मोहनदास करमचन्द गाँधी का नाम लेना भी आज एक दुष्कर कार्य है। उनका नाम ज़हन में आता है और जल्दी ही गायब हो जाता है। अपना विश्वास टूटने लगता है। अपनी नैतिक ताकत की हालत समझ में आ जाती है। अब सरलताओं से डर लगता है। सरल विचारों से दूर भागने की इच्छा होती है। हो सकता है, जीवन सचमुच जटिल हो चुका हो। सत्ता-विमर्श में बहुत ज्यादा संस्थान, विचार, समुदाय और बाजार एक साथ विभिन्न आन्तरिक टकरावों के साथ सक्रिय होने से पेचीदगियाँ बढ़ी हैं। इनके बीच सही घटना को चिन्हित करना कठिन हुआ है। अच्छे विचारों के बीच में पतित लोगों ने भी अपनी पैठ बना ली है। एक वैध् सक्रियता के साथ रहते हुए कभी खराब प्रवृत्तियों द्वारा संचालित किए जाने का खतरा भी बराबर बना रहता है, लेकिन मनुष्यता अपने रूप और गतिशीलता में हमेशा ही सरल होती है। उसके नियम बहुत सादे और समझ में आने वाले होते हैं। दूसरे व्यक्ति का दु:ख हमारे दु:ख की ही तरह है। वह मैं ही हूँ, जो बाढ़ में बेघर हो गया है। मुझे ही गोली मार दी गई है। हत्यारे मुझे ही ढूँढ रहे हैं। हत्यारों से सीधे सम्वाद करना होगा। उसकी वृत्ति के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। वह जरूर तकलीपफ़ में है। हमने उसे कभी ठीक से सुना नहीं। उसे अकेला छोड़कर हम अपने लालच की चाशनी में डूब चुके हैं।
गाँधी ने इस भावनात्मक विचार को सामाजिक क्रिया के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। इसका व्यवहारिक पक्ष यह है कि साध्नों को सरल होना चाहिए। यान्त्रिकी और आधुनिक उपकरण उस सीमा तक ही सरल हैं जब वे सभी नागरिकों को समान रूप से उपलब्ध् हों, लेकिन यह लोकनीति हर व्यक्ति से अनुशासन की माँग करती है। जीवन की जो चीजें सिपर्फ आपने हथिया ली हैं और दूसरों को वंचित किया है, वह सब छोड़नी होंगी। इसी अनुशासन से बचने के लिए पहले काँग्रेस ने गाँधी का नाम ही लेना छोड़ दिया। काँग्रेस ही क्यों पूरे देश को अब गाँधी अप्रासंगिक लगते हैं, इसीलिए गाँधी को पहले महात्मा के रूप में स्थापित किया गया ताकि उनको जड़ बनाया जा सके। हम सभी को इससे आसानी रहती है। गाँधी को जानने के लिए सत्य-अहिंसा जैसे शब्दों के बजाय उनके सोचने के उत्स को जानना जरूरी है। मनुष्य को बदलने पर उनका विश्वास ही उनको महान बनाता है। निर्दोष लोगों के बीच कायरतापूर्ण तरीके से बम रखकर हिंसा करने वालों से सीध सम्वाद करने के नैतिक साहस की अब कल्पना भी नहीं की जा सकती। क्या यह सम्भव है कि सिपर्फ ताकत के बल पर इस क्रूरता पर विजय पाई जा सके ? घृणा, हिंसा, क्रूरता और अविश्वास के विचार एक-दूसरे के लिए प्रेरक तत्व होते हैं। क्षणिक सपफलता के लिए गाँधी के विचारों में कहीं जगह नहीं है। दुश्मन की मृत्यु भी वास्तव में अपनी ही मृत्यु है। यह समझ कमजोर व्यक्ति से नहीं उपजती, इसीलिए गाँधी का मन्त्रा है, निर्भय बनो। हमारे भयभीत समाज को निर्भय होने के लिए कभी न कभी अपने भीतर और बाहर जूझना ही होगा।
