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Friday, October 3, 2014

उत्सव का रंग उद्देश्य से इतर नहीं





विजय गौड़ 


रंगों को वैज्ञानिक दृष्‍टी से देखा जाये और उसी भाषा में व्‍याख्‍यायित किया जाये, तो कह सकते हैं कि तरंगों की एक निश्चित दैर्ध्‍य ही रंग है। श्‍वेतप्रकाश का प्रिज्‍मेटिक विखण्‍डन का प्रयोगात्‍मक साक्ष्‍य उनकी भिन्‍नतओं का समुच्‍य है। देख सकते हैं कि प्रिज्‍म के पार एक स्‍पैक्‍ट्रम बनता है, जिसका एक छोर लाल और दूसरा बैंगनी पर समाप्‍त हो जाता है। स्‍पैक्‍ट्रम साबित करता है कि रंगों की भिन्‍नता तरंगों की दैर्ध्‍य है। खास दैर्ध्‍य की तरंग ही सुनी जाने वाली आवाज हो सकती है तो कभी वातावरण को गर्माने वाली भी। बादलों के गरजने से पहले बिजली का चमकना बताता है कि बादलों के संघटन पर दो भिन्‍न दैर्ध्‍य की तरंगों ने चमक और ध्‍वनि की उत्‍पति की है। एक चमक बनकर बिखर गयी और दूसरी आवाज बनकर सुनायी दी। तरंगों को ही आधार मानकर किये गये मानवीय शोधों ने बताया है कि घने अंधेरे में अवस्थिति किसी वस्‍तु को भी देखा जा सकता है, सिर्फ उसकी सतह से उठती तरंगों को यदि पकड़ लिया जाये तो। अनुसंधानों के विज्ञान ने उसे मुक्‍कमल करके भी दिखाया है और नाइट विजीन डिवाईस के नाम से पुकारे जाने वाले उत्‍पादों ने उसे संभव भी किया है। यानि कहा जा सकता है कि रंगों का न तो अपना कोई स्‍वतंत्र अस्तित्‍व है न ही वे किसी निश्चित स्थिति के परिचायक हैं। तो भी रंगों को भाषिक अर्थ देने वाले विद्धत जनों ने उनको कुछ निश्चित अर्थ दिये हैं। कलाकार उनकी उपस्थिति से ही चित्रों की अमूर्तता तक को वाणी देते हैं। मनोगत कारणों के प्रभाव में रंगों की भिन्‍न भिन्‍न व्‍याख्‍याओं ने भी कलाकारों को विशिष्‍टता प्रदान की है। जरूरी नहीं कि अपने चिरपरिचति अर्थों में जाने जाने वाले विरोध के रंग को ही कोई कलाकार अपने चित्र में विरोध के अर्थ में डाले। वह उसका अर्थ विस्‍तार उदासी में या मृत्‍यू तक भी कर देता है और कई बार तो मनोगत आग्रहों से जन्‍म लेती आलोचना भी उसे ही जिन्‍दगी की अकुलाहट को संजोये गर्भ का गहन अंधेरा कह सकती है।

यानि रंगों के आधार पर एक निश्चित अर्थ भरे निर्णय तक पहुंचना हमेशा मुश्किल ही है। वे समय काल और परिस्थितियों के आधार पर अपने मानक गढ़ते हैं। किसी विशेष रंग की ओढ़नी को ओढ़कर प्रतिकात्‍मक रूप में खुद का प्रकटीकरण, राजनैतिक मुहावरा तो हो सकता है लेकिन राजनीति का स्‍पष्‍ट रूप तो संचालित होती गतिविधियों और उनके परिणामों से ही तय किया जा सकता है।        
भिन्‍न भिन्‍न रंगों के प्रकाश के संयोजनों से पूजा पण्‍डालों की भव्‍यता, कोलकाता के पूजा महोत्‍सव को जश्‍न में बदल देती है। रंगो के संयोगों की व्‍युत्‍पत्ति का जश्‍न पूरे कोलकाता को तीन.चार रातों तक दोपहर की सी भीड़ में बदलत देता है और मध्‍यरात्रि में भी लग जाने वाले ट्रैफिक जाम को कन्‍ट्रोल करते जवानों की सीटियां, ढोल और ताशे की आवाज के विरूद्ध व्‍यवस्‍था को कायम रखने के लिए लगातार गूंज रही होती है। भीड़ की भीड़ सड़क के इस पार के पण्‍डाल से निकलकर सड़क के उस पार के पण्‍डाल में घुस जाना चाहती है। ठाकुर प्रतिमाओं के दर्शन के लिए। प्रकाश के संयोजन से दमकती प्रतिमाओं की आभाऐं ही भक्ति का सार्वजनीन रूप  बिखेरती है। जमींदारों के द्वारा सत्रहवीं सदी के आस पास शुरू की गयी पूजा पण्‍डालों की ठेठ अनुष्‍ठानिक पूजाओं के रूप को ही बीसवीं सदी ने सार्वजनीन  रूप दिया है।
यह मायके आयी बेटी के स्‍वागत का उत्‍सव है। उत्‍तराखण्‍ड के पहाड़ों में आयोजित ऐसे पर्व का नाम ही नन्‍दाजात है, जो विदाई का पर्व है। एक ऐसा धार्मिक पर्व, आस्‍थाओं का सिंदूर और पूजा प्रार्थनाओं के नियमबद्ध चरण, जिसको पारम्‍परिक वैधानिकता प्रदान करते हैं। उत्‍तराखण्‍ड में चौसिंगा खाडू (चारसिंग वाला बकरा) और बंगाल में कारीगरों द्वारा निर्मित दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी, गणेश और कार्तिक इसके पारम्‍परिक प्रतिक हैं। बंगाली भद्रलोक की मानसिकता में यह सांस्‍कृतिक विशिष्‍टता का सालाना आयोजन है, जिसे दुर्गा पूजा के नाम से जाना जाता है। लक्‍खी पूजा (लक्ष्‍मी पूजा), काली पूजा और सरस्‍वती पूजा इसके अन्‍य पड़ाव है।


बुद्धि और विवेक के लिए जाने जाने वाले कोलकाता में पूजा पण्‍डालों की इस ठेठ धार्मिक गतिविधि को ही सांस्‍कृतिक विरासत की तार्किकता से व्‍याख्‍यायित किया जाता है। तब से ही जब सारा बंगाल बदलाव के प्रतिकात्‍मक अर्थों से भरे लाल रंग से दमकता हुआ था। बल्कि उस दौर ने ही ''तर्क'' की जिद्दीधुन में ऐसे आयोजनों को विशिष्‍ट कलात्‍मक प्रयोगों का दर्जा माना। पूजा कमेटियों के स्‍वतंत्र गठन के बावजूद विशिष्‍ट अंदाज में नियंत्रण बनाये रखा। पूजा पण्‍डालों में इंक्‍लाबी किताबों के स्‍टाल उनकी प्रत्‍यक्ष उपस्‍थतियों के साक्ष्‍य होते रहे। आज बहुरंगी होते जा रहे बंगाल में बचे हुए लाल रंगों के अवशेषों वाले इलाके के बीच उनकी ऐसी ही उपस्थिति को नेताजी नगर के उस पूजा पण्‍डाल में साक्षात देखा जा सकता है जहां एक विशेष पूजा पण्‍डाल के ही सामने बहुरंगी राजनीति के समर्थन से पोषित पूजा पण्‍डाल भी होड़ करता हुआ है। यह अंदाजा लगाना मुश्‍किल नहीं कि दो भिन्‍न राजनैतिक समर्थकों की पूजा कमेटी इन पूजा पण्‍डालों का जिम्‍मा निभाये होगी। भीतरी बुनावट में त्रिशूल भाले और फर्शे लहराते दोनों पण्‍डाल समान है और बाहरी रूप का फर्क सिर्फ इतना ही है कि एक बुद्ध की आकृति में सजी भव्‍यता के रूप में है तो दूसरा बिल्‍डर, प्रोमटरों की मानसिकता में ठेठ सधी हुई आक़ति वाली छवी बिखेरता हुआ, अपनी.अपनी 'थीम' के साथ दोनों ही। बुद्ध की आकृति में ढले पण्‍डाल की खूबी है कि सांस्‍कृतिक दिखने की अतिश्‍य कोशिश में वहां जगह जगह इस्‍तेमाल किये त्रिशूलों को लाल रंग की चुनरियों से बंधा कर उस विशिष्‍ट राजनैतिक विचार के साथ जोड़ने की कोशिश हुई है जो अपनी साक्षात उपस्थिति में पण्‍डाल के बाहर इंक्‍लाबी कितबों की दुकान सजाये शालीन बुजर्गो की उपस्थिती वाली है। साम्‍प्रदायिकता के मायने तय करती हमारी प्रगतिशीलता भी ऐसे ही तर्कों के आधार पर गढ़ी गयी, जिसने धर्म को निशाने में रखने की जरूरत महसूस नहीं की। बेशक, ऐसे मानदण्‍डों को आधार मानकर रचा गया साम्‍प्रदायिकता विरोध का साहित्‍य बदली हुई परिस्थितियों में साम्‍प्रदायिक लोगों का हथियार होता रहा। 
कलावादी नजरिये से बात की जाये तो दोनों ही पण्‍डालों में कारीगरों की कोशिश अप्रतिम है।
यूं कलावादी नजरिये को थोड़ा झटका देते हुए पण्‍डालों का जिक्र करना भी ज्‍यादा समीचीन होगा. एक उदयन मण्‍डल, नाकतल्‍ला का पूजा पण्‍डाल और दूसरा नेताजी जातीय सेवादल, टालीगंज का पण्‍डाल। पहले में जहां समुद्री लहरों पर हिचकोले खाती दुनियावी नाव की यात्रा की जा सकती है तो दूसरे में सूती धागों की बुनावट के जरिये हस्‍तशिल्‍प की कारीगरी को स्‍थापित करने की कोशिश को देखा जा सकता है। धार्मिक कर्मकाण्‍ड से एक हद तक किनारा करते से लगते ये थीम आधारित पण्‍डाल भी पूरी तरह कर्मकाण्‍ड मुक्‍त नहीं। यहां तक कि कुमारटूली का पण्‍डाल जो शिल्‍प वैशिष्‍टय में जीवन के उदय का चित्रित करता हो और चाहे मुहममद अली पार्क का शिवालय थीम। तेज अंधड़ भरी समुद्र की लहरों से उम्‍मीदों की आशा जगाती दैवी की प्रतिमा को देखकर ''आह'' और ''वाह'' के अलावा कोई दूसरा शब्‍द नहीं हो सकता। बेशक मंत्रोचार की प्रक्रिया में छूटे उच्‍छवास में इन शब्‍दों की उपस्थिति नहीं और कला के अप्रतिम सौन्‍दर्य का जादू बिखेरता कौशल है पर धार्मिक अनुष्‍ठानिक प्रक्रियाओं की संगत में जुड़े हुए हाथों की उपस्थिति से इंकार तो नहीं किया जा सकता न !

सांस्‍कृतिक विरासत के संरक्षण के नाम पर सुबह और शाम की संधि पूजाओं वाले अनुष्‍ठानिक कर्मकाण्‍ड ने पूरे कोलकाता में छोटे छोटे इतने सारे मंदिरों का निर्माण किया है कि हरिद्वार जैसी ठेठ धार्मिक स्‍थली में भी उनकी आनुपतिक संख्‍या पिछड़ जाये। बाजूओं में मंत्राये धागे और नग्‍न जडि़त अंगूठियों से भरी उंगलियों वाले बंगाली जनमानस को देखकर भ्रम होता है कि किसी वैज्ञानिक चेतना से भरे राजनैतिक विचार की वह कभी हिमायती रही है। पुलिसिया व्‍यवस्‍था के साथ जारी बली प्रथाओं वाला कोलकाता तो आश्‍चर्य में डालता है।
उपरोक्‍त पर बिना कोई अन्‍य टिप्‍पणी किये, यह कहना ज्‍यादा उचित है कि मनोगत आग्रहों से रंगों की व्‍याख्‍या करना ही कलावाद है। उत्सव का रंग उत्सव के मूल उद्देश्य से तय होता है.

Friday, August 1, 2014

उपन्यास अंश

एक हद तक अन्तिम ड्राफ्ट की ओर सरकते उपन्यास 'भेटकी" का यह एक छोटा-सा अंश है। कोशिश रहेगी कि अपने स्तर पर अन्तिम ड्राफ्ट को जल्द पूरा कर लूं और कुछ ऐसे मित्रों की मद्द से जो बेबाक राय देने में हिचकिचाहट महसूस न करते हों, के बाद ही ड्राफ्ट को उपन्यास का रूप दे सकूं।
वि.गौ.


ज्ञानेश्वर ने फार्म हाऊस में एक मस्त पार्टी एरेंज की। लोन आफिसर, जमीन का मालिक और प्रदीप मण्डल तीन ऐसे चेहरे थे जिनके ईर्द-गिर्द ही पार्टी की पूरी रौनक को सिमटना था। हकीकत भी इससे अलग नहीं थी। बल्कि प्रदीप मण्डल का अंदाज सबसे निराला था। ज्ञानेश्वर के घेरे के लम्पटों के चेहरों पर बहुत शालीन किस्म की मुस्कान थी। पार्टी की सारी जिम्मेदारियां वे बखूबी निभा रहे थे। नशे को कुछ अधिक रंगीन एवं पार्टी को लोन ऑफिसर की ख्वाहिश पर हसीन यादगार में तब्दील करने के लिए ज्ञानेश्वर ने नाच गाने की व्यवस्था भी की हुई थी। पैग हाथ में लिये वह खुद कभी इधर और कभी उधर आ जा रहा था। कहीं कोई चूक न रह जाये, उसका सारा ध्यान इसी पर था। बेहद सीमित अतिथियों वाली वह कोई मामूली पार्टी नहीं थी। पूरा माहौल उसे एक भव्य कार्यक्रम में बदल दे रहा था।

नाच गाना चालू था, ज्ञानेश्वर चाहता था कि आज की यह यादगार शाम अतिथियों के मन मस्तिष्क में किसी रंगीन वाकये की तरह दर्ज रह सके। मेहमान भी उसकी आत्मीयता के कायल हुए जा रहे थे।

अनौपचारिक-सी स्थितियों की औपचारिक अदायगी प्रहसन हो जाती है।

यूं, प्रहसन को प्रहसन की तरह से पकड़ने के लिए गम्भीरता की जरूरत होती है। लेकिन बहुत औपचारिक कार्यक्रमों की हू-ब-हू तर्ज पर जब कुछ वैसा ही किया जाये तो उस वास्तविक प्रहसन को बहुत साफ देखा जा सकता है, जिसे गम्भीर सी दिखने वाली स्थितियों के कारण पकड़ना बहुत मुश्किल हो रहा होता है। प्रदर्शन की भव्यता के भुलावे में दर्शक बहुत करीब घट रहे घटनाक्रम के साथ ही आत्मसात हुआ होता है। बहुत बेढ़ंगे तरह से सरके हुए परदे के पीछे का बेढंगापन उसकी निगाहों से छूट जाता है।

कार्यक्रम को वाचाल बनाने के लिए ज्ञानेश्वर को खुद वाचाल बनना पड़ रहा था। जो कुछ भी वह पेश कर रहा था, हर कोई हंसते हुए, दोहरा हो-होकर उसका लुत्फ उठा रहा था। उसके घेरे के लम्पटों को तो वैसे भी बेवजह हंसने की आदत थी। ज्ञानेश्वर का ज्यादा से ज्यादा करीबी हो जाने वाली अघोषित प्रतियोगिता में वे कुछ भी करते हुए होड़ कर सकते थे। फिर यहां तो मामला हंसने भर का ही था। उनकी किसी भी गतिविधि को आपे से बाहर हो गयी नशेबाजों की स्थिति नहीं कहा जा सकता था। लोन अधिकारी को कंधे पर बैठाकर नाचने की होड़ में वे लड़खड़ा रहे थे। घोड़े की उचकती पीठ पर सवारी करने का आनन्द उठाता लोन अधिकारी कभी इधर डोलता कभी उधर। खुद को संभालने की कोशिश में वह बहुत अराजक तरह से घ्ाोड़ों के चेहरों को ही भींच ले रहा था। जिसका अंदाजा ऊपर को चेहरा न उठा पाने की स्थितियों में फंसे घ्ाोड़ों का उस वक्त होता जब बहुत बेतुके ढंग से कोई एक हाथ उनके एक ओर के थोपड़े पर पड़ता। खुद को संभालने की कोशिश में लम्पटों के नाक, मुंह और गालों पर कितने ही चींगोडाें के निशान लोन ऑफिसर ने बना दिये थे लेकिन अभी तक किसी ने भी इस बात का बुरा नहीं माना था। आगे भी उनमें से कोई बुरा मानने की स्थिति में नहीं था। वे खुश थे और खुशी के उन पलों को हमेशा खून-खराबे में रहने वाली स्थितियों के साथ नहीं जीना चाहते थे। हर स्थिति के प्रति पूरी तरह सचेत थे और जानते थे कि बोस के मेहमान की हर ज्यादियों के बाद भी यदि वे उसे खुश रखने में सफल हो पाये तो करीब से करीब जाने का रास्ता तैयार होता रह सकता है। किसी भी तरह की गुस्ताखी पर चूतड़ों पर पड़ने वाली ज्ञानेश्वर की पहली किक के बाद अनंत किकों की स्थितियों से कोई भी अनभिज्ञ न था। दिमाग के संतुलन को नापने का पैमाना होता तो नशे के बावजूद लोन अधिकारी के चेहरे की मंद-मंद मुस्कराहटों को व्यक्त करना आसान हो जाता कि उन मासूम मुस्कराहटों की कितनी ही बिजलियां जो अभी तक मचलती हुई उसके चेहरे पर फिसल गयीं उनका धनत्व कितना रहा होगा। प्रदीप मण्डल और जमीन मालिक भी उसकी रोशनी में नहा गये थे। जमीन की कीमत की रकम का चैक, जिसे जमीन मालिक अगले दिन अपने खाते में जमा करने वाला था, ज्ञानेश्वर ने उसे साथ लेते आने की हिदायत उसी वक्त दे दी थी ज बवह उसे पकड़ाया जा रहा था। इस वक्त जमीन मालिक को वही चैक अपनी गंजी की अंदरूनी जेब से बाहर निकालने का इशारा ज्ञानेश्वर ने इतने चुपके से किया कि जमीन-मालिक के अलावा किसी को नहीं दिखा। ऑरकेस्ट्रा की धुन पर बहुत धूम धड़ाका कर रहे गायक के हाथ का माइक, ज्ञानेश्वर ने अपने हाथ में ले लिया था।

