शैलेय की कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए, ऐसा कह कर सिफारिश करता हुआ होना नहीं चाहता - यह उनकी कविताओं का अपमान ही होगा। मैं बहुत छोटी-सी कविता पढ़ता हूं कभी, कहीं -
हताश लोगों से /बस/एक सवाल
हिमालय ऊंचा /या/बछेन्द्रीपाल ?
और अटक जाता हूं। कवि का नाम पढ़ने की भी फुर्सत नहीं देती कविता और खटाक के साथ जिस दरवाजे को खोलती है, चारों ओर से सवालों से घिरा पाता हूं। जवाब तलाशता हूं तो फिर उलझ जाता हूं। कुछ और पढ़ने का मन नहीं होता उस दिन। कविता का प्रभाव इतना गहरा कि कई दिनों तक गूंजती रहती है वे पंक्तियां। हाल ही में प्रकाशित शैलेय की कविताओं की किताब "या" हाथ लग जाती है तो पाता हूं कि पहले ही पन्ने में वही कविता मौजूद है। पढ़ता हूं और चौंकता हूं। इतने समय तक जो कविता मुझे कवि का नाम जानने का भी अवकश न देती रही, वह शैलेय की है तो सचमुच गद-गद हो उठता हूं। पर अबकी बार उस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश खुद से नहीं करता। बस संग्रह की दूसरी कविताओं में ढूंढता हूं। उस जवाब को ढूंढते हुए ढेरों दूसरे सवालों से घेरने को तैयार बैठी शैलेय की अन्य कविताऐं मुझे फिर जकड लेती हैं। लेकिन उन सवालों से भरी कविताओं को फिर कभी। अभी तो जवाब देती कविताओं को ही यहां देने का मन है।
शैलेय 09760971225
या
हताश लोगों से
बस
एक सवाल
हिमालय ऊंचा
या
बछेन्द्रीपाल ?
पगडंडियां
भले ही
नहीं लांघ पाये हों वे
कोई पहाड़
मगर
ऊंचाइयों का इतिहास
जब भी लिखा जाएगा
शिखर पर लहराएंगी
हमेशा ही
पगडंडियां।
इतिहास
ढाई साल की मेरी बिटिया
मेरे लिखे हुए पर
कलम चला रही है
और गर्व से इठलाती
मुझे दिखा रही है
मैं अपने लिखे का बिगाड़ मानूं
या कि
नये समय का लेखा जोखा
बिटिया के लिखे को
मिटाने का मन नहीं है
और दोबारा लिखने को
अब न कागज है
न समय।
बातचीत
मोड़ के इस पार
सिर्फ इधर का दृश्य ही दिखाई दे रहा है
उस पार
सिर्फ उसी दिशा की चीजें
ठीक मोड़ पर खड़े होने पर
दृश्य
दोनों तरफ के दिखाई दे रहे हैं
किन्तु सभी कुछ धुंधला
दृश्यों के हिसाब से
जीवन बहुत छोटा
दोनों तरफ की यात्राएं कर पाना कठिन
काश !
किसी मोड़ पर
दोनों तरफ के यात्री
मिल-बैठकर कुछ बातचीत करते।
+सवाल दर सवाल हैं हमें जवाब चाहिए - एक जनगीत की पंक्ति है। अभी रचनाकार का नाम याद नहीं। संभवत: गोरख पाण्डे। कोई साथी बताए तो ठीक कर लूंगा। लेकिन गोरख पाण्डे के अलावा रचनाकार कोई दूसरा हो तो अन्य दो एक पंक्तियां और पुष्टि के लिए भी देगें तो आभारी रहूंगा। क्योंकि मेरे जेहन में गोरख पाण्डे की तस्वीर उभर रही है तो उसे दूर करने के लिए पुष्ट तो होना ही चाहूंगा।
Thursday, August 21, 2008
Monday, August 18, 2008
कौन है जो तोड़ता है लय
वह कोई अकेला दिन नहीं था। हर दिनों की तरह ही एक वैसा दिन - जब सड़क के किनारे, कच्चे पर दौड़ते हुए उसका पांव लचक खा जाता था। पांवों से फूटता संगीत जो एक रिदम से उठते कदमों पर टिका होता, कुछ क्षण को थम जाता। लेकिन उस दिन संगीतमय गति में उठता उसका पांव ऐसा लचक खाया कि उसको बयां करना संभव ही नहीं। करना भी चाहूं तो ओलम्पिक में जाने वाली टीम से वंचित कर दी गई वेटलिफ्टर, मोनिका की तस्वीर उभरने लगती है। उसके रुदन के बिना बयां करना संभव भी नहीं।
जब वह दौड़ता हुआ होता तो पांव लगातार आगे पीछे होते हुए एक चक्के को घूमाती मशीन की गति से दिखाई देते। कभी दो-पहिया वाहनों की खुली मोटर देखी है - मोटर की क्रेंक भी देखी होगी। उसी क्रेंक की शाफ्ट की गति जो पिस्टन को आगे पीछे धकेलने के लिए लगातार एक लयबद्ध तरह से घूमती है। उसके घूमने में जो लय होती है और संगीत, ठीक वैसा ही संगीत उठता है - एक लम्बी रेस का धावक जब अपनी लय में दौड़ रहा होता है। क्रेंक तो दो पहिये क्या चार पहिये वाले वाहनों में भी होती ही हो शायद और यदि होती होगी तो निश्चित है उसकी शाफ्ट भी एक लय में ही घूमेगी। बिना लय के तो गति संभव ही नहीं। इंजन फोर-स्ट्रोक हो चाहे आम, डबल-स्ट्रोक।
वह भी अपने क्रेंक की शाफ्टनुमा पांवों के जोर पर दौड़ते हुए अपने शरीर को लगातार आगे बढ़ा रहा होता था - उस तय दूरी को छूने के लिए जो उसने खुद निर्धारित की होती अपने लिए - अभ्यास के वक्त। या, प्रतियोगिताओं में आयोजकों ने। लम्बी रेस का धावक था वह। लम्बी रेस के अपने ही जैसे उस धावक से प्रभावित जिसको शहर भर उसके नाम से जानता था।
सुबह चार बजे ही उठ जाता। अंधेरे-अंधेरे में। आवश्यक कार्यों को निपटा हाथों पांवों को खींच-तान कर, कंधे, गर्दन और कलाई एवं एड़ी को गोल-गोल घुमा, एक हद तक शरीर को लचकदार बनाते हुए पी सड़क के किनारे-किनारे कच्चे में उतरकर दौड़ना शुरु हो जाता। उसका छोटा भाई, जिसको नींद में डूबे रहने में बड़ा मजा आ रहा होता, उसकी यानी बड़े भाई की सनक के आगे उसे झुकना ही होता। और भाई के साथ उसे भी निकलना होता - साइकिल पर उसके साथ-साथ। वहां तक चलना होता जो धावक की तय की हुई दूरी होती। शुरु-शुरु में वही एक शागिर्द हुआ करता था जिसे उसके उन कपड़ों को, जिन्हें उतार कर वह दौड़ रहा होता या दौड़ने के कारण उत्पन्न होते ताप के साथ जिसे उतारते जाना होता, साइकिल के कैरियर में दबाकर चलना होता। अपने "खप्ति" भाई की खप्त में शरीक होने को छोटे भाई की मजबूरी मानना ठीक नही, भीतरी इच्छा भी रहती ही थी उसमें भी। कई-कई बार, जब भाई को बहुत दूर तक नहीं जाना होता और वह बता देता कि चल आज सिर्फ एक्सरसाईज करके ही आते हैं, तो उस दिन साईकिल नहीं थामनी होती। उस दिन उसे कपड़े नहीं पकड़ने होते। वह भी साथ-साथ दौड़ता हुआ ही जाता था। दौड़ना इतना आसान भी नहीं जितना वह मान लेता था - साईकिल पर चढ़े-चढ़े। उसे तो एक लम्बी दूरी तक साईकिल चला देना ही थका और ऊबा देने वाला लगता। यह ज्ञान उसे ऐसे ही क्षणों में होता। वह साईकिल पर जब खूब तेज निकलता और दौड़ता हुआ भाई पीछे रह जाता तो उसके पीछे रहने पर उसे खीझना नहीं चाहिए, ऐसे ही क्षणों में उसके भीतर भाई के प्रति कुछ कोमल-सी भावनाएं उठतीं। उस मैदान तक दौड़ते हुए, जहां एक्सरसाईज की जानी होती, उसकी सांस फूलने लगती। कई बार जब कोख में दर्द उठता तो भाई की सलाह पर नीचे झुककर दौड़ते हुए वह देखता कि पेट दर्द गायब हो चुका है। तो भी उसे दौड़कर मैदान में पहुंचना साईकिल पर चलते हुए लम्बी दूरी को तय करने से सहज और अच्छा भी लगता। कई बार तो मन ही मन तय करता कि भाई की तरह एक धावक बन जाए। पर फिर साईकिल के कैरियर पर कपड़ों को लादकर कौन जाऐगा ? उसे तो बस ऋषिकेश के नजदीक उस नटराज सिनेमा के चौराहे तक पहुंचना होता जहां तक सड़क के किनारे-किनारे कच्चे पर दौड़-दौड़ कर पहुंचा हुआ उसका भाई ढालवाला को उतरने वाली सड़क पर बनी पुलिया पर बैठकर सांस लेता था। लगभग 35-40 किलोमीटर की दूरी दौड़ कर तय करते हुए पसीने से तर धावक का बदन पारदर्शी हो जाता। पुलिया पर विश्राम करते हुए पहाड़ी हवाओं के झोंको से पसीना सूख जाने के बाद वह तपा हुआ दिखाई देता। जब तप-तपाया शरीर अपनी पारदर्शिता को भीतर छुपा लेता वह कपड़े पहनता और साईकिल पर डबलिंग करते हुए दोनों भाई वापिस घर लौट आते।
बाद-बाद में जैसे-जैसे छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं में जीत हांसिल करते हुए बड़े भाई का नाम होता गया और नये-नये शागिर्द बनते गए, बड़े भाई के आदर्शों से भटक कर छोटा भाई अपने उस रास्ते पर निकलने लगा जो जोश-खरोश से भरा था। पर जिसमें हर वक्त खतरनाक किस्म के छूरे बाज कब्जा किए होते। वह बेखौफ उनसे भिड़ जाता था उत्तेजना और रोमांच से भरा - युवा मानस।
उस रोज जब लम्बी रेस का वह कुशल धावक, घर से सैकड़ों मील दूर दक्षिण में शायद कोयम्बटूर या कोई अन्य शहर में आयोजित प्रतियोगिता को जीत चुका था या जीतने-जीतने को रहा होगा, उसी समय या उसके आस-पास का समय रहा होगा, किसी दिन उसके छोटे भाई से सीधे-सीधे न निपट पाए एक खतरनाक छुरे बाज का चाकू छोटे भाई की पसलियों के पार उतर गया और बीच चौराहे में वह जाबांज तड़फते हुए हमेशा के लिए सो गया। एक ही दिन एक ही अखबार के अलग अलग पृष्ठों में दोनों भाईयों की खबर दुर्योग ही कही जा सकती है।
देहरादून हरिद्वार रोड़ पर वह उसी किनारे, कच्चे में उतरकर, जहां उखड़ रही सड़क की रोड़ियां भी पड़ी होती, दौड़ता हुआ नटराज सिनेमा चौराहे तक पहुंचता था जिस किनारे गढ़ निवास, मोहकमपुर में वो बिन्द्रा डेरी है जिसे आज की भाषा में फार्म हाऊस कहा जा रहा है। जी हां उस वक्त (उस वक्त क्या आज भी यदि अखबारों को छोड़ दे तो आम बोलचाल में स्थानीय निवासी) उसे बिन्द्रा डेरी के ही नाम से जानते हैं। यह अलग बात है कि भविष्य में वो डेरी भी न रहे और उसकी जगह कोई पांच सितारा खड़ा हो। अभिनव के पिता ने अपने बेटे को उसकी स्वर्ण सफलता के उपलक्ष्य में उपहार में उसे इसी रुप में भेंट करना चाहा है - अखबारों की खबरों के मुताबिक उस फार्म हाऊस पर पांच सितारा का निर्माण होगा। स्वर्ण विजेता बेटे को दिये गये उपहार में एक पिता की वो अमूल्य भेंट होगी - यह अखबारों के मार्फत है जो अभिनव बिन्द्रा के पिता का कहना है ।
वह जिस दौर में उस सड़क पर दौड़ता था बिन्द्रा डेरी उसके लिए एक रहस्य भरी जगह थी। जिसके बाहर हर वक्त चौकीदार पहरा दे रहा होता। रहस्य से पर्दा डेरी का चौकीदार उठाता जो स्थानीय लोगों की उत्सुकता के जवाब भी होते। चौकीदार की भाषा का तर्जुमा करते हुए लगाने वाले शर्त लगाते - बताओ कितनी गाएं हैं बिन्द्रा डेरी में ? और जवाब पर संतुष्ट न होने पर फिर गेट पर खड़े चौकीदार से जाकर पूछते। या फिर कितनी दूध देती है ? और कितनी इस वक्त दूध नहीं देतीं ? या, बताओ कौन से देश से खरीदकर लायी गई हैं गाएं ? इस तरह की आपसी शर्तो में गेट पर खड़े चौकीदार की भूमिका निर्णायक होती। मालूम नहीं चौकीदार भी निर्णय देने में कितना सक्षम होता पर उसकी बात पर यकीन न करने का कोई दूसरा कारण होता ही नहीं। डेनमार्क जैसे देश का नाम उस डेरी की बदौलत ही सुनकर स्थानीय लोग अपने सामान्य ज्ञान में वृद्धि करते। और पिता बच्चों से सवाल पूछते, दुनिया में सबसे ज्यादा दुग्ध उत्पादक देश कौन सा है ? बच्चे भी बिन्द्रा डेरी के वैभव और वहां की गायों के आकर्षण में सुने हुए नाम को बताते - डेनमार्क।