पर गांधी जैसा ही है उनका चेहरा
खल्वाट खोपड़ी भी चमकती है वैसे ही
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
गांधीवादी बने रहना भी तो
नहीं है इतना आसान;
चारों ओर मचा हो घमासान
तो बचते-बचाते हुए भी
उठ ही जाती है उनके भीतर कुढ़न
वैसे, गुस्सा तो नहीं ही करते हैं वे
पर भीतर तो उठता ही है
गांधी जी भी रहते ही थे गुस्से से भरे,
कहते हैं वे,
गांधी नफरत से करते थे परहेज,
गुस्से से नहीं
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
गांधी 'स्वदेशी" पसंद थे
कातते थे सूत
पहनते थे खद्दर
वे चाहें भी तो
पहन ही नहीं सकते खद्दर
सरकार गांधीवादी नहीं है, कहते हैं वे
विशिष्टताबोध को त्यागकर ही
गांधी हुए थे गांधी
गांधीवादी होना विशिष्टता को त्यागना ही है
वे गांधीवादी हैं, या न भी हों
अहिंसा गांधी का मूल-मंत्र था
पर हिंसा से नहीं था इंकार गांधी जी को,
कहते हैं वे,
समयकाल के साथ चलकर ही
किया जा सकता है गांधी का अनुसरण।
कथाकार एस. आर. हरनोट की कथा पुस्तक जीनकाठी का लोकार्पण शिमला में सुप्रसिद्ध साहित्यकार डा। गिरिराज किशोर ने 22 सितम्बर, 2008 को श्री बी। के। अग्रवाल, सचिव (कला, भाषा एवं संस्कृति) हि। प्र। व 150 से भी अधिक साहित्यकारों, पत्रकारों व पाठकों की उपिंस्थति में किया। "जीनकाठी तथा अन्य कहानियां" आधार प्रकाशन प्रकाशन प्रा0लि0 ने प्रकाशित की है। इस कृति के साथ हरनोट के पांच कहानी संग्रह, एक उपन्यास और पांच पुस्तकें हिमाचल व अन्य विषयों प्रकाशित हो गई हैं।
कानपुर(उ0प्र0) से पधारे प्रख्यात साहित्यकार डा। गिरिराज किशोर ने कहा कि सभी भाषाओं के साहित्य की प्रगति पाठकों से होती है लेकिन आज के समय में लेखकों के समक्ष यह संकट गहराता जा रहा है। बच्चे अपनी भाषा के साहित्य को नहीं पढ़ते जो भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है। डॉ गिरिराज ने प्रसन्नता व्यक्त की कि उन्हें भविष्य के एक बड़े कथाकार के कहानी संग्रह के विस्तरण का शिमला में मौका मिला। उन्होंने हरनोट की कहानियों पर बात करते हुए कहा कि इन कहानियों में दलित और जाति विमर्श के उम्दा स्वर तो हैं पर उस तरह की घोर प्रतिबद्धता, आक्रोश और प्रतिशोध की भावनाएं नहीं है जिस तरह आज के साहित्य में दिखाई दे रही है। उन्होंने दो बातों की तरफ संकेत किया कि आत्मकथात्मक लेखन आसान होता है लेकिन वस्तुपरक लेखन बहुत कठिन है क्योंकि उसमें हम दूसरों के अनुभवों और अनुभूतियों को आत्मसात करके रचना करते हैं। हरनोट में यह खूबी है कि वह दूसरों के अनुभवों में अपने आप को, समाज और उसकी अंतरंग परम्पराओं को समाविष्ट करके एक वैज्ञानिक की तरह पात्रों को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना था कि इतनी गहरी, इतनी आत्मसात करने वाली, इतनी तथ्यापरक और यथार्थपरक कहानियां बिना निजी अनुभव के नहीं