Thursday, May 15, 2008

इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे अन्य विवरणों के बिना भी

अगली सुबह अखबार पढ़ते हुए मैं चौंक गया। पुलिस ने दावा किया था कि उसके पास से अनेक आपत्तिजनक दस्तावेज मिले थे। पुलिस को शक था कि उसके सम्बंध किसी नक्सलवादी पड़ोसी मुल्क से थे और वो देश में अशांति उत्पन्न करना चाहता था। - प्रस्तुत कहानी दुर्दांत से.

(आज यथार्थ का चेहरा इतना इकहरा नहीं रह गया है कि किसी भी घटना के कार्यकारण संबंधों को आसानी से पकड़ा जा सके। समकालीन यथार्थ की इस जटिल प्रवृति ने गम्भीरता से रचनारत संवेदनशील लोगों को उसको ठीक-ठीक तरह से पुन:सर्जित करने के लिए न सिर्फ कथ्य के स्तर पर बल्कि भाषा और शिल्प के स्तर पर भी नये से नये प्रयोग करने को मजबूर किया है। समकालीन युवा रचनाकारों की कहानियों में विशेषतौर पर यह बात स्पष्ट दियायी दे रही है। शिल्प और भाषा के इस प्रयोग के चलते कहानी का पारम्परिक ढांचा एक हद तक टूटता हुआ सा भी दिख रहा है।
ऐसे में कहानी को उसकी शास्त्रियता के ढांचे में ही कह पाने की कोशिश उतनी आसान नहीं रह गयी है। यही वजह है कि हर वह कहानी जो अपने कहानीपन के निर्वाह के साथ, बिना भाषायी और शिल्प के चमत्कार के जब उसी यथार्थ को कह पाने में समर्थ होती है तो उसकी तरफ ध्यान जाना लाजिमि है। जितेन ठाकुर एक ऐसे ही कहानीकार है जो कहानी को परम्परागत शास्त्रिय ढांचे में रखते हुए ही लगातार रचनारत है। दुर्दांत उनकी ऐसी ही कहानी है जिसमें हम उसी यथार्थ को हुबहू और बहुत ही सहज ढंग से प्रकट होते हुए देखते हैं, जिसके लिए इधर की अन्य कहानियां लम्बे लम्बे पैराग्राफों में इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे अन्य विवरणों के बिना संभव नहीं हो पा रही है।
"दहशतगर्द लोग", "अजनबी शहर में", "एक झूठ एक सच" जितेन ठाकुर के महत्वपूर्ण कथा संग्रह एवं "शेष अवशेष" उपन्यास के अलावा अभी हाल ही में, वर्ष 2008 में प्रकाशित एक अन्य उपन्यास "उड़ान" चर्चाओं में है। हिन्दी के अलावा जितेन डोगरी में भी समान रुप से लिखते हैं। "न्हेरी रात स्नैहरे ध्याड़े" उनके द्वारा डोगरी में लिखी कहानियों का संग्रह है।)