डेनमार्क वास्तव में किस चीज का नाम है, यदि इस तरह के बेवकूफाना सवाल कोई उनसे पूछता तो शायद मौन रहने के अलावा उनके पास कोई जवाब न होता। उनके लिए तो डेनमार्क एक शब्द था जो बिन्द्रा डेरी की जर्सी गायों के लिए कहा जा सकता था। उनकी बातचीत किंवदतियों को गढ़ रही होती - मालूम है मशीन से दूध निकाला जाता है बिन्द्रा डेरी की उन गायों का जो डेनमार्क से लायी गई हैं। ऐसी ही कोई सूचना देने वाला सबका केन्द्र होता और खुद को केन्द्र में पा वह महसूस करता मानो कोई ऐसा बहुत बड़ा रहस्य उसके हाथ लगा है जिसने उसे एक महत्वपूर्ण आदमी बना दिया। उसके द्वारा दी जा रही जानकारी पर कोई सवाल जवाब करने की हिम्मत किसी की न होती। वे तो बस फटी आंखों से ऐसे देखते मानो मशीन उनके सामने-सामने गाय को जकड़ चुकी हो और बिना हिले-डुले गाय का दूध बाल्टी में उतरता जा रहा हो। बिन्द्रा डेरी के साथ ही उतरती वो ढलान जहां से सड़क के दूसरी ओर चाय बगान को निहारा जा सकता था, उस उतरती हुई ढलान पर तो पैदल चलते हुए ही गति बढ़ जाती फिर जब दौड़ रहे हों तो पांव को लचक खाने से बचाने के लिए सचेत रहना ही होता। दुल्हन्दी नदी के पुल तक, हालांकि मात्र 100-150 मीटर का फासला होगा। दौड़ते हुए जब पुल तक पहुंचते तब कहीं समतल कहें या फिर हल्की-सी उठती हुई चढ़ाई, पांव अपनी सामान्य गति में होते।
धावक के साथ-साथ दौड़ रहे उसके शागिर्द तो, जो वैसे तो धावक ही बनना चाहते, दौड़ते हुए रुक ही जाते और पैदल चलते हुए ही पुल तक पहुंचते। कोख में दर्द उठता हो या चाय बगान का आकर्षण या फिर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांक लेने का मोह, पर वहां पर पैदल चलना उन्हें अच्छा लगता। बिन्द्रा डेरी की डेनमार्की जर्सी गायों का आकर्षण, उनके कत्थई-लाल चमकते बदन की झलक पाने को तो हर कोई उत्सुक ही रहता। तब तक धावक उन्हें मीटरों दूर छोड़ चुका होता। रोज-रोज की दौड़ ने बिन्द्रा डेरी का आकर्षण उसके भीतर नहीं रख छोडा फिर उसका लक्ष्य तो एक धावक बनना हो चुका था। लेकिन उसके पीछे पीछे शागिर्दों की दौड़ भी जारी ही रहती। हालांकि यह तो झूठा बहाना है कि ढाल पर रुक जाने की वजह से वे लम्बी रेस के उस कुशल धावक से पीछे छूट गए। जबकि असलियत थी की उसकी गति के साथ गति मिलाकर दौड़ने की ताकत किसी में न होती। वह तो लगातार आगे ही आगे निकलते हुए एक लम्बा फासला बनाता रहता। जिस वक्त किसी प्रतियोगिता में ट्रैक पर दौड़ रहा होता तो देखने वाले देखते कि वह अपने साथ दौड़ने वालों को लगभग-लगभग एक चक्कर के फासले से पीछे छोड़ चुका है जबकि अभी रेस का एक तिहाई भाग ही पूरा हुआ है। बिन्द्रा डेरी की भव्यता उस डेरी के भीतर, कभी कभार झलक के रुप में दिखाई दे जाती जो उन डेनमार्की जर्सी गायों के लाल-कत्थई रंगों में छुपी होती। गेट पर चौकीदार न होता तो, जो कि अक्सर ही होता था, डेरी के भीतर घुस उनके कत्थई रंगों को हर कोई छूना चाहता। भविष्य के उस सितारे, वर्ष 2008 के ओलम्पिक स्वर्ण विजेता की शैशव अवस्था के चित्र भी उनकी स्मृतियों में दर्ज हो ही जाते। पर जिस तरह यह मालूम नहीं किया जा सकता था कि बिन्द्रा डेरी मे कितनी गाएं हैं ? कितनी दूध देती हैं ? और कितना देती हैं ? दूध मशीनों से निकाला जाता है या फिर उनको दूहने वाले भी कारिदें है ? ज्यादातर किस रंग की है ? और उनमें जर्सी कितनी और देशी कितनी ? या, देशी हैं भी या नहीं ? ठीक उसी तरह सड़क के बाहर से गुजर जाने वाला कैसे जान लेता कि भविष्य का सितारा इसी चार दीवारी के भीतर अभी अपनी शैशव अवस्था में है और अपनी मां की गोद से उछलकर कहीं निशाना साधने को लालायित। उसके बचपन के उन चित्रों को भी तो, जिन्हें स्थानीय अखबारों ने बड़े अच्छे से प्रस्तुत किया कि कैसे किसी कारिंदे के सिर पर रखी बोतल में वह निशाना साधता था, बाहर सड़क से गुजरते हुए या रुक कर भी नहीं देखा जा सकता था।
उसी बिन्द्रा डेरी से उतरती गई ढाल पर उस मनहूस दिन उसका पांव लचका। वह लचकना कोई आम दिनों की तरह लचकना नहीं था। अन्तर्राज्यीय प्रतियोगिताओं में जीतने के बाद उस समय वह राष्ट्रीय टीम के चयन कैम्प की तैयारी में व्यस्त था। क्या मजाल किसी शागिर्द की जो उस समय उसके साथ दौड़ने का अभ्यास भी करे। वह तो सरपट निकल जाएगा मीलों मील। उसे तो अपने ट्रैक समय को कम से कम करना था। अपने रिकार्ड को हर सैकण्ड के दसवे हिस्से तक कम करने में उसे मालूम था कि गति में जरा भी विचलन नहीं होना चाहिए। सड़क किनारे के ऊबड़-खाबड़ कच्चेपन की क्या मजाल जो उसकी गति में बाधा पहुंचा सके। लगातार एक लय में दौड़ते उसके पांवों की पिण्डलियों के चित्र खींचे जा सकते तो बताया जा सकता कि उनमें कैसी कैसी तो लहर उठती थी जब पांव उठा हुआ होता और दूसरे ही क्षण जब जमीन में लौटकर फिर उठ रहा होता था।
उस दिन पैर मुड़ा तो मुड़ा का मुड़ा ही रह गया। एक दबी-दबी सी चीख उसके मुंह से निकली और वह पांव पकड़ कर बिन्द्रा डेरी की चार दीवारी के बाहर उगी घास पर बैठा रहा। वह चीख ऐसी नहीं थी कि साईकिल में साथ-साथ चल रहा शागिर्द भी सुन पाता। वह तो अपनी साईकिल पर तराना गाता हुआ, चाय बगान को निहारता हुआ और कभी पैण्डलों के सहारे उचक कर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांकता हुआ, अपनी ही धुन में चलता रहा। काफी आगे निकल जाने के बाद, लक्ष्मण सिद्ध के मोड़ तक, जब उसने पीछे घूम कर देखा तो धावक दिखाई न दिया। कुछ देर रुक कर उसने धावक का इंतजार करना चाहा। हालांकि वह जान रहा था कि रुकने का मतलब अपने को धोखा देना है। क्योंकि ऐसा संभव ही नहीं कि दूर-दूर तक भी वह दिखायी न दे। अपने ऊपर अविश्वास करने का यद्यपि कोई कारण नहीं था पर एक क्षण को तो ख्याल उसके भीतर आया ही होगा कि कहीं आगे ही तो नहीं निकल गया। यदि साईकिल को मरियल चाल से चला रहा होता या क्षण भर को भी वह बीच में कहीं रुका होता तो निश्चित ही था कि पीछे लौटने की बजाय आगे ही बढ़ा होतां पर उसे अपने पर यकीन था और अपनी आंखों पर भी। रेलवे क्रासिंग को पार करते हुए ही उसने अपनी साईकिल तेजी से दौड़ा दी थी। क्यों कि गाड़ी के गुजरने का सिगनल हो चुका था और रेलवे का चौकीदार ऊपर उठे हुए उन डण्डों को नीचे गिराने जा रहा था जिसके बाद इधर वालों को इधर और उधर वालों को उधर ही रुक जाना था। उसके पांव पैण्डल थे जो तेज चल सकते थे।
लम्बी रेस के धावक के लिए अपनी गति को कभी ज्यादा और कभी कम नहीं करना होता, उसे तो बस एक लय से दौड़ना होता। गति बढ़ेगी भी ऐसे जैसे संगीत के सुर उठते हैं। यूं तो गति नीचे गिराने का मतलब है पिछड़ जाना तो भी यदि कभी उसमें परिवर्तन करना भी पड़ जाए तो वैसे ही - एक लय में।
वैसे दौड़ का मतलब ही अपने आप में प्रतियोगिता है ओर प्रतियोगिता में गति का कम होते जाना मतलब बाहर होते जाना है। उसमें तो गति को बढ़ना ही है बस। लिहाजा धावक भी फाटक के गिरने से पहले ही पार हो जाना चाहता था। उसकी गति जो बढ़ी तो नीचे उतरने का सवाल ही नहीं था। तय था कि जिस गति को वह पकड़ चुका है यदि रेस पूरी कर पाया तो अभी तक के अपने रिकार्डो को ध्वस्त कर देगा ओर यहीं से उसके भीतर यह आत्मविश्वास भी पैदा होना था कि उसकी क्षमता इस गति पर भी दौड़ सकने की है। फिर तो क्या मजाल की वह नीचे गति में दौड़े। अपनी गति को परखते हुए हर धावक अपनी क्षमताओं को विकसित करने की ओर ऐसे ही अग्रसर होता है। धावक ही क्यों एक निशानेबाज भी। जैसे अभिनव बिन्द्रा हुआ होगा और एक वेट लिफटर भी, जैसे मोनिका ने किया होगा। चूंकि उस दिन की गति और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही थी लिहाजा संभल कर दौड़ने की भी और ज्यादा जरुरत थी।
शागिर्द, जो अपनी साईकिल में चढ़ा-चढ़ा ही आगे निकल गया था वापिस लौटने लगा। बिन्द्रा डेरी की चारदीवारी के बाहर ही घास पर बैठा वह अपने पांव को पकड़े था। डेरी का चौकीदार अपनी पहरेदारी में मुस्तैद। वह अकेला था। पांव को मलासता हुआ। पांव के जोर पर खड़ा न हो पाने के कारण असहाय सा बैठा वह धावक शागिर्द को लौटते देख अपने भीतर नई ऊर्जा को महसूस करते हुए उठने उठने को हुआ तभी एक जोर की चीख के साथ उसे वही बैठ जाना पड़ा। टखना फूल गया था। एक गोला सा बना हुआ था। पांव जमीन पर रखते ही लचक मार जा रहा था। जैसे तो कैसे शर्गिद ने उसे सहारा देकर साईकिल में आगे डण्डे पर बैठाया और घर तक पहुंचा। लम्बे इलाज के बाद भी पांव ठीक होने-होने का न हुआ। कैम्प की तारीख निकलती जा रही थी। न जाने कितने दिन बिस्तर पर लेटे रहना था। जब उसे डाक्टर के पास ले जाया जाता तो वह डाक्टर से मिन्नते करता कि कैसे भी उसे बस चालू हालत में पहुंचा दो डॉक्टर सहाब। मिले हुए मौके को वह गंवाना नहीं चाहता था। डॉक्टर भी क्या करता। सिर्फ दिलासा देने के।
अरे जीवन में बहुत मौके आएगें दोस्त। अभी तुम आराम करो।
उसका वश चलता तो वह डॉक्टर की सलाहों को ताक पर रख कैम्प के लिए निकल जाता पर कम्बख्त पांव शरीर का बोझ उठाने के काबिल ही न हुआ और कैम्प में जाने का समय निकल गया। उस दिन वह सचमुच जार-जार रोया। ऐसा, जैसा लोगों ने इसी ओलम्पिक में शामिल न हो पाई पूर्वोत्तर की भरात्तोलक को रोते हुए देखा होगा, पहले टैस्ट के दौरान जिसे डोव टैस्ट में पाजिटिव पाए जाने के कारण टीम में शामिल होने से वंचित होना पड़। । उसकी चीखती आवाजें सुनने वाला उस वक्त कोई न था। वह जान रही थी कि एक साजिश रची जा रही है उसके विरुद्ध। उसका सरे आम ऐसा कहना कि मुझे गोली मार देना यदि मैं ड्रगिस्ट पायी गई तो, यूंही नहीं था। तकनीकी तरह से अयोग्य घोषित करके उसे टीम से बाहर किया जा रहा है - वह अपने दूसरे ओर तीसरे टेस्ट की प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। पर फिर भी ऐसा करना उसकी मजबूरी थी और जब बाकी के टेस्टों में वह सचमुच नैगेटिव पायी गई तब तक आला कमानों की टीम, जो उसको टीम में शामिल करने न करने का फैसला जेब में लिए घूम रहे थे, ओलम्पिक मशाल को जलाने पहुंच चुके थे।
बस वैसे ही रोया था वह भी उस दिन। उसके जीवन का वह पहला रोना था। उसकी मायूसी में उसके रोने को साथ वाले महसूस कर सकते थे। उसके पास तो कहने को भी काई ऐसा आधार न था कि उसके विरुद्ध कोई साजिश हुई। वह तो बस सड़क में बहुत पतले तल्ले वाले जूते में दौड़ते हुए लचक गया था। कहने को पांव ठीक हो गया पर वो ही जानता था कि अब दौड़ पाना उसके लिए संभव न रहा और धीरे-धीरे वह अपने शागिर्दों से भी प्रतियोगिताओं में पिछड़ने लगा।