लिखी जा सकती। उन्होंने शैलेश मटियानी को प्रेमचंद से बड़ा लेखक मानते हुए स्पष्ट किया कि मटियानी ने छोटे से छोटे और बहुत छोटे तपके और विषय पर मार्मिक कहानियां लिखी हैं और इसी तरह हरनोट के पात्र और विषय भी समाज के बहुत निचले पादान से आकर हमारे सामने अनेक चुनौतियां प्रस्तुत करते हैं। हरनोट का विजन एक बडे कथाकार है। उन्होंने संग्रह की कहानियों जीनकाठी, सवर्ण देवता दलित देवता, एम डॉट काम, कालिख, रोबो, मोबाइल, चश्मदीद, देवताओं के बहाने और मां पढ़ती हैपर विस्तार से बात करते हुए स्पष्ट किया कि इन कहानियों में हरनोट ने किसी न किसी मोटिफ का समाज और दबे-कुचले लोगों के पक्ष में इस्तेमाल किया है जो उन्हें आज के कहानीकारों से अलग बनाता है। हरनोट की संवेदनाएं कितनी गहरी हैं इसका उदाहरण मां पढ़ती है और कई दूसरी कहानियों में देखा जा सकता है।
जानेमाने आलोचक और शोधकर्ता और वर्तमान में उच्च अध्ययन संस्थान में अध्येता डॉ0 वीरभारत तलवार का मानना था संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियों-"जीनकाठी" और "दलित देवता सवर्ण देवता" पर बिना दलित और स्त्री विमर्श के बात नहीं की जा सकती। ये दोनों कहानियां प्रेमचंद की "ठाकुर का कुआं" और "दूध का दाम" कहानियों से कहीं आगे जाती है। उन्होंने हरनोट के उपन्यास हिडिम्ब का विशेष रूप से उल्लेख किया कि दलित पात्र और एक अनूठे अछूते विषय को लेकर लिखा गया इस तरह का दूसरा उपन्यास हिन्दी साहित्य में नहीं मिलता। माऊसेतु का उदाहरण देते हुए उनका कहना था कि क्रान्ति उस दिन शुरू होती है जिस दिन आप व्यवस्था की वैधता पर सवाल खड़ा करते हैं, उस पर शंका करने लगते हैं। जीनकाठी की कहानियों में भी व्यवस्था और परम्पराओं पर अनेक सवाल खडे किए गए हैं जो इन कहानियों की मुख्य विशेषताएं हैं। उन्होंने कहा कि वे हरनोट की कहानियां बहुत पहले से पढ़ते रहे हैं और आज हरनोट लिखते हुए कितनी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं जो बड़ी बात है। उनकी कहानियों में गजब का कलात्मक परिर्वतन हुआ है। उनकी कहानियों की बॉडी लंग्वेज अर्थात दैहिक भंगिमाएं और उनका विस्तार अति सूक्ष्म और मार्मिक है जिसे डॉ। तलवार ने जीनकाठी, कालिख और मां पढ़ती है कहानियों के कई अंशों को पढ़ कर सुनाते प्रमाणित किया। हरनोट के अद्भुत वर्णन मन को मुग्ध कर देते हैं। "मां पढ़ती हुई कहानी" को उन्होंने एक सुन्दर कविता कहा जैसे कि मानो हम केदारनाथ सिंह की कविता पढ़ रहे हो। हरनोट की कहानियों की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि वे बाहर के और भीतर के वातावरण को एकाकार करके चलते हैं जिसके लिए निर्मल वर्मा विशेष रूप से जाने जाते हैं।
