सोचो थोड़ी देर
आखिर कब तक
सरकारों का बदल जाना
मौसम के बदल जाने की तरह
नहीं रहेगा याद
कब तक यही कहते रहेंगे
इस बार गर्मी बड़ी तीखी है
बारिस भी हुई इस बार ज्यादा
और ठंड भी पड़ी पहले से अधिक
कब तक
बेशक
सट्टे बाजार के इर्द-गिर्द
घूमते हुए हम
पूंजीवाद का विराध करते रहे
बेशक
हथियारों की ईजाद में संलग्न
दुनिया को बेखौफ देखने की
सोचते रहे
बेशक
प्रेम में हारते हुए हम
बच्चों को प्रेम करने को
कहते रहे
पर जंगल से दूर रह कर
जंगल राज पर
कब तक मारते रहेंगे ठप्पे ?
यह कविताएं मेरे हाल में ही प्रकाशित कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता में शामिल हैं।
Tuesday, March 17, 2009
Monday, March 16, 2009
सत्यनारायण पटेल का कहानी पाठ
उदयपुर ।
"कहां है आदमी, यहां तो सब कीड़े-मकोड़े है। इनकी औलादें भी ऐसी ही होंगी। कभी नहीं, कभी पनही नहीं पहनेंगे। जिनगीभर उबाणे पगे पटेलों की जी हुजूरी करेंगे।" गांवों में जातीय और आर्थिक शोषण के यथार्थ का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करने वाली कहानी "पनही" पढ़ते चर्चित युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल ने अंत में कथा नायक के इस कथन से समाहार किया 'अब मेरा मुंह वया देख रहे हो, जाओ टापरे जो कुछ हो-लाठी, हंसिया लेकर तैयार रहो, पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हां, उबाणे पगे मत आजो कोई।" पटेल की इस कहानी का अंत प्रबल जन प्रतिरोध की अभिव्यक्ति से हुआ है जो अब कैसी भी धौंस को बर्दाश्त नहीं करेगा।
जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के जनपद विभाग द्वारा आयोजित इस कहानी पाठ के पश्चात हुई चर्चा में वरिष्ठ कवि नन्द चतुर्वेदी ने कहा कि "पनही" एक शक्तिशाली कहानी है जो दबे हुए व्यक्ति को वाणी दे सकने वाली चेतना का उदघाटन करती है। उन्होंने कहा कि इधर का कहानीकार मध्यम वर्ग की चालाकियों से भरा नजर आ रहा है। ऐसे में पटेल की कहानियॉ आश्वस्ति देने वाली हैं कि कई तरह के पटेलों से लड़ रहे लोगों के स्वर देने की सामर्थ्य अभी मौजूद है। नंद बाबू ने ग्लोबलाइजेशन के नये खतरों में स्थानीयता की रक्षा को बड़ी चुनौती बताया। वरिष्ठ उपन्यासकार राजेन्द्र मोहन भटनागर ने पटेल को बधाई दी कि उन्होंने गांव को अपने रचनाकर्म की विषय वस्तु बनाया। उन्होंने कहा कि "पनही" की सफलता इस बात में है कि यह श्रोताओं को शहर से निकालकर ठेठ गांव में ले जाती है। सुखाड़िया विश्वविद्यालय के अंगे्रजी विभाग के प्रो.आशुतोष मोहन ने इसे छोटे कैनवास के बावजूद सघन कथा बताया जो अपने भीतर औपन्यासिक गुंजाइश रखती है। उन्होंने नायिका पीराक के चित्रण में आई ऐन्द्रिकता को विरल अनुभव बताते हुए कहानी में छिपे अनेक संकेतों की भी व्याख्या की। उर्दू कथाकार डॉ.सर्वतुन्निसा खान ने कहा कि समकालीन कथा लेखन की एकरसता में जीवन के बहुविध रंगों की छटा गायब हो रही है ऐसे में गांव की कहानी आना खुशगवार है। खान ने कहानी की भाषा को देशज अनुभवों की समृद्ध उपज बताया। राजस्थान विद्यापीठ के सहआचार्य डॉ। मलय पानेरी ने कहा कि सामंतवाद का पहिया स्वत: जाम नहीं होगा अपितु उसके लिए संघर्ष करना होगा। डॉ। पानेरी ने कहानी को ग्रामीण निम्न वर्गीय जीवन का यथार्थ बताया। "बनास" के संपादक डॉ. पल्लव ने देशज कथा रूप और शोषण की उदाम चेष्टा को सत्यनारायण पटेल की कहानियों की मुख्य विशेषता बताया।
इससे पहले जनपद विभाग के निदेशक पुरुषोतम शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया और जनपद विभाग की गतिविधियों की जानकारी दी। वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी रामचन्द्र नन्दवाना ने दलित उत्पीड़न के प्रतिरोध के अपने अनुभव सुनाए। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवल किशोर ने कहा कि भूमंडलीकरण की चकाचौंध में साहित्य में ही जगह बची है जो पूरन और पीराक जैसे दबे कुचले लोगों की बात कर सके। उन्होंने कहा कि अच्छे लेखक की पहचान यह है कि वह बदलते समय को पकडे और उसे सार्थक कला रूप दे। उन्होंने सत्यनारायण पटेल की कहानियों को इस चेतना से सम्पन्न बताते हुए कहा कि छोटी छोटी अस्मिताओं के नाम पर बंटने से ज्यादा जरूरी है कि हम बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हों। आयोजन में लोककलाविद् डॉ। महेन्द्र भाणावत, डॉ. एल.आर. पटेल, विभा रश्मि, दुर्गेश नन्दवाना, भंवर सेठ, हिम्मत सेठ, अर्जुन मंत्री, लक्ष्मीलाल देवड़ा, गणेश लाल बण्डेला सहित बड़ी संख्या में युवा पाठक उपस्थित थे।
अंत में विद्यापीठ के सांस्कृतिक सचिव डॉ। लक्ष्मीनारायण नन्दवाना ने आभार व्यक्त किया।
गणेशलाल मीणा
152, टैगोर नगर, हिरण मगरी, से। 4, उदयपुर-313 002
हम उदयपुर के युवा रचनाकार पल्लव जी के आभारी हैं जिनके मार्फ़त यह रिपोर्ट हम तक पहुंची और साथ हीआभारी हैं गणेशलाल मीणा जी के जिन्होंने इसे तैयार किया।