दुर्दांत
जितेन ठाकुर 09410593800

खलील जिब्रान को पढ़ने के बाद उसका भेजा घूम गया है- कम से कम दुनिया ने यही समझा था। उसने तय किया कि अब वो अन्याय और अव्यवस्था के विरूद्ध लड़ेगा। उसे विच्च्वास था कि उसकी आवाज पर लाखों सोई हुई आत्माएं जाग उठेंगी और करोड़ों अलसाई आत्माओं की मुटि्ठयां हवा को बींध देंगी। एक ऐसा झंझावत उठेगा जो इस गांव से उस गांव, इस कस्बे से उस कस्बे, एक द्राहर से दूसरे द्राहर होता हुआ एक दिन समुद्र की हदों को लांध जाएगा। फिर आदमी साफ हवा में सांस ले पाएगा, शुद्ध अनाज खाएगा, खालिस दूध पिएगा और हर तरफ फैली अव्यवस्था और अराजकता से मुक्त हो जाएगा।
इस सोच के बाद उसे फूलों के रंग ज्यादा शोख और चटख दिखने लगे थे। फूली हुई घास किसी सर्द और सब्ज अंगारे की तरह दहकने लगी थी। कैक्टस की फुनगियों पर बुरांस खिल उठे थे। आसमान का नीलापन उचक कर पकड़ लेने की हद तक झुक आया था और पहाड़ों की चोटियों पर अद्ध खिले चांद उतर आए थे। इस ख्याल ने उसके पोरों में होने वाली सूचनाओं की कसक को कम कर दिया था और अब कभी-कभी वो मुस्कुराने भी लगा था।
यह शहर छोटा था और यहाँ के कलैक्टर की आमदनी कुछ लाख रूपया महीना था। शहर छोटा था इसलिए पुलिस कप्तान की आमदनी भी इससे बहुत फर्क नहीं थी। थानों की बार-बार की गई निलामी और माफियाओं के साथ की गई बैठकों का भी कोई बहुत सकारात्मक प्रभाव नहीं हुआ था। पूरी कोशिशों के बाद भी माफियाओं की संख्या में वृद्धि नहीं हो पाई थी जिससे स्वस्थ प्रतिद्वंदिता का अभावा था। यहाँ का सारा अधिकारी वर्ग यह अभाव झेल रहा था और कुर्सियां सस्ते में नीलाम हो रही थी। पता नहीं लोग इस सच को जानते थे या नहीं- पर वो जानता था।
वो जानता था कि शहर की सारी बसें मिट्टी के तेल से चलती है। इसीलिए ढ़िबरी भर मिट्टी का तेल हासिल करने के लिए मजदूर को कई गुना दाम चुकाने पड़ते हैं। ढ़िबरी बुझने से पहले ही उसे नींद आ जाए इसलिए वो मिलावट वाली देसी शराब का पउआ पीता, सडे हुए सरकारी गेंहू का काला आटा फांकता और सो जाता। रात का सोया हुआ मजदूर जब सुबह उठता तो खुदा का भेजा हुआ सफैद दाढ़ी और नूरानी चेहरे वाला मौलवी मस्जिद की मीनार से उसे आवाज लगाता। भारी पेट और थुलथुले बदन वाला लिजलिजा पंडित घंटिया बजा-बजा कर उसे बुलाता। यह तब तक तक चलता जब तक उसकी जेब में बची रह गई पिछले दिन की बकाया कमाई झटक न ली जाती। खाली जेब और भूखे पेट के साथ एक भी दिन के आराम के बिना वो फिर कामगारों की पंक्ति में खड़ा पाया जाता।
वो जानता था कि ताजाबनी सड़कें क्यों एक बरसात भी नहीं झेल पातीं। लैंपपोस्ट के बल्ब आए दिन क्यों बुझे रहते हैं। क्यों द्राानदान बंगलों की घास गर्मियों में भी नहीं सूखती और म्यूनिसपैलिटी के नल सर्दियों में भी सूखे रहते हैं। पैदल चलता आदमी खादी पहनते ही कैसे शानदार गाड़ियों का मालिक हो जाता है ओर झंडा फहराकर भाषण देता अधिकारी कितना झूठ बोलता है।
वो ऐसी बहुत सी सच्चाइयां जानता था। उसका यह सब जान लेना अपराध नहीं था पर सोचना एक हिमाकत थी। उसकी यह हिमाकत आज तक ढकी-छुपी रही थी। पर आज वो द्राहर के बीचों-बची उधड़ी हुई सीवन की तरह बेनकाब हो गया था। वो सोचता है- सोच सकता है। वो बोलता है- बोल सकता है। उसके अंतस में ज्वालामुखी धधक रहा था और प्रशासन नहीं जान पाया। यह बात शासन और प्रशासन दोनों को हैरान कर रही थी। सबसे ज्यादा हैरानी उस अखबार के मालिक को थी जिसमें वो काम करता था।
मालिक ने पिछले तीन सालों में उसे बैल की तरह जोता था- वो चुप-चाप जुता रहा था। वो विज्ञापन लाता तो मालिक पीठ थप-थपाता। वो झूठ लिखता तो मालिक खुच्च होकर छापता। पर जिस दिन उसने सच लिखने की कोशिश की थी- मालिक ने झिड़क दिया था।
प्रशासन के आला हुक्मरानों की चिंता का कारण दूसरा भी था। अरबों रूपए के खर्च पर खड़ा सिस्टम आज खोखला और बेमानी साबित हुआ था। इसी शहर का एक आदमी लगातार सोचता रहा था और दसियों गुप्तचर एजैंसियां नहीं जान पाई थीं। सूचना विभाग नाराज था कि भरपूर विज्ञापन देने के बावजूद वो अखबार अपने एक अदने से नौकर पर काबू नहीं रख पाया। द्रारीफों की सांसे भी गिन लेने का दावा करने वाली पुलिस जान भी नहीं पाई और वो द्राहर के बीचों-बीच घंटाघर पर चढ़ गया था। हद तो यह थी कि घंटाघर की भरपूर ऊँचाई के बावजूद उसके हाथ में पकड़ा हुआ सच्च का पुलिंदा लोगों को दिखलाई दे रहा था और लोग उस पुलिंदे में बंधे सच को सुन लेना चाहते थे। पर विडम्बना यह थी कि उसकी ऊँचाई इतनी अधिक थी कि उसकी आवाज जमीन तक नहीं पहुंच पा रही थी।
सच का यह पुलिंदा उठाए-उठाए उसने कई दरवाजों पर दस्तक दी थी। दरवाजे खुले भी थे पर उसके पुलिंदे की गांठ खुलने से पहले ही दरवाजे बंद हो जाते थे। किसी के पास इतना समय नहीं था कि उसकी बासी बातों को- ऐसा वो लोग सोचते थे- सुन लेता।
उसे खलील जिब्रान पढ़ाने का अफसोस मुझे उस दिन हुआ था जब उसने सरे बाजार मेरे गिरेबां में भी झांक लिया।
दरअसल हुआ यह था कि हम लोग एक खोखे में बैठ कर चाय पी रहे थे। उसकी बातों से मैं प्रभावित था। उसकी तमाम नाकाम कोशिशों के बावजूद उसके होंसले में कोई कमी नहीं आई थी। उसे विश्वास था कि भले ही देर से सही पर इस देश में क्रांति का जन नायक वहीं होगा। जिस दिन उसकी आवाज आवाम तक पहुंचेगी- लोकतंत्र के सारे संदर्भ बदल जाएंगें। खलील जिब्रान को मैंने भी पढ़ा था। पर अपने होशों हवास पर काबू रख कर। इसीलिए मैंने उसे समझाने के लिए एक कविता की कुछ पंक्तियां सुनाई थी।
कविता सुनकर वो मुझे निस्पृह भाव से घूरता रहा था फिर अचानक उसका चेहरा तमतमा गया। वो लगभग चीखते हुए स्वर में बोला
"तुम साले लेखक अपने को तुर्रम खां समझते हो। जो तुमने कह दिया वही सच हो गया। अरे तुम्हारे बड़े-बड़े आलोचक पैसा लेकर किताबों को अच्छा बुरा कहते हैं। तुम्हारे जनवादी सम्पादक पैसे के लिए भगवा सरकार के विज्ञापन छापते हैं और तुम्हारे प्रगतिशील लेखक छपने और चर्चित होने के लिए इन्हीं सम्पादकों और आलोचकों की चप्पलें उठाते हैं।"
"तुम कुछ ज्यादा ही बहक रहे हो।" मैंने उसके आवेश को कम करने के लिए समझाने वाले स्वर में कहा
"बहके हुए तो तुम लोग हो। डिब्बा बंद मछली की तरह ठंडे और बासी। आम आदमी पर फिल्म बनाते हो और पैसा कमाते हो। पर आम आमदी को क्या मिलता है? आम आदमी पर कविता-कहानी लिखकर वाह-वाही लूटते हो- आम आदमी को क्या मिलता है? नंगी-भूखी तस्वीरें बनाकर अंतर्राषट्रीय हो जाते हो- आम आदमी को क्या मिलता है? अरे तुम लोग तो पैरासाईट हो - पैरासाईट।"
"पागल हो गए हो तुम सोचते हो कि खलील जिब्रान पढ़कर समाज बदल दोगे? सनकी हो तुम।"
मुझे उसके व्यवहार पर गुस्सा आ गया था। पर यह सच है कि यदि मैं जानता कि उसके पिटारे में हमारा सच भी छुपा है तो मैं इस चर्चा को आरम्भ ही नहीं करता।
"खलील जिब्रान पढ़ कर नहीं- खलील जिब्रान बनकर।" तमतमाता हुआ उसका चेहरा अचानक हंसने लगा थां पर इसे अपमान की चुभन कहें या सच का नश्तर! मैं हंस नहीं सका था। मुझे पहली बार अफसोस हुआ था कि मैंने पढ़ने के लिए उसे खलील जिब्रान क्यो दिया था। दो वक्त की रोटी कमाकर वो एक सीधी साधी जिंदगी बिता रहा था, मैंने उससे रोटी भी छीन ली थी और जिंदगी भी। अब उसके पास बेचैनी, कुढ़न और क्रोध के सिवा और कुछ नहीं था। उससे सहानुभूति होते हुए भी अब मैं उससे कतराने लगा था।
इस घटना के बाद उसने और कितने सच इठे किए थे- मैं नहीं जान पाया। पर मैंने उसके झोले को एक गट्ठर में बदलते हुए देखा। उस गट्ठर को उठाए हुए वो इतना हांफजाता कि रूक कर सुस्ताने लगता था पर गट्ठर को नीचे जमीन पर नहीं रखता था। उससे कतराने के बावजूद मुझे उससे सहानुभूति थी। द्राायद इसीलिए मैं उस दिन उससे नजर नहीं चुरा पाया।
"तुम इस गट्ठर को नीचे क्यों नही रख देते।" मैंने आत्मीय होने की तो चेष्टा की वो हंसा, फिर कड़वाहट की हद तक व्यंग्य भरे स्वर में बोला
"ताकी तुम इसे चुरा सको।"
"मैं क्या करूंगा तुम्हारा यह गट्ठर चुराकर?" मैंने खीझ कर कहा था।
"तुम्हारे लिखने के लिए इसमें तैयार शुद्ध माल है।"
उसकी यह निर्ममता मुझे अखर गई थी और मैंने उससे बोलना बंद कर दिया था।
पर मैं देख रहा था कि उसके जिस्म पर टिके कपड़ों की सिलाई उधड़ने लगी थी। उसकी खिचड़ी दाढ़ी बढ़ने लगी थी और उसके बाल लम्बे होकर बिखर गए थे। खलील जिब्रान पढ़ने से पहले तक झक काले उसके बाल अब आधे अधूरे सफेद हो चुके थे। उसका पूरा हुलिया एक बेतरतीब जिंदगी की नुमाईच्च बनकर रह गया था।
---और आज मैंने देखा कि वो घंटाघर पर चढ़ा हुआ खड़ा है और चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को अपने पिटारे का सच बताने की कोशिश कर रहा है। उसकी आवाज शायद नीचे तक पहुँच भी जाती पर नीचे लगातार बढ़ती हुई भीड़ का शोर उसकी आवाज को गुम कर रहा था। चीखने के कारण उसके गले की नसें फूल कर चमकने लगी थीं। कनपटी पर तेज धड़कन के साथ मोटी नस फड़क रही थी। उत्तेजना के कारण चेहरा लाल हो चुका था। मेरे अलावा शायद ही कोई और समझ पाया हो कि वो खलील जिब्रान के एक उपन्यास में मठ से निकाले गए पात्र की तरह व्यवहार कर रहा था। वो भीड़ को आंदोलित करना चाहता था। उसकी पूरी कोशिश थी कि उसकी आवाज किसी तरह भीड़ तक पहुंच जाए।
पर भीड़ का सच उसके सच से अलग था। भीड़ उसके मकसद से अनजान, घंटाघर, पर चढे हुए एक पुतले को देख-देख कर उत्तेजित और अल्हादित हो रही थी। पुतला गिरा तो क्या होगा- नहीं गिरा तो क्या होगा? भीड़ की जिज्ञासा इससे अधिक और कुछ नहीं थी। पर उसके लिए संदर्भ बिल्कुल बदले हुए थे। उसे लगा था कि नीचे इठा हुई भीड़ उसके आह्वान पर एकत्रित हुई है। जब वो एक हाथ उठा कर भीड़ को सम्बोधित करता तो भीड़ दोनों हाथ उठा देती। भीड़ समझती थी कि उसका हाथ उठाना-घंटाघर से कूदने की तैयारी है। इसलिए भीड़ उसे रोकने के लिए अपने दोनों हाथ उठा लेती।
वो खुशी से झूम उठा! उसे लगा कि भीड़ तक उसकी आवाज और उसका मकसद पहुँच रहे हैं। अब उसने अपने पुलिंदे की गांठ खोलना शुरू कर दी थी और भीड़ के और करीब आने के लिए घंटाघर के छज्जे पर उतरने की कोच्चिच्च करने लगा था। तभी सामने से उसके ऊपर पानी की तेज बोछार हुई और वो पीछे हट गया। उसने दांई और मुड़ने की कोशिश की तो उस ओर भी पानी की तेज बोछार थी। मैंने देखा दमकल की गाड़ियों ने घंटाघर को चारों ओर से घेर लिया था। वो जिस तरफ भी हिलता उसी ओर बोछार शुरू हो जाती। पानी की धार इतनी तेज थी कि वो जब भी उससे टकराता- गिर पड़ता। फिर एका-एक चारों ओर से एक साथ पानी की तेज धार उस पर पड़ने लगी। मैंने देखा सच के पुलिंदे को पेट से चिपका कर वो ऊकडू बैठ गया है। वो उसे गीला होने से बचाना चाहता था। दमकल वालों के लिए इतना मौका काफी था। लम्बी सीढ़ियां घंटाघर पर छा गईं और बीसियों आदमियों ने उसे दबोच लिया।