जब वह दौड़ता हुआ होता तो पांव लगातार आगे पीछे होते हुए एक चक्के को घूमाती मशीन की गति से दिखाई देते। कभी दो-पहिया वाहनों की खुली मोटर देखी है - मोटर की क्रेंक भी देखी होगी। उसी क्रेंक की शाफ्ट की गति जो पिस्टन को आगे पीछे धकेलने के लिए लगातार एक लयबद्ध तरह से घूमती है। उसके घूमने में जो लय होती है और संगीत, ठीक वैसा ही संगीत उठता है - एक लम्बी रेस का धावक जब अपनी लय में दौड़ रहा होता है। क्रेंक तो दो पहिये क्या चार पहिये वाले वाहनों में भी होती ही हो शायद और यदि होती होगी तो निश्चित है उसकी शाफ्ट भी एक लय में ही घूमेगी। बिना लय के तो गति संभव ही नहीं। इंजन फोर-स्ट्रोक हो चाहे आम, डबल-स्ट्रोक।
वह भी अपने क्रेंक की शाफ्टनुमा पांवों के जोर पर दौड़ते हुए अपने शरीर को लगातार आगे बढ़ा रहा होता था - उस तय दूरी को छूने के लिए जो उसने खुद निर्धारित की होती अपने लिए - अभ्यास के वक्त। या, प्रतियोगिताओं में आयोजकों ने। लम्बी रेस का धावक था वह। लम्बी रेस के अपने ही जैसे उस धावक से प्रभावित जिसको शहर भर उसके नाम से जानता था।
सुबह चार बजे ही उठ जाता। अंधेरे-अंधेरे में। आवश्यक कार्यों को निपटा हाथों पांवों को खींच-तान कर, कंधे, गर्दन और कलाई एवं एड़ी को गोल-गोल घुमा, एक हद तक शरीर को लचकदार बनाते हुए पी सड़क के किनारे-किनारे कच्चे में उतरकर दौड़ना शुरु हो जाता। उसका छोटा भाई, जिसको नींद में डूबे रहने में बड़ा मजा आ रहा होता, उसकी यानी बड़े भाई की सनक के आगे उसे झुकना ही होता। और भाई के साथ उसे भी निकलना होता - साइकिल पर उसके साथ-साथ। वहां तक चलना होता जो धावक की तय की हुई दूरी होती। शुरु-शुरु में वही एक शागिर्द हुआ करता था जिसे उसके उन कपड़ों को, जिन्हें उतार कर वह दौड़ रहा होता या दौड़ने के कारण उत्पन्न होते ताप के साथ जिसे उतारते जाना होता, साइकिल के कैरियर में दबाकर चलना होता। अपने "खप्ति" भाई की खप्त में शरीक होने को छोटे भाई की मजबूरी मानना ठीक नही, भीतरी इच्छा भी रहती ही थी उसमें भी। कई-कई बार, जब भाई को बहुत दूर तक नहीं जाना होता और वह बता देता कि चल आज सिर्फ एक्सरसाईज करके ही आते हैं, तो उस दिन साईकिल नहीं थामनी होती। उस दिन उसे कपड़े नहीं पकड़ने होते। वह भी साथ-साथ दौड़ता हुआ ही जाता था। दौड़ना इतना आसान भी नहीं जितना वह मान लेता था - साईकिल पर चढ़े-चढ़े। उसे तो एक लम्बी दूरी तक साईकिल चला देना ही थका और ऊबा देने वाला लगता। यह ज्ञान उसे ऐसे ही क्षणों में होता। वह साईकिल पर जब खूब तेज निकलता और दौड़ता हुआ भाई पीछे रह जाता तो उसके पीछे रहने पर उसे खीझना नहीं चाहिए, ऐसे ही क्षणों में उसके भीतर भाई के प्रति कुछ कोमल-सी भावनाएं उठतीं। उस मैदान तक दौड़ते हुए, जहां एक्सरसाईज की जानी होती, उसकी सांस फूलने लगती। कई बार जब कोख में दर्द उठता तो भाई की सलाह पर नीचे झुककर दौड़ते हुए वह देखता कि पेट दर्द गायब हो चुका है। तो भी उसे दौड़कर मैदान में पहुंचना साईकिल पर चलते हुए लम्बी दूरी को तय करने से सहज और अच्छा भी लगता। कई बार तो मन ही मन तय करता कि भाई की तरह एक धावक बन जाए। पर फिर साईकिल के कैरियर पर कपड़ों को लादकर कौन जाऐगा ? उसे तो बस ऋषिकेश के नजदीक उस नटराज सिनेमा के चौराहे तक पहुंचना होता जहां तक सड़क के किनारे-किनारे कच्चे पर दौड़-दौड़ कर पहुंचा हुआ उसका भाई ढालवाला को उतरने वाली सड़क पर बनी पुलिया पर बैठकर सांस लेता था। लगभग 35-40 किलोमीटर की दूरी दौड़ कर तय करते हुए पसीने से तर धावक का बदन पारदर्शी हो जाता। पुलिया पर विश्राम करते हुए पहाड़ी हवाओं के झोंको से पसीना सूख जाने के बाद वह तपा हुआ दिखाई देता। जब तप-तपाया शरीर अपनी पारदर्शिता को भीतर छुपा लेता वह कपड़े पहनता और साईकिल पर डबलिंग करते हुए दोनों भाई वापिस घर लौट आते।
बाद-बाद में जैसे-जैसे छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं में जीत हांसिल करते हुए बड़े भाई का नाम होता गया और नये-नये शागिर्द बनते गए, बड़े भाई के आदर्शों से भटक कर छोटा भाई अपने उस रास्ते पर निकलने लगा जो जोश-खरोश से भरा था। पर जिसमें हर वक्त खतरनाक किस्म के छूरे बाज कब्जा किए होते। वह बेखौफ उनसे भिड़ जाता था उत्तेजना और रोमांच से भरा - युवा मानस।
उस रोज जब लम्बी रेस का वह कुशल धावक, घर से सैकड़ों मील दूर दक्षिण में शायद कोयम्बटूर या कोई अन्य शहर में आयोजित प्रतियोगिता को जीत चुका था या जीतने-जीतने को रहा होगा, उसी समय या उसके आस-पास का समय रहा होगा, किसी दिन उसके छोटे भाई से सीधे-सीधे न निपट पाए एक खतरनाक छुरे बाज का चाकू छोटे भाई की पसलियों के पार उतर गया और बीच चौराहे में वह जाबांज तड़फते हुए हमेशा के लिए सो गया। एक ही दिन एक ही अखबार के अलग अलग पृष्ठों में दोनों भाईयों की खबर दुर्योग ही कही जा सकती है।
देहरादून हरिद्वार रोड़ पर वह उसी किनारे, कच्चे में उतरकर, जहां उखड़ रही सड़क की रोड़ियां भी पड़ी होती, दौड़ता हुआ नटराज सिनेमा चौराहे तक पहुंचता था जिस किनारे गढ़ निवास, मोहकमपुर में वो बिन्द्रा डेरी है जिसे आज की भाषा में फार्म हाऊस कहा जा रहा है। जी हां उस वक्त (उस वक्त क्या आज भी यदि अखबारों को छोड़ दे तो आम बोलचाल में स्थानीय निवासी) उसे बिन्द्रा डेरी के ही नाम से जानते हैं। यह अलग बात है कि भविष्य में वो डेरी भी न रहे और उसकी जगह कोई पांच सितारा खड़ा हो। अभिनव के पिता ने अपने बेटे को उसकी स्वर्ण सफलता के उपलक्ष्य में उपहार में उसे इसी रुप में भेंट करना चाहा है - अखबारों की खबरों के मुताबिक उस फार्म हाऊस पर पांच सितारा का निर्माण होगा। स्वर्ण विजेता बेटे को दिये गये उपहार में एक पिता की वो अमूल्य भेंट होगी - यह अखबारों के मार्फत है जो अभिनव बिन्द्रा के पिता का कहना है ।
वह जिस दौर में उस सड़क पर दौड़ता था बिन्द्रा डेरी उसके लिए एक रहस्य भरी जगह थी। जिसके बाहर हर वक्त चौकीदार पहरा दे रहा होता। रहस्य से पर्दा डेरी का चौकीदार उठाता जो स्थानीय लोगों की उत्सुकता के जवाब भी होते। चौकीदार की भाषा का तर्जुमा करते हुए लगाने वाले शर्त लगाते - बताओ कितनी गाएं हैं बिन्द्रा डेरी में ? और जवाब पर संतुष्ट न होने पर फिर गेट पर खड़े चौकीदार से जाकर पूछते। या फिर कितनी दूध देती है ? और कितनी इस वक्त दूध नहीं देतीं ? या, बताओ कौन से देश से खरीदकर लायी गई हैं गाएं ? इस तरह की आपसी शर्तो में गेट पर खड़े चौकीदार की भूमिका निर्णायक होती। मालूम नहीं चौकीदार भी निर्णय देने में कितना सक्षम होता पर उसकी बात पर यकीन न करने का कोई दूसरा कारण होता ही नहीं। डेनमार्क जैसे देश का नाम उस डेरी की बदौलत ही सुनकर स्थानीय लोग अपने सामान्य ज्ञान में वृद्धि करते। और पिता बच्चों से सवाल पूछते, दुनिया में सबसे ज्यादा दुग्ध उत्पादक देश कौन सा है ? बच्चे भी बिन्द्रा डेरी के वैभव और वहां की गायों के आकर्षण में सुने हुए नाम को बताते - डेनमार्क।
डेनमार्क वास्तव में किस चीज का नाम है, यदि इस तरह के बेवकूफाना सवाल कोई उनसे पूछता तो शायद मौन रहने के अलावा उनके पास कोई जवाब न होता। उनके लिए तो डेनमार्क एक शब्द था जो बिन्द्रा डेरी की जर्सी गायों के लिए कहा जा सकता था। उनकी बातचीत किंवदतियों को गढ़ रही होती - मालूम है मशीन से दूध निकाला जाता है बिन्द्रा डेरी की उन गायों का जो डेनमार्क से लायी गई हैं। ऐसी ही कोई सूचना देने वाला सबका केन्द्र होता और खुद को केन्द्र में पा वह महसूस करता मानो कोई ऐसा बहुत बड़ा रहस्य उसके हाथ लगा है जिसने उसे एक महत्वपूर्ण आदमी बना दिया। उसके द्वारा दी जा रही जानकारी पर कोई सवाल जवाब करने की हिम्मत किसी की न होती। वे तो बस फटी आंखों से ऐसे देखते मानो मशीन उनके सामने-सामने गाय को जकड़ चुकी हो और बिना हिले-डुले गाय का दूध बाल्टी में उतरता जा रहा हो। बिन्द्रा डेरी के साथ ही उतरती वो ढलान जहां से सड़क के दूसरी ओर चाय बगान को निहारा जा सकता था, उस उतरती हुई ढलान पर तो पैदल चलते हुए ही गति बढ़ जाती फिर जब दौड़ रहे हों तो पांव को लचक खाने से बचाने के लिए सचेत रहना ही होता। दुल्हन्दी नदी के पुल तक, हालांकि मात्र 100-150 मीटर का फासला होगा। दौड़ते हुए जब पुल तक पहुंचते तब कहीं समतल कहें या फिर हल्की-सी उठती हुई चढ़ाई, पांव अपनी सामान्य गति में होते।
धावक के साथ-साथ दौड़ रहे उसके शागिर्द तो, जो वैसे तो धावक ही बनना चाहते, दौड़ते हुए रुक ही जाते और पैदल चलते हुए ही पुल तक पहुंचते। कोख में दर्द उठता हो या चाय बगान का आकर्षण या फिर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांक लेने का मोह, पर वहां पर पैदल चलना उन्हें अच्छा लगता। बिन्द्रा डेरी की डेनमार्की जर्सी गायों का आकर्षण, उनके कत्थई-लाल चमकते बदन की झलक पाने को तो हर कोई उत्सुक ही रहता। तब तक धावक उन्हें मीटरों दूर छोड़ चुका होता। रोज-रोज की दौड़ ने बिन्द्रा डेरी का आकर्षण उसके भीतर नहीं रख छोडा फिर उसका लक्ष्य तो एक धावक बनना हो चुका था। लेकिन उसके पीछे पीछे शागिर्दों की दौड़ भी जारी ही रहती। हालांकि यह तो झूठा बहाना है कि ढाल पर रुक जाने की वजह से वे लम्बी रेस के उस कुशल धावक से पीछे छूट गए। जबकि असलियत थी की उसकी गति के साथ गति मिलाकर दौड़ने की ताकत किसी में न होती। वह तो लगातार आगे ही आगे निकलते हुए एक लम्बा फासला बनाता रहता। जिस वक्त किसी प्रतियोगिता में ट्रैक पर दौड़ रहा होता तो देखने वाले देखते कि वह अपने साथ दौड़ने वालों को लगभग-लगभग एक चक्कर के फासले से पीछे छोड़ चुका है जबकि अभी रेस का एक तिहाई भाग ही पूरा हुआ है। बिन्द्रा डेरी की भव्यता उस डेरी के भीतर, कभी कभार झलक के रुप में दिखाई दे जाती जो उन डेनमार्की जर्सी गायों के लाल-कत्थई रंगों में छुपी होती। गेट पर चौकीदार न होता तो, जो कि अक्सर ही होता था, डेरी के भीतर घुस उनके कत्थई रंगों को हर कोई छूना चाहता। भविष्य के उस सितारे, वर्ष 2008 के ओलम्पिक स्वर्ण विजेता की शैशव अवस्था के चित्र भी उनकी स्मृतियों में दर्ज हो ही जाते। पर जिस तरह यह मालूम नहीं किया जा सकता था कि बिन्द्रा डेरी मे कितनी गाएं हैं ? कितनी दूध देती हैं ? और कितना देती हैं ? दूध मशीनों से निकाला जाता है या फिर उनको दूहने वाले भी कारिदें है ? ज्यादातर किस रंग की है ? और उनमें जर्सी कितनी और देशी कितनी ? या, देशी हैं भी या नहीं ? ठीक उसी तरह सड़क के बाहर से गुजर जाने वाला कैसे जान लेता कि भविष्य का सितारा इसी चार दीवारी के भीतर अभी अपनी शैशव अवस्था में है और अपनी मां की गोद से उछलकर कहीं निशाना साधने को लालायित। उसके बचपन के उन चित्रों को भी तो, जिन्हें स्थानीय अखबारों ने बड़े अच्छे से प्रस्तुत किया कि कैसे किसी कारिंदे के सिर पर रखी बोतल में वह निशाना साधता था, बाहर सड़क से गुजरते हुए या रुक कर भी नहीं देखा जा सकता था।