"कहां है आदमी, यहां तो सब कीड़े-मकोड़े है। इनकी औलादें भी ऐसी ही होंगी। कभी नहीं, कभी पनही नहीं पहनेंगे। जिनगीभर उबाणे पगे पटेलों की जी हुजूरी करेंगे।" गांवों में जातीय और आर्थिक शोषण के यथार्थ का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करने वाली कहानी "पनही" पढ़ते चर्चित युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल ने अंत में कथा नायक के इस कथन से समाहार किया 'अब मेरा मुंह वया देख रहे हो, जाओ टापरे जो कुछ हो-लाठी, हंसिया लेकर तैयार रहो, पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हां, उबाणे पगे मत आजो कोई।" पटेल की इस कहानी का अंत प्रबल जन प्रतिरोध की अभिव्यक्ति से हुआ है जो अब कैसी भी धौंस को बर्दाश्त नहीं करेगा।
जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के जनपद विभाग द्वारा आयोजित इस कहानी पाठ के पश्चात हुई चर्चा में वरिष्ठ कवि नन्द चतुर्वेदी ने कहा कि "पनही" एक शक्तिशाली कहानी है जो दबे हुए व्यक्ति को वाणी दे सकने वाली चेतना का उदघाटन करती है। उन्होंने कहा कि इधर का कहानीकार मध्यम वर्ग की चालाकियों से भरा नजर आ रहा है। ऐसे में पटेल की कहानियॉ आश्वस्ति देने वाली हैं कि कई तरह के पटेलों से लड़ रहे लोगों के स्वर देने की सामर्थ्य अभी मौजूद है। नंद बाबू ने ग्लोबलाइजेशन के नये खतरों में स्थानीयता की रक्षा को बड़ी चुनौती बताया। वरिष्ठ उपन्यासकार राजेन्द्र मोहन भटनागर ने पटेल को बधाई दी कि उन्होंने गांव को अपने रचनाकर्म की विषय वस्तु बनाया। उन्होंने कहा कि "पनही" की सफलता इस बात में है कि यह श्रोताओं को शहर से निकालकर ठेठ गांव में ले जाती है। सुखाड़िया विश्वविद्यालय के अंगे्रजी विभाग के प्रो.आशुतोष मोहन ने इसे छोटे कैनवास के बावजूद सघन कथा बताया जो अपने भीतर औपन्यासिक गुंजाइश रखती है। उन्होंने नायिका पीराक के चित्रण में आई ऐन्द्रिकता को विरल अनुभव बताते हुए कहानी में छिपे अनेक संकेतों की भी व्याख्या की। उर्दू कथाकार डॉ.सर्वतुन्निसा खान ने कहा कि समकालीन कथा लेखन की एकरसता में जीवन के बहुविध रंगों की छटा गायब हो रही है ऐसे में गांव की कहानी आना खुशगवार है। खान ने कहानी की भाषा को देशज अनुभवों की समृद्ध उपज बताया। राजस्थान विद्यापीठ के सहआचार्य डॉ। मलय पानेरी ने कहा कि सामंतवाद का पहिया स्वत: जाम नहीं होगा अपितु उसके लिए संघर्ष करना होगा। डॉ। पानेरी ने कहानी को ग्रामीण निम्न वर्गीय जीवन का यथार्थ बताया। "बनास" के संपादक डॉ. पल्लव ने देशज कथा रूप और शोषण की उदाम चेष्टा को सत्यनारायण पटेल की कहानियों की मुख्य विशेषता बताया।
इससे पहले जनपद विभाग के निदेशक पुरुषोतम शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया और जनपद विभाग की गतिविधियों की जानकारी दी। वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी रामचन्द्र नन्दवाना ने दलित उत्पीड़न के प्रतिरोध के अपने अनुभव सुनाए। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवल किशोर ने कहा कि भूमंडलीकरण की चकाचौंध में साहित्य में ही जगह बची है जो पूरन और पीराक जैसे दबे कुचले लोगों की बात कर सके। उन्होंने कहा कि अच्छे लेखक की पहचान यह है कि वह बदलते समय को पकडे और उसे सार्थक कला रूप दे। उन्होंने सत्यनारायण पटेल की कहानियों को इस चेतना से सम्पन्न बताते हुए कहा कि छोटी छोटी अस्मिताओं के नाम पर बंटने से ज्यादा जरूरी है कि हम बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हों। आयोजन में लोककलाविद् डॉ। महेन्द्र भाणावत, डॉ. एल.आर. पटेल, विभा रश्मि, दुर्गेश नन्दवाना, भंवर सेठ, हिम्मत सेठ, अर्जुन मंत्री, लक्ष्मीलाल देवड़ा, गणेश लाल बण्डेला सहित बड़ी संख्या में युवा पाठक उपस्थित थे।
अंत में विद्यापीठ के सांस्कृतिक सचिव डॉ। लक्ष्मीनारायण नन्दवाना ने आभार व्यक्त किया।
गणेशलाल मीणा
152, टैगोर नगर, हिरण मगरी, से। 4, उदयपुर-313 002
हम उदयपुर के युवा रचनाकार पल्लव जी के आभारी हैं जिनके मार्फ़त यह रिपोर्ट हम तक पहुंची और साथ हीआभारी हैं गणेशलाल मीणा जी के जिन्होंने इसे तैयार किया।
Sunday, March 15, 2009
अभी तो ठीक से याद नहीं
होली बीत चुकी है। यूंही दर्ज कर लिया गया दृश्य आंखों में घूम रहा है। यूं तो बचपन की होली का ध्यान है जब गाने बजाने वालों की टोलियां घर-घर जाकर होली गाती थी। हमारे इलाके में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ढेरों लोग रहते थे जो लगभग महीने भर पहले से ही शाम के वक्त ढोल मजीरा लेकर होली गाते थे। बोल कुछ इस तरह थे -
अभी तो ठीक से याद भी नहीं,। सुने हुए को भी नहीं तो 28-30 वर्ष हो गए।
इधर हमारी परीक्षाओं की तैयारी चल रही होती थी और उधर वे होलियारे हमें अपनी लोकधुन गुन-गुना लेने को उकसा रहे होते थे।
इस बार हू-ब-हू तो नहीं, पर हां वैसा ही, लेकिन बिना साज बाज का नजारा था- कालोनी के तमाम जौनसारी लड़के जिस मस्ती में होली गा रहे थे और नाच रहे थे, देखकर मन मचल उठा। गाने के बोल को तो समझा नहीं जा सका पर उस लय को तो महसूसा ही जा सकता था जो इन आधुनिक पीढ़ी के जौनसारी युवाओं को मस्त किए थी। अपनी भाषा और लोकगीत के प्रति उनका अनुराग घरों के भीतर बैठे लागों को भी पहले बैलकनी से झांकने के लिए और फिर रंग लेकर नीचे उतर आने को उकसा रहा था। बेशक कोई पूर्व तैयारी के बिना यह हुजूम गा रहा था पर उनके गीत और नृत्य में एक खास तरह का उछाल था। लीजिए आप भी देखिए और सुनिए-
इकवर खेलै कुंवर कन्हैया, इकवर राधा होरी होया
सदा अन्नदही रहयौ द्वारा, मोहन होरी खेलै हो।