अगली सुबह अखबार पढ़ते हुए मैं चौंक गया। पुलिस ने दावा किया था कि उसके पास से अनेक आपत्तिजनक दस्तावेज मिले थे। पुलिस को शक था कि उसके सम्बंध किसी नक्सलवादी पड़ोसी मुल्क से थे और वो देश में अशांति उत्पन्न करना चाहता था। सच्चाई जानने और उसके साथियों का पता लगाने के लिए पुलिस ने उसे पोटा में निरूद्ध कर दिया था।
मेरा शरीर कांपने लगा। हाथ में पकड़ा चाय का गिलास मेज पर रखकर मैं धीरे-धीरे सिर को दबाने लगा। बात यहाँ तक पहुँच सकती है- इसका तो मुझे अंदाज ही नहीं था। मैं तो यही मान कर चल रहा था कि पुलिस उसे सुबह से शाम तक थाने में बिठाएगी, दो चार झांपड़ रसीद करेगी और छोड़ देगी। किसी सिर फिरे के साथ और किया भी क्या सकता था। परंतु यहाँ तो पूरा घटना क्रम ही नाटकीय तरीके से बदला गया था।
उसे छुड़ाने के लिए मैं पूरा दिन अपने सम्पर्का और सम्बंधों को भुनाने की कोच्चिच्च करता रहा। पुलिस कप्तान से लेकर आई जी पुलिस तक से मिला। कलैक्टर और कमीश्नर को दुहाई दे देकर सच समझाया। विधायक और सांसद को विश्वास में लेने की कोशिश की पर सब बेकार। अब तो जनता भी पुलिस की बनाई कहानी पर चटकारा ले रही थी।
रात गए मैं कमरे पर लौटा तो निढ़ाल हो चुका था। मैं समझ चुका था कि कहीं से भी मदद की कोई उम्मीद करना बेकार है क्योंकि उसके पास सच का जो हमाम था उसमे नंगे खड़े लोग भला उसकी मदद कैसे कर सकते थे।
हर ओर से हताश और निराश मैं बिजली बुझा कर पलंग पर लेट गया। पर तभी दरवाजे पर पड़ती दस्तक ने तंद्रा तोड़ दी। उठकर लाईट जलाई तो हक्का-बक्का रह गया। कमरे की हर खिड़की में संगीन तनी हुई थी।
---पुलिस को उसके जिस साथी की तलाश थी शायद वो उन्हें मिल गया था।

