समकालीन कविता के मह्त्वपूर्ण कवि अनूप सेठी मुंबई में रहते हैं। लेकिन उनके भीतर डोलता पहाड उन्हें हर वक्त बेचैन किए रहता है। जगत में मेला उनकी कविताओं का संग्रह इस बात का गवाह है। यहां प्रस्तुत कविताऎं कवि से प्राप्त हुई है। इन कविताओं के साथ कवि अनूप सेठी का स्वागत और आभार।
अनूप सेठी 098206 96684
अशांत भी नहीं है कस्बा
एक
आएगी सीढ़ियों से धूप
बंद द्वार देख के लौट जाएगी
खिड़की में हवा हिलेगी
सिहरेगा नहीं रोम कोई
पर्दों को छेड़कर उड़ जाएगी
पहाड़ी मोड़ों को चढ़कर रुकेंगी बसें
टकटकी लगा के देखेगी नहीं कोई आंख
हर जाड़े में शिखर लेटेंगे
बर्फ की चादरें ओढ़कर
पेड़ गाढ़े हरे पत्तों को लपेटकर
बैठे रहेंगे घास पर गुमसुम
चट्टानों पर पानी तानकर
ढोल मंजीरे बजाती
गुजर जाएगी बरसाती नदी
ढलान पर टिमटिमाता
पहाड़ी कस्बा सोएगा रोज रात
सैलानी दो चार दिन रुकेंगे
अलसाए बाजार में टहलती रहेगी जिंदगी
सफेद फाहों में चाहे धसक जाए चांद
चांदनी टीवी एंटीनों पर बिसूरती रहेगी
मकानों के बीच नए मकानों को जगह देकर
सिहरती हुई सिमट जाएगी हवा चुपचाप
किसी को खबर भी नहीं होगी
बंद देख के द्वार
लौट जाती है धूप सीढ़ियों से
दो
जिले के दफ्तर नौकरियां बजाते रहेंगे
कागजों पर आंकड़ों में खुशहाल होगा जिला
आसपास के गांवों से आकर
कुछ लोग कचहरियों में बैठे रहेंगे दिनों दिन
कुछ बजाजों से कपड़ा खरीदेंगे
लौटते हुए गोभी का फूल ले जाएंगे
कुछ सुबह सुबह आ पंहुचेंगे
धीरे धीरे नए बन रहे मकानों में काम शुरू हो जाएगा
अस्पताल बहुत व्यस्त रहेगा दिन भर
आखिरी बसें ठसाठस भरी हुई निकलेंगी
कुछ देर पीछे हाथ बांध के टहलेगा
सेवानिवृत्त नौकरशाह की तरह
फिर घरों में बंद हो जाएगा कस्बा
किसी को पता भी नहीं चलेगा
मिमियाएंगी इच्छाएं कुछ देर
बंद संदूकों से निकल के
रजाइयों की पुरानी गंध के अंधेरे में दब जाएंगी
बंजारिन धूप अकेली
स्कूल के आहातों खेतों और गोशालाओं में झांकेगी
मकानों की घुटन से चीड़ के जले जंगलों से भागी
लावारिस लुटी हुई हवा
सड़क किनारे खड़ी रहेगी
न कोई पूछेगा न बतलाएगा
धरती के गोले पर कहां है कस्बा
बस्ता उठाके कुछ साल
लड़के स्कूल में धूल उड़ाते रहेंगे
इन्हीं सालों में तय हो जाएंगी
अगले चालीस पचास सालों की तकदीरें
कुछ को सरकार बागवानी सिखाएगी
कुछ खस्सी हो जाएंगे सरकारी सेवा में
कुछ फौज से बूढ़े होकर लौटेंगे
कुछ टुच्चे बनिए बनेंगे
कुछ कई कुछ बनते कुछ नहीं रहेंगे
कुछ बसों में बैठकर मोड़ों से ओझल हो जाएंगे
न भूलेंगे न लौट पाएंगे
धूल उड़ाते हुए तकरीबन हर कोई सीखेगा
दाल भात खाके डकार लेना
सोना और मगन रहना
कोई न पहचानेगा न पाएगा
पर्वतों का सीना बरसाती नदी का उद्दाम वेग
सूरज का ताप हवा की तकलीफ
द्वारों पर ताले जड़े रहेंगे
दिल दिमाग ठस्स पड़े रहेंगे
अपनी ही खुमारी में अपना ही प्यार
कस्बे को चाट जाएगा
खबरों में भी नहीं आएगा कस्बा
और बेखबर घूमता रहेगा दुनिया का गोला (1988)
भूमंडलीकरण
अंतरिक्ष से घूर रहे हैं उपग्रह
अदृश्य किरणें गोद रही हैं धरती का माथा
झुरझुरी से अपने में सिकुड़ रही है
धरती की काया
घूम रही है गोल गोल बहुत तेज
कुछ लोग टहलने निकल पड़े हैं
आकाशगंगा की अबूझ रोशनी में चमकते
सिर के बालों में अंगुलियां फिरा रहे हैं हौले हौले
कुछ लोग थरथराते हुए भटक रहे हैं
खेतों में कोई नहीं है
दीवारों छतों के अंदर कोई नहीं है
इंसान पशु पक्षी
हवा पानी हरियाली को
सूखने डाल दिया गया है
खाल खींच कर
मैदान पहाड़ गङ्ढे
तमाम चमारवाड़ा बने पड़े हैं
फिर भी सुकून से चल रहा है
दुनिया का कारोबार
एक बच्चा बार बार
धरती को भींचने की कोशिश कर रहा है
उसे पेशाब लगा है
निकल नहीं रहा
एक बूढ़े का कंठ सूख रहा है
कांटे चुभ रहे हैं
पृथ्वी की फिरकी बार बार फैंकती है उसे
खारे सागर के किनारे
अंतरिक्ष के टहलुए
अंगुलियां चटकाते हैं
अच्छी है दृश्य की शुरुआत l(1993)
6 comments:
उनके भीतर डोलता पहाड़ मेरे सोए पटल पर भी डोलने लगा है। भई ये अनूप जी तो बहुत खूब लिखते हैं। दोनों कविताएँ पढ़ते वक़्त मैं अल्मोड़ा को विश्युलाईज़ कर रहा था।
अनूप जी को बधाई और आपको इस बेहतर प्रस्तुति के लिये साधुवाद
बहुत दिनों बाद पढ़ा अनूप जी को. सुंदर कविताएं. उन तक मेरा भाव पहुंचे.
कुछ दिन पहले अनूप जी से बात हुई थी !
आज उनकी कविताएं पढ़ कर अच्छा लगा।
सभी कविताएं अच्दी लगीं।
व्यक्ति के तौर पर भी मुझे अनुप जी बहुत स्नेहिल और संवेदनशील लगे।
उन तक मेरा सलाम पहुंचे !
puraani, magar behtareen. saptah bhar pehle anup ji ki purani cheezen parhne ki ichha hui thi, unse maagi bhi, yahan dikhee to chain aa gaya.sundar!
puraani, magar behtareen. saptah bhar pehle anup ji ki purani cheezen parhne ki ichha hui thi, unse maagi bhi, yahan dikhee to chain aa gaya.sundar!
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