कहै के हाथे कनक पिचकारी,, कहै के हाथे गौरी की चुनरी होह्णह्णह्ण
अभी तो ठीक से याद भी नहीं,। सुने हुए को भी नहीं तो 28-30 वर्ष हो गए।
इधर हमारी परीक्षाओं की तैयारी चल रही होती थी और उधर वे होलियारे हमें अपनी लोकधुन गुन-गुना लेने को उकसा रहे होते थे।
इस बार हू-ब-हू तो नहीं, पर हां वैसा ही, लेकिन बिना साज बाज का नजारा था- कालोनी के तमाम जौनसारी लड़के जिस मस्ती में होली गा रहे थे और नाच रहे थे, देखकर मन मचल उठा। गाने के बोल को तो समझा नहीं जा सका पर उस लय को तो महसूसा ही जा सकता था जो इन आधुनिक पीढ़ी के जौनसारी युवाओं को मस्त किए थी। अपनी भाषा और लोकगीत के प्रति उनका अनुराग घरों के भीतर बैठे लागों को भी पहले बैलकनी से झांकने के लिए और फिर रंग लेकर नीचे उतर आने को उकसा रहा था। बेशक कोई पूर्व तैयारी के बिना यह हुजूम गा रहा था पर उनके गीत और नृत्य में एक खास तरह का उछाल था। लीजिए आप भी देखिए और सुनिए-
Friday, March 13, 2009
सरग-दिद्दा
देहरादून की वे छवियां जो कथाकार नवीन नैथानी के भीतर दर्ज हैं, पहले भी उनके लिखे संस्मरणों से हम जान पाए हैं। कवि रमेशमिश्र सिद्धेश , सुखबीर विश्वकर्मा को उन्होंने अपने पिछले आलेखों में याद किया। इस बार वे एक ऐसे रचनाकार को याद कर रहे हैं। जो आज भी रचना रत है।
नवीन नैथानी
तो इस शहर देहरादून की फ़ितरत का दिलचस्प बयान करते हुए कभी धुरन्धर देहरादूनिये श्री सुभाष पन्त ने एक किंवदन्ती का का जिक्र करते हुए लिखा था- सवेरे की सैर करते हुए एक साहब अपनी छ्डी़ पार्क की बैंच में भूल गये. अगली सुबह वे जब पार्क में पहुंचे तो छडी़ उसी बैंच में मिल गयी.हां,अब उसमें कोंपलें निकल आयी थीं.
यह किस्सा तो लगभग सॊ साल से ज्यादा पुराना होगा, पर देहरादून का मिजाज बहुत ज्यादा नहीं बदला है.नये राज्य की राजधानी की किंचित अश्लील भूमिका निभाने ऒर नव धन-कुबेरों के प्रदर्शन-प्रिय कुत्सित आचरण के बावजूद शहर अब भी संभावना है.यहां की हवा बहुत ज्यादा नहीं बदली है.पुराने साहबों की छडी़ में जीवन के अंकुर खिलाने वाली हवा में अभी संवेदना को बचाने की तासीर नष्ट नहीं हुई है. यहां साहित्य की गतिविधियां अनॊपचारिक रूप में अधिक दिखायी पड़्ती हैं.पिछली कडी़ में कविजी का जिक्र हो चुका है. इस बार आपको श्री चारू-चंद्र चंदोला जी से मिलवाते हैं.
अनुप्रास की छटा से सुसज्जित चंदोला जी का नामकरण प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत द्वारा किया गया था.यह अलग बात है कि चंदोला जी की कविता अनुप्रास से सायास बचती है .
बन्द हो गया है, मॊसम का ढक्कन बद्रीनाथ के कपाट की तरह लिखने वाले चारू-चंद्र चंदोला की कविताऒं में साफ़-गोई, बात कहने की उत्कट बेचैनी लगभग अन छुए बिम्बों के रूप में अभिव्यक्ति पाती है.चंदोलाजी से पहली बार मैं १९८७ मेंअप्रैल या मई के महिने की किसी तपती दुपहरी में मिला था.वे साहित्यकारों से मेरे संपर्क के शुरुआती दिन थे. अतुल शर्मा के साथ अंक देहरादून से नाम की हस्तलिखित पत्रिका के प्रकाशन की योजना लेकर चंदोलाजी के सामने उपस्थित हुए थे.उन दिनों वे अमर उजाला या जागरण के साथ जुडे़ हुए थे. तब अखबारों के आक्रामक फ़ैलाव के दिन आने में थोडा़ वक्त था.दून-दर्पण , हिमाचल-टाईम्स , जैसे स्थानीय अखबारों की पूछ थी ऒर कव्य-गोष्ठियों की रपट अच्छी-खासी जगह घेर लिया करती थी. फालतू लाईन की कुछ टेढी़ गलियों से होते हुए चंदोलाजी के यहां पहुंचे .उनकी वाणी में एक खास किस्म की गुरुता ने ध्यान आकर्षित किया था. यह अभी भी उनके साथ चली आ रही है. वे जब कविता पढ़्ते हैं तो शब्दों का ही पाठ नहीं करते -उनकी वाणी में सरस्वती वर्णों की निरंतर धारा में प्रवाहित होती है.वे प्रायः शब्दों का उच्चारण नहीं करते , अक्षरों का घोष शब्दों की महिमा में निःसृत होता है.उनके काव्य-पाठ की शैली निराली है. पहाडी़ आदमी का हिन्दी उच्चारण उनके यहां एक विशेष नाद ले आया है.
बाईस वर्षों में चंदोलाजी के व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता.उनके सामने लगता है समय ठहर गया है.उनकी कविता भी लगभग समकालीनता का अतिक्रमण करती हुई दिखलायी पड़्ती है.चंदोलाजी नेपथ्य के कवि हैं.वे हालांकि मंचस्थ होते हुए बहुत बार दिखायी पड़ जाते हैं किन्तु मंच पर उनकी धज कविता के साथ ही बन पड़्ती है. वे प्रायः भाषण देते हुए भी देखे जाते हैं.बाईस वर्ष पूर्व उनकी उपस्थिति हम लोगों के लिये बहुत जरूरी थी.इस श्रंखला के शुरू में जिक्र किया जा चुका है कि मंचीय कविता के विरोध में हम लोगों का प्रयास गंभीर कवि-कर्म को जनता के बीच ले जाने की चिन्ता में ज्यादा रहता था ऒर हमें अध्यक्षता करने के लिये सम्मानित बुजुर्गों की आवश्यकता रहती थी.सिद्धेश जी सहज उपलब्ध हो जाते थे. कविजी के कुछ आग्रह रहा करते थे .चंदोलाजी से स्वीकृति मिलना सहज नहीं था.अतुल शर्मा के पास यह गुण बहुत प्रचुर मात्रा में हुआ करता था.इन बाईस वर्षों में तो इसमें ऒर सुधार ही आया होगा.अतुल के साथ सबसे बडी़ खूबी यह रही आयी है कि वह दोनों जगह आसानी से संतरण कर जाता है. अतुल के सॊजन्य से मुझे मंचों की गतिविधियों को नजदीक से देखने का अवसर भी मिला.लेकिन वह एक अलग ही किस्सा है ऒर उसे बयान करने से ज्यादा लाभ नहीं होने वाला है.