Wednesday, May 14, 2008

देश जो कि बाज़ार है

(मानवीय मनोभावों को बदलते मौसम के साथ व्याख्यायित करने में समकालीन हिन्दी कविता ने जीवन के कार्य व्यापार के अनेकों संदर्भों से अपने को समृद्ध किया है। कवि दुर्गा प्रसाद गुप्त की प्रस्तुत कवितायें ऐसी ही स्थितियों को रेखांकित करती हैं।

समकालीन रचना जगत में दुर्गा प्रसाद गुप्त जहॉं एक ओर अपनी सघन अलोचकीय दृष्टि के लिए जाना पहचाना नाम है, वहीं सुक्ष्म संवदनाओं से भरी उनकी कविताऐं एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रचनात्मक सरोकारों का साक्ष्य हैं। वर्तमान में "हिन्दी उर्दू हिन्दुस्तानी" जैसे विषय से जूझ रहे दुर्गा प्रसाद गुप्त केन्द्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिन्दी के प्रोफसर हैं। हाल ही में "आस्थाओं का कोलाज" रामशरण जोशी के लेखों की प्रकाशित पुस्तक में सम्मिलित आलेखों का चयन और सम्पादन दुर्गा प्रसाद गुप्त ने किया है। इसके अलावा "आधुनिकतावाद", "अपने पत्रों में मुक्तिबोध", "संस्कृति का अकेलापन" उनकी अन्य प्रकाशित कृतियां हैं। कविता संग्रह "जहां धूप आकार लेती है" उनकी प्रकाशनाधीन कृति है।
)