''हां तो हाजरिन आज की इस रंगीन शाम हम आप सबके साथ हमारे आज के अजीज मेहमान श्रीमान गोगा साहाब का हृदय से आभार करते हैं। हमारे इस गरीब तबेले पर पहुंच कर उन्होंने हमारा मान बढ़ाया है। श्रीमान गोगा की तारीफ में ज्यादा कुछ न कहते हुए सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि दुखियारों के दुख के संकटों के निवारण में वे हमेशा बढ़-चढ़ कर आगे रहे हैं और अपनी कलम की नोंक पर बैठी उस चिड़िया को बेझिझक उन कागजों में बैठाने में भी उन्होंने कभी गुरेज न किया जिनके मायने एक जरूरतमंद का सहारा बन जाते है। उनके कलम की नोंक की चिड़िया की उड़ान पर ही हमारे सबसे प्रिय मित्र, बड़े भाई प्रदीप मण्डल ने जो ताकत हासिल की है वह किसी से छुपी नहीं है। आज का यह जलसा गोगा साहाब के हाथों भाई प्रदीप मण्डल को नवाजा जाने वाला यादगार दिन बन कर हमारे सामने है। मैं गोगा साहाब से अनुरोध करता हूं अपने पावन कर कमलों से दादा प्रदीप मण्डल को अपने हाथों वह चैक अदा करें जिसमें लाखों के वारे न्यारे करने की ताकत है। बारह लााख रूपये का तौहफा जरूरतमंद का सहारा बने।"

सभी का ध्यान ज्ञानेश्वर की ओर था। मानो उसे सुनने के लिए ही इक्टठा हुए हों। कुछ क्षणों के लिए माहौल का खिलंदड़पन जाने कहां गायब हो गया था। इधर-उधर की कह लेने के बाद जमीन-मालिक से अपनी कस्टडी में कर लिये गये चैक को बाहर निकाल कर उसने ऐसे लहराया कि मानो अभी उसे हवा में उड़ा देना चाहता हो। लोन अधिकारी गोगा साहब के हाथों प्रदीप मण्डल को सौंपे गये चैक का दृश्य वह फिर से जीवन्त कर देना चाहता था। उसकी कोशिश थी कि वास्तविक घटनाक्रम से जुड़ी ऐसी ही गतिविधियों की नकल के जरिये ही वह पार्टी को एक अनोखा रंग दे सकता है। उसके मौलिक अंदाजों ने हर एक को उत्साह से भर दिया था। हर कोई अपने को उन घट चुकी घटनाओं का जीवन्त हिस्सा महसूस कर रहा था। प्रदीप मण्डल के चेहरे पर तो पहली बार हाथ में आ रहे चैक की सी खुशी झलक रही थी। गोगा साहब भी डोलते हुए ऐसे खड़े हो रहे थे मानो चैक को किसी दूसरे के हाथों में सौंपनस ही नहीं चाहते हों। लेकिन मजबूर करता बैंक कर्मचारीपन लोन प्राप्त करता के सामने असहाय हो जा रहा हो। ज्ञानेश्वर ने हाथ आगे बढ़ा कर चैक उनका सौंपना चाहा तो नशे की लड़खड़ाहाट में गोगा साहब चैक पकड़ने से सूत भर फिसल गये और संभलने की कोशिश में डगमगाने लगे। गिरने-गिरने को थे। लेकिन ज्ञानेश्वर ने तेजी से लपक कर संभाल लिया। गोगा साहब की पेंट की जिप खुली हुई थी। नाच-गाना रूका हुआ था। किनारे खड़ी डांसिंग गर्ल्स के साथ-साथ सामने बैठे ज्ञानेश्वर के घेरे के हर लम्पटों तक की निगाह खुला हुआ लेटर बाक्स अटक रहा था। जोरदार हंसी का फव्वारा छूट गया। किसी लम्पट की फब्तियां हंसी का तूफान उठा देने वाली थी,

''अरे गोगा साहाब लोकर खुला पड़ा है उसे बंद कर लो वरना खुले लोकर पर धावा बोलने वालों की कमी नहीं यहां।"

हो हो हो की आवाज में कितने ही स्वर थे। लम्पटों की निगाहें सामने खड़ी डांसिग गर्ल्स को ताकती हुई थीं। बहुत तेज आवाज में दूसरी ओर से कोई कह रहा था,

''किस्तों की रकम वाले लॉकर का ग्राहक कोई नहीं यहां गोगा साहेब, बंद कर लो इसका ढक्कन।''

''गोगा साहब यदि उंगलिया कांप रही हों तो कहिय---बंद करने को बहुत सी मुलायम-मुलायम उंगलियों का इंतजाम किया है हमारे बोस ने।"

हंसी थी कि थम ही नहीं रही थी। बहुत तीखे नैन नक्श और बेहद तंग चोली वाली डांसिंग गर्ल की आंखों में बहुत खिलखिलाहट थी। अपनी उपस्थिति को उसकी आंखों में देखने को उत्सुक हर कोई, बहुत बढ़-चढ़ कर फब्तियां कसने लगा। डांसिग गर्ल का ध्यान सिर्फ ज्ञानेश्वर की ओर था। ज्ञानेश्वर से निगाहें मिलते ही उसने अपने बदन को कुछ इस तरह हिलाया था, घास में लोट लोट कर थकान मिटाती घोड़ी जैसे बीच-बीच में बदन को झटकती है, और नजरों को मटकाते हुए जाने ऐसा क्या कहा कि हंसी की बहुत तेज फुलझड़ियां भी मंद मुस्काराहटों में बदल गयी। पुकारे गये अपने नाम सुन कर प्रदीप मण्डल चैक लेने के लिए कुछ ऐसे खड़ा हुआ था मानो किसी महत्वपूर्ण पारितोषिक समारोह में हो। बहुत ही विनम्र होकर चैक को दोनों हथेलियों के बीच थामते हुए वह गोगा साहब से हाथ मिला रहा था। कुछ देर को खामोश हो गया ऑरकेस्ट्रा ड्रम गिटार और दूसरे वाद्य यंत्रों के स्वर हॉल को झन-झनाने लगा था। डांसिग गर्ल्स की करतल ध्वनियों पर चिल्लाहटों के तेज स्वर में लम्पटों के हाथ भी स्वत: तालियां की गूंज बन गये। सम्मान की रस्म अदायगी का यह पहला पड़ाव था। माइक पर ज्ञानेश्वर की आवाज फिर उभर रही थी।

''दोस्तों दादा प्रदीप मण्डल जैसे शख्स की महानता का बखान शब्दों में नहीं किया जा सकता। हमारे इस बेहद पिछड़े इलाके के बीच प्रदीप मण्डल सरीखे अपने मित्रों के दम पर ही हमने इलाके की तस्वीर संवारने की जिम्मेदारी ली है। यह जिम्मेदारी स्वैछिक है। किसी सरकारी एजेन्सी ने नहीं सौंपा है कि तन्ख्वाह के खतिर हमें इसके लिए खटना हो। गैर सरकारी संस्थाओं का विकास के नाम पर गांट हथियाऊ मामला भी हमारा नहीं। हम तो सचमुच में जन विकास की चिन्ताओं के साथ अपने नागरिक कर्तव्य को निभाना चाहते हैं। वरना आप ही बताइये--- ऐसी बंजर भूमि जो कि वर्षों से पूर्वज की जायदाद कह कर संभालने वालों के लिए ही जब एक दम निरर्थक साबित हो रही हो तो अपने जीवन की आज तक की गाढ़ी कमाई को यहां फूक देने वालों को क्या दे देने वाली है। इस पर भी दादा प्रदीप मण्डल ने हमारे आग्रह को स्वीकारा और हमारे बुजर्ग, नवाब सैनी साहब, जिनके जीवन का मामला इस बंजर भूखण्ड की चौकीदारी से तो चलने वाला था नहीं, उसके एक छोटे से हिस्से के बदले अच्छी खासी रकम से उन्हें नवाजने का फैसला लिया, हम उनके शुक्रगुजार हैं। मैं दादा से अनुरोध करता हूं कि अब वे अपने हाथों ही उस चैक को नवाब काका को सौंपने का कष्ट करें जो हमारे गोगा साहब ने बैंक के बिहाफ से उन्हें अभी कुछ क्षण पहले सौंपा है, ताकि इस दुर्लभ दिन का बखान करने का अवसर हमें मिल सके और इलाके के दूसरे जरूरत मंद भी बिना हिचकिचाये हमारे इस पुनीत कार्य में शामिल हो सके और इलाके को संवारने में बढ़-चढ़ कर आगे आ सके हैं। हम हमारे बड़े भाई, दोस्त और ऐसे सामाजिक कार्य के लिए हमेशा हमारे साथ खड़े रहने वाले बैंक के लोन अधिकारी गोगा साहब के भी आभारी हैं, जिनके सहयोग से ही प्रदीप मण्डल सरीखे हमारे दोस्त उस ताकत को हांसिल कर पाता है जिसमें वे अपने सामाजिक जिम्मेदारी को तत्काल निभा सकने की एक मुश्त ताकत हांसिल कर पाते हैं। दोस्तों हमें विश्वास है कि बंजर पड़ी सारी जमीनों को हम प्रदीप सरीखे अपने दोस्तों की मद्द से गांव के विकास के रास्ते खोलने के अवसर उपलब्ध करा सकेगें। यह आंकड़ों में सुना जा रहा एफडीआई नहीं बल्कि सीधे निवेशित होती पूंजी से गांव भर के लोगों के जीवन को रोशन करने वाला होगा। इस तरह से मिलने वाली रकम का एक बड़ा हिस्सा उन सभी आधारभूत जरूरतों पर खर्च करने के दूसरे आकर्षक प्रोग्राम भी हम गांव वालों की सुविधा के लिए बनवाना चाहते हैं जिससे हमेशा के अपने वंचित जीवन में वे भी खुशीयों की आधुनिकता लाने में सक्षम हों और आधुनिक उपभोग का वह सारा बाजार बिना हो हल्ले के उनके घरों के भीतर, कीचन के भीतर उनकी सेवा में हर वक्त मौजूद रह सके। गांव भर स्त्रियां बेवजह के कामों में जो अपने जीवन के कीमती समय को बेइंतिहा नष्ट करने को मजबूर हैं, एक हद तक छुटकारा पा सके और बचे हुए समय में दुनिया जहान की खबरें देते कार्यक्रमों का लुत्फ ही नहीं बल्कि कुछ हंसोड़ किस्म के दूसरे कार्यक्रमों को देखने का समय भी उन्हें हांसिल हो सके। "

चैक अदायगी की रस्म ने फिर से हो-हल्ले की संरचना कर दी। प्रदीप मण्डल खुश था कि जमीन खरीदने का उसका उपक्रम मात्र बैंक से लिये जाने वाले लोन का मामला भर नहीं बल्कि एक सामाजिक कर्म भी है। नवाब सैनी ही नहीं ज्ञानेश्वर के घेरे में बोक्सा जनजाति के तमाम युवकों के भीतर प्रदीप मण्डल के लिए गहरा सम्मान उपज रहा था। ज्ञानेश्वर का एक ही तीर कई-कई लक्ष्यों को बेध रहा था।

Sunday, October 13, 2013

कोरस

लिखे जा रहे उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा-      विजय गौड़



संगरू सिंह रिकार्ड सप्लायर था और रिटायरमेंट की उम्र तक पहुंचने से काफी पहले ही मर चुका था। अनुकम्पा के आधार पर संगरू के बेटे को अर्दली की नौकरी पर रख लिया गया था। उस वक्त उसकी उम्र मात्र बीस बरस थी। वह संगरू सिंह का बेटा था पर संगरू नहीं। संगरू सिंह ने उसे पढ़ने के लिए स्कूल भेजा था। वह एक पढ़ा लिखा नौजवान था और दूसरे पढ़े लिखों की तरह दुनिया की बहुत-सी बातें जानता था। बल्कि व्यवहार कुशलता में उसे कईयों से ज्यादा सु-सभ्य कहा जा सकता था। उसका नाम ज्ञानेश्वर है और धीरे-धीरे डिपार्टमेंट का हर आदमी उसे उसके नाम से जानने लगा था।
अर्दली बाप का नौजवान ज्ञानेश्वर दूसरे नौकरी पेशा मां-बाप की औलादों की तरह रूप्ाये कमा लेने और तेजी से बैंक बैलेंस बढ़ा लेने को कामयाबी का एक मात्र लक्ष्य मानता था और जमाने भर में चालू, अंधी दौड़ में शामिल होने के हर हुनर से वाकिफ हो जाना चाहता था। उसकी कोशिशें इन्वेस्टमेंट के नये से नये प्लान, और हर क्षण खुलते नम्बरों के साथ लाखों के वारे न्यारे कर लिए जाने के साथ रहती। इकाई के अंकों में ही अनंत दहाइयों का रहस्य छुपा है और जीवन का गणित ऐसे ही सवालों को चुटकियों में हल करने के साथ ही सफल हो सकता है, उसका जीवन दर्शन बन चुका था। सुबह से शाम तक कभी अट्ठा, कभी छा तो कभी चव्वे की आवाजें उसके भीतर हर वक्त गूंजती रहती थी। गोल्डन फारेस्ट से लेकर गोल्डन ओक, गोल्डन पाइन जैसे नामों वाली वित्तिय गतिविधियों के कितने ही गोल्डन-गोल्डन एजेंट उसके साथी थे। फुटपाथों पर कम्पनी के शेयर संबंधी कागजों की भरमार और कानाफुसी का चुपचाप बाजार जब खरीद पर भी कमीशन देने की उपभोक्तावादी नयी संस्कृति को जन्म दे रहा था, ज्ञानेश्वर अपने मित्रों परिचितों को अपनी अदाओं के झांसे में फंसाकर उनके भीतर के ललचाघ्पन को और ज्यादा उकसाने में माहिर होता जा रहा था। खामोश रहने और मंद-मंद मुस्कराने की निराली अदाओं को उसने इस हद तक आत्मसात कर लिया था कि उसके मोहक आकर्षण का दीवाना, कोई परिचित, रिश्तेदार जब उसके करीब आता तो वह उसे चुपके से और करीब से करीब आने का आमंत्रण दे चुका होता। ऐसे ही करीब आ गये प्रशंसक को वह किसी होटल की भव्यता के दायरे में लगती विस्तार वादी बाजार की कक्षाओं के महागुरूओं के हवाले कर देता। ब्रोकरो, स्टाकिस्टों और बिचौलिये के बीच बंटकर गुम हो जा रहे मुनाफे से बचने की चेतावनी को जरूरी पाठ मान लेने वालों की एक लम्बी श्रृखंला तैयार कर लेने की उसकी कोशिशें बेशक उसे आसानी से कामयाब बना देने में सहायक थी लेकिन साल-छै महीने के अन्तराल में ही उसे एहसास होने लग जाता कि महागुरूओं की आवाज का जादुईपन एक सीमा ही है। लगायी गयी रकम का रिर्टन न मिलने से निराश हो चुके परिचितों को दोपहिया से चोपहिया तक ले जा सकने के सपने दिखाना फिर उसके लिए आसान न रहता और धंधा बदलने को मजबूर हो जाना पड़ता। 

