा वे कहती रहीं। "उत्तराखण्ड के पहाड़ तो देखे ठहरे।" रोहतांग दर्रा और दर्रे के पार का हिमाचल उन्हें केलांग जाने के लिए उकसा चुका था। पर केलांग पहुंचने के बाद मालूम हुआ, न ठीक से रहने की व्यवस्था न खाने की। नहाने के लिए भी कोई उचित प्रबंध संस्था द्वारा दिए जा रहे पैसों में वे कर नहीं पा रहे थे। एक खाली पड़ी दुकान, जो अभी अधूरी ही बनी थी, किराए पर लेकर वे सामूहिक रूप से एक ही जगह पर रुके थे।
खचाखच भरी बस में हिचकोले खाते और सहयात्रियों से बतियाते जब दारचा पहुंचे तो पहले का देखा गया दारचा बदला हुआ लगा। पुलिस चैक पोस्ट जो पुल के इस पार ही होता था, पुल के दूसरी ओर शिफ्ट हो चुका था, वहीं जहां सड़क के दूसरी ओर भौजू का ढाबा होता था- अपना ढाबा। अपना ढाबा वहां नहीं था। पूछने पर मालूम हुआ कि अपना ढाबा अब वहीं, जहां कभी पुलिस चैक पोस्ट था, खुल गया है। मानव निर्मिति का यह जबरदस्त मंजर था जो सात-आठ साल पहले देखे गए दारचा को उसी रूप में देखने नहीं दे रहा था। और भी कई ढाबे वहां खुल चुके हैं। हां जो भूगोल उस जगह पर पहुंचने पर हमें उसे वही पहले वाला दारचा मानने को मजबूर कर रहा था, उसके लिए एक मात्र सबूत
मुलकिला चोटी थी,
जो नदी के प्रवाह की ओर देखने पर साफ चमकती हुई दिख रही थी। आगे की यात्रा पैदल यात्रा थी। दारचा में रुक कर घोड़े आदि का प्रबंध किया। रास्ते के लिए राशन-पानी की जरूरत को चैक कर, कम दिखाई दे रहे या पहले ही ले लेने से चूक गए सामान, जैसे माचिस के पैकट, मोमबत्ती आदि को खरीदकर रख लिया गया और अगले दिन सुबह 9 बजे पलामू की ओर बढ़ लिए।
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