हां , तो चंदोलाजी का ज्यादा समय पत्रकारिता ने ले लिया है. लेकिन फिर भी वे काफी समय से युगवाणी में सरग-दिद्दा के नाम से चुटिले लेख लिखते रहे हैं.हिन्दी ऒर गढ़्वाली के फ़्यूजन से युक्त उनकी भाषा ने जो मुहावरा गढा़ है उस पर अभी चर्चा नहीं हुई है. हालांकि गढ़्वाल विश्वविद्यालय में उनकी कविताएं पढा़यी जाती हैं किन्तु उनकी सृजनात्मकता का अभी सही मूल्यांकन होना बाकी है.
चंदोलाजी के साथ समय बिताना अपने में एक रोचक अनुभव है. उनके पास संस्मरणों का खजाना भरा पडा़ है. युगवाणी में बहुत सारा समय उनके सान्निध्य मे बिताने का अवसर मिला है. अपने परिवार की जन्म-कुण्डली के बहुत से ग्रहों-नक्षत्रॊं का पता मुझे चंदोलाजी के श्रीमुख से ही मिला.लीलाधर जगूडी़ ऒर मंगलेश डबराल की आरंभिक रचनाओं की जानकारी चंदोला जी कुछ इस तरह देते हैं जैसे कल की ही कोई घट्ना बता रहे हों.देहरादून के केन्द्र-स्थल में होने के कारण ,ऒर अपनी प्रकृति के चलते भी ,युगवाणी एक महत्वपूर्ण मिलन-स्थल बन चुका है जहां बाहर से आने वाले लब्ध-प्रतिष्ठित विचारक ,लेखक ऒर कवि अक्सर पधारते रहते हैं.चंदोला जी को मैने बहुत कम अपने केबिन से बाहर निकलते देखा है.कितना भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हो चंदोलाजी अगर केबिन में बैठे हों तो बाहर नहीं निकलेंगे.आप घण्टे - भर आगन्तुक से बतियाएंगे , नयी जानकारियों से भर जायेंगे ऒर आगन्तुक के जाने पर अपने को समृद्ध समझने लगेंगे.तभी चारू-भाई (उन्हें युगवाणी में इसी नाम से जाना जाता है) अपने केबिन से बाहर आयेंगे.सिगरेट सुलगायेंगे(अब वे सिगरेट पीते हैं या नहीं ,मुझे ठीक जानकारी नहीं है -काफी समय से मैने उन्हें युगवाणी में नहीं देखा है)थोडी़ देर मॊन में कुछ ढूंढेंगे ऒर जिन महानुभाव के प्रभाव में हम गद्गगद भाव में विभोर हुए जा रहे थे उनका प्रशस्तिवाचन शुरू हो जायेगा.व्यक्तित्व-विश्लेषण की इतनी निस्संग तटस्थता अन्यत्र दुर्लभ है.
समय के बीहडों में भटक कर गुम हो चुकी स्मृतियों को बटोर लाने का साहस
तो जैसे चंदोलाजी में भरा ही है,अगली पीढि़यों तक उन्हें पहुंचाने की चेष्टा उनके व्यक्तित्व को विशिष्ट आभा प्रदान करती है.
उनकी कवितायें उनके व्यक्तित्व का ही विस्तार हैं.
प्रस्तुत है कवि चारु चन्द्र चंदोला की कविताएं-
चारु चन्द्र चंदोला
और
पूछती है लकड़ी की अल्मारी
क्या स्टील के भी पेड़ होते हैं ?
थोड़ी ही देर में
आ जाती है स्टील की अल्मारी
और, चली जाती है लकड़ी की वह अल्मारी
वर्षों तक
हीरे/मोती और सोने के गहने
सूंघने के बाद।
पूछते हैं कौवे
चर्चा है, स्टील के भी होने लगे हैं पेड़
बदलना तो नहीं पड़ेगा
हमें अपना बसेरा ?
अदृश्य हो जाते हैं पेड़
और, फोड़े जाने लगते हैं श्रीफल
श्रीपुत्रों के बसेरों के लिए।
खेत और पेट
मुझे मालूम है
वर्षा हो रही है
यह भी मालूम है
पेट और खेत का सम्बन्ध
अच्छा रहेगा
यह मालूम नहीं है
किस खेत का
कौन-सा अन्न
मेरी थाली में आकर
जाएगा मेरे पेट में
यह भी मालूम नहीं है
कितने पेटों में
नहीं पहुंच पाएगा
इस बार की
पैदावार का अंश
मुझे मालूम है
फिर भी आएगा
मेरे द्वार पर
कोई भूखा पेट
आएगी चिड़िया भी
अपने बच्चों के साथ
मुझे नहीं मालूम है
किनकी संख्या अधिक है
पेटों की
या खेतों की ?
नवीन नैथानी
तो इस शहर देहरादून की फ़ितरत का दिलचस्प बयान करते हुए कभी धुरन्धर देहरादूनिये श्री सुभाष पन्त ने एक किंवदन्ती का का जिक्र करते हुए लिखा था- सवेरे की सैर करते हुए एक साहब अपनी छ्डी़ पार्क की बैंच में भूल गये. अगली सुबह वे जब पार्क में पहुंचे तो छडी़ उसी बैंच में मिल गयी.हां,अब उसमें कोंपलें निकल आयी थीं.
यह किस्सा तो लगभग सॊ साल से ज्यादा पुराना होगा, पर देहरादून का मिजाज बहुत ज्यादा नहीं बदला है.नये राज्य की राजधानी की किंचित अश्लील भूमिका निभाने ऒर नव धन-कुबेरों के प्रदर्शन-प्रिय कुत्सित आचरण के बावजूद शहर अब भी संभावना है.यहां की हवा बहुत ज्यादा नहीं बदली है.पुराने साहबों की छडी़ में जीवन के अंकुर खिलाने वाली हवा में अभी संवेदना को बचाने की तासीर नष्ट नहीं हुई है. यहां साहित्य की गतिविधियां अनॊपचारिक रूप में अधिक दिखायी पड़्ती हैं.पिछली कडी़ में कविजी का जिक्र हो चुका है. इस बार आपको श्री चारू-चंद्र चंदोला जी से मिलवाते हैं.
अनुप्रास की छटा से सुसज्जित चंदोला जी का नामकरण प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत द्वारा किया गया था.यह अलग बात है कि चंदोला जी की कविता अनुप्रास से सायास बचती है .