Friday, October 19, 2012

करतब दिखाती लड़की





फांस २०११ में प्रकाशित मेरा पहला उपन्यास है। आज (१९/१०/२०१२) सड़क से गुजरते हुए उपन्यास के पात्रों से नये सिरे से मुलाकात हुई। कुछ तस्वीरें हैं जो नायिका की हैं। नायिका से संबंधित उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा यहां शेयर कर रहा हूं। तस्वीरें आज शाम की हैं।
तब से आज तक जीने के लिए जान को जोखिम में डालने वाली यह लड़की देखो तो कैसे इतरा रही है न!!
जब से साइकिल वाले ने मजमा लगाया, छोटे ने वहीं अपना अड्डा जमा दिया। सुबह और शाम के वक्त जब दर्शकों की बेतहाशा भीड़ होती और साइकिल वाला तरह-तरह के करतब दिखाता तो छोटे को बड़ा मजा आता।  
अनवरत, सात दिनों तक साइकिल चलाने वाला वह शख्स इसी कारण छोटे का प्रेरणा स्रोत बनता जा रहा था। स्कूल जाने की बजाय वह दिन भर ही वहीं मण्डराता रहता। सुबह घ्ार से निकल जाता और देर रात को, जब साइकिल वाला स्वंय, बड़े प्यार से-अपने अजीज छोटे और सागर को खुद घर के लिए रवाना करता, तब ही घर पहुँचता। शाम के वक्त जब साइकिल वाला करतब दिखा रहा होता तो उस वक्त साइकिल पर सवार उसकी बेटी रीना भी साथ-साथ होती। अपने पिता के जैसे वह भी तरह-तरह के करतब दिखाती। उस छोटी सी लडकी के करतब तो छोटे को आश्चर्य से भर देते और उकसाने लगते- 'जब इतनी पुच्ची-सी यह।।।ये सब कर सकती है।।। तो मैं क्यों नहीं ?"
लोहे के गाल रिंग को वह गले में डालती और मुश्किलों से, गर्दन भर की गोलाई बराबर, रिंग के घेरे को नीचे पाँवों तक पहुँचा देती। छोटा ही नहीं हर कोई अचम्भित होता। तनी हुई रस्सी पर संतुलन बनाकर चलते हुए उसके चेहरे पर जो मुस्कान बिखर रही होती, छोटा उसमें नहाने लगता। देखने वाले तालियां पीटते। पर तनी हुई रस्सी पर करतब दिखाती रीना को साक्षात देखना तो छोटे के लिए संभव ही न होता। यदि देख पाता और हाथ खुले होते तो खूब तालियां पीटता। वह तो उस वक्त कंधे का पूरा जोर लगाते हुए खम्बे को थामे हुए होता। निगाहें जमीन की ओर झुकी होतीं। शरीर की पूरी ताकत कंधें पर सिमट आने की वजह से माथे पर तनाव उभर आता। भौहों पर एकाएक उठ आया माँस ऊपर कुछ दिख जाने की संभावना को भी खत्म कर देता। उस वक्त तो  सिर्पफ दर्शकों की तालियों को से ही महसूस कर सकता था कि रस्सी पर छाता ताने चलती रीना गजब की खूबसूरत दिख रही होगी। 
खम्बा कंधे के जोर पर टिका होता और दोनों हाथ खम्बे को कसकर पकड़े होते।
रस्सी जिन खम्बों पर बंधी होती उन खम्बों को पकड़ने के लिए दो मजबूत आदमियों की जरूरत थी। मजबूती ऐसी कि जिनकी पकड़ में कसे हुए खम्बों पर जो रस्सी तनती, उस पर ही वह अदाकारा लड़की एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ती, ठुमके लगाती। खम्बे जमीन में गाड़े नहींं जा सकते थे। करतब दर करतबों की श्रंृखला को स्थायी तौर पर गड़े खम्बों के साथ जारी रखना संभव न था। गड़े हुए खम्बों को जल्दी से हटाना संभव नहीं। और हटा भी दें तो छुट जाने वाले गड्ढों को कैसे भरें !  मजबूत, बलिष्ठ कंधें के जोर पर ही करतब को संभव किया जा सकता था। साइकिल वाले ने साइकिल पर चढ़े-चढ़े ही गोल घ्ोरे में घ्ाूमते हुए गुहार लगायी।

- मेहरबानों, कद्रदानों ।।।! ।।।।मैं।।।अपना आज का खेल शुरू करने से पहले।।।आप लोगों की दाद चाहता हूं।।।।

दर्शकों की करतल ध्वनि  गूँज गई।

-।।।मित्रों आज दूसरा दिन है।।।।कल आपने मेरी बेटी रीना को रिंग से पार होते देखा। ।।।आज भी देखोगे।

साथ-साथ चलती रीना के चेहरे पर उल्लास की रेखा खिंचती रही। छोटा नहाता रहा

- रीना आज आपके सामने वो करतब दिखायेगी।।।जिसे देखते हुए ।।। आपकी निगाह रुकी की रुकी रह जाएगीं।

दर्शकों की करतल ए"वनि के साथ-साथ गोल घेरे में चल रही रीना ने झटका देकर अपनी साइकिल के अगले पहिए को उसी तरह उठाया जिस तरह अक्सर, किशोर उठाता। पर वह उतनी कुशल नहीं थी कि पिता की तरह एक ही पहिये पर पूरा गोल चर काट सकती थी। बस एक सीमित दूरी तक ही साइकिल को साध् पाई। लड़खड़ाते हुए संभलने की कोशिश का वह क्षण ऐसा रोमंचकारी था कि पाँव जमीन पर टिकने की बजाय साइकिल के अगले रिम की किनारियों में पँफस गए। ठीक वैसे ही जैसे किशोर दोनों पाँवों को मात्रा एक इंच की चौड़ाई वाले रिम में में फंसा देता और एक हाथ से हैण्डल को थाम कर दूसरे हाथ से अगले पहिए को ढकेल कर आगे बढ़ा रहा होता। उसकी उम्र के घेरे में मौजूद दर्शकों की हथेलियां अनूठे अंदाज में करतब दिखाती अदाकारा के लिए यकायक खुल गईं। असपफलता का नहीं सफलता का वह बेहद मासूम क्षण था जिसने रीना को उत्साह से भर दिया। किशोर के चेहरे पर भी एक आश्चर्यजनक मुस्कराहट थी।

- हाँ तो दोस्तो।।।रीना जो करतब दिखायेगी ।।। उसके लिए मैं।।।दो मजबूत, बलिष्ठ आदमियों से दरखास्त करता हूँ ।।। वे आएं और मजबूती से इन खम्बों को पकड़क़र खड़े हो जाएं ।।। एक इध्र।।।और।।।दूसरा उध्र। ।।। अपने कंधें की ताकत पर यकीन हो तो चले आओ दोस्त। ।।। खम्बों पर तनी रस्सी पर ही रीना चलकर दिखायेगी।

कोई आगे न बढ़ा। मैदान के बीच जाकर, खम्बा पकड़ लेने का साहस, संकोच की चादरों में लिपटा रहा साइकिल वाले ने दूसरी बार गुहार लगायी। कोई सुगबुगाहट नहीं। हर कोई खेल देखना चाहता था, खेल का हिस्सा होना नहीं चाहता था। कंधें के जोर पर यकीन कैसे करें, सवाल मुश्किल था। कहीं भसक ही न जाए कंध ! क्यों बैठे ठाले ले लें पंगा। आशंकाएं चुप्पी की भाषा में तब्दील हो चुकी थी।
संकोच के लबादे को एक ओर पेंफक, छोटा आगे बढ़ा और अपने हर अच्छे-बुरे वक्त के साथी, सागर को भी खींच लिया था। सागर की देह ऐसी कि कमीज के टूटे हुए बटन से झांकता छाती का पिंजर। मनुष्य के शरीर की भीतरी संरचना के पाठ को पढ़ाने में भी उसकी मदद ली जा सकती थी। साइकिल वाला दोनों ही बालकों की कद काठी के कारण उनकी शारीरिक क्षमता का आकलन नहीं कर पाया। बल्कि उनको देखकर तो कुछ दर्शक भी खिलखिलाने लगे। लिहाजा साइकिल वाले ने एक बार पिफर गुहार लगायी।

- देखिए भाई लोगों ।।। इन दो होनहार बालकों ने अपना साहस दिखाया है।।।।।।। मैं दोनों ही बच्चों का सम्मान करता ।।।इनकी हिम्मत की दाद देता  ।।। पर भाईयों ये बच्चे इतने छोटे हैं कि खम्बे को अपने शरीर के जोर पर रोक न पायें।।।शायद ।।। मेरी गुजारिश है ।।। मजबूत कद-काठी के मेरे भाई ।।। अपने संकोच को छोड़कर ।।। आगे बढ़े ।।। और देखें कि मेरी बेटी रीना कैसे तनी हुई रस्सी पर।।।एक सीरे से दूसरे सीरे तक चलकर ।।।। आप लोगों को कैसे आनन्दित करेगी।

अपनी जाँघों के दम पर साइकिल के हैण्डल को थामे, आदमकद लम्बाई के बावजूद किशोर की आवाज में एक दयनीय पुकार थी-दर्शकों से की जा रही गुहार। कहीं कोई प्रतिक्रिया न हुई। खामोशी चारों ओर व्याप्त हो गई। पिता के साथ गोल घेरे में चक्कर काट रही रीना की आँखों में करतब दिखाने की चंचलता थी। साइकिल वाला वैसे ही गोल चर लगाता जा रहा था, जैसे उसे अगले पांच दिनों तक अनवरत लगाने थे।
साइकिल वाले की बार-बार लगायी गई गुहार पर भी कोई आगे न बढ़ा। साइकिल वाला सागर और छोटे के कंधें की ताकत और खम्बों पर उनकी पकड़ पर अपना विश्वास जमा नहीं पा रहा था। उसकी हर अगली गुहार पर छोटा अपने को और छोटा महसूस करने लगा। उसे साइकिल वाले का व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। गुस्सा उसके भीतर था पर मन ही मन वह बड़बड़ाता रहा- 'एक बार मौका तो दे के देख ।।। मजाल है खम्बा अपनी जगह से एक सूत भी खिसक जाए।'
अनेकों पुकारों के बाद भी जब कोई आगे न बढ़ा तो छोटा और सागर ही विकल्प के रूप में बचे रह गए। करतब तो दिखाना ही था। दोनो ही बच्चों की मदद से साइकिल वाले ने करतब दिखाने की ठान ली। लेकिन एक आवश्यक सावधनी उसने ले लेनी चाही, जो वैसे भी उसे लेनी ही थी। छोटे और सागर को एक पफासले पर आमने-सामने खड़ा होने की हिदायत देते हुए उसने जमीन पर उन जगहों को चिहि्नत कर-जहाँ लकड़ी के खूँटे गाड़े जाने थे, निशान मार देने को कहाँ

- मेरे बहादुर बच्चों।।।वहाँ दो लकड़ी के खूंटे रखे हैं ।।। उठा लाओ।

गोल घेरे के बाहर, जहाँ साइकिल वाले का सामान रखा था, छोटे और सागर वहाँ उलझे सामानों के बीच रखे, एक ओर से नुकीले, लकड़ी के दो भारी-भारी खूंटे उठा लाए।

- बहादुर बच्चों।।।जहाँ तुमने निशान लगाये हैं।।।वहीं पर दोनों को गाड़ दो। ।।। लकड़ी के इन खूँटों के सहारे ही तुम्हे खम्बे को टिकाना है और अपने कंधें के जोर पर उन्हें थामना है ।।। यह खूँटे तुम्हे मदद पहुँचायंेगे।।।।

सागर दौड़ कर गया और सामानों के साथ ही रखे एक भारी भरकम हथौडे को उठा लाया और खूँटों को ठोकने लगा। दोनों का ही उत्साह देखने लायक था। किसी प्रकार का संकोच उनके भीतर न था। लकड़ी के खूँटों को मजबूती से गाड़ दिया गया। मजबूती ऐसी कि भैंसे को बांध् दिया जाए तो पूरे जोर लगाने के बाद वह भी न उखाड़ सके। करतब के लिए मैदान तैयार हो गया। छोटे और सागर ने अपने-अपने खम्बों को खूँटों के सहारे टिका दिया। दोनों खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी खम्बों के एकदम सीधे होते ही खिंच गई। खूँटों के सहारे खम्बों को टिका दिया गया। दोनों ने ही अपनी पकड़ को मजबूत किया। जाँघ से लेकर कंधे तक का जोर लगाकर खम्बों को सीध किया। खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी पूरी तरह से तन गयी। अब किसी प्रकार का भी झोल उसमें दिखायी नहीं दे रहा था। रस्सी पर करतब दिखाने से पहले रीना ने उसके तनाव और खम्बों पर सागर और छोटे की पकड़ की मजबूती जांचनी चाही। साइकिल पर चलते हुए ही उसने दूसरी रस्सी में लंगड़ बांध् ऊपर को उछाल दिया। तनी हुई रस्सी पर फंदा डालने का उसका अंदाज निराला था। सागर और छोटे बेखबर थे। उनका सारा ध्यान तो इसी पर टिका था कि कब और कैसे रीना तनी हुई रस्सी पर चढ़ती है। तनी हुई रस्सी के दूसरी ओर निकल आए लंगड़ का पंफदा बना उसने जोर का झटका दिया। झटके के साथ ही कांप रस्सी ने दोनों ही ओर के खम्बों समेत छोटे और सागर भी लड़खड़ा दिया। हँसी का ऐसा फव्वारा छूटा, जिसमें रीना की हँसी की खनक भी शामिल थी। साइकिल वाला भी मुस्कराने लगा।

- कोई बात नहीं जवानों।।।कोई बात नहीं । बस ।।।एकदम सावधन रहो मेरे बच्चों ।।। तुम्हारे कंधें की ताकत पर ही मेरी बेटी रीना।।।या तो हुनरमंद करतबबाज कहलायेगी।।।या अनाड़ी। चलो अबकी बार पिफर से तय्यार हो जाओ ।।।। खम्बों को मजबूती से पकड़ लो ।।। कीलड़ों का सहारा नहीं हटना चाहिए ।।। रीना एक बार फिर से रस्सी को खींचकर देखेगी। खम्बे जरा भी हिले ।।। या झुके ।।। तो रस्सी का तनाव कम हो जाएगा। ।।। बस।।।समझ लो मेरे बहादुर बच्चों।।।वही क्षण हवा में झूलती रीना को नीचे पटक देगा ।।। तुम्हारे हाथों में मेरी इज्जत है मेरे बच्चों।।।!! ।।। चलो एक बार पिफर तय्यार हो जाओ और अपने शरीर के जोर पर रोको खम्बें।

रीना ने एक बार पिफर वैसे ही जोर का झटका दिया। छोटे और सागर अबकी बार मुस्तैद थे। अपने जिस्म की पूरी चेतना के साथ खम्बों को उन्होंने थामा हुआ था। कैसा भी झटका उनकी पकड़ को ढीला नहींं कर सकता था। रस्सी का तनाव ज्यों का त्यों बना रहा तालियों की जोरदार आवाज स्वाभाविक ही थी। छोटा भीतर ही भीतर गर्व से भर गया। सागर भी। रीना ने एक और अप्रत्याशित प्रयास थोड़े अंतराल में पिफर किया, यह जांचने के लिए कि कहीं सागर और उसका साथी छोटा पिफर से लापरवाह तो नहीं हो गए। पर खम्बों पर पकड़ पहले से भी मजबूत थी। आश्वस्त हो जाने के बाद साइकिल को एक ओर छोड़, लम्बे-लम्बे बाँस के डण्डों में बने कुंडों में दोनों पाँव पँफसा रीना डण्डों के सहारे खड़ी होने लगी। छटांक भर की लड़की पलक झपकते ही आसमान को छूने लगी। लम्बे-लम्बे बाँसों पर खड़ी वह हवा में चलती हुई सी लग रही थी। उसके चेहरे पर उल्लास था। दर्शकों को उसका चेहरा देखने के लिए अपनी-अपनी गर्दन को इस कदर उठाना पड़ रहा था कि एक बार को भ्रम हो सकता था कि वे तो आकाश को ताक रहे हैं। छोटे और सागर चाहकर भी गर्दन नहींं उठा सकते थे। खम्बों के लचक जाने का भय उन्हें छूट नहीं दे रहा था। वे तो बाँसों पर चढ़ी आदमकद ऊँचाई को छूती रीना का होना, बस गोल घेरे में चक्कर काटती दो बल्लियों के रूप में ही महसूस कर सकते थे- वह भी तब, जब वह साइकिल पर चर लगाते अपने पिता के साथ-साथ बाँसों के सहारे चलती हुई उनके एकदम नजदीक से गुजर रही थी।
बाँस के डण्डे जो उसके पाँवों में पँफसे थे, न जाने कब हटे कि वह तनी हुई रस्सी पर खड़ी हो गयी। हाथों को शरीर से बाहर की ओर पूरा खोलकर एक कुशल करतब बाज की तरह वह तनी हुई रस्सी पर चल रही थी। दर्शक झूम रहे थे और जिनकी करतल ध्वनियों से पूरा माहौल गूँज रहा था। लड़की अपना संतुलन बनाये हुए जितनी एकाग्र थी, छोटे और सागर की एकाग्रता को उससे उन्नीस नहीं कहा जा सकता था। हवा में उछलकर जब लड़की जमीन पर कूद गई तो छोटे और सागर की तनी हुई माँस-पेशियाँ अपनी सामान्य स्थितियों में लौटने लगी। उनके शरीर पसीने से भीग चुके थे। साइकिल वाला दोनों ही लड़कों के प्रति कृतज्ञ हो रहा था। लड़की फिर से साइकिल पर चढ़कर अपने पिता के साथ-साथ गोल चर काटने लगी। उसके करतब से प्रभावित हुए पहले से ही ढीली जेबों वाले दर्शक, अपनी उन जेबों को पूरी तरह से उलट कर ढीला कर देना चाहते थे। लड़की के हुनर का सम्मान करने के लिए अपनी भावनाओं का प्रदर्शन वे इसी तरह कर सकते थे। भारी जेब वालों की उंगलियां उनकी जेबों में फंसकर रह जा रही थी। 
(उपन्यास अंश- फांस)

