(ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह दूसरी कडी है। आगे ल्वोचू खरगोश की कथा की अन्य कड़ियां भी प्रस्तुत की जायेंगी.)
ल्वोचू खरगोश की कथा - दो
एक दिन लवोचू खरगोश घास के ढेर पर आराम से धूप सेंक रहा था। अचानक उसे वह बड़ा नर भेड़िया दिखायी दिया। खाजाने वाली मुद्रा में वह उसी की ओर बढ़ा आ रहा था। खरगोश ने तुरंत आस-पास की कीचड़ को आंखों की पलकों पर लेप लिया और एक पारदर्शी बर्फ के टुकड़े को आईना बना, उसमें बार-बार अपना मुंह देखने लगा।
खूंखार नर भेड़िये को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसन एक धप्प उसके सिर पर जड़ते हुए कहा, ''ओये, होठकटे ! यह तूने क्या लगाया हुआ है ?"
खरगोश ने भेड़िये की ओर निगाह उठा ऐसे देखा मानो इससे पहले उसने भेड़िये को देखा ही नहीं था। पिछली टांगों का उठा उसने तीन बार झुक-झुककर भेड़िये को प्रणाम किया और ज़वाब दिया - ''वनराज मैं अपनी आंखों पर सुरमा लेप रहा हूं।"
''लेप, मतलब ?" भेड़िये ने आश्चर्य व्यक्त किया।
छोटे खरगोश ने बर्फ का आईना नीचे रखते हुए गम्भीरता से कहा, ''वनराज, खरगोश होने के नाते हम बड़े अभागे हैं। हर दिन अपमानित होने को अभिशप्त। पेड़ के पत्ते झड़े तो हमें लगता है कि आकाश गिर रहा है। बस्स, डर के मारे हमारी चीखें निकलने लगती है। इसीलिए मैंने आंखों में लगाने का यह विलक्षण सूरमा बड़ी मेहनत से तैयार किया है। इसे अपनी आंखों पर लेप लेने के बाद मैं कई सौ ली की दूरी तक साफ देख लेता हूं। मेरी निगाहों चट्टानों के पार भी चली जाती हैं। इसीलिए उड़ने वाले के झप्पटटा मारने से पहले मैं अपने बिल में घुस जाता हूं। शिकारी कुत्ते के हमला करने पर पेड़ पर चढ़ जाता हूं। इस तरह से जान के पीछे पड़े इन दुश्मनों से बिना डरे मैं निश्चिंतता का जीवन बीताने लगा हूं।"
नर भेड़िया मन ही मन सोचने लगा, ''ओ, तो ये बात है। लोग ऐसे ही नहीं कहते कि जंगली खरगोश बुद्धिमान होते हैं। --- अगर मैं भी अपनी आंखों पर सूरमें का लेप चढ़ा लूं तो कहीं भी छिपे हुए शिकार पर साफ नजर रख पाऊंगा। इस तरह से छुपे बैठे शिकार को ढूंढने में जो खामखां की मेहनत मुझे करनी पड़ती है, उससे तो छुटकारा मिलेगा ही साथ ही कभी शिकार न मिल पाने की स्थिति में भूखा रह जाने की संभावना भी न रहेगी।"
चेहरे पर हल्की मुस्कान बिखेरते हुए उसने खरगोश से कहा, ''मैं न तो तुम्हारी बातों पर और न ही तुम्हारे इस विलक्षण सूरमें पर यकीन कर पा रहा हूं। हां, मेरी आंखों पर लगाओं तो मैं खुद ही देख लूंगा कि यह विलक्षण है या नहीं।"
घबराहट के भावों को चेहरे पर लाते हुए खरगोश ने कहा, ''नहीं महाराज, आंखों पर लेप लगाये बिना ही जब आप मेरे जैसे न जाने कितनों को मार कर खा दिया, सूरमें का लेप आपकी आंखों में लग जाने के बाद तो हम में से कोई भी बच न पायेगा।"
भेड़िये को क्रोध आ गया। गुरर्राते हुए बोला, ''सूरमे का लेप तो तुझे लगाना ही पड़ेगा। नहीं तो मैं तेरी जान ले लूंगा।"