कथाकार और उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो डॉ0 जयवन्ती डिमरी ने हरनोट को बधाई देते हुए कहा कि वह हरनोट की कहानियों और उपन्यास की आद्योपांत पाठिका रही है। किसी लेखक की खूबी यही होती है कि पाठक उसकी रचना को शुरू करे तो पढ़ता ही जाए और यह खूबी हरनोट की रचनाओं में हैं। डॉ। डिमरी ने हरनोट की कहानियों में स्त्री और दलित विमर्श के साथ बाजारवाद और भूमंडलीकरण के स्वरों के साथ हिमाचल के स्वर मौजूद होने की बात कही। उन्होंने अपनी बात को प्रमाणित करने की दृष्टि से हरनोट की कहानियों पर प्रख्यात लेखक दूधनाथ सिंह के लिखे कुछ उद्धरण भी प्रस्तुत किए।
वरिष्ठ कहानीकार सुन्दर लोहिया ने अपने वक्तव्य में कहा कि हरनोट की कहानियों जिस तरह की सोच और विविधता आज दिखई दे रही है वह गंभीर बहस मांगती है। हरनोट ने अपनी कहानियों में अनेक सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने चश्मदीद कहानी का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि कचहरी में जब एक कुत्ता मनुष्य के बदले गवाही देने या सच्चाई बताने आता है तो हरनोट ने उसे बिन वजह ही कहानी में नहीं डाला है, आज के संदर्भ में उसके गहरे मायने हैं जो प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। स तरह हरनोट की कहानियां समाज के लिए कड़ी चुनौती हैं जिनमें जाति और वर्ग के सामंजस्य की चिंताएं हैं, नारी विमर्श हैं, बाजारवाद है और विशेषकर हिमाचल में जो देव संस्कृति के सकारात्मक और नकारात्मक तथा शोषणात्मक पक्ष है उसकी हरनोट गहराई से विवेचना करके कई बड़े सवाल खड़े करते हैं। लोहिया ने हरनोट की कहानियों में पहाड़ी भाषा के शब्दों के प्रयोग को सुखद बताते हुए कहा कि इससे हिन्दी भाषा स्मृद्ध होती है और आज के लेखक जिस भयावह समय में लिख रहे हैं हरनोट ने उसे एक जिम्मेदारी और चुनौती के रूप में स्वीकारा है क्योंकि उनकी कहानियां समाज में एक सामाजिक कार्यवाही है-एक एक्शन है।
हिमाचल विश्वविद्यालय के सान्ध्य अध्ययन केन्द्र में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर व लेखक डॉ0 मीनाक्षी एस। पाल ने हरनोट की कहानियों पर सबसे पहले अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हरनोट जितने सादे, मिलनसार और संवेदनशील लेखक है उनकी रचनाएं भी उतनी ही सरल और सादी है। परन्तु उसके बावजूद भी वे मन की गहराईयों में उतर जाती है। इसलिए भी कि आज जब साहित्य हाशिये पर जाता दिखाई देता है तो वे अपनी कहानियों में नए और दुर्लभ विषय ले कर आते हैं जो पाठकों और आलोचकों का स्वत: ही ध्यान आकर्षित करती हैं। उनकी कहानियों में हिमाचल की विविध संस्कृति, समाज के अनेक रूप, राजनीति के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू, दबे और शोषित वर्ग की पीड़ाएं, गांव के लोगों विशेषकर माओं और दादी-चाचियों का जुझारू और अकेलापन बड़े ही सुन्दर ढंग से उकेरे गए हैं। उनकी कहानियों में पर्यावरण को लेकर भी गहरी चिन्ताएं देखी जा सकती हैं। वे मूलत: पहाड़ और गांव के कथाकार हैं।