बन्द हो गया है, मॊसम का ढक्कन बद्रीनाथ के कपाट की तरह लिखने वाले चारू-चंद्र चंदोला की कविताऒं में साफ़-गोई, बात कहने की उत्कट बेचैनी लगभग अन छुए बिम्बों के रूप में अभिव्यक्ति पाती है.चंदोलाजी से पहली बार मैं १९८७ मेंअप्रैल या मई के महिने की किसी तपती दुपहरी में मिला था.वे साहित्यकारों से मेरे संपर्क के शुरुआती दिन थे. अतुल शर्मा के साथ अंक देहरादून से नाम की हस्तलिखित पत्रिका के प्रकाशन की योजना लेकर चंदोलाजी के सामने उपस्थित हुए थे.उन दिनों वे अमर उजाला या जागरण के साथ जुडे़ हुए थे. तब अखबारों के आक्रामक फ़ैलाव के दिन आने में थोडा़ वक्त था.दून-दर्पण , हिमाचल-टाईम्स , जैसे स्थानीय अखबारों की पूछ थी ऒर कव्य-गोष्ठियों की रपट अच्छी-खासी जगह घेर लिया करती थी. फालतू लाईन की कुछ टेढी़ गलियों से होते हुए चंदोलाजी के यहां पहुंचे .उनकी वाणी में एक खास किस्म की गुरुता ने ध्यान आकर्षित किया था. यह अभी भी उनके साथ चली आ रही है. वे जब कविता पढ़्ते हैं तो शब्दों का ही पाठ नहीं करते -उनकी वाणी में सरस्वती वर्णों की निरंतर धारा में प्रवाहित होती है.वे प्रायः शब्दों का उच्चारण नहीं करते , अक्षरों का घोष शब्दों की महिमा में निःसृत होता है.उनके काव्य-पाठ की शैली निराली है. पहाडी़ आदमी का हिन्दी उच्चारण उनके यहां एक विशेष नाद ले आया है.
बाईस वर्षों में चंदोलाजी के व्यक्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता.उनके सामने लगता है समय ठहर गया है.उनकी कविता भी लगभग समकालीनता का अतिक्रमण करती हुई दिखलायी पड़्ती है.चंदोलाजी नेपथ्य के कवि हैं.वे हालांकि मंचस्थ होते हुए बहुत बार दिखायी पड़ जाते हैं किन्तु मंच पर उनकी धज कविता के साथ ही बन पड़्ती है. वे प्रायः भाषण देते हुए भी देखे जाते हैं.बाईस वर्ष पूर्व उनकी उपस्थिति हम लोगों के लिये बहुत जरूरी थी.इस श्रंखला के शुरू में जिक्र किया जा चुका है कि मंचीय कविता के विरोध में हम लोगों का प्रयास गंभीर कवि-कर्म को जनता के बीच ले जाने की चिन्ता में ज्यादा रहता था ऒर हमें अध्यक्षता करने के लिये सम्मानित बुजुर्गों की आवश्यकता रहती थी.सिद्धेश जी सहज उपलब्ध हो जाते थे. कविजी के कुछ आग्रह रहा करते थे .चंदोलाजी से स्वीकृति मिलना सहज नहीं था.अतुल शर्मा के पास यह गुण बहुत प्रचुर मात्रा में हुआ करता था.इन बाईस वर्षों में तो इसमें ऒर सुधार ही आया होगा.अतुल के साथ सबसे बडी़ खूबी यह रही आयी है कि वह दोनों जगह आसानी से संतरण कर जाता है. अतुल के सॊजन्य से मुझे मंचों की गतिविधियों को नजदीक से देखने का अवसर भी मिला.लेकिन वह एक अलग ही किस्सा है ऒर उसे बयान करने से ज्यादा लाभ नहीं होने वाला है.
हां , तो चंदोलाजी का ज्यादा समय पत्रकारिता ने ले लिया है. लेकिन फिर भी वे काफी समय से युगवाणी में सरग-दिद्दा के नाम से चुटिले लेख लिखते रहे हैं.हिन्दी ऒर गढ़्वाली के फ़्यूजन से युक्त उनकी भाषा ने जो मुहावरा गढा़ है उस पर अभी चर्चा नहीं हुई है. हालांकि गढ़्वाल विश्वविद्यालय में उनकी कविताएं पढा़यी जाती हैं किन्तु उनकी सृजनात्मकता का अभी सही मूल्यांकन होना बाकी है.
चंदोलाजी के साथ समय बिताना अपने में एक रोचक अनुभव है. उनके पास संस्मरणों का खजाना भरा पडा़ है. युगवाणी में बहुत सारा समय उनके सान्निध्य मे बिताने का अवसर मिला है. अपने परिवार की जन्म-कुण्डली के बहुत से ग्रहों-नक्षत्रॊं का पता मुझे चंदोलाजी के श्रीमुख से ही मिला.लीलाधर जगूडी़ ऒर मंगलेश डबराल की आरंभिक रचनाओं की जानकारी चंदोला जी कुछ इस तरह देते हैं जैसे कल की ही कोई घट्ना बता रहे हों.देहरादून के केन्द्र-स्थल में होने के कारण ,ऒर अपनी प्रकृति के चलते भी ,युगवाणी एक महत्वपूर्ण मिलन-स्थल बन चुका है जहां बाहर से आने वाले लब्ध-प्रतिष्ठित विचारक ,लेखक ऒर कवि अक्सर पधारते रहते हैं.चंदोला जी को मैने बहुत कम अपने केबिन से बाहर निकलते देखा है.कितना भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हो चंदोलाजी अगर केबिन में बैठे हों तो बाहर नहीं निकलेंगे.आप घण्टे - भर आगन्तुक से बतियाएंगे , नयी जानकारियों से भर जायेंगे ऒर आगन्तुक के जाने पर अपने को समृद्ध समझने लगेंगे.तभी चारू-भाई (उन्हें युगवाणी में इसी नाम से जाना जाता है) अपने केबिन से बाहर आयेंगे.सिगरेट सुलगायेंगे(अब वे सिगरेट पीते हैं या नहीं ,मुझे ठीक जानकारी नहीं है -काफी समय से मैने उन्हें युगवाणी में नहीं देखा है)थोडी़ देर मॊन में कुछ ढूंढेंगे ऒर जिन महानुभाव के प्रभाव में हम गद्गगद भाव में विभोर हुए जा रहे थे उनका प्रशस्तिवाचन शुरू हो जायेगा.व्यक्तित्व-विश्लेषण की इतनी निस्संग तटस्थता अन्यत्र दुर्लभ है.
समय के बीहडों में भटक कर गुम हो चुकी स्मृतियों को बटोर लाने का साहस
तो जैसे चंदोलाजी में भरा ही है,अगली पीढि़यों तक उन्हें पहुंचाने की चेष्टा उनके व्यक्तित्व को विशिष्ट आभा प्रदान करती है.
उनकी कवितायें उनके व्यक्तित्व का ही विस्तार हैं.
