वह कोई अकेला दिन नहीं था। हर दिनों की तरह ही एक वैसा दिन - जब सड़क के किनारे, कच्चे पर दौड़ते हुए उसका पांव लचक खा जाता था। पांवों से फूटता संगीत जो एक रिदम से उठते कदमों पर टिका होता, कुछ क्षण को थम जाता। लेकिन उस दिन संगीतमय गति में उठता उसका पांव ऐसा लचक खाया कि उसको बयां करना संभव ही नहीं। करना भी चाहूं तो ओलम्पिक में जाने वाली टीम से वंचित कर दी गई वेटलिफ्टर, मोनिका की तस्वीर उभरने लगती है। उसके रुदन के बिना बयां करना संभव भी नहीं।
जब वह दौड़ता हुआ होता तो पांव लगातार आगे पीछे होते हुए एक चक्के को घूमाती मशीन की गति से दिखाई देते। कभी दो-पहिया वाहनों की खुली मोटर देखी है - मोटर की क्रेंक भी देखी होगी। उसी क्रेंक की शाफ्ट की गति जो पिस्टन को आगे पीछे धकेलने के लिए लगातार एक लयबद्ध तरह से घूमती है। उसके घूमने में जो लय होती है और संगीत, ठीक वैसा ही संगीत उठता है - एक लम्बी रेस का धावक जब अपनी लय में दौड़ रहा होता है। क्रेंक तो दो पहिये क्या चार पहिये वाले वाहनों में भी होती ही हो शायद और यदि होती होगी तो निश्चित है उसकी शाफ्ट भी एक लय में ही घूमेगी। बिना लय के तो गति संभव ही नहीं। इंजन फोर-स्ट्रोक हो चाहे आम, डबल-स्ट्रोक।
वह भी अपने क्रेंक की शाफ्टनुमा पांवों के जोर पर दौड़ते हुए अपने शरीर को लगातार आगे बढ़ा रहा होता था - उस तय दूरी को छूने के लिए जो उसने खुद निर्धारित की होती अपने लिए - अभ्यास के वक्त। या, प्रतियोगिताओं में आयोजकों ने। लम्बी रेस का धावक था वह। लम्बी रेस के अपने ही जैसे उस धावक से प्रभावित जिसको शहर भर उसके नाम से जानता था।
सुबह चार बजे ही उठ जाता। अंधेरे-अंधेरे में। आवश्यक कार्यों को निपटा हाथों पांवों को खींच-तान कर, कंधे, गर्दन और कलाई एवं एड़ी को गोल-गोल घुमा, एक हद तक शरीर को लचकदार बनाते हुए पी सड़क के किनारे-किनारे कच्चे में उतरकर दौड़ना शुरु हो जाता। उसका छोटा भाई, जिसको नींद में डूबे रहने में बड़ा मजा आ रहा होता, उसकी यानी बड़े भाई की सनक के आगे उसे झुकना ही होता। और भाई के साथ उसे भी निकलना होता - साइकिल पर उसके साथ-साथ। वहां तक चलना होता जो धावक की तय की हुई दूरी होती। शुरु-शुरु में वही एक शागिर्द हुआ करता था जिसे उसके उन कपड़ों को, जिन्हें उतार कर वह दौड़ रहा होता या दौड़ने के कारण उत्पन्न होते ताप के साथ जिसे उतारते जाना होता, साइकिल के कैरियर में दबाकर चलना होता। अपने "खप्ति" भाई की खप्त में शरीक होने को छोटे भाई की मजबूरी मानना ठीक नही, भीतरी इच्छा भी रहती ही थी उसमें भी। कई-कई बार, जब भाई को बहुत दूर तक नहीं जाना होता और वह बता देता कि चल आज सिर्फ एक्सरसाईज करके ही आते हैं, तो उस दिन साईकिल नहीं थामनी होती। उस दिन उसे कपड़े नहीं पकड़ने होते। वह भी साथ-साथ दौड़ता हुआ ही जाता था। दौड़ना इतना आसान भी नहीं जितना वह मान लेता था - साईकिल पर चढ़े-चढ़े। उसे तो एक लम्बी दूरी तक साईकिल चला देना ही थका और ऊबा देने वाला लगता। यह