 

Thursday, October 18, 2012

मनुष्यता का दैहिक यथार्थ



किसी भी रचना की विविध व्याख्यायें संभव है। रचना के मंतव्य के आधार पर, शिल्प या विषय वस्तु के आधार पर। रचना के काल और पृष्ठभूमि के आधार पर। प्रशंसक की अपनी मन:स्थिति भी व्याख्या का आधार होती है। इतिहास को भी तथ्य आधारित रचना ही माना जा सकता है। क्योंकि तथ्यों का चुनाव और उनका प्रस्तुतिकरण इतिहासकार की दृष्टि का हिस्सा हुए बगैर स्थान नहीं पा सकते। सवाल है विविध के बीच सबसे उपयुक्त व्याख्या किसे स्वीकारा जाये।

स्पष्टत:, सामाजिक नजरिये से खुशनुमा माहौल, बराबरी की भावना और उच्च आदर्शों की स्थापना जैसे प्रगतिशील मूल्यों के उद्देश्य को महत्व मिलना चाहिए एवं सामाजिक विघटन और पतन की कार्रवाइयों का समर्थन करती रचना या रचना की व्याख्या को त्याज्य समझा जाना चाहिए। लेकिन देखते हैं कि सामंती मूल्य चेतना के लिए वह त्याज्य ही सर्वोपरी एवं सर्वोत्कृष्ट बना रहता है। बल्कि, बरक्स प्रगतिशील मूल्यों पर प्रहार करना ही उसका प्राथमिक लक्ष्य होता है। मनुष्य को उसकी सम्पूर्ण प्रकृति में स्वीकारने से भी उसे परहेज होता है। स्त्रियों के मामले में सामंती दौर का तीखापन दासता का नुकीला इतिहास है। स्त्री की दैहिकता को स्वीकारने में ज्यादा पहरेदारी वाली जीवनशैली उसका चरित्र है। प्रकृति के रहस्यों की अज्ञानता से उपजे ईश्वर की कल्पनाओं को विदेह के रूप में देखने की उसकी प्रकृति ने जिद्दीपन की हद तक मनुष्यता को भी विदेह माना है। देह के सौन्दर्य की कल्पना पाप का पर्याय बनी है। देख सकते हैं कि सामंती दौर का प्रतिरोधी साहित्य प्रेम की स्पष्ट आवाजों में नख-शिख वर्णन से भरा है। सामंती पहरेदारी के खिलाफ संयोग श्रृंगार के वर्णन खुली बगावतों जैसे हैं। साहित्य का भक्तिकाल प्रेम की उपस्थिति में ही विद्रोह की चेतना के स्वर को बिखरने वाला कहलाया है। कला साहित्य ने मनुष्यता के पक्ष के साथ अपनी सार्थकता को सिद्ध किया है और मनुष्यता के विदेहपन के प्रतिरोध में ही निराकार ईश्वर को साकार रूप में रखते हुए दैहिक सौन्दर्य को अपना विषय बनाया है। दैहिक सौन्दर्य से परिपूर्ण मनुष्यता के कलारूप्ा ऐतिहासिक गुफाओं के भीतर अंकित हुए हैं। सार्वजनिक कलारूपों में उनकी अनुपस्थिति इतिहास के अनुसंधान का विषय होना चाहिए था। लेकिन सामंती चेतना का ऐजेण्डा आदर्शों और नैतिकताओं की पुनर्स्थापना में ज्यादा आक्रामक होता गया है। एम एफ हुसैन के चित्रों में आम मनुष्य की दैहिकता का रूप धारण करती ईश्वरियता हो चाहे राजा रवि वर्मा के चित्रों में आकर लेता मिथकीय यथार्थ हो, हमेशा उसके निशाने में रहा है।  
  
नवजागरण काल के चित्रकार राजा रवि वर्मा की रचनाओं की यह व्याख्या ही हिन्दी फिल्म ''रंगरसिया" का विषय है। केतन मेहता के कैमरे की आंख से उसे देखना एक सुखद अनुभव है। मराठी उपन्यासकार रंजित देसाई के उपन्यास पर आधारित राजा रवि वर्मा के जीवन की झलकियों से भरी केतन मेहता की फिल्म ''रंगरसिया" यूं तो एक व्यवसायिक फिल्म ही है। लेकिन गैर बराबरी की अमानवीय भावना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ठेठ स्थानिक किस्म की आधुनिकता जैसी पंच लाइनों से भरे दृश्यों की उपस्थिति उसे व्यवसायिक फिल्मों के बाजारूपन वाली धारा से थोड़ा दूर कर देती है। फिल्म इस बात पर भी ध्यान आकृष्ट करती है कि भारतीय आजादी के आंदोलन का आरम्भिक चरण यूरोपिय आधुनिकता के प्रभाव में ठेठ स्थानिक होना चाहता रहा है। समाजिक सुधारों की पहलकदमी और 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि में इसे तार्किक रूप से समझना मुश्किल भी नहीं। फिल्म का एक और महत्वपूर्ण पाठ है कि मनुष्यता के दैहिक यथार्थ को चित्रों में उकेर कर ही राजा रवि वर्मा ने, हर वक्त मन्दिरों के भीतर ही विराजमान रहने वाले दैवी देवताओं को आम जन के लिए सुलभ बनाया है। प्रिंट दर प्रिंट के रूप में घरों की दीवारों तक टंगते कलैण्डरों ने मन्दिरों के भीतर प्रवेश से वंचित कर दिये जा रहे जन मानस को मानवीय आकृतियों वाले ईश्वर से साक्षात्कार करने में मद्द की है। केतन मेहता की फिल्म ''रंगरसिया" का यह बीज उद्देश्य ही उसे आम व्यावसायिक फिल्मों से विलगाता है।
 
इतिहास साक्षी है कि यूरोपिय आधुनिकता से प्रभावित भारतीय बौद्धिक समाज के एक बड़े हिस्से ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को हर स्तर पर पिछड़ा साबित करने को उतारू बिट्रिश श्रेष्ठताबोध से भरी शासकीय औपनिवेशिकता का विरोध अपने तरह से किया है। जिसके तेवर बेशक बहुत क्रान्तिकारी न रहे हों लेकिन भारतीय जनमानस के आत्मबल को संभालने में उसकी कोशिशें ईमानदार रही है। पक्ष में तर्कपूर्ण ऐतिहासिक सांख्यिकी की अनुपस्थिति के चलते हुए भी मिथकों भरी कथाओं के सहारे भारतीय आदर्श को परिभाषित करना उसका उद्देश्य हुआ है। बिट्रिश शासन के प्रतिरोध की यह धारा औपनिवेशिक दौर के कला साहित्य में सत्त प्रवाहमान दिखती है। हिंदी भाषा के विकास के साथ-साथ भारतेन्दू के नाटकों से लेकर पूरे छायावादी दौर तक उसकी धीमी लय को देखा-सुना जा सकता है। मिथकों से होते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास के गौरव की स्थापना का सर्जन उसका उद्देश्य रहा है। चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु जैसे पात्रों को केन्द्र में रख कर रचे गये जयशंकर प्रसाद के नाटकों के विषय छायावादी दौर तक पहुंची उस प्रवृत्ति को ज्यादा साफ करते हैं। ऐतिहासिक माहौल को रचने की यह स्थितियां खुद को पिछड़ा, दकियानूस और तंत्र-मंत्र में ही जीने-रमने जैसा मानने वाली बिट्रिश श्रेष्ठता के प्रतिरोध का अनूठा ढंग था। यह चौंकने की बात नहीं कि ब्रिटिश जीवन शैली को अपनाने वाले भारतीय बौद्धिक वर्ग के भीतर से ही ठेठ देशज भारतीयता की स्थापना का जन्म हुआ। राजा राम मोहन राय से लेकर गांधी के समय तक जारी सामाजिक सुधारों की हिमायत करने वाले ज्यादातर महानुभावों के भीतर यह साम्यता दिखायी देती है।

आधुनिक मूल्य बोध को समाज के विकास के लिए जरूरी मानने वाली मानसिकता से बंधे भारतीय बौद्धिक जमात के ये सभी लोग अपनी पृष्ठभूमि के कारण औपनिवेशिक शासनतंत्र के छद्म को ज्यादा करीब से देख पाने में सक्षम थे और इसीलिए प्रतिरोध को बेचैन भी। औपनिवेशिक शासन तंत्र के साथ उनके रिश्तों की व्याख्या इसीलिए थोड़ा जटिल भी है। निजी जीवन में यूरोपिय स्टाइल की जीवन शैली को अपनाते हुए भी प्राचीन भारतीय साहित्य के भीतर मौजूद नैतिकता और आदर्शों के प्रति आकर्षण भरी उनकी कार्रवाइयां आम जनमानस के साथ उनके संबंधों के अन्तर्विरोधों का ऐसा बिन्दू रहा जिसकी आड़ चालाक ब्रिट्रिश शासकों को राहत पहुंचाने वाली रही। उपज रहे अन्तर्विरोधों को विस्तार देने में न्याय का दण्ड थामें वे खुद को ज्यादा उदार दिखा सकते थे। कानून के राज का यह नया आधुनिक रूप आज तक भी ज्यादा कुशलता से संचालित होता हुआ है। यूरोपिय से दिखते भारतीय बौद्धिक जमात की ठेठ भारतीय आदर्शों की स्थापनाओं की चाह पर प्रहार के लिए पिछड़ी मानसिकताओं से भरे सामंतों और पोंगा पंडितों को प्रश्रय देना औपनिवेशिक शासन की प्राथमिकता थी। प्रतिरोध की कोई स्पष्ट दिशा तय हो सके, ऐसी बहसों में संेधमारी के लिए जरूरी था कि न्यायिक विधान का ऐसा ढोंग रचा जाये जो थकाऊ, उबाऊ और बिट्रिश शासन व्यवस्था के ज्यादा अनुकूल हो। कला साहित्य के माध्यम से प्रतिरोध की गतिविधियों को सीधे तौर पर रोकने की बजाय अपने साथ कदम ताल करते सामंतों और पोंगा पंडितों की मद्द से उन पर प्रहार करना ज्यादा आसान एवं औपनिवेशिक शासन को सुरक्षा प्रदान करने में ज्यादा कारगर था। ठीक उसी तरह, जैसे समकालीन दौर झूठे राष्ट्रवाद के सहारे अंध राष्ट्रीयता की मुहिम को चलाये रहता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं अपितु एक हद तक दिखायी देती लोकतांत्रिक स्थितियों का ही गला घोट देना चाहता है। अनुदार धार्मिक वातावरण की पुनर्स्थापना का वह औपनिवेशिक ध्येय आज छुपा न रह गया है। एम एफ हुसैन जैसे चित्रकार की रचनाओं पर किये जाते और करवाये जाते प्रहारों की लम्बी श्रृखंला इसके साक्ष्य हैं। 

राजा रवि वर्मा के चित्रों के बहाने, फिल्म ''रंगरसिया" भारतीय इतिहास की ऐसी ही व्याख्या को प्रस्तुत कर रही है और भारतीय चित्रकला के ठेठ आरम्भिक चरण से लेकर आधुनिक दौर की विसंगतियों तक हस्तक्षेप करना चाहती है। हिंसा पर उतारू भीड़ के कोलाहल से भरे शुरुआती दृश्य के साथ ही दर्शक का सीधा साक्षात्कार अपने समय से होता है। अभिव्यक्ति का गला घोट देने को उतारू हिंसक जिद का तांडव रंगरसिया जैसे कोमल पद को छिन्न भिन्न करता हुआ है। विलोम की विसंगति से भरे समकालीन यथार्थ की उपस्थिति में जो कुछ दिखायी देता है, उसकी रोशनी में दर्शक स्वत: ही राजा रवि वर्मा पर फिल्माये जा रहे दृश्य में भी एम एफ हुसैन को देखने लगता है। एक बहस उसके भीतर जन्म लेने लगती है और इसीलिए राजा रवि वर्मा के दौर के भारतीय माहौल की दृश्यात्मक सांस्कृतिक अनुपस्थिति के बावजूद समकालीन सी दिखती सांस्कृतिक स्थितियां भी किसी तरह अवरोध नहीं बनती। इतिहास कथा पर केन्द्रित फिल्म का समकालीन जीवन्त स्थितियों सा फिल्मांकन वर्तमान में घटता हुआ सा लगने लगता है। लेकिन फिल्म का यथार्थ राजा रवि वर्मा के चित्रों पर उठायी गयी आपत्ति में दर्ज ऐतिहासिक मुकदमा ही है। रवि वर्मा के जीवन की घटनायें और कलाकार राजा रवि वर्मा होने तक की जो यात्रा दृश्यों में है, वह संभवत: रणजीत देसाई के उपन्यास का कथासार है। आधुनिक भारतीय चित्रकला के शुरुआती चरण का वह महत्वपूर्ण पहलू भी, जिसमें मिथकीय कथाओं के शास्त्रीय चित्रकला का विषय होने की स्थितियां है, स्पष्ट दिख रही है। औपनिवेशिक स्थितियों के विरूद्ध केरल से लेकर आधुनिक महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल तक विचरण करती राष्ट्रीय भावना के शुरुआती उफान में कला साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है जिसने एक सामान्य व्यक्ति, रवि वर्मा को चित्रकार राजा रवि वर्मा होने की स्थितियां पैदा की। देश के भीतर चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव में ठेठ देशज कथाओं को चित्रों में ढालने की वे ऐसी कोशिशें थी जिसमें शकुन्तला, द्रोपदी और अहिल्या सरीखे स्त्री चरित्रों के मार्फत हमेशा से प्रताड़ित स्त्रियों के प्रति संवेदनशील बनने की जरूरत पर ध्यान आकृष्ट किया जा सका है। यह वही समय है जब सामाजिक सुधार की तमाम कोशिशें भी देखी जा सकती हैं। सती प्रथा का विरोध हो रहा है। स्त्री शिक्षा का सवाल समाने है। जाति भेद भाव के विरुद्ध आम सहमति जैसी स्थिति बेशक न बन पायी थी लेकिन उस के प्रति असम्मान का भाव पैदा होने लगा था।

केतन मेहता ने ''मंगल पाण्डे" और "रंगरसिया" के बहाने 1857 के पुनर्जागरण को रखने की जो कोशिशें की है, हिंदी फिल्मों की वर्तमान धारा में उसे एक सकारात्मक हस्तक्षेप कहा जा सकता है। व्यवसायिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बेशक बहुत बुनियादी बातें न हुई हों लेकिन वर्तमान दौर की विसंगतियों और बदलाव की पहल जैसे विषयों पर एक बहस तो जन्म ले ही रही है।  यद्यपि यह भी उतना ही सच है कि पूंजीगत लाभ के दृष्टिकोण से रंगरसिया को दैहिक भव्यता में अंजाम दिया गया है। और इसीलिए वैचारिक सहमति के बावजूद रंगरसिया को फिल्मांकन की बाजारू प्रवृत्ति के बोझ से झुकी कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। फिल्म की मुख्य अदाकारा नंदना सेन के मुंह से साक्षात इन शब्दों को सुनने के बाद भी कि नग्नता यदि दृश्य की आवश्यकता है तो उससे परहेज नहीं किया जा सकता लेकिन नग्नता यदि बाजारूपन का पर्याय है तो जरूर उससे बचा जाना चाहिए। नंदना के कहे के मुताबिक ही देखें तो दैहिक क्रीड़ा के अनंत दृश्यों से भरी रंगरसिया एक विलोम की विसंगति से भरी नजर आती है। क्रीड़ा की वल्गरिटी बेशक नहीं लेकिन उसके भव्य आस्वादन से भरे दृश्यों में दैहिक उपस्थिति का कोलाहल लगातार मौजूद रहता है। यहां यह सवाल भी है कि क्या इस तरह के दृश्यों को मात्र पूंजीगत लाभ की दृष्टि से रचा गया मान लिया जाये और उन पर गम्भीरता से सोचने की बजाय लोकप्रिय सिनेमा की पूंजीगत लाभ की आकांक्षओं से भरी प्रवृत्ति का शिकार मान लिया जाये ? राज रवि वर्मा और मंगल पाण्डे को याद करते हुए पुनर्जागरण काल को याद करने वाले निर्देशक केतन मेहता की फिल्म रंगरसिया को इस तरह के सरलीकृत विश्लेषण के साथ छोड़ना शायद ठीक नहीं। बल्कि निर्देशक के मानस में बैठी उस प्रवृत्ति को पकड़ने की कोशिश होनी चाहिए जिसका शिकार आज के हिंदी युवा कहानीकारों की कहानियां भी हो रही हैं। लहराते पेटीकोट वाले दृश्यों को कलात्मक कौशल के साथ अनूठे से अनूठे तरह से रचने वाली हिंदी कहानियों के संदर्भ में कतिपय मेरा कथन स्पष्ट है कि उसे वैश्विक पूंजी द्वारा स्थापित किये जा रहे मूल्यबोध के गिरफ्त में होते जाने के रूप में समझा जा सकता है। रंगरसिया भी निर्देशक केतन मेहता के उसी प्रभाव में हो जाने के कारण विलोम की विसंगति दिख रही है।