प्रस्तुत है कवि चारु चन्द्र चंदोला की कविताएं-
चारु चन्द्र चंदोला
और
पूछती है लकड़ी की अल्मारी
क्या स्टील के भी पेड़ होते हैं ?
थोड़ी ही देर में
आ जाती है स्टील की अल्मारी
और, चली जाती है लकड़ी की वह अल्मारी
वर्षों तक
हीरे/मोती और सोने के गहने
सूंघने के बाद।
पूछते हैं कौवे
चर्चा है, स्टील के भी होने लगे हैं पेड़
बदलना तो नहीं पड़ेगा
हमें अपना बसेरा ?
अदृश्य हो जाते हैं पेड़
और, फोड़े जाने लगते हैं श्रीफल
श्रीपुत्रों के बसेरों के लिए।
खेत और पेट
मुझे मालूम है
वर्षा हो रही है
यह भी मालूम है
पेट और खेत का सम्बन्ध
अच्छा रहेगा
यह मालूम नहीं है
किस खेत का
कौन-सा अन्न
मेरी थाली में आकर
जाएगा मेरे पेट में
यह भी मालूम नहीं है
कितने पेटों में
नहीं पहुंच पाएगा
इस बार की
पैदावार का अंश
मुझे मालूम है
फिर भी आएगा
मेरे द्वार पर
कोई भूखा पेट
आएगी चिड़िया भी
अपने बच्चों के साथ
मुझे नहीं मालूम है
किनकी संख्या अधिक है
पेटों की
या खेतों की ?
लेबल:
चारु चन्द्र चंदोला,
देहरादून,
नवीन नैथानी,
संस्मरण
Tuesday, March 10, 2009
किसका हक है - एक्स या वाई
कविता, कहानी और आलोचना से पटे पड़े समकालीन हिन्दी साहित्य के बीच अन्य विधाएं कहीं खो सी गई हैं।व्यंग्य तो नदारद सा ही है। हां, इधर कुछ पहल होती हुई सी दिख रही है। उसी को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत हैव्यंग्यकार अशोक आनन्द की ताजा रचना। अशोक आनन्द देहरादून में रहते हैं। वर्ष 2004 में उनकी व्यंग्य रचनाओं को संग्रह खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान प्रकाशित हुआ है।
कहा जाता है, कि नारखाने में तूती की आवाज का कोई महत्व नहीं होता, लेकिन जब से मुझे यह "विस्फोटक" शुभ-समाचार प्राप्त हुआ है, कि आज के इस महाप्रदूषित माहौल में आप परम-लोकप्रिय तथा चरम-सुरिंक्षत कमीशन तक को ठुकरा कर "सूखी तनख्वाह ही सबकुछ है" की मधुर-रागिनी में मदमस्त रहते हैं, तब से ही मेरे मन-मस्तिष्क में आपके "त्याग-राग" की तूती हलचल मचा रही है और मेरा ईमान मुझे "पुश" कर रहा है कि मुझ जैसे बाल-बराबर को भी आपकी ताल के साथ ताल मिलानी चाहिए और यदि मैं आपके यशोगान में महाकाव्य न भी लिख पाऊँ, तो--तो कुछ पन्ने रंगने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
वैसे, मौटे तौर पर, आम लोगों की घातक-धारणा यह है, कि रिश्वत और कमी्शन में जमीन-आसमान का सा अन्तर होता है। उन अक्ल के अंधों के अनुसार, रि्श्वत लेना किसी गलत काम में सहयोग देने, किसी मज़बूर को निचोड़ने अथवा मिस्टर "एक्स" के हक को श्रीमान "वाई" को दिलवाने के षड्यंत्र में शामिल होने जैसा महापाप होता है, जबकि कमी्शन ग्रहण करना तो एक शुद्व-सात्विक प्रक्रिया है, क्योंकि कमीशन स्वीकारने के दौरान न तो किसी फाईल को ठंडे बस्ते के अंधेरे से निकाल कर रौ्शनी में लाया जाता है, जिससे उसका पुर्नजन्म हो सके, न ही किसी बदनसीब को सताया-तड़पाया-रूलाया जाता है और न ही किसी प्रकार की हेरा-फेरी का दामन थामा जाता है। इस नाते, कमी्शन को अपनी अंटी के हवाले करते समय, किसी भी अपराध-बोध को नहीं पालना चाहिए और इसे कुर्सी का प्रसाद अथवा पद-वि्शेष का "हक" समझकर डकार लेना चाहिए या हस्ताक्षर रूपी चिड़िया बिठाने का 101 प्रतिशत वैध नजराना समझ कर, ईमान की घुट्टी में मिलाकर बेखटके पी जाना चाहिए।
इसी क्रम में, उनका "गणित" यह कहता है, कि रिश्वत को तो पहले इशारों-इशारों में और फिर नंगे शब्दों के साथ "एडवाँस" में माँगना पड़ता है, जबकि कमीशन गान प्रदान करने वाला, अपने पूरे होशो हवास में, होम-मिनिस्ट्री से बाकायदा नो ऑब्जेक्शन सर्टीफिकेट लेकर, रिवाज और दस्तूर के मुताबिक, लकीर का फकीर बना, निर्विघ्न कार्य-समाप्ति के पश्चात, कॉलगेट-स्माइल के साथ, चन्द दमड़े अर्पित करने पर आमादा रहता है, तो--तो इस "सूफियाना-भेंट" को स्वीकार न करने की गुँजायश ही कहाँ बचती है ? (और, उस पर तुर्रा यह, कि कमी्शन उर्फ "ऑफिस-एक्सपेंसेज" का उज्जवल-धवल लिफाफा थामने वाले आप इकलौते मेहरबान-कदरदान नहीं होते, वरन् आप तो नीचे से ऊपर तक फैली अमरबेल रूपी जंजीर की एक छुटकी कड़ी मात्र होते हैं और आपकी हाँ या न का कोई खास महत्व नहीं होता)
जाहिर है-उक्त वर्णित शब्दो के आधार पर आज अधिकाँश विभूतियाँ कमी्शन के पक्ष में ही अपना कीमती वोट अर्पित करती हैं और उससे किनारा करके इस चींटी रूपी बेईमानी को चोट पहुँचाने का दुस्साहस बिरले ही कर पाते हैं। ऐसे में, जब मैं आपको इस दूसरी पंक्ति में शान से खड़ा पाता हूँ, तो बरबस मेरे हाथ सलामी के लिए उठ जाते हैं।
यूं, रिश्वत हो या कमी्शन, कुछ महानुभावों की दिलचस्प धारणा यह होती है, कि यदि ऊपरी अन्धी-कमाई का कुछ हिस्सा नेक कार्यों में खर्च कर दिया जाये, तो--तो फिर इस लोक ही क्या, परलोक के लिहाज से भी, किसी प्रकार का "टेंशन" पालने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। यह अलग बात है, कि शायद ऐसे ही शरीफ-बदमाशों की शान में एक शायर फर्मा चुके हैं:-