उसी बिन्द्रा डेरी से उतरती गई ढाल पर उस मनहूस दिन उसका पांव लचका। वह लचकना कोई आम दिनों की तरह लचकना नहीं था। अन्तर्राज्यीय प्रतियोगिताओं में जीतने के बाद उस समय वह राष्ट्रीय टीम के चयन कैम्प की तैयारी में व्यस्त था। क्या मजाल किसी शागिर्द की जो उस समय उसके साथ दौड़ने का अभ्यास भी करे। वह तो सरपट निकल जाएगा मीलों मील। उसे तो अपने ट्रैक समय को कम से कम करना था। अपने रिकार्ड को हर सैकण्ड के दसवे हिस्से तक कम करने में उसे मालूम था कि गति में जरा भी विचलन नहीं होना चाहिए। सड़क किनारे के ऊबड़-खाबड़ कच्चेपन की क्या मजाल जो उसकी गति में बाधा पहुंचा सके। लगातार एक लय में दौड़ते उसके पांवों की पिण्डलियों के चित्र खींचे जा सकते तो बताया जा सकता कि उनमें कैसी कैसी तो लहर उठती थी जब पांव उठा हुआ होता और दूसरे ही क्षण जब जमीन में लौटकर फिर उठ रहा होता था।
उस दिन पैर मुड़ा तो मुड़ा का मुड़ा ही रह गया। एक दबी-दबी सी चीख उसके मुंह से निकली और वह पांव पकड़ कर बिन्द्रा डेरी की चार दीवारी के बाहर उगी घास पर बैठा रहा। वह चीख ऐसी नहीं थी कि साईकिल में साथ-साथ चल रहा शागिर्द भी सुन पाता। वह तो अपनी साईकिल पर तराना गाता हुआ, चाय बगान को निहारता हुआ और कभी पैण्डलों के सहारे उचक कर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांकता हुआ, अपनी ही धुन में चलता रहा। काफी आगे निकल जाने के बाद, लक्ष्मण सिद्ध के मोड़ तक, जब उसने पीछे घूम कर देखा तो धावक दिखाई न दिया। कुछ देर रुक कर उसने धावक का इंतजार करना चाहा। हालांकि वह जान रहा था कि रुकने का मतलब अपने को धोखा देना है। क्योंकि ऐसा संभव ही नहीं कि दूर-दूर तक भी वह दिखायी न दे। अपने ऊपर अविश्वास करने का यद्यपि कोई कारण नहीं था पर एक क्षण को तो ख्याल उसके भीतर आया ही होगा कि कहीं आगे ही तो नहीं निकल गया। यदि साईकिल को मरियल चाल से चला रहा होता या क्षण भर को भी वह बीच में कहीं रुका होता तो निश्चित ही था कि पीछे लौटने की बजाय आगे ही बढ़ा होतां पर उसे अपने पर यकीन था और अपनी आंखों पर भी। रेलवे क्रासिंग को पार करते हुए ही उसने अपनी साईकिल तेजी से दौड़ा दी थी। क्यों कि गाड़ी के गुजरने का सिगनल हो चुका था और रेलवे का चौकीदार ऊपर उठे हुए उन डण्डों को नीचे गिराने जा रहा था जिसके बाद इधर वालों को इधर और उधर वालों को उधर ही रुक जाना था। उसके पांव पैण्डल थे जो तेज चल सकते थे।
लम्बी रेस के धावक के लिए अपनी गति को कभी ज्यादा और कभी कम नहीं करना होता, उसे तो बस एक लय से दौड़ना होता। गति बढ़ेगी भी ऐसे जैसे संगीत के सुर उठते हैं। यूं तो गति नीचे गिराने का मतलब है पिछड़ जाना तो भी यदि कभी उसमें परिवर्तन करना भी पड़ जाए तो वैसे ही - एक लय में।
वैसे दौड़ का मतलब ही अपने आप में प्रतियोगिता है ओर प्रतियोगिता में गति का कम होते जाना मतलब बाहर होते जाना है। उसमें तो गति को बढ़ना ही है बस। लिहाजा धावक भी फाटक के गिरने से पहले ही पार हो जाना चाहता था। उसकी गति जो बढ़ी तो नीचे उतरने का सवाल ही नहीं था। तय था कि जिस गति को वह पकड़ चुका है यदि रेस पूरी कर पाया तो अभी तक के अपने रिकार्डो को ध्वस्त कर देगा ओर यहीं से उसके भीतर यह आत्मविश्वास भी पैदा होना था कि उसकी क्षमता इस गति पर भी दौड़ सकने की है। फिर तो क्या मजाल की वह नीचे गति में दौड़े। अपनी गति को परखते हुए हर धावक अपनी क्षमताओं को विकसित करने की ओर ऐसे ही अग्रसर होता है। धावक ही क्यों एक निशानेबाज भी। जैसे अभिनव बिन्द्रा हुआ होगा और एक वेट लिफटर भी, जैसे मोनिका ने किया होगा। चूंकि उस दिन की गति और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही थी लिहाजा संभल कर दौड़ने की भी और ज्यादा जरुरत थी।
शागिर्द, जो अपनी साईकिल में चढ़ा-चढ़ा ही आगे निकल गया था वापिस लौटने लगा। बिन्द्रा डेरी की चारदीवारी के बाहर ही घास पर बैठा वह अपने पांव को पकड़े था। डेरी का चौकीदार अपनी पहरेदारी में मुस्तैद। वह अकेला था। पांव को मलासता हुआ। पांव के जोर पर खड़ा न हो पाने के कारण असहाय सा बैठा वह धावक शागिर्द को लौटते देख अपने भीतर नई ऊर्जा को महसूस करते हुए उठने उठने को हुआ तभी एक जोर की चीख के साथ उसे वही बैठ जाना पड़ा। टखना फूल गया था। एक गोला सा बना हुआ था। पांव जमीन पर रखते ही लचक मार जा रहा था। जैसे तो कैसे शर्गिद ने उसे सहारा देकर साईकिल में आगे डण्डे पर बैठाया और घर तक पहुंचा। लम्बे इलाज के बाद भी पांव ठीक होने-होने का न हुआ। कैम्प की तारीख निकलती जा रही थी। न जाने कितने दिन बिस्तर पर लेटे रहना था। जब उसे डाक्टर के पास ले जाया जाता तो वह डाक्टर से मिन्नते करता कि कैसे भी उसे बस चालू हालत में पहुंचा दो डॉक्टर सहाब। मिले हुए मौके को वह गंवाना नहीं चाहता था। डॉक्टर भी क्या करता। सिर्फ दिलासा देने के।
अरे जीवन में बहुत मौके आएगें दोस्त। अभी तुम आराम करो।
उसका वश चलता तो वह डॉक्टर की सलाहों को ताक पर रख कैम्प के लिए निकल जाता पर कम्बख्त पांव शरीर का बोझ उठाने के काबिल ही न हुआ और कैम्प में जाने का समय निकल गया। उस दिन वह सचमुच जार-जार रोया। ऐसा, जैसा लोगों ने इसी ओलम्पिक में शामिल न हो पाई पूर्वोत्तर की भरात्तोलक को रोते हुए देखा होगा, पहले टैस्ट के दौरान जिसे डोव टैस्ट में पाजिटिव पाए जाने के कारण टीम में शामिल होने से वंचित होना पड़। । उसकी चीखती आवाजें सुनने वाला उस वक्त कोई न था। वह जान रही थी कि एक साजिश रची जा रही है उसके विरुद्ध। उसका सरे आम ऐसा कहना कि मुझे गोली मार देना यदि मैं ड्रगिस्ट पायी गई तो, यूंही नहीं था। तकनीकी तरह से अयोग्य घोषित करके उसे टीम से बाहर किया जा रहा है - वह अपने दूसरे ओर तीसरे टेस्ट की प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। पर फिर भी ऐसा करना उसकी मजबूरी थी और जब बाकी के टेस्टों में वह सचमुच नैगेटिव पायी गई तब तक आला कमानों की टीम, जो उसको टीम में शामिल करने न करने का फैसला जेब में लिए घूम रहे थे, ओलम्पिक मशाल को जलाने पहुंच चुके थे।
बस वैसे ही रोया था वह भी उस दिन। उसके जीवन का वह पहला रोना था। उसकी मायूसी में उसके रोने को साथ वाले महसूस कर सकते थे। उसके पास तो कहने को भी काई ऐसा आधार न था कि उसके विरुद्ध कोई साजिश हुई। वह तो बस सड़क में बहुत पतले तल्ले वाले जूते में दौड़ते हुए लचक गया था। कहने को पांव ठीक हो गया पर वो ही जानता था कि अब दौड़ पाना उसके लिए संभव न रहा और धीरे-धीरे वह अपने शागिर्दों से भी प्रतियोगिताओं में पिछड़ने लगा।
लेबल:
अभिनव बिन्द्रा,
कथा रिपोर्ताज,
देहरादून,
मोनिका,
संस्मरण
Saturday, August 16, 2008
हर जाड़े में शिखर लेटेंगे बर्फ की चादरें ओढ़कर
समकालीन कविता के मह्त्वपूर्ण कवि अनूप सेठी मुंबई में रहते हैं। लेकिन उनके भीतर डोलता पहाड उन्हें हर वक्त बेचैन किए रहता है। जगत में मेला उनकी कविताओं का संग्रह इस बात का गवाह है। यहां प्रस्तुत कविताऎं कवि से प्राप्त हुई है। इन कविताओं के साथ कवि अनूप सेठी का स्वागत और आभार।
अनूप सेठी 098206 96684
अशांत भी नहीं है कस्बा
एक
आएगी सीढ़ियों से धूप
बंद द्वार देख के लौट जाएगी
खिड़की में हवा हिलेगी
सिहरेगा नहीं रोम कोई
पर्दों को छेड़कर उड़ जाएगी
पहाड़ी मोड़ों को चढ़कर रुकेंगी बसें
टकटकी लगा के देखेगी नहीं कोई आंख
हर जाड़े में शिखर लेटेंगे
बर्फ की चादरें ओढ़कर
पेड़ गाढ़े हरे पत्तों को लपेटकर
बैठे रहेंगे घास पर गुमसुम
चट्टानों पर पानी तानकर
ढोल मंजीरे बजाती
गुजर जाएगी बरसाती नदी
ढलान पर टिमटिमाता
पहाड़ी कस्बा सोएगा रोज रात
सैलानी दो चार दिन रुकेंगे
अलसाए बाजार में टहलती रहेगी जिंदगी
सफेद फाहों में चाहे धसक जाए चांद
चांदनी टीवी एंटीनों पर बिसूरती रहेगी
मकानों के बीच नए मकानों को जगह देकर
सिहरती हुई सिमट जाएगी हवा चुपचाप
किसी को खबर भी नहीं होगी
बंद देख के द्वार
लौट जाती है धूप सीढ़ियों से
दो
जिले के दफ्तर नौकरियां बजाते रहेंगे
कागजों पर आंकड़ों में खुशहाल होगा जिला
आसपास के गांवों से आकर
कुछ लोग कचहरियों में बैठे रहेंगे दिनों दिन
कुछ बजाजों से कपड़ा खरीदेंगे
लौटते हुए गोभी का फूल ले जाएंगे
कुछ सुबह सुबह आ पंहुचेंगे
धीरे धीरे नए बन रहे मकानों में काम शुरू हो जाएगा
अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी
कुछ देर पीछे हाथ बांध के टहलेगा
सेवानिवृत्त नौकरशाह की तरह
फिर घरों में बंद हो जाएगा कस्बा
किसी को पता भी नहीं चलेगा
मिमियाएंगी इच्छाएं कुछ देर
बंद संदूकों से निकल के
रजाइयों की पुरानी गंध के अंधेरे में दब जाएंगी
बंजारिन धूप अकेली
स्कूल के आहातों खेतों और गोशालाओं में झांकेगी
मकानों की घुटन से चीड़ के जले जंगलों से भागी
लावारिस लुटी हुई हवा
सड़क किनारे खड़ी रहेगी
न कोई पूछेगा न बतलाएगा
धरती के गोले पर कहां है कस्बा
बस्ता उठाके कुछ साल
लड़के स्कूल में धूल उड़ाते रहेंगे
इन्हीं सालों में तय हो जाएंगी
अगले चालीस पचास सालों की तकदीरें
कुछ को सरकार बागवानी सिखाएगी
कुछ खस्सी हो जाएंगे सरकारी सेवा में
कुछ फौज से बूढ़े होकर लौटेंगे
कुछ टुच्चे बनिए बनेंगे
कुछ कई कुछ बनते कुछ नहीं रहेंगे
कुछ बसों में बैठकर मोड़ों से ओझल हो जाएंगे
न भूलेंगे न लौट पाएंगे
धूल उड़ाते हुए तकरीबन हर कोई सीखेगा
दाल भात खाके डकार लेना
सोना और मगन रहना
कोई न पहचानेगा न पाएगा
पर्वतों का सीना बरसाती नदी का उद्दाम वेग
सूरज का ताप हवा की तकलीफ
द्वारों पर ताले जड़े रहेंगे
दिल दिमाग ठस्स पड़े रहेंगे
अपनी ही खुमारी में अपना ही प्यार
कस्बे को चाट जाएगा
खबरों में भी नहीं आएगा कस्बा
और बेखबर घूमता रहेगा दुनिया का गोला (1988)
भूमंडलीकरण
अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह
अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा
झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है
धरती की काया
घूम रही है गोल गोल बहुत तेज
कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं
आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते
सिर के बालों में अंगुलियां फिरा रहे हैं हौले हौले
कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं
खेतों में कोई नहीं है
दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है
इंसान पशु पक्षी
हवा पानी हरियाली को
सूखने डाल दिया गया है
खाल खींच कर
मैदान पहाड़ गङ्ढे
तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं
फिर भी सुकून से चल रहा है
दुनिया का कारोबार
एक बच्चा बार बार
धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है
उसे पेशाब लगा है
निकल नहीं रहा
एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है
कांटे चुभ रहे हैं
पृथ्वी की फिरकी बार बार फैंकती है उसे
खारे सागर के किनारे
अंतरिक्ष के टहलुए
अंगुलियां चटकाते हैं
अच्छी है दृश्य की शुरुआत l(1993)
अनूप सेठी 098206 96684
अशांत भी नहीं है कस्बा
एक
आएगी सीढ़ियों से धूप
बंद द्वार देख के लौट जाएगी
खिड़की में हवा हिलेगी
सिहरेगा नहीं रोम कोई
पर्दों को छेड़कर उड़ जाएगी
पहाड़ी मोड़ों को चढ़कर रुकेंगी बसें
टकटकी लगा के देखेगी नहीं कोई आंख
हर जाड़े में शिखर लेटेंगे
बर्फ की चादरें ओढ़कर
पेड़ गाढ़े हरे पत्तों को लपेटकर
बैठे रहेंगे घास पर गुमसुम
चट्टानों पर पानी तानकर
ढोल मंजीरे बजाती
गुजर जाएगी बरसाती नदी
ढलान पर टिमटिमाता
पहाड़ी कस्बा सोएगा रोज रात
सैलानी दो चार दिन रुकेंगे
अलसाए बाजार में टहलती रहेगी जिंदगी
सफेद फाहों में चाहे धसक जाए चांद
चांदनी टीवी एंटीनों पर बिसूरती रहेगी
मकानों के बीच नए मकानों को जगह देकर
सिहरती हुई सिमट जाएगी हवा चुपचाप
किसी को खबर भी नहीं होगी
बंद देख के द्वार
लौट जाती है धूप सीढ़ियों से
दो
जिले के दफ्तर नौकरियां बजाते रहेंगे
कागजों पर आंकड़ों में खुशहाल होगा जिला
आसपास के गांवों से आकर
कुछ लोग कचहरियों में बैठे रहेंगे दिनों दिन
कुछ बजाजों से कपड़ा खरीदेंगे
लौटते हुए गोभी का फूल ले जाएंगे
कुछ सुबह सुबह आ पंहुचेंगे
धीरे धीरे नए बन रहे मकानों में काम शुरू हो जाएगा
अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी
कुछ देर पीछे हाथ बांध के टहलेगा
सेवानिवृत्त नौकरशाह की तरह
फिर घरों में बंद हो जाएगा कस्बा
किसी को पता भी नहीं चलेगा
मिमियाएंगी इच्छाएं कुछ देर
बंद संदूकों से निकल के
रजाइयों की पुरानी गंध के अंधेरे में दब जाएंगी
बंजारिन धूप अकेली
स्कूल के आहातों खेतों और गोशालाओं में झांकेगी
मकानों की घुटन से चीड़ के जले जंगलों से भागी
लावारिस लुटी हुई हवा
सड़क किनारे खड़ी रहेगी
न कोई पूछेगा न बतलाएगा
धरती के गोले पर कहां है कस्बा
बस्ता उठाके कुछ साल
लड़के स्कूल में धूल उड़ाते रहेंगे
इन्हीं सालों में तय हो जाएंगी
अगले चालीस पचास सालों की तकदीरें
कुछ को सरकार बागवानी सिखाएगी
कुछ खस्सी हो जाएंगे सरकारी सेवा में
कुछ फौज से बूढ़े होकर लौटेंगे
कुछ टुच्चे बनिए बनेंगे
कुछ कई कुछ बनते कुछ नहीं रहेंगे
कुछ बसों में बैठकर मोड़ों से ओझल हो जाएंगे
न भूलेंगे न लौट पाएंगे
धूल उड़ाते हुए तकरीबन हर कोई सीखेगा
दाल भात खाके डकार लेना
सोना और मगन रहना
कोई न पहचानेगा न पाएगा
पर्वतों का सीना बरसाती नदी का उद्दाम वेग
सूरज का ताप हवा की तकलीफ
द्वारों पर ताले जड़े रहेंगे
दिल दिमाग ठस्स पड़े रहेंगे
अपनी ही खुमारी में अपना ही प्यार
कस्बे को चाट जाएगा
खबरों में भी नहीं आएगा कस्बा
और बेखबर घूमता रहेगा दुनिया का गोला (1988)
भूमंडलीकरण
अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह
अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा
झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है
धरती की काया
घूम रही है गोल गोल बहुत तेज
कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं
आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते
सिर के बालों में अंगुलियां फिरा रहे हैं हौले हौले
कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं
खेतों में कोई नहीं है
दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है
इंसान पशु पक्षी
हवा पानी हरियाली को
सूखने डाल दिया गया है
खाल खींच कर
मैदान पहाड़ गङ्ढे
तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं
फिर भी सुकून से चल रहा है
दुनिया का कारोबार
एक बच्चा बार बार
धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है
उसे पेशाब लगा है
निकल नहीं रहा
एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है
कांटे चुभ रहे हैं
पृथ्वी की फिरकी बार बार फैंकती है उसे
खारे सागर के किनारे
अंतरिक्ष के टहलुए
अंगुलियां चटकाते हैं
अच्छी है दृश्य की शुरुआत l(1993)
Wednesday, August 13, 2008
कविता क्रिकेट की गेंद नहीं
विजय गौड
एक कवि और एक क्रिकेट खिलाड़ी में फर्क होता है और यह फर्क होना भी चाहिए। क्रिकेट बाजारवादी प्रवृत्तियों का रोमांचकारी प्रतीक है। दुनिया के दूसरे खेल भी बाजार के लिए अपने तरह से स्पेश छोड़ते, अपनी-अपनी स्थितियों के कारण, कमोबेश वैसे ही हैं जैसा क्रिकेट। लेकिन स्पेश की दृष्टि से क्रिकेट तो हर क्षण विज्ञापन परोसने का एक खुला मैदान बनाता है। बावजूद इसके कह सकते हैं कि क्रिकेट के विरोध में जब हम बहुधा दूसरे खेलों को बढ़ावा देने की वकालत कर रहे होते हैं तो उस वक्त एक बड़ी पूंजी के खिलाफ छोटी (पिछड़ती जा रही) पूंजी की स्वतंत्रता को स्थापित करने के लिए ही बात कर रहे होते हैं। योरोप में बड़ी पूंजी का खेल क्रिकेट से इतर फुटबाल में दिखायी देता है। क्रिकेट के खिलाफ अन्य खेलों के प्रति हमारी पक्षधरता लोकतांत्रिक पूंजीवादी दुनिया की स्थापना के लिए एक प्रयास ही होता है। खेलो के भीतर छिपा वह तत्व जो पक्ष और प्रतिपक्ष को एक दूसरे के विरुद्ध रणनीति और कार्यनीति बनाने वाला होता है, उसी में छुपी होती है रोमांचकता और उसी रोमांच के बीच बहुत चुपके से बैठ जाने वाला बाजार (पूंजी ) उसे उत्तेजक बना देता है। बाजार का बाजारुपन हर चीज के बिकाऊपन के साथ झट से हावी हो जाना चाहता है और रोमांच के क्षणों को इतनी तेजी से उत्तेजना में बदल देता है कि दर्शक भी खिलाड़ी में तब्दील होने लगते हैं। इधर सटोरियों की चांदी और उधर - घूमते हुए बल्ले के साथ एक साधारण से व्यक्ति का नायक बनते जाना दर्शकों के बीच से ही अच्छे खिलाड़ियों की संभावना का वह प्रस्थान बिन्दू है जो आरम्भ में ही बहुत छोटे-छोटे बच्चों की भ्रष्ट स्कूलिंग के साथ होता है।
क्रिकेट में उत्तेजना के क्षणों की यह आकस्मिकता इतनी आक्रामक होती है कि रोमांचक क्षण पल भर में ही परदे से दूर हट जाते हैं। उत्तेजना के चरम को हिंसा में तबदील करने वाला बाजार इतना चिढ़ाऊ होता है कि हार के बावजूद बेशर्म चेहरों के साथ उत्पाद की मार्केटिंग करने वाले नायक खलनायक में बदल जाते हैं और प्रशंसकों की नाराजगी बेजुबान चीजों पर कहर ढााती है। वरचुल उपस्थिति के साथ बार बार एक नये उत्पाद को खिलखिलाते चेहरे वाले उनके नायक, नायक नहीं रह पा रहे होते है। उनसे सीधे संवाद न कर पाता भविष्य का संभावित खिलाड़ी-दर्शक आदर्श का जो पाठ पढ़ रहा होता है उसमें पूंजी की महिमा का गीत उसकी नसों में नशा बन कर बहने लगता है। पैसा ही सब कुछ है, ऐसे आदर्शो का ललचाऊ आकर्षण उनके मानस को बहुत कम उम्र में ही विकृत बनाने वाला होता है। विकृति का खास कारण वह उम्र ही होती है जब स्थितियों के विश्लेषण की कोई उछल-कूद उस मस्तिष्क में हो ही नहीं सकती। यदि अपने आस-पास देखें तो पायेगें कि बचपन के सारे क्रिकेटर यदि क्रिकेट मैदान के बहुत नामी खिलाड़ी नहीं बन पाये तो दुनिया के दूसरेे मैदानों में उनके चौके-छककों को रोकने वाला विधान उनके हुनर के आगे अपाहिज सा नजर आता है। उनकी कलाइयों के जौहर से सरक गयी गेंद को ताकने के सिवा, किसी के भी पास काई दूसरा रास्ता नहीं।
वे बुजुर्ग जो जमाने के उस ठंडेपन के दौर में क्रिकेट के दीवाने रहे और आज भी उसके प्रति वैसा ही अनुराग रखते है, इस तरह के आरोपों से बरी हो जाते हैं। उनके दौर का क्रिकेट भी दूसरे अन्य क्षेत्रों के आदर्श से खड़ी बांडरी के ऊपर से गेंद बाहर फेंकने की ताकत हांसिल न कर पाया था। आज के दौर का क्रिकेट इसीलिए अपने मूल्य स्थापनाओं में उस दौर के क्रिकेट से नितांत भिन्न है। पांच-पांच दिनों तक धूप-ताप में तपने वाले खिलाड़ियों के बहते पसीने के चित्र यूं तो उपलब्ध न थे पर कानों पर कान सटाकर सुनी जा रही कमेंटरियों में उनका जिक्र पिचके हुए गाल वाले खिलाड़ियों की तस्वीर ही कल्पना में गढ़ रहा होता था। बाजार भी उस वक्त इतना बदमिजाज न हुआ था, होने-होने को था। आज उसके बरक्स जो एक दिवसीय से लेकर कुछ घंटों के उत्तेजक मंजर वाला लोकप्रिय क्रिकेट दिखायी दे रहा है, उसी बाजार की फटाफट जरुरत है। फटाफट ऐसा कि फटाफट होता रहे। हर क्षण खबर को अप-डेट करता हुआ भी। यह नहीं कि साल भर में सिर्फ कोई एक तय श्रृंखला के लिए ही खबरनवीश इंतजार करते रहें। अपने कल्पनालोक के दौर में डूबे आज भी कुछ बूढे ऐसे हैं जो क्रिकेट के प्रति इस मान्यता से असमर्थ होंगे। वे युवा जो उस फटाफट के कायल है उनकी असहमति तो जमाने के साथ है। लेकिन असहमति की भाषा को सुनते हुए यदि संयम न खोए तो इस फर्क को अलग-अलग रख पाने का जरुरी काम संभव है। वरना सिर्फ और सिर्फ अराजकता में आलोचना करते हुए अटैक करते नजर आने का खतरा दिखाने वाले ज्यादा मुखर हो जाते हैं। फिर तो क्या तर्क और क्या कुतर्क। एक संयत आलोचना की जिम्मेदारी है कि वे जमाने के बदलते हुए आदर्श को परिभाषित करते हुए ही खिलाड़ी के उन तमाम सॉटस की व्याख्या करे जो अपनी कलात्मकता के साथ भी खूबसूरत खेल के प्रदर्शन हैं या फिर सटोरियों के हिसाब से खेले गये किसी सॉट के प्ार्याय हैं। एक सॉट मतलब एक लाख् रुपये या भविष्य में एक करोड़ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