कविता का बसंत


जाड़े के दिनों की तरह बसंत के दिन उदास नहीं होते
खिड़की के बाहर कुहासा नहीं होता
धूप आती-जाती-सी नहीं लगती, और न
जाडे वाली बारिश के दिनों की तरह
गलियों में कीच और ठंड होती है, पर
जाडे के दिनों में घर में कैद, चुप और खिन्न लोगों के बारे में
सोचती हैं वह लड़की, कि
बारिश और जाडे की नमी ने ही उसके भीतर चाहत पैदा की है बसंत की
वह बसंत की कामना बाहर नहीं, अपने भीतर करती है, और
एक दिन अपनी गर्म साँसों में पाती है, कि
बसंत अपनी सहजता में निस्पंद लहलहा रहा है उसके भीतर
किसी सुदंर की सृष्टि करता हुआ।



पागल होना ज़रूरी है


जो सहना नहीं जानते, वे पागल होते हैं, और
जो पागल होते हैं, वे ही सच को भी जानते हैं
सहने की हद तक जब कोई
किसी सच के खिलाफ किसी झूठ को सच बता रहा होता है
पागल उस सच को नहीं, झूठ को भूलना चाह रहा होता है
वह जानता है कि जो अधूरे पागल हैं वे पागलखाने के बाहर हैं, और
जो पूरे हैं वे पागलखाने के अंदर, पर
पागलखाने के बाहर रहना भी एक दूसरे को धोखा देना ही है

क्योंकि-
जिस देश में पागलखाने नहीं बढ़ते
वहाँ सच की उम्मीद भी नहीं बढ़ती।



देश जो कि बाज़ार है


बाज़ार चीज़ों को खरीदता और बेचता ही नहीं है
वह चीज़ों के साथ हमारे आत्मीय सम्बंधों को भी परिभाषित करने लगा है
वह चाहता है कि उसकी तिज़ारत में हमारे सुख-दु:ख भी शामिल हों
ताकि हमें भी लगे कि बाज़ार हमारे साथ और हमारे ही लिए हैं

बाज़ार ने हमें कुछ सिखाया हो या नहीं
कम-से-कम चीज़ों का उपभोग करना तो सिखा ही दिया है
जिस तरह फिल्मों ने हमें कम-से-कम नाचना गाना तो सिखा ही दिया है
इसीलिए बाज़ार के 'लाइव शो" में बदहाली और खुशहाली सब-
'रीमिक्स" हो नाचती हैं देश के लिए,
देश जो कि अब बाज़ार है।

Wednesday, May 7, 2008

मछलियां पकडने वाला तिब्बती खरगोश

(ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह अंतिम कड़ी है)