खरगोश ने डरने और सहमने का नाटक करते हुए चिरौरी की, ''वनराज आप नाहक क्रोधित न हो। मैं जानता हूं कि आप हम खरगोशों का ख्याल रखते रहे हैं। लेकिन अभी मेरे पास सूरमा है ही नहीं। आप कल दोपहर में आ जायें मैं तब तक सूरमा तैयार कर लेता हूं।"
भेड़िया प्रसन्न हो गया और खरगोश को प्यार से थपथपाते हुए वह दूसरे दिन पहुंचने का वायदा कर वह शिकार के लिए आगे निकल गया। उस रात खरगोश ने दबे-छुपे तरह से एक बढ़ई के घर में घुसकर भैंस के चमड़े से बने सरेस को चुरा लिया। अगले दिन सुबह ही एक चमकदार पत्थर पर उसे रख दिया। धूप की गरमी से सरेस पिघलने लगा।
दोपहर तक नर भेड़िया आ पहुंचा। खरगोश को देखते ही उसने कड़कती आवाज में कहा, ''क्या हुआ सूरमें का।"
खरगोश हड़बड़ा गया। पिछले पैरों को उछालते हुए भेड़िये के आगे दंडवत होते हुए बोला, ''महाराज मैं तो कब से आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा हूं। आईये बैठिये और अपना सुन्दर चेहरा सूरज की ओर कर आंखें बंद कर लीजिए। मैं आपकी कोमल आंखों पर सूरमें का लेप लगाता हूं।"
एक पत्थर पर बैठते हुए भेड़िये ने आंखे मूंद ली। पिघलचुकी सरेस को, घास-पत्तों और फलों के छिलके से बनाये ब्रश से, खरगोश ने भेड़िये की आंखों में परत चढ़ानी शुरु की। गरम पिघली हुई सरेस की चढ़ती परत ने सुखती हुई पपड़ी के साथ भेड़िये की आंखों को दुखाना शुरु किया तो कराहते हुए भेड़िया क्रोध से चिल्लाया, "हरामजादे ! तू मुझे धोखा दे रहा है।"
खरगोश ने उसकी आंखों में फूंक मारते हुए कहा, ''आपकी खिदमत कर पाना भी मुश्किल है वनराज। एक ओर तो आप कई ली दूर देखना चाहते हैं, और दूसरी ओर उसे हांसिल करने के लिए थोड़ा सा भी कष्ट नहीं चाहते। --- चलिये आप ठीक से बैठे मैं आपको खरगोशों का एक गीत सुनाता हूं।"
अब आंखों पर सरेस का लेप भी लगता जा रहा था और साथ ही साथ खरगोश के गीत का असर भी भेड़िये पर हो रहा था। वह मस्त होकर सिर हिलाता रहा। थोड़ी देर बाद उसकी आंखें पूरी तरह से सरेस से चिपक गयी। भेड़िये ने लेप का असर जानने के लिए आंखें खोलनी चाही तो खुली ही नहीं। खरगोश ने तुरंत टोका, ''जल्दी न कीजिये महाराज! थोड़ी देर ऐसे ही रहने दे। फिर मैं जब आपसे कूदने को कहूं तो तब आप झटके से आंखें खोले। ऐसे हवा में उछलकर जब आप अपनी आंखें खोलेगें तो कई सौ ली की दूरी पर स्थित चीजें आप को साफ चमकती हुई दिखायी देने लगेंगी।"
अब खरगोश भेड़िये को एक पहाड़ी के कगार पर ले गया। ऐसे मानों राजा को सहारा देता हुआ सिंहासन पर बैठाने ले जा रहा हो। कगार पर पहुंचकर बडे ही गीतात्मक लहजें में उसेने भेड़िये को कूदने को कहा, ''एक-दो-तीन, ऊपर उछलों महाराज! एक-दो-तीन ---"
भेड़िया पूरी ताकत से उछला। लेकिन आंखें खुलने से पहले ही वह गहरी घाटी में गिरकर मर चुका था।
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