यहां हम कवि और क्रिकेटर के बीच के अन्तर पर बात करना चाहते थे। क्रिकेट की बाजारु प्रव्रत्ति के कारण भी और अन्तर्निहित पक्ष-प्रतिपक्ष की रणनीति के कारण भी क्रिकेट एक कवि के मानस के अनुरूप नहीं। फ़िर जब एक कवि भी क्रिकेटर नजर आये तो माना जा सकता है कि कवि जमाने के चालाकियों से पका और उसी में इतना रमा है कि हर क्षण अपने अर्जित हुनर से पाठक को चौंका रहा है। पाठक उसका प्रशंसक है, ऐसा जानते हुए भी वह प्रतिद्वंद्वी की तरह उस पर अपनी कविताओं के प्रहार करता है। और कविताओं से असहमति दर्ज करने वाले पाठक के विरुद्ध बार-बार चीख-चीख कर उसके आऊट होने की अपील इम्पायरनुमा उन आलोचक की ओर निगाहों को उठकार करता है जो अपने निर्णायक फैसलों में उसके पक्ष में दिखायी देते हैं। वे बताते हैं कि कवि की हर पंक्ति उन अंधेरे कोनो की पड़ताल है जिसमें एक ऐसा "डिस्कोर्स" है जो जनतांत्रिक स्थापनाओं के लिए एक माहौल रचता है। या ऎसा ही कोई और भारी भरकम आशयों से भरा वक्तव्य। उनके आशय की पड़ताल क्रिकेट की भाषा में करें तो कहा जा सकता है कि कवि एक अच्छा बॉलर है जो अपने पाठक को अपना प्रशंसक बनाये रखने के लिए ठीक वैसे ही चौंका रहा है जैसे एक खिलाड़ी-बॉलर अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी-बैट्समैन को छकाने के लिए ही अज्रित की गई कुशलता का प्रयोग करता है। या कई बार एक बैट्समैन की भूमिका में होता हुआ अपने प्रतिपक्ष में खड़े हो चुके बॉलर पर। कई बार बैट्समैन कवि, यह जानते हुए भी कि क्या गलत है और क्या सही, वह अपने अभ्यास की कुशलता से उन गेंदों को, जो उसकी रचना की आलोचना के रुप में होती है, बिना टच किये ही यूंही निकल जाने दे रहा होता है। उसकी बैटिंग की इस खूबसूरती का बयान भी ढेरों कमेंटरेटर अपने अपने अनुबंधित चैनलों पर उसके नये से नये सॉट का रिपले दिखा-दिखा कर ही करते हैं। वे उसके उन सॉट्स के जिक्र न कर पाने के इस अवकाश के साथ होते है कि देखो अभी कितना खूबसूरत सॉट खेला गया। कितनी कलात्मकता है उसके इस नये सॉट में। बेवजह अटैक करने वाले पाठक तो एक खास मानसिकता से ग्रसित हैं। उनकी समझदारी में ही है गड़गड़ जो उसकी रचनाओं से ऐसे अनाप-शनाप अर्थ निकाल रहे हैं। जबकि बल्लेबाज कवि को तो देखो जो पहले के तमाम उन बल्ले बाजों, जो ऐसे ही सॉटों के लिए जाने जाते रहे, उनसे बहुत आगे निकल रहा है अपने हर सॉट में। तथ्यात्मक आंकड़ों की यह बाजीगरी कई बार एक कवि को भी क्रिकेटर बना दे रही होती है।
एक कवि और एक क्रिकेट खिलाड़ी में फर्क होता है और यह फर्क होना भी चाहिए। क्रिकेट बाजारवादी प्रवृत्तियों का रोमांचकारी प्रतीक है। दुनिया के दूसरे खेल भी बाजार के लिए अपने तरह से स्पेश छोड़ते, अपनी-अपनी स्थितियों के कारण, कमोबेश वैसे ही हैं जैसा क्रिकेट। लेकिन स्पेश की दृष्टि से क्रिकेट तो हर क्षण विज्ञापन परोसने का एक खुला मैदान बनाता है। बावजूद इसके कह सकते हैं कि क्रिकेट के विरोध में जब हम बहुधा दूसरे खेलों को बढ़ावा देने की वकालत कर रहे होते हैं तो उस वक्त एक बड़ी पूंजी के खिलाफ छोटी (पिछड़ती जा रही) पूंजी की स्वतंत्रता को स्थापित करने के लिए ही बात कर रहे होते हैं। योरोप में बड़ी पूंजी का खेल क्रिकेट से इतर फुटबाल में दिखायी देता है। क्रिकेट के खिलाफ अन्य खेलों के प्रति हमारी पक्षधरता लोकतांत्रिक पूंजीवादी दुनिया की स्थापना के लिए एक प्रयास ही होता है। खेलो के भीतर छिपा वह तत्व जो पक्ष और प्रतिपक्ष को एक दूसरे के विरुद्ध रणनीति और कार्यनीति बनाने वाला होता है, उसी में छुपी होती है रोमांचकता और उसी रोमांच के बीच बहुत चुपके से बैठ जाने वाला बाजार (पूंजी ) उसे उत्तेजक बना देता है। बाजार का बाजारुपन हर चीज के बिकाऊपन के साथ झट से हावी हो जाना चाहता है और रोमांच के क्षणों को इतनी तेजी से उत्तेजना में बदल देता है कि दर्शक भी खिलाड़ी में तब्दील होने लगते हैं। इधर सटोरियों की चांदी और उधर - घूमते हुए बल्ले के साथ एक साधारण से व्यक्ति का नायक बनते जाना दर्शकों के बीच से ही अच्छे खिलाड़ियों की संभावना का वह प्रस्थान बिन्दू है जो आरम्भ में ही बहुत छोटे-छोटे बच्चों की भ्रष्ट स्कूलिंग के साथ होता है।
क्रिकेट में उत्तेजना के क्षणों की यह आकस्मिकता इतनी आक्रामक होती है कि रोमांचक क्षण पल भर में ही परदे से दूर हट जाते हैं। उत्तेजना के चरम को हिंसा में तबदील करने वाला बाजार इतना चिढ़ाऊ होता है कि हार के बावजूद बेशर्म चेहरों के साथ उत्पाद की मार्केटिंग करने वाले नायक खलनायक में बदल जाते हैं और प्रशंसकों की नाराजगी बेजुबान चीजों पर कहर ढााती है। वरचुल उपस्थिति के साथ बार बार एक नये उत्पाद को खिलखिलाते चेहरे वाले उनके नायक, नायक नहीं रह पा रहे होते है। उनसे सीधे संवाद न कर पाता भविष्य का संभावित खिलाड़ी-दर्शक आदर्श का जो पाठ पढ़ रहा होता है उसमें पूंजी की महिमा का गीत उसकी नसों में नशा बन कर बहने लगता है। पैसा ही सब कुछ है, ऐसे आदर्शो का ललचाऊ आकर्षण उनके मानस को बहुत कम उम्र में ही विकृत बनाने वाला होता है। विकृति का खास कारण वह उम्र ही होती है जब स्थितियों के विश्लेषण की कोई उछल-कूद उस मस्तिष्क में हो ही नहीं सकती। यदि अपने आस-पास देखें तो पायेगें कि बचपन के सारे क्रिकेटर यदि क्रिकेट मैदान के बहुत नामी खिलाड़ी नहीं बन पाये तो दुनिया के दूसरेे मैदानों में उनके चौके-छककों को रोकने वाला विधान उनके हुनर के आगे अपाहिज सा नजर आता है। उनकी कलाइयों के जौहर से सरक गयी गेंद को ताकने के सिवा, किसी के भी पास काई दूसरा रास्ता नहीं।
वे बुजुर्ग जो जमाने के उस ठंडेपन के दौर में क्रिकेट के दीवाने रहे और आज भी उसके प्रति वैसा ही अनुराग रखते है, इस तरह के आरोपों से बरी हो जाते हैं। उनके दौर का क्रिकेट भी दूसरे अन्य क्षेत्रों के आदर्श से खड़ी बांडरी के ऊपर से गेंद बाहर फेंकने की ताकत हांसिल न कर पाया था। आज के दौर का क्रिकेट इसीलिए अपने मूल्य स्थापनाओं में उस दौर के क्रिकेट से नितांत भिन्न है। पांच-पांच दिनों तक धूप-ताप में तपने वाले खिलाड़ियों के बहते पसीने के चित्र यूं तो उपलब्ध न थे पर कानों पर कान सटाकर सुनी जा रही कमेंटरियों में उनका जिक्र पिचके हुए गाल वाले खिलाड़ियों की तस्वीर ही कल्पना में गढ़ रहा होता था। बाजार भी उस वक्त इतना बदमिजाज न हुआ था, होने-होने को था। आज उसके बरक्स जो एक दिवसीय से लेकर कुछ घंटों के उत्तेजक मंजर वाला लोकप्रिय क्रिकेट दिखायी दे रहा है, उसी बाजार की फटाफट जरुरत है। फटाफट ऐसा कि फटाफट होता रहे। हर क्षण खबर को अप-डेट करता हुआ भी। यह नहीं कि साल भर में सिर्फ कोई एक तय श्रृंखला के लिए ही खबरनवीश इंतजार करते रहें। अपने कल्पनालोक के दौर में डूबे आज भी कुछ बूढे ऐसे हैं जो क्रिकेट के प्रति इस मान्यता से असमर्थ होंगे। वे युवा जो उस फटाफट के कायल है उनकी असहमति तो जमाने के साथ है। लेकिन असहमति की भाषा को सुनते हुए यदि संयम न खोए तो इस फर्क को अलग-अलग रख पाने का जरुरी काम संभव है। वरना सिर्फ और सिर्फ अराजकता में आलोचना करते हुए अटैक करते नजर आने का खतरा दिखाने वाले ज्यादा मुखर हो जाते हैं। फिर तो क्या तर्क और क्या कुतर्क। एक संयत आलोचना की जिम्मेदारी है कि वे जमाने के बदलते हुए आदर्श को परिभाषित करते हुए ही खिलाड़ी के उन तमाम सॉटस की व्याख्या करे जो अपनी कलात्मकता के साथ भी खूबसूरत खेल के प्रदर्शन हैं या फिर सटोरियों के हिसाब से खेले गये किसी सॉट के प्ार्याय हैं। एक सॉट मतलब एक लाख् रुपये या भविष्य में एक करोड़ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
यहां हम कवि और क्रिकेटर के बीच के अन्तर पर बात करना चाहते थे। क्रिकेट की बाजारु प्रव्रत्ति के कारण भी और अन्तर्निहित पक्ष-प्रतिपक्ष की रणनीति के कारण भी क्रिकेट एक कवि के मानस के अनुरूप नहीं। फ़िर जब एक कवि भी क्रिकेटर नजर आये तो माना जा सकता है कि कवि जमाने के चालाकियों से पका और उसी में इतना रमा है कि हर क्षण अपने अर्जित हुनर से पाठक को चौंका रहा है। पाठक उसका प्रशंसक है, ऐसा जानते हुए भी वह प्रतिद्वंद्वी की तरह उस पर अपनी कविताओं के प्रहार करता है। और कविताओं से असहमति दर्ज करने वाले पाठक के विरुद्ध बार-बार चीख-चीख कर उसके आऊट होने की अपील इम्पायरनुमा उन आलोचक की ओर निगाहों को उठकार करता है जो अपने निर्णायक फैसलों में उसके पक्ष में दिखायी देते हैं। वे बताते हैं कि कवि की हर पंक्ति उन अंधेरे कोनो की पड़ताल है जिसमें एक ऐसा "डिस्कोर्स" है जो जनतांत्रिक स्थापनाओं के लिए एक माहौल रचता है। या ऎसा ही कोई और भारी भरकम आशयों से भरा वक्तव्य। उनके आशय की पड़ताल क्रिकेट की भाषा में करें तो कहा जा सकता है कि कवि एक अच्छा बॉलर है जो अपने पाठक को अपना प्रशंसक बनाये रखने के लिए ठीक वैसे ही चौंका रहा है जैसे एक खिलाड़ी-बॉलर अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी-बैट्समैन को छकाने के लिए ही अज्रित की गई कुशलता का प्रयोग करता है। या कई बार एक बैट्समैन की भूमिका में होता हुआ अपने प्रतिपक्ष में खड़े हो चुके बॉलर पर। कई बार बैट्समैन कवि, यह जानते हुए भी कि क्या गलत है और क्या सही, वह अपने अभ्यास की कुशलता से उन गेंदों को, जो उसकी रचना की आलोचना के रुप में होती है, बिना टच किये ही यूंही निकल जाने दे रहा होता है। उसकी बैटिंग की इस खूबसूरती का बयान भी ढेरों कमेंटरेटर अपने अपने अनुबंधित चैनलों पर उसके नये से नये सॉट का रिपले दिखा-दिखा कर ही करते हैं। वे उसके उन सॉट्स के जिक्र न कर पाने के इस अवकाश के साथ होते है कि देखो अभी कितना खूबसूरत सॉट खेला गया। कितनी कलात्मकता है उसके इस नये सॉट में। बेवजह अटैक करने वाले पाठक तो एक खास मानसिकता से ग्रसित हैं। उनकी समझदारी में ही है गड़गड़ जो उसकी रचनाओं से ऐसे अनाप-शनाप अर्थ निकाल रहे हैं। जबकि बल्लेबाज कवि को तो देखो जो पहले के तमाम उन बल्ले बाजों, जो ऐसे ही सॉटों के लिए जाने जाते रहे, उनसे बहुत आगे निकल रहा है अपने हर सॉट में। तथ्यात्मक आंकड़ों की यह बाजीगरी कई बार एक कवि को भी क्रिकेटर बना दे रही होती है।
Monday, August 11, 2008
सिर्फ़ एक प्राथमिक वर्णमाला