ल्वोचू खरगोश की कथा - चार

जाड़े का मोसम शुरु हो चुका था। चोटियों पर बर्फ पूरी तरह से जम चुकी थी और नदी का पानी जमने लगा था। सर्दी से बचने के लिए जानवर अपनी मांद में दुबककर बैठ गये थे। भूख से तड़फती नीले रंग की वो मादा भेड़िया, जिसके दो साथी खरगोश की योजनाओं के शिकार हो चुके थे, जो भी छोटा मोटा जीव दिख जाता उसे दौड़ भागकर धर दबोचती।
एक दिन ल्वोचू खरगोश बर्फ जमी नदी पर अपनी पूंछ को बर्फ पर पटकने का खेल खेल रहा था। लगातार खेलते हुए वह थक गया तो आराम करने लगा।
तभी उस नर भेडिये की छोटी बहन उस नीली मादा भेडिया ने दौड़कर उसके पास आयी और बोली, "ओ तू ही है वो हरामी जिसने मेरे भाई को चट्टान के नीचे फेंका और मेरी भाभी को नदी की तेज धारा में डुबोया। तुझे तो मैं आज छोडूंगी ही नहीं। वैसे भी मुझे जोर की भूख लगी है।" और वह खरगोश पर झपटी।
बर्फ में लुढ़कने के बाद जब खरगोश खड़ा हुआ तो उसने बड़े ही कोमल ढंग से मादा भेड़िया को प्रणाम किया, "हे भेड़िया कुमारी, आप क्यों ऐसा दोष मुझ पर मड़ रही हैं। मैंने सुना है कि धूप सेंकने वाले खरगोश ने आपके भाई को अंधा बनाया और स्वर्ग के वृक्ष पर सवार होने वाले खरगोश ने आपकी भाभी की हत्या की। मैं तो मछली पकड़ने वाला खरगोश हूं, किसी की हत्या करने के बारे में तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता।"
मादा भेड़िया पर कोई असर न हुआ, "लेकिन फिर भी मैं तुझे छोडूंगी नहीं, चाहे तू हत्यारा है या नहीं।" और उसने अपने नुकीले पंजे खरगोश की ओर बढ़ा दिये।
खरगोश थोड़ा हड़बड़ा गया, "भेड़िया कुमारी, आप देखें तो सही मैं कितना दुबला पतला हूं। मुझमें तो एक चूहे के बराबर भी मांस नहीं। मुझे खाकर भी आपकी भूख शांत न होगी। यदि आप सच में भूखी हैं तो मैं आपके लिए मछलियां पकड़ देता हूं।"
मादा भेड़िया सचेत थी। उसने खरगोश के कान उमेठे, "तू कितना दुष्ट है, मैं अच्छे से जानती हूं। तेरे मुंह में पड़ी दरार बता रही है कि तू तो तू तेरे पूर्वज भी ऐसे ही दुष्ट रहे होगें। तुम खरगोश ही मेरे भाई और भाभी के हत्यारे हो। मुझे जल्दी बता कि तू मछलियां कैसे पकड़ता है ?"
खरगोश उसे उस स्थान पर ले गया जहां कुछ ही देर पहले उसने अपनी पूंछ को पटकने का खेल खेला था और बोला, "कुमारी भेड़िया, बर्फ में छेद बना मैं पूंछ को छेद में डाल देता हूं तो भूखी मछलियां मेरी पूंछ पर चिपट जाती हैं। तब मैं झटके से अपनी पूंछ को ऊपर खींचकर पूंछ पर चिपटी मछलियों को पकड़ लेता हूं।"
मादा भेड़िया की आंखें फटी की फटी रह गयी। "यह तो तूने खूब बताया।" बस फिर तो वह खरगोश के साथ पूंछ से बर्फ पर थपेड़े मारने लगी।
इस तरह से जब बर्फ में छेद हो गया तो खरगोश ने मादा भेड़िया से पूछा, "कुमारी जी, आपको छोटी मछली खाना पसंद है या बड़ी?"
"मुझे तो बड़ी मछलियां ही पसंद है।" मादा भेड़िया ने कहा।
खरगोश तुरंत बोला, "मेरी पूंछ तो छोटी है, इसलिए छोटी मछलियां ही पकड़ पाता हूं। आपकी पूंछ तो बहुत लम्बी है, बड़ी मछलियों को आप आसानी से पकड़ पायेगीं। क्यों न आप ही पहले पकड़े।"
खरगोश की चापलूसी भरी बातों से मादा भेड़िया खुश हुई। अपनी लम्बी पूंछ को उसने झट छेद में डाल दिया।
पास ही खड़ा खरगोश लयात्मक स्वर में गाते हुए छेद में पानी उड़ेलने लगा,
"काली मछली आआ
सफेद मछली आओ
छोटी मछली आओ
बड़ी मछली आओ
दौड-दौडकर आओ
सारी मछलियां आओ।"
थोड़ी ही देर में मादा भेड़िया की पूंछ सर्दी के कारण जमती हुई बर्फ से चिपक गयी। वह सोचने लगी कि मछलियों ने उसकी पूंछ को जकड़ा हुआ है, बस मन ही मन खुश होती रही।
खरगोश वहां से एक ओर को हट गया और शरीर तान खड़ा होते हुए मादा भेड़िया को लल्कारते हुए बोला, "ऐ, इस जंगल के पशुओं की शत्रु बता जब मैं घास पर धूप सेंक रहा था तो तेरा भाई मुझ पर क्यों झपटा ? मैंने ही उसकी आंखों पर सरेस चढ़ाया और उसे गहरी खायी में गिरने को उकसाया। जब मैं पेड़ पर खेल रहा था तो तेरी भाभी ने मुझे क्यों धमकाया ? उसे स्वग की यात्रा मैंने ही करायी। अभी अभी मैं बर्फ पर खेल रहा था तो तूने भी मुझे क्यों धमकाया ? अब तो तेरी भी मृत्यू तेरा इंतजार कर रही है। तुझे जो भी कहना अब जल्द से बोल ले। आज मैं अपने सभी साथियों का बदला तुझसे भी ले रहा हूं।" और नाचने लगा।
खरगोश को खुशी से नाचता देख मादा भेड़िया जोर से गुर्रायी। अपने शरीर की पूरी ताकत लगाकर उसने जैसे ही खरगोश पर झपटना चाहा, बर्फ में फंसी पूंछ के कारण उसकी पूंछ और कूल्हा एक साथ टूट गये। कुछ देर तक वह छटपटाती रही फिर उसने दम तोड़ दिया।
खुशी की खबर लिये, ल्वाचू खरगोश विजय गीत गाते हुए अपने दोस्तों को मिलने निकल पड़ा।

यदि इस कथा को सिलसिलेवार रुप से पढ्ना चाहते है तो एक एक कर क्रमवार पढें :

एक

दो

तीन

स्वर्ग के रास्ते पर खडा तिब्बती खरगोश

(ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह तीसरी कड़ी है। चौथी और अंतिम कडी भी प्रस्तुत की जायेंगी. इंतजार करें.)