  





Tuesday, October 2, 2012

कुछ मन की बातें

पिछले दो तीन महीनों की ऐसी व्यस्तता जिसमें लिखना पढ़ना संभव न हो पाया, उससे निजात मिली है। उस दौरान ब्लाग भी अपडेट करना संभव न हुआ और ब्लाग जगत की खबरों से भी बहुत ज्यादा परिचित न रह पाया। फिर से रूटीन में लौटना चाहता हूं लेकिन इतने दिनों की मानसिक स्थिति वापिस लौटने में आलस बनती रही है। अपने भीतर के आलस से लड़कर कल से कुछ शुरूआत संभव हुई। सोच रहा था पहले ब्लाग अपडेट करूं। लेकिन क्या लिखूं यह विचारते ही एक ऐसा पाठक जेहन में उभर आया, जिससे कभी मिलना संभव न हुआ। हां ब्लाग की दुनिया के उस जबरदस्त पाठक से बहुत से पत्र व्यवहार हुए। तीखे बहसों से भरे वे ऐसे पत्र हैं जो मुझे ऊर्जा देते हैं। उनमें से एक पत्र और जवाब में दिये गये खुद के पत्र को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। आगे भी मन हुआ तो वे दूसरे पत्र रखना चाहूंगा जिसमें मेरी रचनाओं पर भी उस साथी पाठक की तीखी आलोचनात्मक टिप्पणियां दर्ज हैं।
अपनी आदत के मुताबिक इन पत्रों की वर्ड फ़ाइल में न तो मैंने ही कोई तिथि दर्ज की है न ही साथी पाठक के पत्र पर कोई तिथि दर्ज है। मेल में जरूर तिथियां मौजूद है। लेकिन जब पत्रों की फ़ाइल में वे मौजूद नहीं तो उन्हें दर्ज न करने  की छूट ले रहा हूं ताकि इधर घटी बहुत सी घटनओं के संदर्भ में भी इसे पढ़ पाना संभव हो सके। वि.गौ.
प्रिय मित्र संदीप
क्या ही अच्छा हो कि जिस गिरोहगर्दी के बारे में मैंने अपनी चिन्ताएं रखीं, उसके लिए कोई सांझी कार्रवाई जैसी स्थितियां पैदा हों !!! मैं नहीं जानता कि आप मेरी बातों को सिर्फ एक व्यक्ति की एकल कार्रवाई तक सीमित क्यों मान रहे हैं। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि साहित्य में ही नहीं जीवन के कार्यव्यापार के किसी भी क्षेत्र में बदलाव की सकारात्मक संभावना की तस्वीर को मैं बिना समान विचार के साथियों के सांझेपन और दोस्ताना सहमति में पहुंचे बगैर संभव नहीं मानता हूं। हां, यह जरूर है कि साहित्य की दुनिया में मेरे द्वारा की जा रही ऐसी पहलकदमियां समान विचारों वाले बहुत ही सीमित साथियों के चलते कई बार एकल जैसी दिखती हुई हो सकती है। लेकिन वे नितांत एकल तो शायद ही होती हो। आपको भी मैं एक समान विचारों वाले मित्र जैसा ही तो मानने लगा हूं। आपके पत्र और उनके मार्फत हमारे बीच के संवाद को क्या सांझापन नहीं कह सकते हैं ? हां, यह ऐसा सांझापन है जिसे शायद कई बार आप भी और मैं भी एकल ही समझ रहे हों। पर मैं इसे एकल तो कतई नहीं मानने को तैयार हूं, वह भी तब-जब हमारे बीच का संवाद, यदा-कदा ही सही, मध्यवर्गीय शालीनता की सीमाओं के पार निकल जा रहा हो और विचारों की आपसी टकराहट मुझे तो कई बार अपनी धारणाओं पर फिर से विचार करने को मजबूर करने लग जा रही हो। संदीप जी आपने रचना में एजेण्डे के बरक्स ट्रीटमेंट की स्वायतता की जो बात कही, वह एकदम दुरस्त बात है। यहां कहना चाहूंगा कि ट्रीटमेंट को ही कई बार एजेन्डा मानने की जिद ही है जो कलावाद की अंधी गलियों की ओर बढ़ रही होती है। रचना में प्रतिबद्धता की बजाय सिर्फ भाषा और शिल्प की व्याख्या करने वाली गैर वैज्ञानिक आलोचनाओं ने भी रचनाकारों के भीतर महत्वाकांक्षओं के खराब बीज रोपें हैं जिसकी वजह से निजी अनुभवों को समष्टी तक पहुंचाने वाली धमन भट्टी का ताप सिर्फ चमकदार भाषा और अनूठे शिल्प की कवायद में बेकार जाता हुआ है। वरना खूबसूरत अभिव्यक्तियों से भरे उजले टुकड़े न तो ऊर्जावान रचनाकार देवी प्रसाद मिश्र की रचनाओं में दिखते और न ही उदय प्रकाश की रचनाओं में। रचनाकारों के भीतर का आत्मबोध भी है जो उन्हें अपनी आलोचनाओं को बरदाश्त करने की ताकत नहीं दे रहा होता और न ही उससे टकराने की मानसिकता बना रहा होता है। ऐसे में गिरोहगर्द साथियों की जरूरत ही तीव्रता से महसूस होती है। तो तय जाने मेरी टिप्पणियां सिर्फ उस आलोचना की पुकार ही हैं जो एक गम्भीर रचनाकार के साथ दोस्ताना व्यवहार बरतते हुए खुलेपन के साथ हों। राग-द्वेष से उनका कोई लेना देना हो। एक जनतांत्रिक पहलकदमी उनका शुरूआती कदम हो। यानी मेरा मानना है कि यह भी वैसे ही ट्रीटमेंट का मामला है, एजेन्डे का नहीं जो कई बार एकल दिख सकता है। वरना यह जाने कि मैं, जिसको आप उसके लिखने भर से जान रहे हैं, देखते होंगे कि साहित्य की स्थापित दुनिया में अदना सा व्यक्ति है लेकिन उसके बाद भी कुछ कह पाने की हिम्मत जुटा पा रहा होता है तो स्पष्ट है कि अपने जैसे दूसरे साथियों से बहस मुबाहिसें में उलझ कर ही ताकत पाता है। हां, जैसा कि हिन्दी साहित्य का वर्गीय चरित्र उसमें हिस्सेदारी कर रहे रचनाकारों से बना है, वह मध्यवर्गीय है। जहां अपनी असहमतियों को रखना एक शालीन चुप्पी की तरह हो रहा है। बस मैंने उस शालीनता से एक हद तक थोड़ा परहेज करने की कोशिश की हुई है। हां मैं पूरी तरह मुक्त हूं, ऐसी गलतफहमी मुझे नहीं। असहमति की यह शालीन चुप्पी भी सांझेपन से ही टूट सकती है। पर किसी न किसी को तो वक्त बेवक्त उसे मुखर होने देने की संभावना खोजनी ही होगी। ऐसा मैं ही नहीं और भी कई दूसरे लोग है जो वक्त बे वक्त करते भी हैं। बल्कि कहूं कि ब्लाग की इस नई बनती दुनिया में यह होने की संभावनाएं भी दिखाई देती हैं। यदि सांझापन बढ़ा तो गोष्ठियों के वे ऑपरेटिंग पार्ट जो प्रतिबद्धतओं की वकालत करते हों जरूर ही बढ़ेंगे वरना उनका रूप तो रचनाकारों के आपसी मिलने जुलने और उसी गिरोहगर्द दुनिया को आगे बढ़ाने वाला है। उनके भीतर स्वीकार्य होकर ही अपनी बात की जा सकती है, बाहर खड़े होकर तो कहने की आज गुंजाइश ही नहीं। आपके पत्र के इंतजार में रहूंगा।
विजय


 मित्र विजय जी
 आप का पत्र पढ़ा। और आपकी चिन्ताओं से भी अवगत हुआ। आप बहुत पैशन के साथ पत्र लिखते हैं- यह मुझे बेहद सुकून देता है। मित्र आपकी चिन्ताएं बेहद सामयिक हैं और जरूरी भी। दरअसल आज साहित्य जहां ठहरा हुआ है-वहां से हम संकट के अनेक आयाम देख सकते हैं। वामिक जौनपुरी का एक शेर याद आ रहा है- ज़िन्दगी कौन सी मंज़िल पर खड़ी है आकर आगे बढ़ती भी नहीं राह बदलती भी नहीं साहित्य में प्रगतिशील पक्षधरता रखने वाले जो चन्द लोग हैं उन पर उपरोक्त शेर सटीक बैठता है। सत्ता प्रतिष्ठानों में आकण्ठ डूबे लोगों का यह संकट नहीं है। वे तो हर दिन राह बदलते रहते हैं। जनपक्षधर साहित्यकारों को भी यह मानने में अक्सर दित होती है कि साहित्य का अपना कोई स्वतन्त्र एजेण्डा नहीं होता। साहित्य का भी वही एजेण्डा होता है जो समाज का एजेण्डा होता है। साहित्य की स्वायत्ता उसके अपने स्वतन्त्र एजेण्डे में नहीं वरन उस एजेण्डे के 'ट्रीटमेंट" में होती है। यह और बात है कि बहुत से लोग इस 'ट्रीटमेंट" को ही साहित्य का स्वतन्त्र एजेण्डा घोषित कर देते हैं। खैर, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य को "गिरोहगर्दों" से छुड़ाने का काम हमेशा विचारधारा (जिसे कुछ लोग विजन कहना भी पसन्द करते हैं) ,सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन और आन्दोलन की अन्योन्यक्रिया से बनने वाले ठोस या तरल साहित्यिक संगठन करते हैं। भारत में प्रगतिशील लेखक संघ व इप्टा के शुरुआती वर्षों में आप इसकी आधी-अधूरी झलक देख सकते हैं। हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आज हम इन सभी क्षेत्रों में बेहद पिछड़े हुए हैं। बल्कि सच कहें तो हमें इसका अहसास भी बहुत कम है। पिछले पत्रों में मैने इस लिए कहा था कि गिरोहगर्द स्थितियां तो सिम्टम मात्र है हमें ज्यादा समय व ऊर्जा उपरोक्त समस्याओं पर विचारविमर्श करने व उसका कोई छोटा ही सही ऑपरेटिंग पार्ट निकालने पर खर्च करना चाहिए। अभी मैं अक्टूबर में उदयपुर में हुयी ''संगमन" की गोष्ठी की रपट पढ़ रहा था। आप खुद बताइये कि इस दो दिवसीय गोष्ठी में शाम को उदयपुर घूमने के अलावा इस गोष्ठी का ऑपरेटिंग पार्ट क्या था। आज 99 प्रतिशत गोष्ठियां ऐसी होती हैं जिनका कोई ऑपरेटिंग पार्ट नहीं होता। क्या साहित्य में कोई सामूहिक जिम्मेदारियां नहीं होती। और यदि होती हैं तो इसका ऑपरेटिंग पार्ट क्या होगा।यहां मै उन गोष्ठियों की बात कर रहा हूं जो छोटी जगहों पर और छोटे पैमानों पर होती हैं और जिसमें हम आप जैसे लोग भाग लेते हैं। उन गोष्ठियों की बात नहीं कर रहा हूं जो सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा कराए जाते हैं। मित्र, यह टॉलस्टॉय का जमाना नहीं है। जहां एक सामन्त अपने खूबसूरत आश्रम में बैठ कर लिखते हुए "रूसी क्रान्ति का चितेरा" बन जाए। यह बहुत जटिल वर्गीय संरचना व उथल पुथल वाला तेज भागने वाला समय है। खैर, इसपर फिर कभी। समाज के हर क्षेत्र की तरह साहित्य पर भी वर्गीय प्रभावों का पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए साहित्य में भी वर्गीय धु्रवीकरण की स्थितियां मौजूद होती हैं। हालांकि यह थोड़ा जटिल रूप में होती हैं। अत: यहां भी समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह ही गिरोहगर्दी को सामूहिक प्रयासों से ही तोड़ा जा सकता है। गिरोहगर्द स्थितियों की व्यक्तिगत आलोचना महज सहायक भर हो सकती हैं। वह भी बहुत कम सीमा तक। शायद मैं आपको कुछ स्पष्ट कर पाया। मुक्तिबोध के समय भी लगभग यही स्थितियां थीं। हां अन्तर अवश्य था। पहले प्रगतिशील लेखक संघ, परिमल, कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसे संगठन संगठन की तरह थे। और ये संगठन के नार्म-फॉर्म कमोबेश निभाते भी थे। लेकिन आज ये सभी पतित होकर (कुछ तो इस प्रक्रिया में अपना अस्तित्व भी खो चुके हैं) संगठन से गिरोह में बदल गए हैं। जिससे स्थितियां और दुरूह हो गयी है- विशेषकर उन नए साहित्यकारों के लिए जो साहित्य में एक सामाजिक उद्देश्य लेकर प्रवेश करते हैं। तो इस बार इतना ही। मैने आपको बोर तो नहीं किया। दरअसल आपकी चिन्ताएं यह आश्वस्त करती हैं कि हम अकेले नहीं हैं। इस लिए आपसे बात करके एक तरह का सुकून मिलता है। इधर कुछ नया तो पढ़ा नहीं। हां एनबीटी से लोककथाओं के संकलन की एक किताब आयी है उसे ही पढ़ रहा हूं। 
पत्र की प्रतीक्षा में 
संदीप 