लोकापर्ण समारोह के अध्यक्ष और कला, भाषा और संस्कृति के सचिव बी।के अग्रवाल जो स्वयं भी साहित्यकार हैं ने हरनोट की कथा पुस्तक के रलीज होने और इतने भव्य आयोजन पर बधाई दी। उन्होंने हरनोट की कहानियों को आज के समाज की सच्चाईयां बताया और संतोष व्यक्त किया कि हिमाचल जैसे छोटे से पहाड़ी प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर पर भी यहां के लेखन का नोटिस लिया जा रहा। उन्होंने गर्व महसूस किया कि हरनोट ने अपने लेखन से अपनी और हिमाचल की देश और विदेश में पहचान बनाई है। उन्होंने हरनोट की कई कहानियों पर विस्तार से विवेचना की। उन्होंने विशेषकर डॉ0 गिरिराज किशोर के इस समारोह में आने के लिए भी उनका आभार व्यक्त किया।
मंच संचालन लेखक और इरावती पत्रिका के संपादक राजेन्द्र राजन ने मुख्य अतिथि, अध्यक्ष और उपस्थिति लेखकों, पाठकों, मीडिया कर्मियों का स्वागत करते हुए हरनोट के व्यक्तित्व और कहानियों पर लम्बी टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए किया।
कमल उप्रेती मेरा हम उम्र है। मेरा मित्र। उस दिन से ही जिस दिन हम दोनों ने कारखाने में एक साथ कदम रखा। कहूं कि अपने बचपन की उम्र से बुढ़ापे में हम दोनों ने एक ही तरह एक साथ छलांग लगायी। यानी जवानी की बांडरी लाईन को छुऐ बगैर। भौतिक शास्त्र में एक शब्द आता है उर्ध्वपातन (ठोस अवस्था द्रव में बदले बिना गैस में बदल जाए या गैस बिना द्रव में बदले ठोस में बदल जाए।), जो हमारा भी एक साथ ही हुआ। हम साथ-साथ लिखना शुरु कर रहे थे। एक कविता फोल्डर फिलहाल हमारी सामूहिक कार्रवाईयों का प्रकाशन था उन दिनों। यह बात 1989 के आस-पास की है। लेकिन कमल का मन लिखने में नहीं रमा। वह पाठक ही बना रहा। एक अच्छा पाठक। तो भी यदा कदा उसने कुछ कविताऐं लिखी हैं। अभी हाल ही में लिखी उसकी कविता को यहां प्रकाशित करने का मन हो रहा है।
मेरीरंगतकाअसर
कमलउप्रेती 0135-2680817
मैं खुश हूं कटे हाथों का कारीगर बनकर ही नहीं है मेरा नाम ताज के कंगूरों पर फिर भी सुल्तान बेचैन है मेरी उंगलियों के निशां से
मैं जीना चाहता हूं कौंधती चिंगारियों धधकती भटिटयों के बीच जिसमें लोहा भी पिघल, बदल रहा है मेरी रंगत की तरह
मैं सर्दी की नाईट शिफ़्ट में एक पाले का सूरज बनाना चाहता हूं जून की दोपहर सड़क के कोलतार में बाल संवारना चाहता हूं।
मैं मुंशी बनकर जी भी तो नहीं सकता जिसकी कोई मर्जी ही नहीं जिसकी कमीज़ के कालर पर कोई दाग ही नहीं पर खौफजदा है सुल्तान के खातों से
मेरी निचुड़ी जवानी और फूलती सांसों से ए।सी। कमरों में कागजी दौड़-धूप के साथ लतपत कोल्ड ड्रिंक पीने से डरता है सुल्तान बेफिक्री के साथ गुलजार रंगीन रातों को जाम ढलकाने से भी
पर मैं तो ठेके पर नमक के साथ पव्वा गटकना चाहता हूं सारी कड़वाहट फेफड़ों में जमे बलगम की तरह थूकना चाहता हूं।
संवेदना के बहाने देहरादून के साहित्यिक, सांस्कृतिक माहौल को पकड़ने की इस छोटी सी कोशिश को पाठकों का जो सहयोग मिल रहा है उसके लिए आभार।