ज्ञान उसे ऐसे ही क्षणों में होता। वह साईकिल पर जब खूब तेज निकलता और दौड़ता हुआ भाई पीछे रह जाता तो उसके पीछे रहने पर उसे खीझना नहीं चाहिए, ऐसे ही क्षणों में उसके भीतर भाई के प्रति कुछ कोमल-सी भावनाएं उठतीं। उस मैदान तक दौड़ते हुए, जहां एक्सरसाईज की जानी होती, उसकी सांस फूलने लगती। कई बार जब कोख में दर्द उठता तो भाई की सलाह पर नीचे झुककर दौड़ते हुए वह देखता कि पेट दर्द गायब हो चुका है। तो भी उसे दौड़कर मैदान में पहुंचना साईकिल पर चलते हुए लम्बी दूरी को तय करने से सहज और अच्छा भी लगता। कई बार तो मन ही मन तय करता कि भाई की तरह एक धावक बन जाए। पर फिर साईकिल के कैरियर पर कपड़ों को लादकर कौन जाऐगा ? उसे तो बस ऋषिकेश के नजदीक उस नटराज सिनेमा के चौराहे तक पहुंचना होता जहां तक सड़क के किनारे-किनारे कच्चे पर दौड़-दौड़ कर पहुंचा हुआ उसका भाई ढालवाला को उतरने वाली सड़क पर बनी पुलिया पर बैठकर सांस लेता था। लगभग 35-40 किलोमीटर की दूरी दौड़ कर तय करते हुए पसीने से तर धावक का बदन पारदर्शी हो जाता। पुलिया पर विश्राम करते हुए पहाड़ी हवाओं के झोंको से पसीना सूख जाने के बाद वह तपा हुआ दिखाई देता। जब तप-तपाया शरीर अपनी पारदर्शिता को भीतर छुपा लेता वह कपड़े पहनता और साईकिल पर डबलिंग करते हुए दोनों भाई वापिस घर लौट आते।
बाद-बाद में जैसे-जैसे छोटी-छोटी प्रतियोगिताओं में जीत हांसिल करते हुए बड़े भाई का नाम होता गया और नये-नये शागिर्द बनते गए, बड़े भाई के आदर्शों से भटक कर छोटा भाई अपने उस रास्ते पर निकलने लगा जो जोश-खरोश से भरा था। पर जिसमें हर वक्त खतरनाक किस्म के छूरे बाज कब्जा किए होते। वह बेखौफ उनसे भिड़ जाता था उत्तेजना और रोमांच से भरा - युवा मानस।
उस रोज जब लम्बी रेस का वह कुशल धावक, घर से सैकड़ों मील दूर दक्षिण में शायद कोयम्बटूर या कोई अन्य शहर में आयोजित प्रतियोगिता को जीत चुका था या जीतने-जीतने को रहा होगा, उसी समय या उसके आस-पास का समय रहा होगा, किसी दिन उसके छोटे भाई से सीधे-सीधे न निपट पाए एक खतरनाक छुरे बाज का चाकू छोटे भाई की पसलियों के पार उतर गया और बीच चौराहे में वह जाबांज तड़फते हुए हमेशा के लिए सो गया। एक ही दिन एक ही अखबार के अलग अलग पृष्ठों में दोनों भाईयों की खबर दुर्योग ही कही जा सकती है।
देहरादून हरिद्वार रोड़ पर वह उसी किनारे, कच्चे में उतरकर, जहां उखड़ रही सड़क की रोड़ियां भी पड़ी होती, दौड़ता हुआ नटराज सिनेमा चौराहे तक पहुंचता था जिस किनारे गढ़ निवास, मोहकमपुर में वो बिन्द्रा डेरी है जिसे आज की भाषा में फार्म हाऊस कहा जा रहा है। जी हां उस वक्त (उस वक्त क्या आज भी यदि अखबारों को छोड़ दे तो आम बोलचाल में स्थानीय निवासी) उसे बिन्द्रा डेरी के ही नाम से जानते हैं। यह अलग बात है कि भविष्य में वो डेरी भी न रहे और उसकी जगह कोई पांच सितारा खड़ा हो। अभिनव के पिता ने अपने बेटे को उसकी स्वर्ण सफलता के उपलक्ष्य में उपहार में उसे इसी रुप में भेंट करना चाहा है - अखबारों की खबरों के मुताबिक उस फार्म हाऊस पर पांच सितारा का निर्माण होगा। स्वर्ण विजेता बेटे को दिये गये उपहार में एक पिता की वो अमूल्य भेंट होगी - यह अखबारों के मार्फत है जो अभिनव बिन्द्रा के पिता का कहना है ।
