ये सवाल यूंही नहीं है। मेरे भीतर हर उस वक्त घुमड़ते रहे हैं जब-जब जांसकर आया हूं। योरोपिय सैलानियों की लगातार आवाजाही और भारतीय लेखकों की लेखनी में लद्दाख और उस जैसे ही भौगोलिक क्षेत्र लाहौल-स्फीति, किन्नौर के जनजीवन की तस्वीर को जानने-समझने के बाद उपजते सवाल हैं।
मेरा हेतु तो रोमांच, जोखिम और उसके बीच सांस लेता जीवन, जो बेशक क्षणिक ही सही, उसी की आवाजाही हो सकता है और रहा है। हरहराता मौसम, लद्दाख के लोग, बर्फ, चढ़ाई-उतराई और कंप-कंपा देने वाली ठंड को महसूस करना ही है। नुब्रा की उड़ती रेत का आकर्षण जैसे किसी भी व्यक्ति के भीतर पहाड़ पर रेगिस्तान की उपस्थिति से भौचा करने वाला है, मैं भी उससे मुक्त तो नहीं। न मैं इतिहासविद्ध हूं न समाजशास्त्री। न भूगर्भ विज्ञानी और न ज्ञान के किसी और क्षेत्र में जुटा अध्येता। बस सहज यात्री हूं। कोई दर्रा, कोई दरिया, कोई खतरनाक चढ़ाई और तेज ढलान कैसे पांवों के जोर से हो सकती है पार, उसे ही देखना चाहता हूं। वो ऊंचाई, जो सांस को उखाड़ देने में कोई कसर न छोड़ती हो, कैसे उससे भिड़ते हुए लद्दाखी और रोहतांग पार के लोग अपने जीवन को ढहने से बचा रहे होते हैं।
यात्राओं में निकलते हुए, एक बात तय की है कि कभी कोई ऐसी पद्धति नहीं अपनाना चाहता जिसमें सिर्फ सांख्यिकी आकंड़ों से भरी भरपूर जानकारी हो। बस कुछ बातें और बातों से निकलती बाते ही दर्ज करूंगा, हमेशा यही सोचा है। हालांकि जानकारी इक्टठा करने का पारम्परिक ढंग ज्यादा व्यवस्थित है, इससे इंकार नहीं। किसी दूसरे के ऊपर प्रभाव डालने के लिए भी ज्यादा कारगर कि अमुक जगह के तो आप एक मात्र जानकार है। पर दूसरों पर अपने जानकार होने का रोब क्यों गांठा जाए ? सांख्यिकी विभाग के पास तो ढेरों जानकारी हो सकती है। जहां के कर्मचारी किसी विशेष भूभाग पर जाए बिना भी, बहुत जानकार होते ही है। कितने गांव हैं, गांव में कितने घर हैं। बच्चे कितने है, कितने हैं व्यस्क। मर्द कितने और कितनी हैं स्त्रियां। रोजगार क्या हैं, क्या हैं उद्योग। ये जानकारियों के ऐसे नमूने हैं जिन्हें मैं स्थूल मानता हैं।
आंकड़ों की जादूगरी जीने और मरने का ढंग बता सकती है। सांस्कृतिक स्वरूप का बयान कर सकती है। और सच है कि मात्र 10-12 दिनों के भीतर ही आप जानकारियों का खजाना जुटा सकते हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि मौसम विशेष में मात्र कुछ दिनों की यात्राओं भर से न तो मैंने जांसकर में मनुष्य के मृत्यू संस्कार को देखा है और न ही कोई जीवन का उत्सव- छम-छेशू,, न कोई देव न कोई दानव। यद्यपि किसी से भी पूछने पर इस सबको जानना कोई मुश्किल काम नहीं। पर ये सारे के सारे सिर्फ पूछे गए विवरण ही हो सकते हैं। छपी हुई पुस्तकों में पढ़कर भी ऐसे विवरणों से रूबरू हुआ जा सकता है। किसी भूगोल के संदर्भ ग्रंथ से यह जानना भी कोई कठिन काम नहीं कि सिंगोला से दोनों ओर की ढलानों पर निकलती जल धाराएं है जो दोनों ही ओर एक ही नाम- जांसकरी नाला के रूप में मौजूद है।
एक ओर की धारा जिसके विपरीत दिशा में चलते हुए सिंगोला की चढ़ाई चढ़ेंगे दारचा पर भागा नदी से मिलती है और दूसरी ओर की धारा जो सिंगोला के पार अपने साथ पदुम तक ले जाती है आगे चलकर सिंधु नदी से मिल जाती है। जांसकर के भीतर से होकर बहने वाला जांसकरी नाला जो सिंधु नदी से मिलता है वह सर्दियों पर जम जाता है। जमा हुआ नाला सफर को आसान भी करता है और जोखिम भी बढ़ा ही देता है। जांसकरी तो बढ़े खुश होकर कहते हैं कि उस वक्त कोई ऐसा सामान जैसे लम्बी-लम्बी बल्लियों को लाना उनके लिए आसान हो जाता है जो जीम हुई बर्फ के ऊपर खींचते हुए कहीं भी ले जाई जा सकती है।