वैसे, छोटी ही नहीं, मोटी बुद्वि वाले भी, मन ही मन यह महसूस करते ही हैं, कि कमीशन रूपी मांसल-मारक "फुलझड़ी", सरकारी खजाने के हरम से ही अगवा करके लाई जाती है और उसके उपभोग-सहवास को बलात्कार और दे्शद्रोह की ही संज्ञा दी जा सकती है। इसी कारण, ऐसे प्रत्येक दलाल की अंतरात्मा उसे कचोटती रहती है अथवा अपना विरोध प्रगट करती रहती है, लेकिन वह नशेड़ी उस कमबख्त को "शटअप" कह कर उसकी बोलती बंद करता रहता है।
पता नहीं, आप किस आधार पर, कमी्शन-कुतिया को दुत्कार रहे हैं। न जाने
क्यों मुझे यह भी विश्वास है, कि आप जैसे संभ्रात-सज्जन का "बगुला-भगत" से कोई नाता नहीं है और न ही "नौ सौ चूहे खा कर हज को जाने वाली बिल्ली" से आपका कोई लेना-देना है और आप इस तथ्य से भी भली-भाँति अवगत है, कि उच्चपद के लिए कमीशन का प्रति्शत अधिकतम होता है, किन्तु खतरा निम्रतम रहता है, क्योंकि कोई काँड हो जाने पर, बड़ा अधिकारी तो पतली गली से साफ बच निकलता है और दण्ड की गाज, किसी छोटे-मोटे कर्मचारी पर ही गिरती है। सम्भव है, आप कमी्शन-जाम से इस कारण कन्नी काट रहे हों, कि कमी्शन-जुगाली की लत पड़ जाये, तो वृहद-वि्शाल तोप-खरीद से लेकर, छुटके से "कफन-बाक्स" की खरीद तक में कमीद्गान खाना पूर्णतया जायज लगने लगता है।
आज, जब मैं अपने को, ऐसे-ऐसे सफेदपो्श लुटेरो याने कमीशन खोरों में घिरा पाता हूँ, जो सचरित्रता और "संतोषधन" का ढिंढोरा पीटते नहीं थकते और "मुँह में राम, बगल में छुरी" का शर्मनाक उदाहरण होने के बावजूद, अपने चमचमाते मुखौटे के कारण इतराते-मदमाते फिरते हैं, तो--तो उन्हें हूट करने के साथ-साथ शूट करने का मन हो उठता है। बुजदिली्वश, मैं ऐसा कुछ नहीं कर पाता और शब्दों की मरहम से अपनी खाज-खुजली मिटाने की कोशिश करता रहता हूँ तथा कमी्शन ओढ़ने-बिछाने वालों को "श्लोक" सुनाने के साथ, आप सरीखे "विल-पॉवर" के धनी महामानव के चरणों में अपनी श्रद्वा के फूल अर्पित करता रहता हूँ।
सच! आज के इस संक्रमण-काल में आप जैसे दुस्साहसी विद्रोहियों की बहुत जरूरत है, जो कमीद्गान का झंड़ा बुलन्द करने वालों के खिलाफ अपने ईमान का डंडा उठा सके।
श्रीमन! आज घर आती लक्ष्मी को लात मारना बेहद मुश्किल होता जा रहा है-भले ही वह सरकारी खजाने में सेंध लगाकर लाई जा रही हो, चाहे दीन-हीन, विवश-मजबूर दे्शवासियों के मुँह के इकलौते निवाले को नीलाम करने से प्राप्त हो रही हो और एक चतुर्थ-श्रेणी कर्मचारी से लेकर राजपत्रित अधिकारी तक, बल्कि उससे भी ऊँची कुर्सी पर विराजने वाले महान महानुभाव भी, चन्द दमड़ों की कमी्शन की एवज मे, अपनी हया और अपने आत्मसम्मान की डुगडुगी पिटवाने में अपनी शान समझते हैं। ऐसे में, आप जैसे उच्चाधिकारी द्वारा, कमी्शन-विरोधी रवैया अपनाना, वास्तव में आठवें आश्चर्य की सी चमत्कारपूर्ण ईमान की मीनार खड़ी करने जैसा भगीरथ-प्रयास दीखता है और आपके इस इकलौते कारनामे के कारण ही यह नाचीज आपको तीन शब्दों का भारत-रत्न सरीखा व्यक्तिगत-तमगा प्रदान करना चाहता है-"धन्य हो प्रभु!
अशोक आनन्द
धन्य हो प्रभु!
कहा जाता है, कि नारखाने में तूती की आवाज का कोई महत्व नहीं होता, लेकिन जब से मुझे यह "विस्फोटक" शुभ-समाचार प्राप्त हुआ है, कि आज के इस महाप्रदूषित माहौल में आप परम-लोकप्रिय तथा चरम-सुरिंक्षत कमीशन तक को ठुकरा कर "सूखी तनख्वाह ही सबकुछ है" की मधुर-रागिनी में मदमस्त रहते हैं, तब से ही मेरे मन-मस्तिष्क में आपके "त्याग-राग" की तूती हलचल मचा रही है और मेरा ईमान मुझे "पुश" कर रहा है कि मुझ जैसे बाल-बराबर को भी आपकी ताल के साथ ताल मिलानी चाहिए और यदि मैं आपके यशोगान में महाकाव्य न भी लिख पाऊँ, तो--तो कुछ पन्ने रंगने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
वैसे, मौटे तौर पर, आम लोगों की घातक-धारणा यह है, कि रिश्वत और कमी्शन में जमीन-आसमान का सा अन्तर होता है। उन अक्ल के अंधों के अनुसार, रि्श्वत लेना किसी गलत काम में सहयोग देने, किसी मज़बूर को निचोड़ने अथवा मिस्टर "एक्स" के हक को श्रीमान "वाई" को दिलवाने के षड्यंत्र में शामिल होने जैसा महापाप होता है, जबकि कमी्शन ग्रहण करना तो एक शुद्व-सात्विक प्रक्रिया है, क्योंकि कमीशन स्वीकारने के दौरान न तो किसी फाईल को ठंडे बस्ते के अंधेरे से निकाल कर रौ्शनी में लाया जाता है, जिससे उसका पुर्नजन्म हो सके, न ही किसी बदनसीब को सताया-तड़पाया-रूलाया जाता है और न ही किसी प्रकार की हेरा-फेरी का दामन थामा जाता है। इस नाते, कमी्शन को अपनी अंटी के हवाले करते समय, किसी भी अपराध-बोध को नहीं पालना चाहिए और इसे कुर्सी का प्रसाद अथवा पद-वि्शेष का "हक" समझकर डकार लेना चाहिए या हस्ताक्षर रूपी चिड़िया बिठाने का 101 प्रतिशत वैध नजराना समझ कर, ईमान की घुट्टी में मिलाकर बेखटके पी जाना चाहिए।
