Wednesday, September 24, 2008

एक खुरदरी सतह पर हाथ रखते हुए- दो

देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना के बारे में सिलसिलेवार लिखे जा रहे गल्प की यह दूसरी कड़ी है। पहली कडी यहां पढ सकते हैं।


विजय गौड

रसायन विज्ञान पढ़ लेने के बाद सुभाष पंत एफ। आर। आई। में नौकरी करने लगे थे। विज्ञान के छात्र सुभाष पंत का साहित्य से वैसा नाता तो क्यों होना था भला जो जुनून की हद तक हो। पर जीवन के संघर्ष और सामाजिक स्थितियों की जटिलता को समझने में पढ़ा गया विज्ञान मद्दगार साबित न हो रहा था। समाज के बारे में सोचने समझने की बीमारी ने साहित्य के प्रति उनका रुझान पैदा कर दिया। जनपद में साहित्य लिखने और पढ़ने वालों से उनका वैसा वास्ता न था। स्वभाव से संकोची होने के कारण भी खुद को लेखक के रूप में जाहिर न होने देने की प्रव्रत्ति मौजूद ही थी। जिसके चलते भी दूसरे लिखने वालों को जानना सुभाष पंत के लिए संभव न था।
नवीन नौटियाल, सुरेश उनियाल, अवधेश और मनमोहन चडढा सरीखे नौजवान सक्रिय लोगों में से थे। लिखते भी थे और बहस भी करते थे। बहस के लिए अडडेबाजी भी जरुरी थी। बुजुर्ग पीढ़ी में लेखक और चर्चित फोटोग्राफर ब्रहम देव साहित्य संसद नाम की संस्था चलाते थे। भटनागर जी, मदन शर्मा, गुरुदीप खुराना, शशि प्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी आदि साहित्य संसद के सक्रिय रचनाकारों में रहे।
नये नये लेखक सुभाष पंत के सामने दोनों रास्ते खुले थे कि वे साहित्य संसद में जाएं या फिर स्वतंत्र किस्म के अडडेबाजों के बीच उठे-बैठे। साहित्य संसद में एक तरह का ठंडापन वे महसूस करते थे जबकि स्वतंत्र किस्म के वे लिक्खाड़ जो अडडेबाज, शहर की हर गतिविधि में अपनी जीवन्तता के साथ मौजूद रहते। सुभाष पंत अपने ऊपरी दिखावे से बेशक ठंडेपन की तासीर वाले दिखते रहे पर उनको भीतर से उछालता जोश उन्हें अडडेबाजों के पास ही ले जा सकता था। यह अलग बात है कि अपने संकोच के चलते बेशक वे खुद पहल करने से हिचकिचाते रहे। लेकिन चुपचाप अपने लेखनकर्म में आखिर कब तक खामोश से बने रहते। सारिका को भेजी गयी कहानी, गाय का दूध   पर संपादक कमलेश्वर की चिटठी उन्हें एक हद तक आत्मविश्वास से भरने में सहायक हुई। बहुत चुपके से चिट्ठी को पेंट की जेब में बहुत भीतर तक तह लगाकर रख लिया और डिलाईट की धडकती बैठक में जा धमके - जहां वे लिक्खाड़, जो शहर की आबो हवा पर बहस मुबाहिसे में जुटे स्वतंत्र किस्म के विचारक थे, मौजूद थे - डिलाईट रेस्टोरेंट।
समाजवादियों का अड्डा था डिलाईट जहां शहर के समाजवादी मौजूद रहते थे। डिलाईट की जीवन्त्ता उन्हीं अडडे बाजों के कारण थी। जीवन्तता ही क्यों, डिलाईट था ही उनका। वे न होते तो उस सीधे साधे से व्यक्ति किशन दाई (किशन पाण्डे)की क्या बिसात होती जो शहर के बीचों बीच अपनी दुकान खोल पाता। वह तो नेपाल से आया एक छोकरा ही था जो खन्ना चाय वाले के यहां काम करता था। वही खन्ना चाय वाले जिनकी दुकान घंटाघर के ठीक सामने होती थी। वहीं, जहां आज तमाम आधुनिक किस्म के सामनों से चमचमाती दुकाने मौजूद हैं।