Sunday, June 10, 2012

बागी टिहरी गाये जा

ब्रिटिश शासन से कभी भी प्रत्यक्ष तौर पर शासित न होने वाला टिहरी, उस उत्तराखण्ड राज्य का एक जनपद है जो प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन रहे (ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊ कमिश्नरी) इतिहास का सच है। 1947 की आजादी के वक्त हैदराबाद और कश्मीर की तरह टिहरी भी गणतांत्रिक भारत का हिस्सा न था, यह इतिहास है। जबकि टिहरी की जनता गणतांत्रिक भारत का हिस्सा होने को बेचैन थी। टिहरी राजशाही के खिलाफ प्रजा मण्डल का आंदोलन इस बात का गवाह है। यह अलग बात है कि गणतांत्रिक भारत से अपने को स्वतंत्र मानने की जिद पर अड़ी रही राजशाही को आज अंधराष्ट्रवादी किस्म की राजनीति राष्ट्रवाद का तमगा देती हो और प्रजामण्डल जैसे राष्ट्रवादी आंदोलन में शिरकत करती जनता को बागी। 'बागी टिहरी गाये जा", कथाकार विद्यासागर नौटियाल का ललित निबंध है। प्रजा मण्डल के आंदोलन में ही शिरकत करते हुए युवा हुए विद्याासागर नौटियाल को हिन्दी का साहित्य जगत एक ऐसे कथाकार के रूप्ा में जानता है जिनका सम्पूर्ण रचनाकर्म अपने जनपद टिहरी की कथा को कहता रहता है। टिहरी का इतिहास, टिहरी का भूगोल और टिहरी के लोगों की मानसिक बुनावट के कितने ही चित्र उनकी रचनाओं में साक्षात हैं। वे 'टिहरी की कहानियां" कहते हैं। उनकी रचनाओं में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के पहाड़ों की पृष्ठ भूमि को देखना उस सच्चाई तक न पहुंचना है, जिसको लगातार-लगातार लिखने के लिए कथाकार विद्याासागर नौटियाल बेचैन रहे। उनका, शायद अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" जिसे किताबघ्ार को भेजते हुए उन्होंने 6 अप्रैल 2011 को मुझे मेल किया था, मेरे कथन का साक्ष्य है। 29 सितम्बर 1933 को गांव मालीदेवल, टिहरी में पैदा हुए कथाकर विद्यासागर नौटियाल न सिर्फ हमें, बल्कि उस टिहरी को भी विदा कह चुके हैं, जो टिहरी गत वर्षों में झील में समा गयी। 12 फरवरी 2012 की सुबह उन्होंने अपनी अंतिम सांस बैंग्लोर के एक अस्पताल में छोड़ी।
विद्यासागर नौटियाल से मेरा सम्पर्क 1993 के आस पास हुआ था। उस वक्त वे 60 वर्ष की उम्र पार कर रहे थे।  60 वर्ष की उम्र प्राप्त कर चुके कथाकार विद्याासागर नौटियाल देहरादून में रहते हैं, यह जानना मेरे लिए एक अनुभव था। 'फट जा पंचधार" हंस में छप चुकी थी और मैं उस कहानी के गहरे प्रभाव में था। पहाड़ की मुख्यधार के जनजीवन से बाहर के समाज की कथापात्र, एक कोल्टा स्त्री की कथा में आक्रोश और विद्रोह की तीव्रता भरा आख्याान मैंने पहले किसी अन्य कहानी में न पढ़ा था। युगवाणी उस वक्त तक साप्ताहिक पत्र था। प्रजामण्डल के आंदोलन के दौर में जारी आंदोलन की खबरों को जनता तक पहुंचाने के वास्ते आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ने युगावाणी की शुरूआत की थी। साठ वर्ष की उम्र पर पहुंच चुके कथाकार विद्याासागर नौटियाल के षष्ठी पूर्ति कार्यक्रम का आयोजन युगवाणी ने किया। शायद देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के बीच नौटियाल जी की वह पहली ही-वैसी जीवन्त उपस्थिति थी। उससे पहले मेरी स्मृति में मैंने उन्हें किसी साहित्यिक कार्यक्रम में देखा न था। हां, कम्यूनिस्ट पार्टी से उत्तर प्रदेश विधान सभा में विधायक रहे विद्यासागर नौटियाल का नाम मैंने जरूर सुना हुआ था। लेकिन वह भी साहित्यिक मित्र मण्डली के बीच नहीं बल्कि टे्रड यूनियन के साथियों के मुंह से। साहित्य की दुनिया के साथियों का राजनीति से दूरी उसका कारण रहा हो शायद। क्योंकि बहुत से अन्य मित्र तब भी जानते थे कि 'फट जा पंचधार" का लेखक और देवप्रयाग सीट से विधायक रहा व्यक्ति एक ही हैं - यह मुझे बाद में यदा कदा की बातचीतों से मालूम हुआ। लेकिन मेरे लिए यह जानना उस वक्त हुआ जब उनकी षष्ठी पूर्ति पर कार्यक्रम आयेजित हुआ। उस कार्यक्रम के दौरान अपने प्रिय नेता के सम्मान समारोह में पहाड़ से पहुंचे सामान्य ग्रामीणों की उपस्थिति मेरे लिए जो सूचना लेकर आयी थी, कथाकार विद्यासागर नौटियाल के प्रति एक खास तरह की निकटता में ले गयी। यद्यपि उस वक्त नौटियाल जी विधायक नहीं थे। शायद कम्यूनिस्ट पार्टी में भी न थे उस वक्त। बांध के सवाल पर पार्टी से भिन्न बनी राय के कारण उन्हें निष्कासित होना पड़ा था। गहरी मानसिक उथल-पुथल के दौर में थे। ऐसा उन्होंने अपने किसी साक्षात्कार में भी स्वीकारा है और यह भी व्यक्त किया है कि 'फट जा पंचधार" उसी मानसिक उथल-पुथल की स्थितियों में लिखी रचना है जिसमें वे खुद को कथापात्र रक्खी की स्थितियों में महसूस कर रहे थे। उत्सुकता स्वभाविक थी कि आखिर साहित्य के कार्यक्रम में एक अच्छी खासी संख्या में उपस्थित ग्रामीणों की उपस्थिति का माजरा क्या है ? एक विधायक एवं एक कथाकार विद्यासागर को जानने का अवसर मुझे उपलब्ध हो रहा था। वहां उपस्थित ग्रामीणों की तादाद बता रही थी कि बहुत करीब से जुड़े रह कर राजनीति करने वाले व्यक्ति के प्रति उसके प्रशंसको और शुभ चिंतकों की भूमिका क्या होती है। शायद उन ग्रामीणों के लिए भी वह अवसर ही रहा होगा जब वे अपने प्रिय नेता को एक दूसरी भूमिका में देख रहे हों। कार्यक्रम में हिस्सेदारी करती उनकी चपलता ऐसा ही कुछ कह रही थी। उनमें से कुछ लोगों ने मंच से भी अपने प्रिय नेता के लिए शुभ कामनायें दी थी। ऐसा ही एक अन्य अवसर पहल के सम्मान समारोह के दौरान था। सिर्फ ये दो ही अनुभव थे जब मैं प्रत्यक्ष रूप्ा से जान सका था कि कथाकार विद्यासागर नौटियाल ही वह व्यक्ति है जो किसी समय उत्तर प्रदेश विधान सभा में कम्यूनिस्ट पार्टी के नुमाइंदे के तौर पर विधायक रह चुके हैं। अन्यथा कभी कोई ऐसी स्थिति जिसमें वे कथाकार की बजाय सिर्फ एक राजनैतिक कार्यकर्ता रहे हों, देखने का अवसर मुझे नहीं मिला जो कि इसलिए भी प्रभावित करने वाला था कि समाज के भीतर चीजें इतनी स्पष्ट दिख नहीं रही होती। एक नौकरशाह अपनी असली भूमिका की निकम्मई को कैसे साहित्यकार होकर ढकना चाहता है या साहित्यकारों के बीच वह कैसे अपनी नौकरशाही के कारण हासिल मैरिट को भूनाता है, यह छुपा हुआ नहीं है। या अन्य क्षेत्रों के बीच भी इसे देखा जा सकता है जब अचनाक से एक दिन मालूम होता कि देश का जो प्रधानमंत्री है, वह कवि है और उसके प्रधानमंत्री बनते ही उसकी कविताअें की पुस्तकों के ढेर के ढेर छपने लगते हैं। दिग्गज आलोचकों की एक पूरी फौज उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की मांग करने लगती है। कोई मुख्यमंत्री अपने राजनैतिक कार्यों के लिए नहीं बल्कि अचनाक एक साहित्यकार के रूप्ा में देश विदेश के भीतर सम्मानित होने लग जाता है। बहुत सी अन्य स्थितियों को देखें तो सत्ता पद की गरीमा के दम पर किसी भी क्षेत्र में हिस्सेदारी का मतलब उस क्षेत्र का भी अव्वल कहलाये जाने का चलन जमाने में दिखायी देता है। विद्यासागर नौटियाल जी के संबंध में पायेंगे कि साहित्यकार की भूमिका में वे अपनी रचनाओं के दम पर होते हैं और राजनीति के क्षेत्र में अपने समझदारी और कार्रवाइयों के साथ। दो अलग क्षेत्रों के बीच दखल रखते हुए भी वे किसी एक क्षेत्र में अपनी स्थिति के दम पर दूसरे में प्रवेश नहीं करते। बल्कि कहें कि एक तीसरा क्षेत्र वकालत, जो उनके रोजी रोजगार का हिस्सा था, उसमें उनकी दक्षता को जानने के लिए उनके बस्ते पर ही जा कर जाना सकता था।       
         देश दुनिया के भूगोल से परिचित नौटियाल जी की रचनाओं में जिस भूगोल को हम पाते है, वह दुर्गम हिमालय क्षेत्र है। उसका भी एक छोटा सा हिस्सा- टिहरी-उत्तरकाशी क्षेत्र का हिमालय। वरना नेपाल से कच्च्मीर तक विस्तृत हिमालय का भूगोल भी तो एक जैसा नहीं। प्रत्यक्ष औपनिवेशिक स्थितियों के इतिहास की अनुपस्थिति में सामंती सत्ता के अत्याचारों का क्षेत्र। ऐसे अत्याचार, जिनकी अवश्यम्भाविता का विचार मानसिक जड़ता के साथ मौजूद रहता है। जहां शासन-प्रशासन का हर कदम पाप-पुण्य के भय का निर्माण करते हुए सामाजिक जड़ता को स्थापित करना चाहता रहा है। लेकिन लाख षड़यंत्रों के बावजूद भी सामाजिक गतिकी के नियम को फलांगना जिसके लिए संभव न हुआ और उठ खड़े हुए विद्रोहों से निपटने का रास्ता जहां खुलमखुल्ला निहत्थों पर हथियारबंद आक्रमण रहा। रंवाई का तिलाड़ी कांड निहत्थे ग्रामीणों की हत्या का इतिहास है जिसका जिक्र करने की जुर्रत भी करना विद्रोही हो जाना था। सामंती शासन के भीतर घ्ाटित ऐसे ढंढक/विद्रोह, दबी कुचली जनता की सामूहिक कोशिशें रही हैं। दस्तावेजी करण से उनका बचाया जाना सत्ता कोे कायम रखने के लिए जरूरी था। ऐसे ही इतिहास को अनेकों कथाओं में पिरोकर कथाकार विद्यासागर नौटियाल दर्ज करते चले गये हैं। इतिहास की घ्ाटनाओं का गल्प होते हुए भी अपने समय से जीवन्त संवाद बनाना उनकी रचनाओं का विशेष गुण है। इतिहास की सतत पड़ताल करती उनकी रचनाओं के पाठ हिन्दी साहित्य की दुनिया के दायरे को अपने तरह से विस्तार देते है। उनके अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" में भी उस अलिखित इतिहास को जानने के स्पष्ट संकेत हैं।    
1992 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया था, उपन्यास का कथ्य भूकम्प की त्रासद कथा है। जिसका स्मरण ही बेचैन कर देने वाला है। किसको याद करें, किसके लिए रोएं, किसको दें कंधा, किसके कंधें पर धरें सिर, अनंत हाहाकार के बीच किसको कहें पराया ? उत्तरकाशी भूकंप के बहाने लिखी गयी जामक की कथा का सच देश के हर हिस्से में घ्ाटी त्रासदी का सच है। क्या लातूर, क्या गुजरात। प्राकृतिक आपदाओं में ही नहीं, विकास के नाम पर जारी किसी भी योजना का सच उत्तरकाशी भूकंप राहत योजना से अलग नहीं है। व्यवस्था का ताना बाना कितना उलझा हुआ है कि अपनी ही बोली-बानी और क्षेत्र विशेष के व्यक्ति के हाथों भी छले जाने का उपक्रम होते हुए भी आम जनमानस इस यकीन के साथ हो जाता है कि जो कुछ अगला घटित हो रहा है शायद वह उसके हक में ही हो। पूरे उत्तराखण्ड के भीतर शिशु मन्दिरों की खुलती शाखाएं इसका जीवन्त उदाहरण है। उपन्यास में उन चालाकियों को पकड़ा जा सकता है जिनके रास्ते ऐसा झूठ रचा गया है और लगातार रचा जा रहा है। पहाड़ों के सीने को चीर देने वाली थर-थराहट और गाड।-गधेरों को किसी भी तरफ मोड़ देने वाली विध्वंश की गाथा वाला उत्तरकाशी का यथार्थ कुछ ही समय पहले का इतिहास है। हमारे देखे देखे का। टिहरी को डूबो लोगों को उनके घर-बार ही नहीं उनके पारम्परिक रोजी-रोजगार से बेदखल करने की चालाकियां भी हमारी देखी देखी हैं। उपन्यास की खूबी है कि पूरे पहाड़ को भण्ड-मज्या बनने को मजबूर करते इतिहास के एक काले दौर तक पड़ताल करने की युक्ति वह देता है। प्राकृतिक विध्वंश और कृतिम विध्वंश के कारण, जो वाचाल भाषा में राहत भरे शब्दों के रूप्ा में सुना जाता है, त्रस्त और अपने जीवन यापन की स्थितियों से जूझने के अवसर भी खो जाते जामक वासियों को भण्ड-मज्या बनाने के लिए अवसरों के रूप में दिखायी देने वाले स्वामियों और उनके चेले चपाटों की कमी नहीं है। ब्रिटिश शासन काल में ही जंगलो पर किये गये कब्जों के बाद पारम्परिक उद्योग (खेती बाड़ी और जानवर पालन) से वंचित कर दिये गये पहाड। वासियों के पहाड़ से पलायन और भण्ड-मज्या बनने को मजबूर हो जाने की कथा एक साक्ष्य है। बूट, पेटी और टोपी, जुराब के लिए पूरी जवानी को खंदकों में बीता देने का इतिहास सिर्फ देश प्रेम नहीं बल्कि उन स्थितियों से निपटने के लिए शुरू हुई फौरी कार्रवाइयां रही हैं। ऐसी ही जरूरी कथाओं को दर्ज करता नौटियाल जी का लिखित उनकी प्रिय जनता की धरोहर है।  