एक रचनाकार के मानस को जानने समझने के लिए रचनाकर से की गई बातचीत के अलावा कोई दूसरा प्रमाणिक और बहुत सटीक तरीका नहीं हो सकता। ऐसे में समय में जब कला, खास तौर पर पेन्टिंग और गायन जो आज अपने सरोकारों से दूर होते हुए सिर्फ एक बिकाउ माल होती जा रही है, मानवीय मूल्यों और ऐसे ही सरोकारों से, कूंची और रंग के बल पर, अपनी कल्पनाओं को जीवन के यथार्थ के साथ जोड़ने वाले कलाकार/पेन्टर हकु शाह के साथ की गई यह बातचीत न सिर्फ हकु शाह को जानने में मद्दगार है बल्कि किसी भी कलाकार के रंग संयोजन को जानने की समझ भी देती है। युवा रचनाकार पीयूष दईया के हम आभारी है जिन्होंने हकु शाह की इस बातचीत का हमें मुहैया कराया। हकु शाह के साथ की गई एक लम्बी बातचीत, जो एक किताब के रूप में "मानुष" शीर्षक से प्रकाशानाधीन है, का यह एक छोटा सा अंश है। पीयूष दईया महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका बहुचन के संस्थापक सम्पादक रहे हैं। दो वुहद ग्रंथों/पुस्तकों" "लोक" एवं "लोक का आलोक" के सम्पादन के साथ लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका "रंगायन" का भी लम्बे समय तक सम्पादन किया। हकु शाह द्वारा लिखि चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। अनेक शोध-परियोजनाओं पर काम करने के अलावा पीयूष कुछ संस्थानों में सलाहकार के रूप में भी अपनी सेवाएं देते रहे हैं और काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ""तनाव"" के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में भाषान्तर किया है। वर्तमान में विश्व-काव्य से कुछ संचयन तैयार करने के साथ-साथ पीयूष कई अन्य योजनाओं को कार्यान्वित करने और अपने उपन्यास ""मार्ग मादरजात"" को पूरा करने में जुटे हैं। |
वरिष्ठ चित्रकार , शिक्षाविद् व शीर्षस्थानीय लोकविद्याविद् हकु शाह जड़ों के स्वधर्म में जीने-सांस लेने वाले एक आत्मशैकृत व प्रतिश्रुत आचरण-पुरूष है : एक अलग मिट्टी से बनी ऐसी मनुष्यात्मा जिनकी विरल उपस्थिति का आलोक जीवन के सर्जनात्मक रास्ते को उजागर करता है गो कि हमारे समय में अब कोई उस पर चलता हुआ दिखता नहीं--विधाता ने अपने कारखाने में ऐसे प्राणी बनाना बंद कर दिये हैं , मानो। उनके सादगीभरे व्यक्तित्व में निश्छल स्वच्छता है और स्वयंमेतर के साथ मानवीय साझे की वत्सल गर्माहट। उनकी हंसमुख जिजीविषा में निरहंकारी नम्रता व लाक्षणिक सज्जनता का रूपायन है और उनका कलात्मक अन्त:करण ऋजुछन्दों में सांस लेता है। गहरा आत्मानुशासन उनका बीजकोष है।
दरअसल , हकु शाह स्वदेशी पहचान के जौहरी व मर्मवेत्ता है और वे अकादमिक धारणाओं के रूढ़ चौखटों व तथाकथित कोष्ठकों से बाहर आकर सर्जना का अपना उर्वर उपजीव्य पाते हैं। बोलचाल की वाचिक लय में विन्यस्त उनकी आवाज़ में आदमियत की ज़मीनी आस्था के जो विविधवर्णी स्वर सुनायी पड़ते हैं उनके पीछे एक ऐसा असाधारण विवेक व मजबूती है जो संसारी घमासान के ऐन बीचोंबीच अवस्थित रहते हुए भी अपने उर्वर आत्म--अपनाआपा--को सलामत रख पाने का आदर्शात्मक साक्ष्य हमारे सामने इतने सहज व चुपचाप तरह से रखता है मानो पांख-सा हल्का हो। यह एक अलग तरह की रोशनी व चेतना है जिसमें सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों पर अडिग आग्रह--अहिंसा , प्रेम व आनन्द--का संदेश यूं उजागर है गोया उनके वजूद का शिलालेख हो जिसे बांचने का मतलब स्वावलम्बी समाज-रचना व जीवन के सहज चरितार्थन के सुंदर काव्य में खिलना व सांस लेना है।
जनवरी से जून , दो हज़ार सात के दरमियान हकु शाह के साथ उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर एकाग्र लगभग सत्तर घण्टों का वार्तालाप सम्पन्न हुआ था और उनके दृष्टि-परास के बहुलायामों से विन्यस्त यहां प्रस्तुत प्रगल्भ पाठ इन्हीं वार्ता-रूपों से बना है जो शीध्रप्रकाश्य पुस्तक ""मानुष"" का एक किंचित् सम्पादित हिस्सा है।
यह पाठ वत्सल (संदीप) के लिए। --पीयूष दईया ई-मेल : todaiya@gmail.
हकु शाह
एक कलाकार के सन्दर्भ में हम स्टूडियो वगैरह की बात करते हैं। मुझे यह बहुत कृत्रिम जान पड़ती है। कोई भी जगह कलाकार के लिए उचित है बशर्ते कि वह उसे पसंद हो।
चित्ररत होते समय कैनवास के बाहर के वातावरण को मैं संतोष दे देता हूं हालांकि उसमें मेरी पत्नी है , घर है , मेरा खाना व अन्य चीजें हैं। कैनवास संग शुरू करने से पहले भी मेरी यह कोशिश रहती है कि आसपास का वातावरण शान्त बना रहे हालांकि जब चित्र बना रहा होता हूं तब आजू-बाजू क्या हो रहा है उसका ज़्यादा पता नहीं रहता। असल में चित्र बनाते समय तबीअत पर आधार होने के अलावा जिस चित्र पर काम कर रहा हूं उसके अपने उभर रहे रूप पर भी बहुत कुछ तय करता है--मूड़ और रूप-स्वरूप दोनों ही। तबीअत के उतार चढाव चित्र पर किस तरह से असर करते हैं यह पता नहीं लेकिन मैं उस समय चित्र बनाता हूं जब सुबह में पांच बजे जल्दी उठ जाने से तबीअत में ताज़गी बनी रहती है हालांकि काम करते हुए वहीं चीज़ शाम को थोड़ा तकलीफ़ देने लगती है। लोग आते जाते हैं यह एक बात है, दूसरी तब जब कोई नहीं हैं और मैं काम करता हूं। तीसरी बात में यह स्वयं चित्र ही है जो मुझसे बात करता है--अकेला।
और मैं ताज़ा हूं--हालांकि तीनों बातों के सिलसिले में आधार वही बना रहता है कि चित्र कौन-सी अवस्था पर है। दरअसल किसी के आने जाने या किसी की उपस्थिति तब खलल पैदा नहीं करती जब चित्र की गति मेरे मन में तय हो ( काव्यात्मक लहज़े में कहूं तो नी ) लेकिन हां , जब चित्र बांधना हो , रूप रचने में उलझा होऊं, उस समय मैं चित्र के साथ अकेला ही खेलना पसन्द करता हूं। शायद इसलिए भी कि इन खास घड़ियों में संशय और उम्मीद दोनों ही चीज़ें अपना काम कर रही होती हैं ; पहली में यह कि चित्र में कुछ होगा कि नहीं और दूसरी यह कि कुछ होता है। दोनों ही स्थितियों में--होता है या नहीं होता है या दोनों संग--मैं मेहनत करता हूं और इसमें जिस रचनात्मक ऊर्जा व शक्ति का उपयोग होता है, उससे चित्र बनता चला जाता है।
जाहिर है ताज़गी और सुबह वाले प्रकार की भूमिका बहुत अहम है क्योंकि शाम में चित्र पर काम करते समय यह आत्म-संशय फिर दबोच लेता है--सम्भवत: थकान के चलते--कि अभी अगर चित्र को हाथ लगाया तो यह बिगड़ भी सकता है , उस समय ऐसा लगता है मानो अभी कुछ नहीं होगा ; तब इसे छोड़ देता हूं और मैं नहीं करता। सुबह होते ही चित्र अपने आप मुझे कहने लगता है--सुझाने लगता है कुछ इस तरह मानो मैं उसके वजूद को प्रकट करने का माध्यम हूं--कि ऐसे करो कि ये रंग लगाओ कि इस तरह से रेखा डालो कि इस भांति से करो--- अब इसमें अकादमिकता या पढाई-लिखाई या इस तरह की कोई चीज़ बीच में नहीं आती। दरअसल यह स्वयं चित्र है जो मुझे रंग या रेखा या अन्य चीज़ों के बारे में बराबर बताता रहता है कि फलां फलां तरह से करोगे तो ठीक रहेगा। अपने चित्र बनाने में मैं फिर उसी हिसाब से करने लगता हूं जिसमें मुझे बहुत आनन्द आता है। यही वे घड़ियां है जब चित्र अपने से बनता जाता है। जैसे कि बीते कल चित्र बनाते समय यह नहीं सोचा था कि आज ये ओढनीवाला जैसा कुछ स्वरूप औरत के पीछे आएगा ; कल लगता रहा था कि खाली रेखा डालूंगा। लेकिन आज यह स्वयं चित्र है जिसने सब बोल दिया कि मुझे न केवल पूरी रेखा डालनी है बल्कि उसमें उधर थोड़ा सफ़ेद रंग भी लगाना है जिससे बाजू वाला सफ़ेद इसका पूरक हो जाए ; यह करना अब अच्छा लग रहा है। हो सकता है मैं उतना सफल न हो पाऊं, तिस पर भी इस कैफियत में यह करने में आनन्द आ रहा है। एक बात यह है कि मेरा लोहि , मेरा रक्त चित्र में जाता है , दूसरा यह है कि मुझे शान्ति मिलती है। किसी को यह परस्पर उलटे भी लग सकते हैं मगर ऐसा होता है। मैं थकता हूं , नि:शेष होता हूं लेकिन मज़ा आता है इसमें--थकान में मज़ा , शक्ति खर्चने में मज़ा , चित्र संग होने का मज़ा। इससे मुझे उतनी ही शान्ति मिलती है जितनी किसी को अच्छी हवा में मिलती होगी बल्कि उससे कई गुना ज़्यादा।
इसीलिए चित्र बनाते समय मैं किसी भी तरह के बाहरी दबावों का शिकार नहीं बनता। जो चलता है उसमें कई चीज़ें एक साथ में चलती रहती है--अन्त:सलिल। चित्र अपने से हो रहा होता है उसमें बाहर से कुछ भी लाने का प्रयास उसे नद्गट करने जैसा है।
एक तरह से चित्र अपने से स्वयं को मेरे सम्मुख उजागर करने लगता है और मुझ संग चित्र की यह संवाद-प्रक्रिया मेरे लिए सबसे अच्छी , सबसे ऊंची चीज़ है। चित्र एकदम अपने को खिलने में ले आता है--अनपेक्षित तरह से बारम्बार--अपने अलग अलग अंग से लेकर प्रवृत्ति सहित--मैं वही करने की कोशिश करता हूं जो बन रहा चित्र बोलता है। यह समाज के संग चुनौती की भूमिका में आ जाने जैसा भी है। एक खास मायने में समाज व अन्य सब से घमासान करने जैसा भी। मान लीजिए कि अपने एक चित्र में मुझे एक मानवाकृति के सिर के बाल बनाने हैं। यह मामूली सी बात एक जटिल गुंफन में तब्दील हो सकती है क्योंकि बाल रखने न रखने या कितना रखने के विभिन्न समाजों के अपने मानक हैं जैसे बालों की चोटी बनानी चाहिए कि नहीं कि कितनी चोटियां बांधनी चाहिए कि अफ्रिकंस् सरीखी ज़्यादा चोटियां गूंथनी-बांधनी चाहिए ---ज़ाहिर है कि सिर्फ़ इस एक चीज़-मात्र से ही सब नयी नयी चीज़ें ऐसे निकलने लगती हैं कि हो सकता है कोई समझे कि बाल कम बनाने हैं और मैं ज़्यादा बना दूं या इसके उलट भी हो सकता है--यह वह खेल है जिसमें अलग अलग रूप उसी तरह प्रकट होते चले जाते हैं ( मेरे चित्रों की मानवाकृतियों को आप देख सकते हैं ) जिस तरह चित्र मुझे बताता रहता है। हर लसरका/स्ट्रोक , हर टुकड़ा/पेच , हर रेखा/लाइन चित्रफलक पर ज़रूरत के हिसाब से पड़ती है और फिर वह/वे ही अपनी जगह , अपनी दिशा तलाश लेती हैं--आप से आप। मुझे पता नहीं होता कि चित्र में क्या घटने वाला है--चित्र बनाते हुए यह विकसित होता है , पनपता है। दूसरे शब्दों में , चित्रानुभूति स्वयं में एक रास्ता है जिस पर चलते चलते आप एक चमत्कार के घटने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं--विभिन्न रंगों , रेखाओं , जगहों/स्पेसेज़ को रचते हुए।
अपने चित्रों के सिलसिले में मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि यह खेल के बहुत नज़दीक है--इसमें ऐसा कोई तत्व अन्तर्व्याप्त हो जाता है जो कलाकार को आनन्दित करता है। चित्र संग खेलने में मुझे गहरा आनन्द मिलता है। यह मेरे लिए एक चुनौती व प्रयोग है। यहां कभी भी कुछ भी घट सकता है लेकिन एक कसौटी कहीं नेपथ्य में बनी रहती है और वह है संवेदना संग इन्द्रियों में एक ग्राह्य खुलापन।
कई दफा ऐसा भी होता है कि संस्कारवश या फ़ैशन या चलन के चलते जो चीज़ समाज में स्वीकार्य नहीं है वही चीज़ आप चित्र में पसंद करने लगते हैं। यह मेरे लिए एक बड़ी बात है। इसे ऐसे समझे कि अपने एक चित्र की मानवाकृति के कान में मानो मैंने एक केसरिया टपका इसलिए लगा दिया है क्योंकि चित्र ने मुझे ऐसा करने के लिए कहा था। हो सकता है कि अभी के किसी प्रेक्षक को वह ठीक न जान पड़े मगर बहुत सम्भव है कि उसके या किसी और के पूरे जीवन में कभी उसे वह केसरिया टपका बहुत अच्छा लग भी जाय !