एक छोटी सी चाय की दुकान जिसमें उस दौर के तमाम अडडे बाज, जिनमें ज्यादातर समाजवादी होते, बैठते थे। समाजवादी कार्यकर्ता सुरेन्द्र मोहन हो, भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर या कोई भी अन्य, यदि वे शहर में हों तो तय होता कि वे भी उस टीन की छत के नीचे देहरादून शहर में अपने साथियों के साथ घिरे बैठे होते।
जमाने भर के बातों की ऊष्मा से केतली बिना चूल्हे पर चढे हुए भी पानी को खौला रही होती। माचिस की डिब्बी को उंगलियों के प्रहार से कभी इस करवट तो कभी उस करवट उछालने में माहिर वे युवा, जिनके लिए बातचीत में बना रहना संभव न हो रहा होता, बहस को बिखेरने का असफल प्रयास कर रहे होते। क्योंकि बहस होती कि थमती ही नहीं। हां माचिस का खेल रुक जा रहा होता। संभवत: चाय वाले खन्ना भी समाजवादी ही रहे हों पर इस बात का कोई ठोस सबूत मेरे पास नहीं। मैं तो अनुमान भर मार रहा हूं । उनकी बातचीत के विषय ऐसे होते कि किशन दाई उन्हें गम्भीरता से सुनता। धीरे धीरे चुनाव निशान झोपड़ी उसे अपना लगने लगा था। घंटाघर के आस-पास की सड़क को चौड़ा करने की सरकारी योजना के चलते दुकान को उखाड़ दिया गया। वहां बैठने वाले सारे के सारे वे अडडेबात जो अपने अपने तरह से शहर में अपनी उपस्थिति के साथ थे, बेघर से हो गये। ऎसे में वे चुप कैसे रहते भला। किशनदाई का रोजगार छिन रहा था। खन्ना जी तो कुछ और करने की स्थिति में हों भी पर किशन के सामने तो सीधा संकट था रोजी रोटी का। संकट अडडेबाजों के लिए भी था कि कहां जाऐं ?
डिलाईट के निर्माण की कथा यदि कथाकार सुरेश उनियाल जी के मुंह से सुने तो शायद उस इतिहास को ठीक ठीक जान सकते हैं। अपनी जवानी के उस दौर में वे जोश और गुस्से से भरे युवा थे। डिलाईट का किस्सा तो मैंने भी एक रोज उनके मुंह से ही सुना। सिर्फ सुनता रहा उनको - डिलाईट चाय की ऐसी दुकान थी जिसका नामकरण भी उस दुकान में बैठने वाले उस दौर के युवाओं ने किया था। वे युवा जमाने की हवा की रंगत जिनकी बातों के निशाने में होती थी। जो दुनिया की तकलीफों को देखकर क्षुब्ध होते थे तो कभी धरने, प्रदर्शन और जुलूस निकालते थे तो कभी ऐसे ही किसी वाकये को अपनी कलम से दर्ज कर रहे होते थे। चाय वाला एक सीधा-सच्चा सा बुजुर्ग था जो अपने परिवार के भरण पोषण के लिए दिन भर केतली चढाये रहता। चाय पहुंचाने के लिए जिसे कभी इस दुकान में दौड़ना होता तो कभी उस दुकान में। फिर दूसरे ही क्षण आ गये आर्डर की चाय पहुंचाने के लिए उस दुकान तक भाग कर जाना होता जहां पहले पहुंचायी गयी चाय के बर्तन फंसे होते। जिस वक्त वह ऐसे ही दौड़ रहा होता वे युवा दुकान के आर्डर संभाल रहे होते।
उसी डिलाईट में पहुंचे थे नये उभरते हुए कथाकार सुभाष पंत। कमलेश्वर जी का पत्र उनकी जेब में था।

--- जारी

3 comments:

डॉ .अनुराग said...

जारी रखिये ...

अविनाश वाचस्पति said...

ब्रेक न लगायें तो मजा दूना हो जाये
पर ब्रेक का एक अपना अलग आनंद है
रोचक और सोचक संस्‍मरण।

प्रदीप मानोरिया said...

सुंदर और सार्थक आलेख शेष की प्रतीक्षा है. मेरे ब्लॉग पर पधारने का धन्यबाद . नियमित आगमन मेरे सबल और उत्साह को बढाएगा