ल्वोचू खरगोश की कथा - तीन

जंगल के बीच घास के मैदान में एक रोज एक चरवाहे ने नीले रंग की मादा भेड़िया को जब अपनी भेड़ के मेमने को मुंह में दबोचते देखा तो तुरन्त पत्थर फेंक कर मारते हुए जोर से चिल्लाया। मादा भेड़िया अकबका कर मेमने को वहीं छोड़ अपनी जान बचाने के लिए भागी। पीछे से दौड़ते हुए चरवाहे से बचने के लिए उसे मजबूरन घाटी में बहने वाली नदी में कूदना पड़ा।
नदी के उस पार पहुंचकर सुस्ताने के लिए वह एक चटटान पर चढ़ गयी। ठंडे पानी से बाहर निकल उसने धूप सेंकनी चाही। तभी उसने चटटान की धार पर उगे एक पेड़ पर झूलते ल्वोचू खरगोश को देखा।
उसकी निगाहें खरगोश पर अटक गयी। उसने गौर से देखा और पहचान लिया कि यह तो वही खरगोश है जिसने उसके पति को मार डाला था। दौड़कर उसने छलांग लगायी और खरगोश को दबोच लिया, "दुष्ट, तुझे तो मैं कब से ढूंढ रही हूं। तूने मेरे पति की हत्या की। आज मैं तेरी जान लूंगी।"
खरगोश ने गिरफ्त में फंसे हुए भी धैर्य नहीं खोया और बड़े ही आत्मविश्वास से कहा, "श्रीमती जी, ऐसा मजाक न करें। मैं तो अदना सा जानवर हूं। आप हिमाच्च्छादित पर्वत की शेरनी है। आप स्वंय सोचे अपने इस मुटठीभर शरीर से मैं आपके पति की हत्या कैसे कर सकता हूं। मुझे तो इस बात को सुनकर हंसी ही आ रही है।" क्षणांश की लिए ढीली हुई पकड़ के साथ ही खरगोश ने अपने बदन को इस तरह से छुड़ाया कि उछलकर सीधे पेड़ पर जा बैठा और वहीं से बोला, "श्रीमती जी मैं तो आकाशचर खरगोश हूं। इस स्वर्ग के वृक्ष पर सवार होकर जगह-जगह जा सकता हूं। मनुष्यलोक की गतिविधियों के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं। कृपया आप मुझ पर अपना गुस्सा न उतारें।"
मादा भेड़िया ने आश्यर्च से आंखों को पूरा खोलते हुए कहा, "क्या ---? तू स्वर्गलोक तक उड़ सकता है ?"
''जी, जी ---" इठलाते हुए खरगोश बोला, "वैसे तो मैं अभागा ही ठहरा पर पूरी तरह नहीं। मेरा जीवन तो बस इसी स्वर्ग के वृक्ष पर निर्भर रहता हूं। कलम मैं इस पर सवार होकर चांद पर गया था। वहां खूब खेला। आज स्वर्ग के मैंदान में जाऊंगा। स्वर्ग में देवता रहते हैं। ढेरों रत्न और तरह तरह के व्यंजन वहां आसानी से मिल जाते हैं। मैं अभी जा ही रहा हूं बस। आपको कुछ चाहिए तो मुझे बता दें। क्या आपके लिए भेड़ों की हडि्डयां या भैंस के मोटे मांस के कुछ टुकड़े ठीक रहेगें ?"
इतना सुनते ही भेड़ के मुह से लार टपकने लगी। वह सोचने लगी, "स्वर्ग में तो हडि्डयों और मांस का ढेर लगा होगा। वहां तो सोने और खाने को आसानी मिल जाता होगा। क्या एक बार मैं नहीं जा सकती वहां !"
उसने खरगोश को पेड़ से नीचे उतर आने को कहा और स्वंय पेड़ पर बैठ गयी और वहीं से बोली, "तू किस तरह पेड़ पर बैठकर उड़ता है, जल्द से जल्द मुझे बता!"
मायूसी भरे चेहरे से खरगोश उसे देखता रहा और फिर अपने दांतों से पेड़ की जड़ कुतरने लगा। पेड़ चट्टान के एकदम किनारे पर था. तना बाहर, खायी में झुलता हुआ। जड़ के कुतरने पर पेड़ मिट्टी छोड़ने लगा और बची रह गयी कुछ जड़ों के सहारे खायी की ओर लटक गया। मादा भेड़िया पेड़ पर लटकी झूला झूलने लगी।
खरगोश ने चिल्लाकर कहा, ''श्रीमती जी डरें नहीं। बस आप कुछ ही समय में स्वर्गलोक में पहुंच जायेगीं।"
बड़ी ही लयात्मक मधुर आवाज में उसने कहा, "एक-दो-तीन, अब आप अपने पांवों को नीचे की ओर लटका जोर का झटका दें।"
जैसे ही मादा भेड़िया ने पांवों को लटकाकर झटका दिया, वह पेड़ के साथ-साथ गहरी गर्त में बह रही नदी की तेज धारा में पहुंच गयी।

सूरमें वाला तिब्बती खरगोश

(ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह दूसरी कडी है। आगे ल्वोचू खरगोश की कथा की अन्य कड़ियां भी प्रस्तुत की जायेंगी.)
ल्वोचू खरगोश की कथा - दो