 -विजय गौड़

Thursday, May 17, 2012

कितनी बाते हैं जिनको लिखा जाएगा खुलकर


संकुचन और विरलन की घटनायें प्रकृति की द्वंद्वात्मकता का इजहार है। जिसके प्रतिफल भौगोलिक संरचना के रूप्ा हो जाते हैं। खाइयां और पहाड़, समुद्र और वादियां, मैदान और पठार न जाने कितने रूपाकारों में ढली पृथ्वी अपने यथार्थ में अन्तत: एक रूपा है। भूगोल की दूरी पैमानों पर दर्ज होती हुई दूरी ही है लेकिन सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यता के हवाले से विकास की हर वह कोशिश जो ब्रहमाण्डीय सीमाओं के साथ सामंजस्य बैठाते हुए जारी रही है, एक रूपा होने की अवश्यम्भाविता के साथ है। युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य के सद्य प्रकाशित संग्रह पृथ्वी पर एक जगह में भी ऐसे ही विचार यात्रा के पड़ावों पर रुका जा सकता है-
समन्दर को पुकारने लगते थे पहाड़
और समन्दर पहाड़ों को
हालांकि दोनों के बीच बहुत लम्बा फासला था।   
कविता पुस्तक का शीर्षक है ''पृथ्वी पर एक जगह"। उसे दो तरह से पढ़ पा रहा हूं। एक, पृथ्वी पर एक -जगह और दूसरा पृथवी पर एऽऽक जगह।  कौन सा पाठ ज्यादा उपयुक्त है ? कह सकता हूं कि यह तो कविताओं को पढ़ने के पाठ पर निर्भर है। 'पृथ्वी पर एक -जगह", पढ़ता हूं तो भीतर की कविताओं के मंतव्य किसी निश्चत भू-भाग के बारे में रचे गए होने का भान देता हैं लेकिन यदि पृथवी पर एऽऽक जगह पढ़ता हूं तो इस पृथ्वी के बहुत से भू-भाग जो किन्हीं खास वजहों से समानता रखते हो सकते हैं, दिखने लगते है। दो भिन्न अर्थों से भरे इस पदबंध में अपने-अपने तरह से स्थानिकता की पहचान की जा सकती है। बहुधा स्थानिकता को परिभाषित करते हुए शीर्षक का पहला पाठ लुभाने लगता है और उस वक्त जो स्थानिकता उभरती है वो इतनी एकांगी होती है कि उसे क्षेत्रियततावाद की गिरफ्त मेंे फंसे हुए देखा सकता है। स्थानिकता का दायरा किसी निश्चित भू-भाग तक ही हो तो कविताओं की व्यापप्कता चूक सकती है। हां किसी देखे जाने गये भूगोल के इर्द-गिर्द होती हुई भी यदि वे अन्य स्थितियों के विस्तार में भिन्न भूगोल को भी स्थानिक बना देने की क्षमता से भरी हों तो उनकी सार्वभौकिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। शिरीष कविता स्थानिकता की पड़ताल में ज्यादा साफ और सही रूप्ा से सार्वभौमिक होने के ज्यादा करीब है -
पृथ्वी में एक जगह भूसा है।
पृथ्वी में एक जगह जहां हल हैं, दोस्त हैं।
सार-सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय वाला दर्शन आज उपभोक्तावाद ने हथिया लिया है। यूज एण्ड थ्रो जैसा नारा उसके गहराते संकट से उबरने की चालाकी है, जिसके कारण एक ऐसी संस्कृति जन्म लेती जा रही है जिसमें व्यक्ति खुद को ही हीन समझने के लिए मजबूर है। उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी ? हर अगले दिन पैदा होता उसका उत्पाद पिछले दिन पैदा किये अपने ही उत्पाद को कमतर बताने के साथ है। उसका दर्शन सिर्फ मुनाफे पर टिका है। आपसी रिश्तों की ऊष्मा से उसका कोई लेना देना नहीं। इसीलिए वहां रिश्तों के अपनापे में संबंधों को परिभाषित करने की कोई कोशिश भी संभव नहीं हो सकती। वस्तु के उपयोग और उसकी सार्थकता को भी भिन्न तरह से परिभाषित करते किसी भी वैज्ञानिक चिंतन से उसे चिढ़ होती है। शिरीष की कविताएं भिन्नता के उस दर्शन के साथ हैं जिसमें दानेदार फसल और उन दानों को मौसम के थपेड़ों से बचाये रखने में भूसा हो गयी बालियों, दोनों की महत्ता स्थापित हो सकती है।
पृथ्वी में एक जगह हैं ये सब। पर पृथ्वी में वह एक ही जगह नहीं है जहां हैं, ये सब। स्थानिकता का सार्वभौमिकीकरण इनके एक ही जगह मात्र होने पर, हो भी नहीं सकता है। विभिन्न रूपाकारों में ढली पृथ्वी को उसकी भिन्नता से प्रेम करके ही जाना जा सकता है। शिरीष की कविताओं में भिन्न्ता का यह भूगोल उस सांस्कृतिक भिन्नता की पड़ताल करता हुआ भी है जो एक सीमित लोक का विस्तारीकरण करने के लिए आवश्यक तत्व है। उनके पाठ पदबंध के दूसरे पाठ के ज्यादा करीब से गुजरते हैं। लोक के सार्वभौमिकीकरण में ही शिरीष काव्य तत्वों को गुंथता है और उनको बचाये रखने की सुसंबद्ध योजना का आधार तैयार करता जाता है-
छोटे शरीर में भी बड़ी आत्माएं निवास करती हैं
छोटे छोटे पग भी
न्ााप सकते हैं पूरी धरती को
उस अपने तरह की सार्वभौमिकता के गान, जो शब्दों में बहुत वाचाल और व्यवहार में संकीर्ण एवं लुटेरी मानसिकता का छलावा बन कर सुनायी दे रहा है, कवि शिरीष कुमार मौर्य की उससे स्पष्ट नाइतफाकी है। स्थानिकता की एक परिभाषा जिस तरह से आज दक्षिणपंथी उभारों तक जाने को उतावली दिखायी देती है ठीक उसी तर्ज पर बहुत चालाकी बरतने वाली सार्वभौमिकता का नारा भी हर ओर सुनायी दे रहा है। यूं दोनों की उपस्थिति से भी दुनिया के दो ध्रुव बनने चाहिए थे लेकिन देख सकते हैं अपने अपने छलावे में दोनों की साठगांठ एक ऐसी मूर्तता को उकेर रही है जिसमें निर्मित होता वातावरण  लगभग एक ही ध्रुव की ओर बढ़ता जा रहा है। आंधियों की तरह आती यह सार्वभौमिकता, भौगोलिकरण का दूसरा नाम है, उसमें एक स्वांग है मिलन का। धूल और गर्द उड़ाती, छप्परों को उजाड़ती उसकी आवाज़ का शौर इतना ज्यादा है कि चाहकर भी उदासीन बने रहना संभव नहीं है। एक सचेत रचनाकार की भूमिका उसकी उस प्रवृत्ति को भी उजागर करना है जो हमारी स्थायी उदासीनता का कारण बनती जा रही है और इस स्थायी उदासीनता में वह जिस तरह की खलबली मचाना चाहती है, उसके प्रति भी सजग रहने की कोशिश एक रचनाकार का दायित्व है। शिरीष की कविताओं में दोनों ही स्थितियों से मुठभेड़ करने की कोशिश के बयान कुछ यूं हैं कि आखिर साधो हम किससे डरते हैं? नींद तो केवल अपनी ही बनाई सुरंगों में घ्ाुसे मेढ़कों को आती है।
पृथ्वी पर उस जगह को, जहाँ स्थायी किस्म की उदासी के बावजूद जगर-मगर दुनिया है, एक चिहि्नत भूगोल की स्थानिक रंगत से भरने की एक खास जिद्द इसीलिए शिरीष के यहां भी मौजूद है। कविताओं में जगहों के नामों की उपस्थिति कवि की सायाश कोशिशों की वजह है।
इस पृथ्वी पर एक जगह है
जिसे मैं याद करता हूँ
आक्षांश और देशान्तर की सीमाओं में बांधे बगैर
जीवन की यात्रा के ढेरों पड़ाव भी शिरीष की कविता में दर्ज पाये जा सकते हैं। उनका संग-साथ अतीत से आती हवाओं में देखा जा सकता है, मित्रों की उपस्थितियों के साथ उनका होना महसूसा जा सकता है और हमेशा एक विनम्र किस्म की, बहुत भीतर तक से उठती, बेचैन हूक में उसे सुना जा सकता है। आत्मीयजनों को समपर्ण के भाव कविता के शीर्षक के साथ गुंथे हुए देखे जा सकते हैं। पर आत्मीयजनों को समर्पित होते हुए भी मात्र उनके लिए ही नहीं हैं वे। उनका दायरा चिहि्नत आत्मियताओं से होता हुआ अचिहि्नतों तक पहुँचता है। कवि चन्द्रकांत देवताले को समर्पित एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं-
मेरे पास
बहुत पुराने दिनों की हवाँए हैं
इतिहास से आती इन हवाओं में भावुक मोहकता नहीं बल्कि पूर्वजों की महान विरासत का स्मरण है। लोक तत्वों की पुष्टी भी बिना ऐतिहासिक चेतना के कहां संभव हो सकती है ? भीतर की धूल को उड़ा देने वाली उस इतिहास चेतना की तीव्रता इतनी ज्यादा है कि बहुत चालाक होकर छुपायी जा रही 'आधुनिकता" भी उसकी चपेट में आने से बच नहीं पा रही। वातावरण को नरम और मुलायम बनाने वाली, अतीत से आती, इन हवाओं का संग-साथ युवा कवि की काव्य चेतना में इस कदर रचा बसा है कि बहुत हताशा के क्षणों में भी वह गुस्से के इजहार के साथ अपनी ऊर्जा को समेट लेना चाहता है। नर्वस एनर्जी एक शब्द है, जिसका प्रयोग उस भाव को व्यक्त करने में मेरे प्रिय कवि राजेश सकलानी करते हैं, जो बहुत मुसीबतों के समय अचानक से व्यक्ति को कुछ भी अप्रत्याशित कर देने की ताकत दे देती है और मुसीबत में फंसा व्यक्ति उसके ही बल पर बाहर निकल आता है। कवि कुमार विकल की स्मृतियों में रची गयी कविता की पंक्तियां शिरीष को भी उसी नर्वस एनर्जी से सवंद्र्धित कर रही हैं-
ओ मरे पुरखे!
आखिर क्या हो गया था ऐसा
कि अपनी आखिरी नींद से
पहले तुम दुनिया को
सिर्फ अपनी उदासियों के बारे में बताना चाहते थे।
आज का रचनाकार अतीत से भविष्य तक की अपनी यात्रा में अपने वर्तमान की उपस्थिति से, बेखबर नहीं रहना चाहता है। रास्ते में पड़ने वाले दोस्तों के डेरे शिरीष के भी पड़ाव हैं। ऐसे ही डेरों में शाम बिताते हुए उन अवसरों को तलाशा जा सकता है जो आत्म मंथन के लिए जरूरी भी हैं।
जैसे आटे का खाली कनस्तर
जैसे घ्ाी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आख्ािरी सिा।
मित्रों के इन अड्डों पर ही वे बेपरवाह टिप्पणियां सुनी जा सकती हैं जिन में आत्मालोचना करना जरूरी लगने लगता है-
जैसे तालाब को खंगाले उसकी लहर
जैसे बादल को खंगाले उसकी गरज
हमने खंगाला खुद को।
खुद को खंगालना इतना आसान भी नहीं होता। बहुत पीड़ादायक होता है अक्सर उससे गुजरना भी। टूटन होती है ऐसी कि जिसको व्याख्यायित करने की कोई भी कोशिश अधूरी ही रह जाती है। कई बार आपसी रिश्तों की टूटन की आवाज़ों को सुनना होता है। अवसाद भरी नाजुकताएं इच्छाओं की भीत पर इस कदर असर डालने वाली हो जाती है कि नींद और जाग की मनोदशाओं मेंं डूबता मन अस्वस्थता का कारण होने लगता है।
हम जहाँ से कहीं जाते
वहाँ से
कोई नहीं आता हमारे पास।
यकीन भरी आत्मीय पुकार के ये अड्डे शिरीष के यहां बहुत भरोसे के साथी के रूप्ा में दर्ज है। उनमें रुकना सिर्फ भौतिक रूप्ा से रात काटना भर नहीं बल्कि बहुत कुछ को बचा लेने की संभावनाओं का तलाशना जाना है- 
बचे रहे हम
जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य।
'पोस्टकार्ड" इस संग्रह की एक बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है। दुनियादारी को निभाने में आज के संचार की ढेरों युक्तियां आज हमारा समाज संजोता जा रहा है। ऐसे में पोस्टकार्ड के खुलपेन को याद करना न सिर्फ एक संदेश को पहुंचाने की युक्ति को याद करना है बल्कि उस झूठ का पर्दाफाश करना भी है जो एक तरह से ज्यादा पारदर्शी होने का भ्रम पैदा कर रही है।
कैसा है मेरा रंग
हल्का भूरा धूसर पीला मटमैला
कुछ
कहा नहीं जा सकता

लेकिन कहा जा सकता है
क्या लिखा जाएगा मुझ पर

आख्ािर दुनिया में बातें ही कितनी हैं
जिनको
लिखा जाएगा खुलकर ?
वर्तमान दुनिया ने ख्ुाशियोंे को चंद मुटि्ठयों में दबोचा हुआ है और दु:ख और संताप से भरी एक भीड़ को जन्म दिया है।
हम बाहर हैं इस समूचे संसार से
जो लोगों से नहीं सूचनाओं से बना है।
लेकिन अफसोस इस बात का है कि दु:ख और संताप में डूबी उस बड़ी भीड़ का हर व्यक्ति इतना अकेला है कि अपनी बेचैनी, तकलीफें और अपनी खुशियों को बहुत सामूहिक तौर पर शेयर करने की स्थितियां भी उसके पास नहीं हैं।
तुम्हारे भीतर एक उलझा हुआ जाल है
धमनियों और शिराओं का
और वे भी अब भूलने लगी हैं तुमहारे दिमाग तक
रक्त पहुंचाना
इसीलिए
तुम कभी बेहद उत्तेजित
तो कभी
गहरे अवसाद में रहते हो।
निराशा और पस्ती के ऐसे वक्त में एक सचेत रचनाकार की भूमिका सिर्फ इतनी ही नहीं हो सकती कि वह स्थितियों का जिक्र मात्र करके मुक्त हो जाए। यथास्थिति को तोड़ने की कोशिश और वैकल्पिक दुनिया की तस्वीर की कल्पना के बिना रचना की सार्थकता तय नहीं हो सकती है। शिरीष एक जिम्मेदार रचनाकार की भूमिका में दिखाई देते हैं। अपने पाठक को निराशा में डूबने नहीं देना चाहते-
अब तुम
अपने भीतर के द्वार खटखटाओ
तो तुम्हें सुनाई देंगी सबसे बुरे समय की मुसलसल
पास आती पदचाप

अब तुम्हारा बोलना कहीं ज्यादा अर्थपूर्ण
और मंतव्यों से भरा होगा।
गहन उदासी की रुलाई में भी नमक के खारेपन पर शिरीष का यकीन है। समुद्र के अथाह पानी में अपने आंसुओं को मिलाती मछलियों और दूसरे जलचरों से ली जाती प्रेरणा एक अनूठी युक्ति है उस चेतना के प्रकटीकरण की जो पाठक को निराशा और पस्ती में घ्ािरने नहीं देती। शिरीष की कविताओं की एक उल्लेखनीय विशेषता है कि वस्तुगत यथार्थ की उपस्थिति के साथ वहां उम्मीदों को बांधे रखने वाला एक संगत स्वर लगातार मौजूद है
उसमें बैलों की ताकत है और लोहे का पैनापन
हल के बारे में कही गयी यह पंक्तियां उस अनूठी कोशिश का एक नमूना है। इसके पाठ के साथ ही एक दृश्य खुलने लगता है और जमीन में खुंपे, ढेलों को पलट पलट देते हल की मूंठ पर थमी हथेली और बैलों को हांकती आवाजों के साथ खेत को उपजाऊ बनाने में जुटे किसान के चेहरे से उत्कट मानवीय इच्छा रूपी पसीने को बहते देखा जा सकना संभव हो रहा होता है। वही हल जिसका गायब हो जाना किसी उन्नत यंत्र से अपदस्थ होती प्रक्रिया का प्रतिफल नहीं है बल्कि गायब कर दिये जाने की एक साजिश है। कर्ज के बोझ से दबे, उन्नत बीजों के नाम पर हाईब्रीड फसलों को उगाने के लिए मजबूर कर दिये गये और चौपट होती फसल के कारण आत्महत्या करने को मजबूर किसानों की बदहाली के चलते भी उसका गायब हो जाना स्वभाविक ही है। शिरीष के यहां उसके गायब होने की कथा ऊंचे ढंगारों वाले पहड़ों पर सीढ़ीदार खेतों की उत्पादक सीमाओं के साथ छूट जा रही खेती भी एक कारण के रूप्ा में मौजूद है। खेती किसानी की दुनिया से लगाव शिरीष की कविताओं में इतना गहरा है कि फसल के साथ काट कर सहेजे जाना वाला भूसा तक वहां उम्मीदों की फसल बन जाता है।
बहरहाल इतना तो साफ है कि इसे भी सहेज रहे हैं लोग
दानों के साथ
इस दुनिया में वे सार भी बटोर रहे हैं
और थोथा।
सार-सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय वाला दर्शन आज उपभोक्तावाद ने हथिया लिया है। यूज एण्ड थ्रो जैसा नारा उसके गहराते संकट से उबरने की चालाकी है, जिसके कारण एक ऐसी संस्कृति जन्म लेती जा रही है जिसमें व्यक्ति खुद को ही हीन समझने के लिए मजबूर है। उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी ? हर अगले दिन पैदा होता उसका उत्पाद पिछले दिन पैदा किये अपने ही उत्पाद को कमतर बताने के साथ है। उसका दर्शन सिर्फ मुनाफे पर टिका है। आपसी रिश्तों की ऊष्मा से उसका कोई लेना देना नहीं। इसीलिए वहां रिश्तों के अपनापे में संबंधों को परिभाषित करने की कोई कोशिश भी संभव नहीं हो सकती। वस्तु के उपयोग और उसकी सार्थकता को भी भिन्न तरह से परिभाषित करते किसी भी वैज्ञानिक चिंतन से उसे चिढ़ होती है। शिरीष की कविताएं भिन्नता के उस दर्शन के साथ हैं जिसमें दानेदार फसल और उन दानों को मौसम के थपेड़ों से बचाये रखने में भूसा हो गयी बालियों, दोनों की महत्ता स्थापित हो सकती है।      


-विजय गौड़



पुस्तक का नाम :  पृथ्वी पर एक जगह
लेखक का नाम: शिरीष कुमार मौर्य
प्रकाशक: शिल्पायन, दिल्ली


  





Wednesday, May 2, 2012

न तो किसी के ऊपर हंसे और न ही गुस्सायें

                             