वह जिस दौर में उस सड़क पर दौड़ता था बिन्द्रा डेरी उसके लिए एक रहस्य भरी जगह थी। जिसके बाहर हर वक्त चौकीदार पहरा दे रहा होता। रहस्य से पर्दा डेरी का चौकीदार उठाता जो स्थानीय लोगों की उत्सुकता के जवाब भी होते। चौकीदार की भाषा का तर्जुमा करते हुए लगाने वाले शर्त लगाते - बताओ कितनी गाएं हैं बिन्द्रा डेरी में ? और जवाब पर संतुष्ट न होने पर फिर गेट पर खड़े चौकीदार से जाकर पूछते। या फिर कितनी दूध देती है ? और कितनी इस वक्त दूध नहीं देतीं ? या, बताओ कौन से देश से खरीदकर लायी गई हैं गाएं ? इस तरह की आपसी शर्तो में गेट पर खड़े चौकीदार की भूमिका निर्णायक होती। मालूम नहीं चौकीदार भी निर्णय देने में कितना सक्षम होता पर उसकी बात पर यकीन न करने का कोई दूसरा कारण होता ही नहीं। डेनमार्क जैसे देश का नाम उस डेरी की बदौलत ही सुनकर स्थानीय लोग अपने सामान्य ज्ञान में वृद्धि करते। और पिता बच्चों से सवाल पूछते, दुनिया में सबसे ज्यादा दुग्ध उत्पादक देश कौन सा है ? बच्चे भी बिन्द्रा डेरी के वैभव और वहां की गायों के आकर्षण में सुने हुए नाम को बताते - डेनमार्क।
डेनमार्क वास्तव में किस चीज का नाम है, यदि इस तरह के बेवकूफाना सवाल कोई उनसे पूछता तो शायद मौन रहने के अलावा उनके पास कोई जवाब न होता। उनके लिए तो डेनमार्क एक शब्द था जो बिन्द्रा डेरी की जर्सी गायों के लिए कहा जा सकता था। उनकी बातचीत किंवदतियों को गढ़ रही होती - मालूम है मशीन से दूध निकाला जाता है बिन्द्रा डेरी की उन गायों का जो डेनमार्क से लायी गई हैं। ऐसी ही कोई सूचना देने वाला सबका केन्द्र होता और खुद को केन्द्र में पा वह महसूस करता मानो कोई ऐसा बहुत बड़ा रहस्य उसके हाथ लगा है जिसने उसे एक महत्वपूर्ण आदमी बना दिया। उसके द्वारा दी जा रही जानकारी पर कोई सवाल जवाब करने की हिम्मत किसी की न होती। वे तो बस फटी आंखों से ऐसे देखते मानो मशीन उनके सामने-सामने गाय को जकड़ चुकी हो और बिना हिले-डुले गाय का दूध बाल्टी में उतरता जा रहा हो। बिन्द्रा डेरी के साथ ही उतरती वो ढलान जहां से सड़क के दूसरी ओर चाय बगान को निहारा जा सकता था, उस उतरती हुई ढलान पर तो पैदल चलते हुए ही गति बढ़ जाती फिर जब दौड़ रहे हों तो पांव को लचक खाने से बचाने के लिए सचेत रहना ही होता। दुल्हन्दी नदी के पुल तक, हालांकि मात्र 100-150 मीटर का फासला होगा। दौड़ते हुए जब पुल तक पहुंचते तब कहीं समतल कहें या फिर हल्की-सी उठती हुई चढ़ाई, पांव अपनी सामान्य गति में होते।