संवेदना के गठन में जिन वरिष्ठ रचनाकरों की भूमिका रही, कथाकार सुरेश उनियाल उनमें से एक रहे। बल्कि कहूं कि उन गिने चुने महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से हैं जो आज भी संवेदना के साथ जुड़े हैं तो ज्यादा ठीक होगा। देहरादून उनका जनपद है। हर वर्ष लगभग दो माह वे देहरादून में बिताते ही हैं। संवेदना की गोष्ठियों में उस वक्त उनकी जीवन्त उपस्थिति होती है। ऐसी कि उसके आधार पर ही हम कल्पना कर सकते हैं कि अपने युवापन के दौर में वे कैसे सक्रिय रहे होगें।
हमारे आग्रह पर उन्होंने संवेदना के उन आरम्भिक दिनों को दर्ज किया है जिसे मात्र किस्सों में सुना होने की वजह से हमारे द्वारा दर्ज करने में तथ्यात्मक गलती हो ही सकती थी। आदरणीय भाई सुरेश उनियाल जी का शाब्दिक आभार व्यक्त करने की कोई औपचारिकता नहीं करना चाहते। बल्कि आग्रह करना चाहते हैं कि उनकी स्मृतियों में अभी भी बहुत से जो ऐसे किस्से हैं उन्हें वे अवश्य लिखेगें।
प्यारे भाई विजय गौड़,
संवेदना की यादों को लेकर तुम आज चाहते हो कि मैं कुछ लिखूं। वे यादें भीतर कहीं गहरे में दबी हैं। उन्हें बाहर लाना मेरे लिए काफी तकलीफदेह हो रहा है। क्या इतना ही जानना काफी नहीं है कि यह देहरादून में साहित्य के उन दिनों की धरोहर है जब वह पीड़ी अपने लेखन के शुरुआती दौर से गुजर रही थी जो आज साठ के आसपास उम्र की है। आज उनमें से बहुत से साथी हमारे बीच नहीं हैं, (दिवंगत मित्रों में अवधेश और देशबंधु के नाम विशेष रूप से लेना चाहूंगा। अवधेश बहुत अच्छा कवि और कहानीकार था लेकिन उसकी दिलचस्पी इतने ज्यादा क्षेत्रों में थी कि इनके लिए उसके पास ज्यादा समय नहीं रहा। उसकी कुछ कविताएं अज्ञेय ने अपने अल्पचर्चित चौथे सप्तक में ली थीं। देशबंधु की मौत संदेहास्पद परिस्थितयों में हुई। शादी की अगली सुबह ही उसका शव पास के शहर डाकपत्थर की नहर में पाया गया था।) कुछ देहरादून में नहीं है (मैं उनमें से एक हूं, जो अब दिल्ली में रिटायर्ड जीवन बिता रहा हूं, देहरादून वापस आने के लिए बेताब हूं लेकिन हालात बन नहीं पा रहे हैं, मनमोहन चड्ढा पुणे में है और लगभग इसी तरह की मानसिक स्थिति में है।) कुछ देहरादून में रहते हुए भी जीवन के दूसरे संघर्षों से उलझते हुए लिखने से किनारा कर चुके हैं। और बहुत थोड़े से उन साथियों में से एक सुभाष पंत हैं जो हम सबके मुकाबले ज्यादा तेजी से अपने लेखन में जुड़े हैं। यह मैं याद नहीं कर पा रहा हूं कि गुरदीप खुराना उन दिनों तक देहरादून लौट आए थे या नहीं। क्योंकि अगर लौट आए थे तो वह भी संवेदना के जन्मदाताओं में से रहे होंगे। वह भी इन दिनों खूब लिख रहे हैं।
संवेदना ने उस दौर में कुछ उन पुराने लेखकों की संस्था साहित्य संसद के प्रति विद्रोह के फलस्वरूप जन्म लिया था। देहरादून के हमारे पुराने साथियों को याद होगा कि उन दिनों साहित्य संसद में हम नौजवान लेखकों को बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। ऐसे ही कुछ अखाड़ेबाज मित्र हमारी रचनाओं को उखाड़ने की कोशिश में रहते थे।