इसी क्रम में, उनका "गणित" यह कहता है, कि रिश्वत को तो पहले इशारों-इशारों में और फिर नंगे शब्दों के साथ "एडवाँस" में माँगना पड़ता है, जबकि कमीशन गान प्रदान करने वाला, अपने पूरे होशो हवास में, होम-मिनिस्ट्री से बाकायदा नो ऑब्जेक्शन सर्टीफिकेट लेकर, रिवाज और दस्तूर के मुताबिक, लकीर का फकीर बना, निर्विघ्न कार्य-समाप्ति के पश्चात, कॉलगेट-स्माइल के साथ, चन्द दमड़े अर्पित करने पर आमादा रहता है, तो--तो इस "सूफियाना-भेंट" को स्वीकार न करने की गुँजायश ही कहाँ बचती है ? (और, उस पर तुर्रा यह, कि कमी्शन उर्फ "ऑफिस-एक्सपेंसेज" का उज्जवल-धवल लिफाफा थामने वाले आप इकलौते मेहरबान-कदरदान नहीं होते, वरन् आप तो नीचे से ऊपर तक फैली अमरबेल रूपी जंजीर की एक छुटकी कड़ी मात्र होते हैं और आपकी हाँ या न का कोई खास महत्व नहीं होता)
जाहिर है-उक्त वर्णित शब्दो के आधार पर आज अधिकाँश विभूतियाँ कमी्शन के पक्ष में ही अपना कीमती वोट अर्पित करती हैं और उससे किनारा करके इस चींटी रूपी बेईमानी को चोट पहुँचाने का दुस्साहस बिरले ही कर पाते हैं। ऐसे में, जब मैं आपको इस दूसरी पंक्ति में शान से खड़ा पाता हूँ, तो बरबस मेरे हाथ सलामी के लिए उठ जाते हैं।
यूं, रिश्वत हो या कमी्शन, कुछ महानुभावों की दिलचस्प धारणा यह होती है, कि यदि ऊपरी अन्धी-कमाई का कुछ हिस्सा नेक कार्यों में खर्च कर दिया जाये, तो--तो फिर इस लोक ही क्या, परलोक के लिहाज से भी, किसी प्रकार का "टेंशन" पालने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। यह अलग बात है, कि शायद ऐसे ही शरीफ-बदमाशों की शान में एक शायर फर्मा चुके हैं:-
तामीरें हैं, खैरातें है, तीरथ-हज भी होते हैं।
ये दौलत वाले दामन से, यूँ खून के धब्बे धोते है।
वैसे, छोटी ही नहीं, मोटी बुद्वि वाले भी, मन ही मन यह महसूस करते ही हैं, कि कमीशन रूपी मांसल-मारक "फुलझड़ी", सरकारी खजाने के हरम से ही अगवा करके लाई जाती है और उसके उपभोग-सहवास को बलात्कार और दे्शद्रोह की ही संज्ञा दी जा सकती है। इसी कारण, ऐसे प्रत्येक दलाल की अंतरात्मा उसे कचोटती रहती है अथवा अपना विरोध प्रगट करती रहती है, लेकिन वह नशेड़ी उस कमबख्त को "शटअप" कह कर उसकी बोलती बंद करता रहता है।
पता नहीं, आप किस आधार पर, कमी्शन-कुतिया को दुत्कार रहे हैं। न जाने
क्यों मुझे यह भी विश्वास है, कि आप जैसे संभ्रात-सज्जन का "बगुला-भगत" से कोई नाता नहीं है और न ही "नौ सौ चूहे खा कर हज को जाने वाली बिल्ली" से आपका कोई लेना-देना है और आप इस तथ्य से भी भली-भाँति अवगत है, कि उच्चपद के लिए कमीशन का प्रति्शत अधिकतम होता है, किन्तु खतरा निम्रतम रहता है, क्योंकि कोई काँड हो जाने पर, बड़ा अधिकारी तो पतली गली से साफ बच निकलता है और दण्ड की गाज, किसी छोटे-मोटे कर्मचारी पर ही गिरती है। सम्भव है, आप कमी्शन-जाम से इस कारण कन्नी काट रहे हों, कि कमी्शन-जुगाली की लत पड़ जाये, तो वृहद-वि्शाल तोप-खरीद से लेकर, छुटके से "कफन-बाक्स" की खरीद तक में कमीद्गान खाना पूर्णतया जायज लगने लगता है।
आज, जब मैं अपने को, ऐसे-ऐसे सफेदपो्श लुटेरो याने कमीशन खोरों में घिरा पाता हूँ, जो सचरित्रता और "संतोषधन" का ढिंढोरा पीटते नहीं थकते और "मुँह में राम, बगल में छुरी" का शर्मनाक उदाहरण होने के बावजूद, अपने चमचमाते मुखौटे के कारण इतराते-मदमाते फिरते हैं, तो--तो उन्हें हूट करने के साथ-साथ शूट करने का मन हो उठता है। बुजदिली्वश, मैं ऐसा कुछ नहीं कर पाता और शब्दों की मरहम से अपनी खाज-खुजली मिटाने की कोशिश करता रहता हूँ तथा कमी्शन ओढ़ने-बिछाने वालों को "श्लोक" सुनाने के साथ, आप सरीखे "विल-पॉवर" के धनी महामानव के चरणों में अपनी श्रद्वा के फूल अर्पित करता रहता हूँ।
सच! आज के इस संक्रमण-काल में आप जैसे दुस्साहसी विद्रोहियों की बहुत जरूरत है, जो कमीद्गान का झंड़ा बुलन्द करने वालों के खिलाफ अपने ईमान का डंडा उठा सके।
श्रीमन! आज घर आती लक्ष्मी को लात मारना बेहद मुश्किल होता जा रहा है-भले ही वह सरकारी खजाने में सेंध लगाकर लाई जा रही हो, चाहे दीन-हीन, विवश-मजबूर दे्शवासियों के मुँह के इकलौते निवाले को नीलाम करने से प्राप्त हो रही हो और एक चतुर्थ-श्रेणी कर्मचारी से लेकर राजपत्रित अधिकारी तक, बल्कि उससे भी ऊँची कुर्सी पर विराजने वाले महान महानुभाव भी, चन्द दमड़ों की कमी्शन की एवज मे, अपनी हया और अपने आत्मसम्मान की डुगडुगी पिटवाने में अपनी शान समझते हैं। ऐसे में, आप जैसे उच्चाधिकारी द्वारा, कमी्शन-विरोधी रवैया अपनाना, वास्तव में आठवें आश्चर्य की सी चमत्कारपूर्ण ईमान की मीनार खड़ी करने जैसा भगीरथ-प्रयास दीखता है और आपके इस इकलौते कारनामे के कारण ही यह नाचीज आपको तीन शब्दों का भारत-रत्न सरीखा व्यक्तिगत-तमगा प्रदान करना चाहता है-"धन्य हो प्रभु!
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