धावक के साथ-साथ दौड़ रहे उसके शागिर्द तो, जो वैसे तो धावक ही बनना चाहते, दौड़ते हुए रुक ही जाते और पैदल चलते हुए ही पुल तक पहुंचते। कोख में दर्द उठता हो या चाय बगान का आकर्षण या फिर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांक लेने का मोह, पर वहां पर पैदल चलना उन्हें अच्छा लगता। बिन्द्रा डेरी की डेनमार्की जर्सी गायों का आकर्षण, उनके कत्थई-लाल चमकते बदन की झलक पाने को तो हर कोई उत्सुक ही रहता। तब तक धावक उन्हें मीटरों दूर छोड़ चुका होता। रोज-रोज की दौड़ ने बिन्द्रा डेरी का आकर्षण उसके भीतर नहीं रख छोडा फिर उसका लक्ष्य तो एक धावक बनना हो चुका था। लेकिन उसके पीछे पीछे शागिर्दों की दौड़ भी जारी ही रहती। हालांकि यह तो झूठा बहाना है कि ढाल पर रुक जाने की वजह से वे लम्बी रेस के उस कुशल धावक से पीछे छूट गए। जबकि असलियत थी की उसकी गति के साथ गति मिलाकर दौड़ने की ताकत किसी में न होती। वह तो लगातार आगे ही आगे निकलते हुए एक लम्बा फासला बनाता रहता। जिस वक्त किसी प्रतियोगिता में ट्रैक पर दौड़ रहा होता तो देखने वाले देखते कि वह अपने साथ दौड़ने वालों को लगभग-लगभग एक चक्कर के फासले से पीछे छोड़ चुका है जबकि अभी रेस का एक तिहाई भाग ही पूरा हुआ है। बिन्द्रा डेरी की भव्यता उस डेरी के भीतर, कभी कभार झलक के रुप में दिखाई दे जाती जो उन डेनमार्की जर्सी गायों के लाल-कत्थई रंगों में छुपी होती। गेट पर चौकीदार न होता तो, जो कि अक्सर ही होता था, डेरी के भीतर घुस उनके कत्थई रंगों को हर कोई छूना चाहता। भविष्य के उस सितारे, वर्ष 2008 के ओलम्पिक स्वर्ण विजेता की शैशव अवस्था के चित्र भी उनकी स्मृतियों में दर्ज हो ही जाते। पर जिस तरह यह मालूम नहीं किया जा सकता था कि बिन्द्रा डेरी मे कितनी गाएं हैं ? कितनी दूध देती हैं ? और कितना देती हैं ? दूध मशीनों से निकाला जाता है या फिर उनको दूहने वाले भी कारिदें है ? ज्यादातर किस रंग की है ? और उनमें जर्सी कितनी और देशी कितनी ? या, देशी हैं भी या नहीं ? ठीक उसी तरह सड़क के बाहर से गुजर जाने वाला कैसे जान लेता कि भविष्य का सितारा इसी चार दीवारी के भीतर अभी अपनी शैशव अवस्था में है और अपनी मां की गोद से उछलकर कहीं निशाना साधने को लालायित। उसके बचपन के उन चित्रों को भी तो, जिन्हें स्थानीय अखबारों ने बड़े अच्छे से प्रस्तुत किया कि कैसे किसी कारिंदे के सिर पर रखी बोतल में वह निशाना साधता था, बाहर सड़क से गुजरते हुए या रुक कर भी नहीं देखा जा सकता था।
उसी बिन्द्रा डेरी से उतरती गई ढाल पर उस मनहूस दिन उसका पांव लचका। वह लचकना कोई आम दिनों की तरह लचकना नहीं था। अन्तर्राज्यीय प्रतियोगिताओं में जीतने के बाद उस समय वह राष्ट्रीय टीम के चयन कैम्प की तैयारी में व्यस्त था। क्या मजाल किसी शागिर्द की जो उस समय उसके साथ दौड़ने का अभ्यास भी करे। वह तो सरपट निकल जाएगा मीलों मील। उसे तो अपने ट्रैक समय को कम से कम करना था। अपने रिकार्ड को हर सैकण्ड के दसवे हिस्से तक कम करने में उसे मालूम था कि गति में जरा भी विचलन नहीं होना चाहिए। सड़क किनारे के ऊबड़-खाबड़ कच्चेपन की क्या मजाल जो उसकी गति में बाधा पहुंचा सके। लगातार एक लय में दौड़ते उसके पांवों की पिण्डलियों के चित्र खींचे जा सकते तो बताया जा सकता कि उनमें कैसी कैसी तो लहर उठती थी जब पांव उठा हुआ होता और दूसरे ही क्षण जब जमीन में लौटकर फिर उठ रहा होता था।