एक दिन लवोचू खरगोश घास के ढेर पर आराम से धूप सेंक रहा था। अचानक उसे वह बड़ा नर भेड़िया दिखायी दिया। खाजाने वाली मुद्रा में वह उसी की ओर बढ़ा आ रहा था। खरगोश ने तुरंत आस-पास की कीचड़ को आंखों की पलकों पर लेप लिया और एक पारदर्शी बर्फ के टुकड़े को आईना बना, उसमें बार-बार अपना मुंह देखने लगा।
खूंखार नर भेड़िये को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसन एक धप्प उसके सिर पर जड़ते हुए कहा, ''ओये, होठकटे ! यह तूने क्या लगाया हुआ है ?"
खरगोश ने भेड़िये की ओर निगाह उठा ऐसे देखा मानो इससे पहले उसने भेड़िये को देखा ही नहीं था। पिछली टांगों का उठा उसने तीन बार झुक-झुककर भेड़िये को प्रणाम किया और ज़वाब दिया - ''वनराज मैं अपनी आंखों पर सुरमा लेप रहा हूं।"
''लेप, मतलब ?" भेड़िये ने आश्चर्य व्यक्त किया।
छोटे खरगोश ने बर्फ का आईना नीचे रखते हुए गम्भीरता से कहा, ''वनराज, खरगोश होने के नाते हम बड़े अभागे हैं। हर दिन अपमानित होने को अभिशप्त। पेड़ के पत्ते झड़े तो हमें लगता है कि आकाश गिर रहा है। बस्स, डर के मारे हमारी चीखें निकलने लगती है। इसीलिए मैंने आंखों में लगाने का यह विलक्षण सूरमा बड़ी मेहनत से तैयार किया है। इसे अपनी आंखों पर लेप लेने के बाद मैं कई सौ ली की दूरी तक साफ देख लेता हूं। मेरी निगाहों चट्टानों के पार भी चली जाती हैं। इसीलिए उड़ने वाले के झप्पटटा मारने से पहले मैं अपने बिल में घुस जाता हूं। शिकारी कुत्ते के हमला करने पर पेड़ पर चढ़ जाता हूं। इस तरह से जान के पीछे पड़े इन दुश्मनों से बिना डरे मैं निश्चिंतता का जीवन बीताने लगा हूं।"
नर भेड़िया मन ही मन सोचने लगा, ''ओ, तो ये बात है। लोग ऐसे ही नहीं कहते कि जंगली खरगोश बुद्धिमान होते हैं। --- अगर मैं भी अपनी आंखों पर सूरमें का लेप चढ़ा लूं तो कहीं भी छिपे हुए शिकार पर साफ नजर रख पाऊंगा। इस तरह से छुपे बैठे शिकार को ढूंढने में जो खामखां की मेहनत मुझे करनी पड़ती है, उससे तो छुटकारा मिलेगा ही साथ ही कभी शिकार न मिल पाने की स्थिति में भूखा रह जाने की संभावना भी न रहेगी।"
चेहरे पर हल्की मुस्कान बिखेरते हुए उसने खरगोश से कहा, ''मैं न तो तुम्हारी बातों पर और न ही तुम्हारे इस विलक्षण सूरमें पर यकीन कर पा रहा हूं। हां, मेरी आंखों पर लगाओं तो मैं खुद ही देख लूंगा कि यह विलक्षण है या नहीं।"
घबराहट के भावों को चेहरे पर लाते हुए खरगोश ने कहा, ''नहीं महाराज, आंखों पर लेप लगाये बिना ही जब आप मेरे जैसे न जाने कितनों को मार कर खा दिया, सूरमें का लेप आपकी आंखों में लग जाने के बाद तो हम में से कोई भी बच न पायेगा।"
भेड़िये को क्रोध आ गया। गुरर्राते हुए बोला, ''सूरमे का लेप तो तुझे लगाना ही पड़ेगा। नहीं तो मैं तेरी जान ले लूंगा।"
खरगोश ने डरने और सहमने का नाटक करते हुए चिरौरी की, ''वनराज आप नाहक क्रोधित न हो। मैं जानता हूं कि आप हम खरगोशों का ख्याल रखते रहे हैं। लेकिन अभी मेरे पास सूरमा है ही नहीं। आप कल दोपहर में आ जायें मैं तब तक सूरमा तैयार कर लेता हूं।"
भेड़िया प्रसन्न हो गया और खरगोश को प्यार से थपथपाते हुए वह दूसरे दिन पहुंचने का वायदा कर वह शिकार के लिए आगे निकल गया। उस रात खरगोश ने दबे-छुपे तरह से एक बढ़ई के घर में घुसकर भैंस के चमड़े से बने सरेस को चुरा लिया। अगले दिन सुबह ही एक चमकदार पत्थर पर उसे रख दिया। धूप की गरमी से सरेस पिघलने लगा।
दोपहर तक नर भेड़िया आ पहुंचा। खरगोश को देखते ही उसने कड़कती आवाज में कहा, ''क्या हुआ सूरमें का।"
खरगोश हड़बड़ा गया। पिछले पैरों को उछालते हुए भेड़िये के आगे दंडवत होते हुए बोला, ''महाराज मैं तो कब से आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा हूं। आईये बैठिये और अपना सुन्दर चेहरा सूरज की ओर कर आंखें बंद कर लीजिए। मैं आपकी कोमल आंखों पर सूरमें का लेप लगाता हूं।"
एक पत्थर पर बैठते हुए भेड़िये ने आंखे मूंद ली। पिघलचुकी सरेस को, घास-पत्तों और फलों के छिलके से बनाये ब्रश से, खरगोश ने भेड़िये की आंखों में परत चढ़ानी शुरु की। गरम पिघली हुई सरेस की चढ़ती परत ने सुखती हुई पपड़ी के साथ भेड़िये की आंखों को दुखाना शुरु किया तो कराहते हुए भेड़िया क्रोध से चिल्लाया, "हरामजादे ! तू मुझे धोखा दे रहा है।"
खरगोश ने उसकी आंखों में फूंक मारते हुए कहा, ''आपकी खिदमत कर पाना भी मुश्किल है वनराज। एक ओर तो आप कई ली दूर देखना चाहते हैं, और दूसरी ओर उसे हांसिल करने के लिए थोड़ा सा भी कष्ट नहीं चाहते। --- चलिये आप ठीक से बैठे मैं आपको खरगोशों का एक गीत सुनाता हूं।"
अब आंखों पर सरेस का लेप भी लगता जा रहा था और साथ ही साथ खरगोश के गीत का असर भी भेड़िये पर हो रहा था। वह मस्त होकर सिर हिलाता रहा। थोड़ी देर बाद उसकी आंखें पूरी तरह से सरेस से चिपक गयी। भेड़िये ने लेप का असर जानने के लिए आंखें खोलनी चाही तो खुली ही नहीं। खरगोश ने तुरंत टोका, ''जल्दी न कीजिये महाराज! थोड़ी देर ऐसे ही रहने दे। फिर मैं जब आपसे कूदने को कहूं तो तब आप झटके से आंखें खोले। ऐसे हवा में उछलकर जब आप अपनी आंखें खोलेगें तो कई सौ ली की दूरी पर स्थित चीजें आप को साफ चमकती हुई दिखायी देने लगेंगी।"
अब खरगोश भेड़िये को एक पहाड़ी के कगार पर ले गया। ऐसे मानों राजा को सहारा देता हुआ सिंहासन पर बैठाने ले जा रहा हो। कगार पर पहुंचकर बडे ही गीतात्मक लहजें में उसेने भेड़िये को कूदने को कहा, ''एक-दो-तीन, ऊपर उछलों महाराज! एक-दो-तीन ---"
भेड़िया पूरी ताकत से उछला। लेकिन आंखें खुलने से पहले ही वह गहरी घाटी में गिरकर मर चुका था।