किसी के ऊपर हंसना, यानी हंसी उड़ाना, बुरी बात है। बेवजह गुस्साना और भी बुरा। हंसने वालों से तो फिर भी निपटा जा सकता है- बिना उनकी हंसी के कारणों की पड़ताल किये, बिना उन पर ध्यान दिये। लेकिन गुस्सा थूकने को उतारूओं का क्या किया जाये। वह भी ऐसे में जब कि वे गुस्से के संक्रमण को रोग की तरह फैलाने पर भी आमादा हों। गांधी पार्क ऐसी ही जगह है जो उत्तराखण्ड, खास तौर पर देहरादनू, के नक्शे में गुस्सा जाहिर करने का एक ऐतिहासिक स्थल रहा। जिसके गेट पर दरी बिछा कर अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए इस जनपद के कितने ही गुस्सालू हमेशा जुटते रहे हैं और बहुत बच-बचाकर चल रहे तमाम नौकरीपेशा जनपदवासियों के भीतर तक अपने गुस्से का संक्रमण करते रहे हैं। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौर में तो हमेशा के गुस्सालुओं ने हमेशा के बचने बचानेवालों तक को गुस्से की चपेट में ले लिया था। तत्कालीन उत्तर-प्रदेश सरकार और लखनऊ में बैठे उसके आला अफसर, गांधी पार्क जैसी इस बेहद साधारण सी जगह से वाकिफ न थे। निपटने के लिए रामपुर तिराहे पर घ्ोरा डालना पड़ा। रात के अंधेरे में गन्ने के खेतों में दौड़ा दौड़ा कर खदेड़ा गया। यकीन जानिये कि यदि वे इस जनपद की धड़कन कहे जा सकने वाले गांधी पार्क की हकीकत से वाकिफ होते तो हर रोज वहां इक्ट्ठे हो कर देहरादून की सड़कों में ''आज दो अभी दो-उत्तराखण्ड राज दो"", का कोहराम मचाने वाले आंदोलनकारियों की भीड़ को चारों ओर से घ्ोर कर लाठियां गोलियां बरसाने के लिए उन्हें अलग से पुलिस गारद का बंदोबस्त करने की जरूरत न रहती।
राज्य बने हुए लगभग एक दशक बीत गया। बेशक अभी तक की सरकारों को उनकी निकम्मई के लिए कोस लें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि राज्य की मांग के साथ जिस एक छोटी प्रशासनिक इकाई का सपना जनता ने देखा था, उसे अनेकों तरह से पूरा करने की कोशिश अभी तक की सभी सरकारों की रही है। देहरादून को स्थायी जैसी अस्थायी राजधानी बना दिये जाने के कारण बेचारे राजनेताओं और आला अफसरोंे को यहां रहने को मजबूर होना पड़ा है। इसका सीधा फायदा उन्हें तो शायद ही कुछ मिला हो लेकिन गांधी पार्क की असलियत उनसे छुपी न रह सकती थी और न ही रही भी। इसीलिए उन्होंने गांधी पार्क को गुस्से का पीकदान बनने देने की बजाय उसका सौन्दर्यकरण करने की ठानी है। किसी भी तरह के धरने प्रदर्शन के लिए गांधी पार्क को प्रतिबंधित करके जो बड़ा काम किया गया उससे साफ हो गया है कि अब न तो वहां किसी को गुस्सा थूकने की इजाजत है और न ही गुस्से का संक्रमण करने की कोई स्थितियां रहने वाली हैं। जनतंत्र की पारदर्शिता का मायने ही स्पष्ट है कि कोई किसी पे न तो हंसे और न ही गुस्साये। सरकार के इस उल्लेखनीय कार्य की सरहाना की जानी चाहिए। पर शहर भर के गुस्सालुओं को भी कहां तो दिख रहा है सरकार का यह उल्लेखनीय कर्म। उन्हें तो फुर्सत ही नहीं। मेले ठेलों के लिए आबाद परेड मैदान की बहुत अंधेरी सी किसी आड़ में जाने तो वे क्या करने लगे हैं।  

- विजय गौड़

Sunday, February 19, 2012

स्थानिकता की तस्वीर भू-भाग की विविधता में संभव होती है



                     
सीमित ज्यामीतिय आरेखन की निर्मिति से खड़ी होती बहुमंजिला इमारतें और भव्यता एवं ध्यान आकर्षण के लिए उन पर पुते प्रभावकारी रंगों के संयोजन, बेतरतीब ढंग से यातायात व्यवस्था को बिगाड़ती स्थितियों को जारी रखते हुए, उचित संचालन के नाम पर, निर्मित पथों के चौड़ीकरण के अभियानों का फूहड़पन, एक ओर आम मेहनतकश आवाम के सर्वथा सुलभ फुटपाथिया बाजार को उजाड़ने की गतिविधियां और दूसरी ओर रोजगार के नाम पर चंद सेवा क्षेत्रों के अवसरों वाली गतिविधियों का नाम देश, राज्य या राजधानी नहीं होना चाहिए था। लेकिन विकास की सांख्यिकी के पैमाने को सीमित कर देने वाली समझदारी ने देश भर के भीतर व्यवस्था के नाम पर ऐसी अव्यवस्था को जन्म दिया है कि विकसित और अविकसित क्षेत्रों का अन्तर कम होने की बजाय लगातार बढ़ता गया है। गरीबी, भुखमरी और हत्या, आत्महत्याओं की बहुत आम हुई खबरों ने सामाजिक असंवेदनशीलता को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।   
दस वर्ष पूरे कर चुके उत्तराखण्ड राज्य की अस्थाई राजधानी देहरादून के संदर्भ से ही बात की जाये तो बदलते स्वरूप को इससे बाहर नहीं देखा जा सकता। बल्कि विकास के नाम पर उत्तराखण्ड राज्य के ही दूसरे शहरों के साथ साथ, प्राकृतिक खूबसूरती से भरे, पर्वतीय भूभागों के भीतर जारी अराजक गतिविधियों में भी राज्य नाम की इकाई संदेह पैदा कर देने वाली साबित हुई है। वैसे भी कला शून्य लेकिन दक्ष कुशल होते जाते इस दौर में स्वभाविक विविधिता को ध्वस्त करते हुए संस्कृतिक समरूपता की जिद्दी धुन की गूंज वैश्विक स्तर पर पूंजीगत विस्तार का स्वर हुआ है। अलहदा भाषा, अलहदा विचार, अलहदा खान-पान के खिलाफ वैश्विक पूंजी का मुनाफे की संस्कृति से भरे आदर्शों वाला अभियान हर स्तर पर चालू है। बर्बर हमलों तक के रूप में भी। उसके प्रभाव की व्यापकता को बहुत पिछड़ी सामाजिक आर्थिक स्थितियों में भी देखा जा सकता है। बल्कि कुशल व्यवाहरिकता के अभाव में ऐसी स्थितियों में तो उसकी स्वभाविक फूहड़ता ज्यादा स्पष्ट दिखने लगती है। बहुधा उसकी गिरफ्त ऐसी गिरह डालने वाली होती है कि जन आकांक्षओं के सवाल पर शुरू हुई गतिविधियां भी सवालों के घेरे में आने को मजबूर हो जाती हैं। जन आंदोलनों के अंदर घुसपैठ करने और फिर उसे अपनी तरह से हांकते हुए जन आंदोलनों पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देने में इस मुनाफा संस्कृति ने हारते हारते हुए भी जीत के लाभ तक पहुंच जाने की कला में कुशलता हांसिल की हुई है। उत्तराखण्ड में ही नहीं बल्कि उसी के साथ-साथ गठित हुए झारखण्ड और छतीसगढ़ में भी राज्य निर्माण के बाद विस्तार लेती गयी व्यवस्था ने एक समय में राज्य की मांग के लिए मर मिटने वाली जनता तक को इसीलिए निराश किया है। ऐसे में दूसरे प्रांतों के भीतर जारी राज्य आंदोलनों के संघर्ष की गाथायें कैसे भिन्न हो ?, यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण है। बिना इस तरह के सवाल उठाये छोटे छोटे राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया का एकतरफा समर्थन जनता के दुख दर्दो से निजात की कथा का कोई चरण पूरा करता हुआ नहीं माना जा सकता।
यह सच है कि सांस्कृतिक पहचान एवं विकास के वास्तविक मॉडल की अनुपस्थितियों ने विभिन्न प्रांतों के भीतर संघर्षरत जनता को राज्य के सवाल पर एकजुट होने को मजबूर किया हुआ है। और व्यवस्था के मौजूदा ढांचे में एक छोटी प्रशासनिक इकाई वाला राज्य, बेशक चोर जेब जैसा ही,  जनता को सड़को पर उतरने को मजबूर करता हुआ है। बहुत व्यवस्थित एवं जन आकांक्षओं को सर्वोपरी मानते हुए नीतियों का निर्धारण करती किसी मुमल व्यवस्था की तात्कालिक अनुपस्थिति में यह सवाल उठाते हुए कि क्या सचमुच जनता के सपनों को साकार करने में राज्य कामयाब रहे है ?, छोटे राज्यों की मांग को ठुकराया नहीं जा सकता या उनका विरोध करना कतई तर्कपूर्ण नहीं। लेकिन इसके साथ साथ उन खतरों को जो जनता के सपनों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ते, नजरअंदाज करना ठीक नहीं। तीन नव निर्मित राज्यों उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छतीसगढ़ के आंदोलनों का इतिहास गवाह है कि बेहतर राजनैतिक विकल्प की अनुपस्थिति में चालू राजनीति के बेरोजगार नेताओं ने जो अफरा तफरी मचायी उसके प्रतिफल राज्य निर्माण के बाद स्थापित होती गयी उनकी सत्ता के रूप में सामने हैं। स्थापित राजनीति का बेहद फूहड़पन वाला विकास-मॉडल सिर्फ मुनाफे की संस्कृति की स्थापना करने में ही सहायक हुआ है। अपने व्यक्तिगत हितों के लिए आंदोलनों में सक्रिय रहते भूमाफिया और दलालों के बोलबाले ने स्थानिकता को निरीह और लाचार बनने के लिए मजबूर किया है। शासकीय गतिविधियों में हस्तक्षेप की ताकत रखने वाले अपने आकाओं के इशारों पर आंदोलन में घुसपैठ करके वे आज सत्ता पर कब्जा जमाये हैं। मासूम जनता के सपनों को आकार देने के नाम पर षड़यंत कर वे आंदोलनों का हिस्सा हुए और अराजक तरह का माहौल रचने में कामयबी हासिल कर सके हैं। देख सकते हैं कि सबसे पहले उनकी निगाहें अपनी पूंजी को जल्द से जल्द और बिना किसी अतिरिक्त निवेश या मेहनत के, अधिक से अधिक बटोरने की रही और इसके लिए भौगोलिक विशिष्टताओं से भरे भू भागों पर कब्जे करने की उनकी कोशिश बहुत दबी छुपी न रहने पर भी स्थानीय भू मालिकों के समझ न आने वाली ही हुई हैं। रूपयों के बदले जमीन के मोल भाव में स्थानीय जन इस कदर ठगे गये हैं कि न सिर्फ स्वंय लाचार हुए बल्कि माहौल में अराजकता और लम्पटई की कितनी ही स्थितियों को जमने और फलीभूत होने का अवसर बना है। खेती योग्य भूमि को प्रोपर्टी के दलालों की निगाहों ने जिस तरह से तहस नहस किया वह शायद ही तीनों में से किसी भी एक राज्य में छुपा हुआ न हो। 
भाषायी आधार पर गठित आंध्र प्रदेश में भी आज अलग राज्य की मांग का सवाल सामने है। आदिलाबाद, निजामाबाद, करीमनगर, वारंगल, खममम, नलगोडा, हैदराबाद, मेढक, रंगारेड्डी, महबूबनगर को मिलाकर तेलांगाना राज्य का सपना विकास की दौड़ में पिछड़ गयी जनता के सपनों में है। जनता के इस सपने के आकार लेते ही 1956 के बाद का इतिहास भी उलट जाने वाला है। तेलंगाना राज्य इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि 1956 से पहले तक मद्रास पे्रसीडेंसी का हिस्सा रहे आंध्र प्रदेश के दूसरे भू-भाग रायलसीमा और तटिय आंध्रा की तुलना में पिछड़े रहे इस क्षेत्र के विकास की चिन्तायें राज्य आंदोलन का मूल हैं। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के साथ हैदराबाद को मिलाकर आंध्र प्रदेश के इतिहास का एक नया अध्याय 1956 में शुरू हुआ था। 1956 से पहले तक हैदराबाद के निजाम के द्वारा शासित भू-भाग भारत में विलय की स्थिति के साथ हैदराबाद राज्य के रूप्ा मे रहा। 1953 में ही निजाम के हुकूमती क्षेत्र को हैदराबाद राज्य के गठन के समय ही भाषायी आधार पर बांट दिया गया था। मराठी भाषी क्षेत्र को बम्बई राज्य और कन्नड़ भाषी क्षेत्र को मैसूर राज्य में विलय कर शेष बचे तेलुगू क्षेत्र को हैदराबाद राज्य का दर्जा दे दिया गया था। हैदराबदी राज्य का वह तेलुगू भाषी क्षेत्र ही मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग कर निर्मित हुए आंध्रा राज्य में विलय कर विशाल भाषायी राज्य आंध्र प्रदेश अस्तीत्व में आया। इस तरह से समांती हुकूमत में संस्कारित एवं पिछड़ी अर्थव्यवस्था के जन समाज और औपनिवेशिक हुकूमत के भीतर आधुनिकता की हवाओं में संस्कारित जन मानस के यौगिक को एक धरातल पर लाने के लिए जिस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए थी, पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर उसके होने की कोई संभावना होने का प्रश्न नहीं हो सकता था। तात्कालिक लाभ के लिए बेचैन रहने वाली अर्थ व्यवसथा में असंतुलन को पाटने की बजाय उसके बढ़ाते जाने के बीज थे और उनका फलीभूत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। फलस्वरूप निजामी हुकूमत का तेलंगाना क्षेत्र न तो जन सुविधाओं के स्तर पर और न ही रोजी रोजगार के स्तर पर तटिय आंध्र और रायलसीमा के क्षेत्रों के करीब आ सका। असंतोष के कारण ऐसी ही स्थितियों का सार रहे और 1969 में तेलंगाना राज्य की मांग का सवाल उठ खड़ा हुआ। यूं चालीस के दशक में ही भू सुधारों के तेलांगना आंदोलन का एक चरण अविभाजित कम्यूनिस्ट पार्टी के एजेंडे के साथ शुरू हुआ था। निजाम की हुकूमत के खिलाफ कामरेड वासुपुन्यया के नेतृत्व में यह एक ऐतिहासिक शुरूआत थी जिसका सपना भूमिहीनों को भूमि आबंटित करने का था।
मेढक संभावति तेलंगाना राज्य का एक जिला है, बिल्कुल वही स्थितियां जो उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान 1994 के आस पास देहरादून में दिखायी देने लगी थी, आज मेढक में साफ हैं। मेढक के बहुत छोटे और विकास की दौड़ में अभी गिनती में कहीं भी दिखायी न देते इलाके शंकरपल्ली के हवाले से कहूं तो आस पास के उजाड़ पड़े इलाके में बीच बीच में गड़े सीमेंट के अनंत खम्भे बताते हैं कि जमीनों पर पूरी तरह से कब्जा कर दलाल भूमाफियाओं का वर्ग राज्य निर्माण की प्रक्रिया के एक चरण को पूरा कर चुका है। बड़े मॉल, आम जन के लिए प्रतिबंधित पार्क, मल्टीपलेक्स, खेती को निकृष्ट कर्म और दलाली को स्थापित करने वाली मानसिकता का तर्क बहुत स्पष्ट है कि बंजर जमीनों का वे सदुपयोग करना चाहते हैं और राज्य के आय का स्रोत होना चाहते हैं। साथ ही सौन्दर्य के नये मानक भी वे इसी तरह गढ़ने को उतावले हैं। लेकिन राज्य जिसकी जरूरत रहा, उस जनमानस के लिए इस तरह का विकास कैसे लाभकारी हो सकता है, यह प्रश्न उन्हें बेहुदा लग सकता है।     
यूं यह सवाल महत्वपूर्ण हो सकता है कि किसी जगह की सुन्दरता का मानक क्या हो सकता है ? वहां रह रहे लोगों के आचार-विचार का अनुपात स्थान विशेष की सुन्दरता में क्या कोई कारक है, या उसका कोई लेना देना नहीं। मानव निर्मितयों के रूप में पार्क, सड़क, भवन, खुदरा(खुरदरा) कहलाने के बावजूद मुलायम और चुंधियाते बाजार के साथ स्थानिकता के संयोजन के कौन से तत्वों को सुंदरता के पैमाने के साथ देखा जाना चाहिए ? किसी महानगरीय सुविधाओं सी समतुल्य स्थितियों में स्थानिकता को बचाने की बात करना क्या पिछड़ा कहलाते हुए असुंदर के पक्ष में हो जाने जैसा है ? आभावों के घटाटोप के बीच सुन्दर कहने के लिए भूभाग विशेष के किसी महानगर से संबंधों में विचरण करते बहुमंजिलेपन के बदलाव ही क्या सुंदरता के सांख्यिकी पैमाने हो सकते हैं ? अस्मिता का मामला भूगोल विशेष से स्थानीय जनता के जुड़ाव का मसला है और स्थान विशेष की खूबसूरती से भी है। स्थानिकता अपनी तस्वीर भू-भाग की विविधता में देख रही होती है और जरूरत के साथ-साथ ही वक्त-वक्त पर आवश्यक हस्तक्षेप कर उसे अपने तरह से तराश रही होती है। मुनाफे के अफरा-तफरी बदलाव में वह ठगी सी रह जाती है। स्पष्ट है कि ऊंचे- ऊंचे पहाड़, हरे हरे बुग्याल, बर्फानी हवाओं का खिलंदड़पन और बहुत शान्त माहौल के बीच नदीयों, पक्षीयों के गीतों से भरे सुरीले स्वर उत्तराखण्ड की अस्मिता के केन्द्र बिन्दू रहे। लेकिन जमीनों पर तेजी से कब्जा करने के बाद जिस तरह के बदलाव एकाएक हुए हैं वे राज्य के लिए संघर्षरत रही जनता को ठगने वाले रहे। मेढक के शंकरपल्ली इलाके की सुंदरता को गहरी ठेस पहुंचाने की कोशिशों को इसीलिए चिहि्नत किये जाने की जरूरत है वरना तय है कि भविष्य में छोटा राज्य बना लेने के बाद भी व्यवस्था के झुकाव को स्थानिकता के पक्ष में खड़ा नहीं पाया जा सकता।

 -विजय गौड़