उस दिन पैर मुड़ा तो मुड़ा का मुड़ा ही रह गया। एक दबी-दबी सी चीख उसके मुंह से निकली और वह पांव पकड़ कर बिन्द्रा डेरी की चार दीवारी के बाहर उगी घास पर बैठा रहा। वह चीख ऐसी नहीं थी कि साईकिल में साथ-साथ चल रहा शागिर्द भी सुन पाता। वह तो अपनी साईकिल पर तराना गाता हुआ, चाय बगान को निहारता हुआ और कभी पैण्डलों के सहारे उचक कर बिन्द्रा डेरी के भीतर झांकता हुआ, अपनी ही धुन में चलता रहा। काफी आगे निकल जाने के बाद, लक्ष्मण सिद्ध के मोड़ तक, जब उसने पीछे घूम कर देखा तो धावक दिखाई न दिया। कुछ देर रुक कर उसने धावक का इंतजार करना चाहा। हालांकि वह जान रहा था कि रुकने का मतलब अपने को धोखा देना है। क्योंकि ऐसा संभव ही नहीं कि दूर-दूर तक भी वह दिखायी न दे। अपने ऊपर अविश्वास करने का यद्यपि कोई कारण नहीं था पर एक क्षण को तो ख्याल उसके भीतर आया ही होगा कि कहीं आगे ही तो नहीं निकल गया। यदि साईकिल को मरियल चाल से चला रहा होता या क्षण भर को भी वह बीच में कहीं रुका होता तो निश्चित ही था कि पीछे लौटने की बजाय आगे ही बढ़ा होतां पर उसे अपने पर यकीन था और अपनी आंखों पर भी। रेलवे क्रासिंग को पार करते हुए ही उसने अपनी साईकिल तेजी से दौड़ा दी थी। क्यों कि गाड़ी के गुजरने का सिगनल हो चुका था और रेलवे का चौकीदार ऊपर उठे हुए उन डण्डों को नीचे गिराने जा रहा था जिसके बाद इधर वालों को इधर और उधर वालों को उधर ही रुक जाना था। उसके पांव पैण्डल थे जो तेज चल सकते थे।
लम्बी रेस के धावक के लिए अपनी गति को कभी ज्यादा और कभी कम नहीं करना होता, उसे तो बस एक लय से दौड़ना होता। गति बढ़ेगी भी ऐसे जैसे संगीत के सुर उठते हैं। यूं तो गति नीचे गिराने का मतलब है पिछड़ जाना तो भी यदि कभी उसमें परिवर्तन करना भी पड़ जाए तो वैसे ही - एक लय में।
वैसे दौड़ का मतलब ही अपने आप में प्रतियोगिता है ओर प्रतियोगिता में गति का कम होते जाना मतलब बाहर होते जाना है। उसमें तो गति को बढ़ना ही है बस। लिहाजा धावक भी फाटक के गिरने से पहले ही पार हो जाना चाहता था। उसकी गति जो बढ़ी तो नीचे उतरने का सवाल ही नहीं था। तय था कि जिस गति को वह पकड़ चुका है यदि रेस पूरी कर पाया तो अभी तक के अपने रिकार्डो को ध्वस्त कर देगा ओर यहीं से उसके भीतर यह आत्मविश्वास भी पैदा होना था कि उसकी क्षमता इस गति पर भी दौड़ सकने की है। फिर तो क्या मजाल की वह नीचे गति में दौड़े। अपनी गति को परखते हुए हर धावक अपनी क्षमताओं को विकसित करने की ओर ऐसे ही अग्रसर होता है। धावक ही क्यों एक निशानेबाज भी। जैसे अभिनव बिन्द्रा हुआ होगा और एक वेट लिफटर भी, जैसे मोनिका ने किया होगा। चूंकि उस दिन की गति और दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही थी लिहाजा संभल कर दौड़ने की भी और ज्यादा जरुरत थी।