ज़रा-सा कुछ डाल कर , एक रेखा डाल कर या एक रंग लगा कर जब मैं एक रूप खड़ा करता हूं तब बहुत सम्भव है कि एक टुकड़ा , एक पैच ऐसा लग जाय कि वही मेरे लिए शाबास हो--शाबासी बन जाय कि भई अच्छा हो गया। हो सकता है कि वह टुकड़ा कान हो या शरीर के अंदर का मांस हो या पांव का एक भाग हो। वह जब बन जाता है तब औरों के लिए वह सिर्फ़ एक टुकड़ा--एक अमूर्त पैच--ही है मगर मेरे लिए पचास साल है। है तो रंग का एक टुकड़ा ही मगर यह देखना चाहिए कि उसमें जोर कितना है--- उससे पता लग जाता है---
अपने चित्रों की आकृतियों या चित्र के अन्य भागों में लगे इन पैचेस् को मैं इरादतन नहीं करता या बनाता ; वह अपने आप बन जाते हैं जिनकी नकल सम्भव नहीं ; जिनके लिए देखने वाला या समझने वाला फ़ौरन पहचान लेगा कि चित्र का यह भाग या पैच पचास साल बाद वाला है , दो साल वाला नहीं जो कि बीमार जैसा होगा-- जो शक्ति पचास साल वाले में हैं वैसा जोश ही उसमें नहीं आ पाएगा, इसीलिए नकल करने वाला भी डरेगा , उससे होगा ही नहीं ; जबकि समझने वाले के लिए यह पहचान लेना कठिन नहीं होगा कि यह काम हकुभाई का है।
हां , यह सचमुच एक रहस्यमय बात है कि अगर स्वयं मैं भी कभी वैसा ही या वही चित्र दोबारा बनाने की कोशिश करूंगा, वह वैसा नहीं बन पाएगा--सिर्फ एक बार दोबारा कुछ नहीं। रंग के टुकड़ों में , लसरको में उसका स्वभाव , उसकी मजबूती , समझ के साथ में बहती है। यह हो सकता है कि दूसरे चित्र में दूसरी चीज़ होगी , तीसरी में तीसरी--फूल जैसे होते हैं। हर नया चित्र एक नयी बात , एक नयी क्रिया होती है। नया अनुभव। नया फूल जैसे है वैसे हो जाता है यह। चित्र बनाते समय अपने हाथ को खेलने के लिए मैं खेलने दे देता हूं। अभिव्यक्ति या सौन्दर्य या जो कोई भी नाम आप उसे देना चाहे उसे विचार में लिये बिना मैं बनाता हूं हालांकि मैं नहीं जानता यह क्या है।
सम्भवत: यह अपने अभी तक के एक अनन्वेषित इलाके में दाखिल होना है--एक तरह से यह एक अपरीक्षित व अज्ञात प्रान्तर है जिसके लिए मैंने कहा कि मुझे यह पता नहीं होता कि बन रहे चित्र में आगे क्या घटेगा। सबकुछ अचानक से घटने लगता है। यह शायद उसी चीज़ का एक अन्दरूनी भाग है जिसमें एक चित्र मुझसे संवादरत होता है। अपनी पूरी इन्द्रियों सहित सक्रिय मेरे चित्रात्मक चित्त के आभ्यन्तरिक व्योम , /भीतरी स्पेस की ये घड़ियां अज्ञात से जिस तरह सम्बोधित रहती है उसमें लगता है कि मेरे काम में यह अज्ञात का तत्व चित्र के अनेकानेक रूपों में आता रहा है। हो सकता है कि यह अकादमिकता या शास्त्र या जो मैंने लिखा-बांचा है उससे नहीं आता हो बल्कि प्रकृति में , वनस्पतियों में , मानव में या कहां भी , किसी वस्तु में या मेरी पसंदीदा टेराकॉटा कृति या कसीदाकारी (कसीदा , फुलकारी या धातु का काम) में भी या हो सकता है कोई और चीज़ हो , उसमें मैं देखता होऊं/हूं। दूसरे शब्दों में , यह एक नयी धारा है , नयी शक्ति है , एक ऐसा नया व सहज प्रेरणा-स्त्रोत है जिसे मैं अपने काम में लगाने पर पाता हूं कि यह मेरे पायो के धागे हैं। सम्भवत: यह आध्यात्मिक मार्ग पर चलने जैसा है--अब यह स्त्रोत क्या है , पता नहीं ; इसकी व्याख्या नहीं कर सकता--लेकिन यह इन्द्रियां वगैरह सब के इकठ्ठेपन सहित एक तत्व है जो चीज़ों के पास जाता है और उसमें मैं देखता व इन सब संग खेलता हूं। इस दरमियान सिद्धान्त या अन्य कोई विजातीय तत्व मेरे आड़े नहीं आते।
दरअसल संस्कृति या संस्कार के जो खास मानक या रीतियां हैं उन्हें मैं बाजू में रख कर ही चित्र बनाते समय खेलता हूं--भित्ति या आधार उसी में है। मुझे लगता है कि वनस्पतियों से लेकर मानुषाकारों तक सब चित्र में के कुछ ऐसे में बदल या रूपान्तरित हो जाते हैं जिसे आप पसंद करते हैं या जो आनन्द देता है। आप उसे वहां चित्र में रखते हैं और लगता है कि यह सत्य के बहुत करीब है। एक प्रकार का सत्य जो आपको आनन्द देता है। जब चित्र में यह अवस्थित/विन्यस्त हो जाता है तब बहुत बार मैं इस संस्कृति , संस्कार के बारे में सोचता हूं लेकिन फिर इसे बाजू में रख देता हूं ताकि सिर्फ़ देख सकूं। किसी भी रचना-कृति को लेकर हमारी समझ बाह्य यथार्थ से इतनी प्रभावित व संस्कारित रहती है कि हम अक्सर बस यह सवाल करते हैं कि एक कलाकार की अभिव्यक्ति से क्या संदेश मिल रहा है , कि उस कृति में क्या सिखाया या नैरेट किया गया है , कि वह क्या बताता है , कि वह क्या उपदेश या शिक्षा देती है जबकि इसके बरक्स मुझे लगता है कि एक कलाकार जब चित्र बनाता है तब न जाने कितनी वास्तविकताओं से गुज़रते हुए अपनी रूपाविष॒कृति तक आ पाता है। यूं मैं कलालोचना का विरोधी नहीं हूं लेकिन किसी चित्रकृति को सामान्यीकृत सांचों में इस तरह जड़ करना कि उसमें फलां फलां जनजातीय कला से आया है या फलां तत्व लोक का है, यह मुझे गलत लगता है। हो सकता है कि उस कलाकार ने शहरी वातावरण में कुछ देखा हो जिसका उस पर असर पड़ा हो--किसी मकान की जाली या कूड़े-कचरे का , बजाय लोक तत्व के। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि जीवन व कला के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवन से सम्बन्ध नहीं है तब समाज से भी कैसे होगा। मेरे लिए जीवन और कला एक दूसरे की पूरक है। ऐतिहासिक रूप से भी देखें। दुनिया में कला का इतिहास जिस तरह बनता गया है, जीवन का एक बहुत बड़ा भाग उसमें दिखता व उसमें से निकलता है। इसमें प्राधान्य का आग्रह किस पर--जीवन पर या कला पर--यह एक बड़ा प्रश्न है। अन्तत: यह जीवन ही है जो कला में उतरता-घटता है। कुछ लोग सामाजिक सरोकारों की बात करते हैं, कुछ नितान्त सामयिक मुद्दों की और कुछ लोग कुछ बिन्दुओं को साधारणीकृत करके उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं : हर कलाकार का अपना अलग संवेदनात्मक मिजाज होता है जिसके मुताबिक वह काम करता है। जब भी आप सतह की अखरोट फोड़ कर उसमें झांकेंगे, आपको कलाकार का जीवन उसके अपने काम में नज़र आएगा। हर कलाकार व व्यक्ति और इसीलिए समाज व संसार भी अपने लिए एक ऐसा अवकाश , एक ऐसी स्पेस चाहता है जहां वह स्वयं के प्रति सच्चा हो सके : इसका एक आयाम उस स्वातन्त्रय-बोध का भी है जिसकी अनुपस्थिति में अपने होने के स्वधर्म की पहचान व उसका चरितार्थन सम्भव नहीं।
मेरा खयाल है कि एक खास तरह की शक्ति है , कह सकते हैं कि आत्मा--जीव है रूप में--जो मुझे वनस्पतियों से , या किसी वस्तु से या मनुद्गय से या अ-ज्ञेय से संलग्न करता , जोड़ता है और अपने को मिलने वाले जिस आनन्द की बात मैं कर रहा था वह इस संलग्नता का चरितार्थ होना है। ऐसा नहीं है कि मैं किसी वस्तु को जैसे ही देखता हूं उसे समझने की कोशिश में लग जाता हूं बल्कि इसे देखने मात्र से ही मैं इसके रंग में रंग जाता हूं। स्वयं को बेहतर और बेहतर होता हुआ महसूस करता हूं। हो सकता है कि आज मैं एक पन्ना लिखूं और शायद कल कुछ और। यह मुझे एक ऐसा आनन्द देता है जो सारे समय , पल-छिन बह रहा है और लभ्य है। चित्र बनाते समय यही सब चीज़ें नये नये रूप ले लेती हैं। मैं शायद यह कह सकता हूं कि चित्र बनाने का आनन्द स्वयं उस चित्र में प्रवाहित होने लगता है--यह पूरी प्रक्रिया की रग रग में फैलता है। यही वह चीज़ है जो उस चित्र में जोच्च पैदा करती है।
संसारभर में अपनी पसंदीदा कलाकृतियों को देखते हुए लगता है उनमें एक जोश है जिसे मेरे गुरू के। जी। सुब्रह्मण्यन "शक्ति" कहते हैं। मेरी कला-चिन्तक मित्र स्टेला क्रमरिश ब्रीद/सांस कहती थी ---। कोई चीज़ है जो मुझे बहुत छूती है जैसे वनस्पतियों या एक पौधे को देखता हूं जिसमें से पत्ता निकला है---। ओह ! कितनी बड़ी बात है यह--अद्भुत। मानो कोई चांद पर जाता है, उतनी ही बड़ी बात है यह , मेरे लिए। कितना विस्मयकारक है कि रचना स्वयं ही बोल देती है कि उसमें कितना जोश है। ---सान फ्रांस्सिको संग्रहालय में एक मोहरा/मास्क है जिसे देख कर मेरी आंखों से पानी निकलता रहता था--खाली मेरी आंख में से पानी निकलता रहता था। मैं वह मोहरा देखता रहता था। इतना सुंदर था वह ; जिसे मैं जीव कहता हूं।
रचना में जीव या जिसे रस कहा जाता है उसके आने की सम्भावना बराबर रहती है लेकिन यह बनाने से नहीं आता , अपने से बनता है , होता है---। जनजातीय कला-रूपों में मैं यह रस पाता हूं क्योंकि उनमें करप्शन नहीं है। मैंने यह पाया है कि जहां दूषण नहीं है वहां रूप अच्छे रहे हैं। अब दूषित-पन क्या है , यह एक सवाल है। उदाहरण के लिए छोटा उदेपुर के एक कुम्हार द्वारा बनाया हुआ टेराकॉटा का एक प्लेन--हवाई जहाज--जिसे उसने अपने देवता को अर्पित किया था , मुझे अच्छा लगा था।
लोगों द्वारा की जाने वाली वे सारी चीजें जो बिना कलुष के हैं , अच्छी है। (दूसरे तत्व दाखिल होने के बाद कलुष आ जाय यह दूसरी बात है। इसीलिए मैं लोगों से कहता हूं इन जनजातीय कला-रूपों को सुधारने मत जाइए और इनकी कभी भी कॉपी नहीं करनी चाहिए। जैसे ही कॉपी करते हैं , हम उन्हें खराब कर देते हैं। हां , अध्ययन या समझने के लिए कुछ करना बिलकुल भिन्न बात है। लेकिन इसे बदलना या इन्हें निर्देशित-संचालित करना समूची चीज़ को नद्गट कर देता है। )
जन द्वारा सृजित सहज व ऋजु रूप मुझे एक प्रकार की प्रेरणा देते हैं। जैसे घड़ा या कोठी या मिट्टी से बनाये गये अन्य रूप। दैनंदिन की ज़मीनी जिंदगी में रचे-बसे इन कला-रूपों को जब देखता हूं, मुझे लगता है कि यह फूल से हल्का प्रकाश है जिसे मैं अपने चित्रों में लाने का यत्न करता हूं। मुझे प्यार है सूर्यकिरणों में स्पन्दित कणों को देखना जब धूप सीधी पड़ती है वहां। वह आंख मुझे आनन्द देती है जिसमें सुख व दर्द के आंसू है।
दरअसल , काम करते समय आपको पानी जैसा हो जाना चाहिए।
और ज़मीन जैसा भी। ज़मीन बोलती नहीं है मगर देखे कि क्या क्या देती है , कितना कुछ। लेकिन यह एक मौन चीज़ है जो इर्द गिर्द स्पन्दित है।
ऐसा ही करने का मेरा मन करता है। कुछ भी नहीं बोले , चित्र में कुछ भी नहीं देखे फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं। रंग में कुछ भी नहीं देखे , फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं। रूप में कुछ भी नहीं देखे , फिर भी कई चीज़ देख सकते हैं---। यही है वह जिधर मैं जाने का प्रयास कर रहा हूं ---। जिसे मैं पाने की , रूपायित करने की कोशिश करता हूं। मैंने अब तक सैंकड़ों चित्र बनाये होंगे लेकिन हर बार बराबर यही महसूस होता रहा है मानो जो मैं कर रहा हूं वह सिर्फ़ एक प्राथमिक वर्णमाला , ककहरे की चीज़ है---।
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