योरोप, बौद्ध धर्म और दर्शन के आकर्षण में लद्दाख खिंचा चला आ रहा है। लद्दाख की बंद डिबिया जांसकर में पहुंचने वाले योरापिय समूह दर समूह हैं। जांसकरी दुनिया का धार्मिक वैभव और दर्रो का जोखिम और उनके पार गुजरने का रोमांच उनकी यात्रा के सहायक, घ्ाोड़ों वालों के घोड़ों की पीठ पर पर लदा होता है। जांसकर का आकर्षण उन्हें खींचता रहता है। खिंचे चले आते हैं वे। जांसकर उन्हें खींचता है वे जांसकर को खींचते हैं। दोनों के अपने-अपने रास्ते हैं। दोनों के अपने अपने कारण हैं। सुख के स्रोत इनका उत्स नहीं हो सकते। दोनों के अपने-अपने दुख हैं। अपनी अपनी तकलीफें हैं जो एक को दूसरे की ओर बढ़ने को मजबूर करते हैं। खाये-अघाये योरोपियों का अपना दुख है जिसका निदान वे धर्म में ढूंढना चाहते हैं। आध्यात्मिकता की खोज उन्हें बनारस की गलियों से लेकर दुर्गम पहाड़ों की दुनिया तक उकसाती है। पूंजीवादी दुनिया के छल-छद्म में आकार लेती उनकी निर्मम दुनिया पुरानी मान्यताओं पर टिके भारतीय समाज की राग द्वेष से भरी,, किन्तु एक हद तक आत्मीय दुनिया के बीच, आने को मजबूर करती है। निराशा और हताशा के क्षणों में डूबे रहने की बजाय वे जांसकर पहुच कर ''बुद्धं शरणं गच्छामी"" की राह में उतरते हैं और उनके चेहरों से टपकती भव्यता में खुद को दयनीय समझती जांसकरी दुनिया लाचारी के भावों से घिर जाती।
लद्दाख में बौद्ध गोनपाओं के प्रति योरोपिय आकर्षण ने लद्दाखी जन मानस को, खास तौर पर जांसकर में, उस पहल कदमी से रोका है जिससे वे जीवन के कठिन संग्राम में निर्वाण की इच्छा से मुक्त हो सकें। वे अचम्भित हैं अपने धर्म और अपने मठों की प्रासंगिकता से। यह अचम्भा उन्हें खुद के भीतर उठते सवालों से भी है। जो साल के सात आठ महीने जब बर्फीले विस्तार के बीच ही उन्हें अपनी दुनिया में सिमेटे होते हैं, उठ रहे होते हैं। वे सोच रहे होते हैं कि बर्फ के गलते ही उससे लड़ने का कोई मुमल रास्ता खोजेगें। पर ऐन उसी वक्त विदेशी सैलानियों का उमड़ता झुण्ड उन्हीं सूखी बर्फानी हवाओं में धकेल देता है। अपने धोड़ों की पीठ पर लबादे कस वे उनके माल ढोने को उतवाले हो जाते हैं। खेतों को कैम्पिंग के लिए खाली छोड़ उनकी स्त्रियां डोक्सा में जानवरों के साथ निकल जाती हैं। एक दम छोटे बच्चे, जिनकी नाकों के छेद, भीतर छिपे बैठे ग्लेशियरों से जांसकरी नालों के रूप बह रहे होते हैं, उत्सुक और ललचायी निगाहों से उन सैलानियों को ताकते हैं, जिनकी जेबों में रखी टाफियां उनके भीतर मिठाई का स्वाद भर रही होती हैं।
"-जूले।" सैलानियों के अभिवादन में उठती उनकी आवाज में एक तरह की दयनीयता होती है।
बहुत बूढ़ी स्त्रियां भी उसी गोली मिठाई की ख्वाहिश पाले खित-खित हंस रही होती है - दांत निपोर। एक दम निश्छल होती है उनकी हंसी। जिसमें उनका पूरा बदन हंसता हुआ होता है। गोनपाओं के लामा इंतजार में होते हैं कि दुनिया की 'काम चलाउ भाषा" में गोनपा का इतिहास और गोनपा के देवता का बखान कर सकें। जान रहे होते कि दान पात्रों के डिब्बे उसके बाद ही सिक्कों से खनकेंगे।
-जारी
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