संवेदना के जन्म का बीज मेरे खयाल से सबसे पहले अवधेश के दिमाग में अंकुरित हुआ। अवधेश और देशबंधु की जोड़ी थी। मैं और मनमोहन चड्ढा इन दोनों के मुकाबले साहित्य संसद में कुछ नए थे और उन दोनों के शौक भी हमसे अलग थे इसलिए हम बहुत करीब कभी नहीं आ सके थे। लेकिन साहित्य संसद की बैठकों में हम चारों का दर्जा लगभग एक समान था और वहां हम चारों मिलकर ही पुराने दिग्गजों से भिड़ते थे। यह बात 1969-70 के आसपास की होगी।
1971 में सारिका के नवलेखन अंक में अवधेश की कहानी छपी थी। यह बहुत बड़ी बात थी। सारिका में छपना हम लोगों के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि माना जाता था। अवधेश तब बी।ए। कर रहा था, मैंने बेरोगारी की बोरियत दूर करने के लिए हिंदी से एम।ए। में एड्मिशन ले लिया था। मनमोहन भी वहीं अर्थशास्त्र से एम।ए। कर रहा था। 1972 में डीएवी कॉलेज में अवधेश एम।ए। (हिंदी) के पहले साल में आ गया था। एक दिन उसने मेरा परिचय सुभाष पंत नाम के एक लेखक से करवाया जिसकी कहानी फरवरी में सारिका में छपी थी और कमलेश्वर से जिसका व्यक्तिगत पत्रव्यवहार था। उसी दिन सुभाषं पंत के साथ शाम को डिलाइट में जमावड़ा हुआ और सुभाष की दो कहानियां और सुनी गईं। उस संक्षिप्त मुलाकात में ही सुभाष की हम सब पर धाक जम चुकी थी। सुभाष पंत एक ऐसा नाम बन गया था जिसके दम पर साहित्य संसद से टर ली जा सकती थी।
इस बीच अवधेश और देशबंधु ने संवेदना की योजना बनाई। इसके पांच प्रमुख लोगों में इन दोनों के अलावा सुभाष पंत को तो होना ही था, नवीन नौटियाल को भी शामिल किया गया। दरअसल नवीन के पिता का इंडियन आर्ट स्टूडियो घंटाघर के बिल्कुल पास राजपुर रोड पर था और नवीन के पिता शिवानंद नौटियालजी ने उसके पीछे वाले कमरे में में गोष्ठी करने की अनुमति दे दी थी। (नौटियाल जी के बारे में बहुत कुछ लिखने को है लेकिन वह मैं फिर कभी लिखूंगा, यहां इतना बताना मौजूं होगा कि वह किसी जमाने में एम.एन. राय के करीबी साथियों में से थे और उनके द्वारा शुरू की गई संस्था रेडिकल ह्यूमनिस्ट के सक्रिय लोगों में से थे। वे बहुत अच्छे फोटोग्राफर थे और उनके द्वारा खींचे गए निराला, पंत सहित साहित्य की कई बड़ी हस्तियों के दुर्लभ फोटो एक बड़ा संकलन उनके पास था।) पांचवें सदस्य संभवत: गुरदीप खुराना ही थे या नहीं, यह मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है। इतना जरूर तय है कि मुझे और मनमोहन को इस योजना से पूरी तरह अलग रखा गया था।