शागिर्द, जो अपनी साईकिल में चढ़ा-चढ़ा ही आगे निकल गया था वापिस लौटने लगा। बिन्द्रा डेरी की चारदीवारी के बाहर ही घास पर बैठा वह अपने पांव को पकड़े था। डेरी का चौकीदार अपनी पहरेदारी में मुस्तैद। वह अकेला था। पांव को मलासता हुआ। पांव के जोर पर खड़ा न हो पाने के कारण असहाय सा बैठा वह धावक शागिर्द को लौटते देख अपने भीतर नई ऊर्जा को महसूस करते हुए उठने उठने को हुआ तभी एक जोर की चीख के साथ उसे वही बैठ जाना पड़ा। टखना फूल गया था। एक गोला सा बना हुआ था। पांव जमीन पर रखते ही लचक मार जा रहा था। जैसे तो कैसे शर्गिद ने उसे सहारा देकर साईकिल में आगे डण्डे पर बैठाया और घर तक पहुंचा। लम्बे इलाज के बाद भी पांव ठीक होने-होने का न हुआ। कैम्प की तारीख निकलती जा रही थी। न जाने कितने दिन बिस्तर पर लेटे रहना था। जब उसे डाक्टर के पास ले जाया जाता तो वह डाक्टर से मिन्नते करता कि कैसे भी उसे बस चालू हालत में पहुंचा दो डॉक्टर सहाब। मिले हुए मौके को वह गंवाना नहीं चाहता था। डॉक्टर भी क्या करता। सिर्फ दिलासा देने के।
अरे जीवन में बहुत मौके आएगें दोस्त। अभी तुम आराम करो।
उसका वश चलता तो वह डॉक्टर की सलाहों को ताक पर रख कैम्प के लिए निकल जाता पर कम्बख्त पांव शरीर का बोझ उठाने के काबिल ही न हुआ और कैम्प में जाने का समय निकल गया। उस दिन वह सचमुच जार-जार रोया। ऐसा, जैसा लोगों ने इसी ओलम्पिक में शामिल न हो पाई पूर्वोत्तर की भरात्तोलक को रोते हुए देखा होगा, पहले टैस्ट के दौरान जिसे डोव टैस्ट में पाजिटिव पाए जाने के कारण टीम में शामिल होने से वंचित होना पड़। । उसकी चीखती आवाजें सुनने वाला उस वक्त कोई न था। वह जान रही थी कि एक साजिश रची जा रही है उसके विरुद्ध। उसका सरे आम ऐसा कहना कि मुझे गोली मार देना यदि मैं ड्रगिस्ट पायी गई तो, यूंही नहीं था। तकनीकी तरह से अयोग्य घोषित करके उसे टीम से बाहर किया जा रहा है - वह अपने दूसरे ओर तीसरे टेस्ट की प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। पर फिर भी ऐसा करना उसकी मजबूरी थी और जब बाकी के टेस्टों में वह सचमुच नैगेटिव पायी गई तब तक आला कमानों की टीम, जो उसको टीम में शामिल करने न करने का फैसला जेब में लिए घूम रहे थे, ओलम्पिक मशाल को जलाने पहुंच चुके थे।
बस वैसे ही रोया था वह भी उस दिन। उसके जीवन का वह पहला रोना था। उसकी मायूसी में उसके रोने को साथ वाले महसूस कर सकते थे। उसके पास तो कहने को भी काई ऐसा आधार न था कि उसके विरुद्ध कोई साजिश हुई। वह तो बस सड़क में बहुत पतले तल्ले वाले जूते में दौड़ते हुए लचक गया था। कहने को पांव ठीक हो गया पर वो ही जानता था कि अब दौड़ पाना उसके लिए संभव न रहा और धीरे-धीरे वह अपने शागिर्दों से भी प्रतियोगिताओं में पिछड़ने लगा।
2 comments:
सत्य लिखा आपने.. बधाई
भई, जिस पूर्वाग्रह के साथ मैनें यह रिपोर्ताज पढ़ना शुरु किया था उसी की वजह से चकरा गया हूँ। यह पूरी बात तो नहीं। आगे क्या हुआ?
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