यह संभव ही नहीं था कि हम लोगों को इसकी खबर न होती। देहरादून तब छोटा सा शहर था, एक कोने से दूसरे कोने तक पैदल भी चलें तो एक घंटे से ज्यादा समय न लगे। संभवत: सुभाष पंत के मुंह से किसी चर्चा के दौरान निकल गया। हम लोगों की लगभग रोज ही मुलाकात हुआ करती थी। अड्डा होता था डिलाइट। फिर कभी-कभार टिप-टॉप या अल फिएस्ता में भी जम जाया करते थे। ये कुछ गिने चुने अड्डे ही होते थे।
संवेदना की शुरुआत किस दिन हुई तारीख अब याद नहीं है। इतना जरूर है कि जब वह दिन नजदीक आने लगा तब तक मैं और मनमोहन अपनी पहल पर इस योजना में कूद पड़े थे और अचानक ऐसा होने लगा कि कई बार अवधेश और बंधु तो मच्छी बाज़ार पहुंचे होते और हम दोनों समेत बाकी लोग सलाह-मशविरे में शामिल होते।
हमें लगा था कि छोटे से शहर में जहां थोड़े से लोग लेखन से जुड़े थे, कुछ को छोड़कर किसी तरह का आयोजन करना उचित नहीं होगा। कुछ लोग न आएं, यह बात अलग है लेकिन बुलावा सभी को भेजा जाए। वरना ऐसा न हो कि इतनी तैयारियों के बाद गिने-चुने लोग ही वहां हों। अब तक हम संवेदना के अनिवार्य अंग बन चुके थे।
गोष्ठी आशातीत रूप से सफल रही। चालीस से अधिक लोग आए थे जबकि साहित्य संसद की गोष्ठियों में उपस्थिति दस के आसपास ही रहती थी। और मजे की बात यह है कि इसमें बहुत से वे लोग भी आए थे जो जिन तक सूचना नहीं पहुंच पाई थी लेकिन उन्हें इसकी जानकारी मिल गई थी। सभी लिखते नहीं थे लेकिन वे भी पाठक बहुत अच्छे थे और उनके द्वारा की गई किसी भी रचना की आलोचना लेखक को सोचने के लिए ज्यादा बड़ा फलक देती थी।
यह सिलसिला चल निकला और हर महीने संवेदना की गोष्ठियां इतने ही बड़े जमावड़े के साथ होने लगीं। साहित्य संसद की गोष्ठियां भी बदस्तूर चलती रहीं और हम लोग उनमें भी जाते रहे। हमारे लिए संवेदना संसद की प्रतिद्वंद्वी संस्था न होकर, सहयोगी संस्था थी।
देहरादून ऐसी जगह थी जहां गाहे-बगाहे दिल्ली और दूसरी जगहों से भी लेखक आया करते थे। हमें इसकी खबर मिलती तो हम उन्हें संवेदना में आने के लिए आमंत्रित जरूर करते। एक बात हम उनसे जरूर कहते कि और जगहों पर आपको आपकी रचनाएं सुनाने के लिए बुलाया जाता है, हम आपको इसलिए बुला रहे हैं कि आप हमारी रचनाएं सुनें और एक अग्रज लेखक होने के नाते हमें सलाह दें। एक बार भारत भूषण अग्रवाल आए थे तो उन्हें भी आमंत्रित किया गया। नियत दिन किसी गफलत में उन्हें लेने के लिए कोई साथी न जा सका। अभी यह सोच-विचार ही हो रहा था कि कौन जाएगा कि बाहर एक थ्रीवीलर से उतरते भारतजी दिखाई दे गए।
इस तरह की बहुत सी यादें हैं। मैं 1973 में देहरादून छोड़कर दिल्ली आ गया था लेकिन देहरादून जाना होता रहा। गर्मियों की छुट्टियां देहरादून में ही बीतती थीं। बीच बीच में जब देहरादून आना होता तो कार्यक्रम कुछ इस तरह से बनाता कि पहला रविवार इसमें आ जाए और संवेदना की गोष्ठी में शामिल हुआ जा सके।
मुझे खुशी है कि जिस संस्था की प्रसव पीड़ा से गुजरने वालों में से मैं भी एक हूं, वह आज 36 साल बाद भी नियमित रूप से गोष्ठियां कर रही है। उम्मीद है कि यह इतने साल और चलेगी और उसके बाद भी चलती रहेगी। आमीन!