Tuesday, October 13, 2009
किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात
देहरादून
जेम्सवाट की केतली- यह ऐसा शीर्षक है जो ने सिर्फ एक कहानी को रिपरजेंट करता है बल्कि कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में शामिल सभी कहानियों को बहुत अच्छे से परिभाषित करता है। संवेदना, देहरादून की विशेष चर्चा गोष्ठी में, जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई कथाकार कुसुम संग्रह की कहानियों की पुस्तक पर आयोजित थी, कथाकार सुभाष पंत का यह वक्तव्य उन सवालों का जवाब था जिनमें कुसुम भट्ट की कहानियों पर यह सवाल ज्यादातर उठ रहा था कि उनकी कहानियों के शीर्षक उनकी कहानियों के कथ्य से मेल खाते हुए नहीं हैं। फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा का तो कहना था कि जेम्स वॉट की केतली जैसा शीर्षक तो स्त्रियों की अन्तर्निहित शक्तिय को पूरे तौर पर परिभाषित करता है। कुसुम भट्ट की कहानी हिसंर को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए कथाकार सुभाष पंत ने कहानी के प्रति अपने दृष्टिकोण को सांझा करते हुए कहा कि प्रकृति चित्रण, साहित्य की जुमले बाजी है जिसमें मूल संवेदना से दूर जाना है। उन्होंने आगे कहा कि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है। कथ्य पर भाषा हावी नहीं होनी चाहिए। भाषा का सौन्दर्य कथ्य के साथ है।
कहानी पुस्तक पर चर्चा से पहले गोष्ठी में संग्रह में शामिल कहानी वह डर का पाट किया गया। कवयित्री और सहृदय पाठिका कृष्णा खुराना ने कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में सम्मिलित कहानियों की विस्तार से चर्चा अपने लिखित पर्चे को पढ़कर की। जिसका सार तत्व था कि पहाड़ी अंचल और स्त्रीमन को कुसुम भट्ट ने अच्छे से पकड़ा है। दूसरा पर्चा वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्य लेखक मदन शर्मा ने पढ़ा। कुसुम भट्ट की कथा भाषा को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहानियों के शिल्प की भी चर्चा की।
एक अधेड़ स्त्री मन के भीतर से बार बार किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात में आकार लेता एक स्त्री का व्यक्तित्व उनके ज्यादातर पात्रों के मानस के रूप में दिखाई देता है। संग्रह में शामिल वह डर, गांव में बाजार: सपने में जंगल, हिंसर, डरा हुआ बच्चा आदि कहानियों को सभी पर सभी ने खूब बात की। चर्चा में अन्य लोगों में प्रेम साहिल, राजेश सकलानी, गुरूदीप खुराना, डॉ जितेन्द्र भारती, चन्द्र बहादुर, जितेन्द्र शर्मा, राजेन्द्र गुप्ता आदि ने भी शिरक्त की।
Friday, October 9, 2009
मशहूर चित्रकार रोरिख का जन्मदिवस है आज
मशहूर चित्रकार निकोलाई रोरिख का जन्म 9 अक्टूबर 1874 को रूस के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। रोरिख बचपन से ही चित्रकार बनना चाहते थे पर उनके पिता जो कि वकील एवं नोटरी थे, उनको ये पसंद नहीं था इसलिये रोरिख ने वकालत और चित्रकारी की शिक्षा साथ-साथ ली।
अपने जीवन काल में रोरिख ने लगभग 7000 पेंटिंग्स बनाई। जिनमें विभिन्न तरह की पेंटिंग्स शामिल हैं। पर रोरिख की पहचान ज्यादा उनकी लैंडस्केप पेंटिंग्स के कारण ही है। पेंटिंग के अलावा रोरिख ने कई विषयों में किताबें भी लिखी जिनमें प्रमुख है फिलोसफी, धर्म, इतिहास, आर्कियोलॉजी साथ ही रोरिख ने कुछ कवितायें और कहानियां आदि भी लिखे। पूरे विश्व में शांति के प्रचार प्रसार के लिये रोरिख ने कई म्यूजियम एवं शैक्षणिक संस्थान आदि की भी स्थापना की।
रूस में 1917 की क्रांति के बाद से रोरिख ने ज्यादा समय रुस के बाहर ही बिताया। इस दौरान उन्होंने विभिन्न देशों अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन आदि की यात्रा की। न्यूयॉर्क में इन्होंने रोरिख म्यूजियम की स्थापना भी की। इनके अलावा रोरिख ने ऐशियन देशों की यात्रायें भी की और हिन्दुस्तान से तो उन्हें विशेष लगाव रहा। यहां के हिमालयी स्थानों में उन्होंने अच्छा समय बिताया और यहां की संस्कृति आदि से वे बेहद प्रभावित रहे। 13 दिसम्बर 1947 को कुल्लू में रोरिख का देहांत हुआ।
अपने जीवनकाल में रोरिख को कई पुरस्कारों द्वारा नवाजा गया जिनमें प्रमुख हैं रसियन ऑर्डर ऑफ सेंट स्टेिन्सलॉ, सेंट ऐने एंड सेंट व्लादिमीर, यूगोस्लावियन ऑर्डर ऑफ सेंट साबास, नेशनल ऑर्डर ऑफ लिजीयन ऑफ ऑनर तथा किंस स्वीडन ऑर्डर ऑफ नॉर्दन स्टार। इसके अलावा उन्हें 1929 में नोबोल पुरस्कार के लिये भी नामांकित किया गया।
यहां हम उनके द्वारा बनाये गई कुछ पेंटिंग्स लगा रहे हैं
Tuesday, October 6, 2009
हिमालय की यात्रायें - २
रामनाथ पसरीचा जी के बारे में पिछली पोस्ट में बताया जा चुका है और उनका मसूरी का एक यात्रा संस्मरण भी दिया गया था।
इस पोस्ट में प्रस्तुत है उनके कुछ पेंटिंग्स और स्कैच जो उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान बनाये हैं।
इस पोस्ट में प्रस्तुत है उनके कुछ पेंटिंग्स और स्कैच जो उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान बनाये हैं।
हिमालय में रात
स्वर्गारोहणी
श्रीनगर का एक पुल
Sunday, October 4, 2009
शार्ट लिस्टिंग की युक्ति का एक नाम आलोचना हो गया है
स्मृतियों की वि.गौ. |
विश्वास
स्कूल जाते
बच्चे के बस्ते में
चुपके से डाल देता हूं
कुछ अधूरी कविताएँ
इस विश्वास के साथ
कि वह
पूरी करेगा इन्हें
एक दिन
मित्र के जन्म दिन पर
दीवार पर टंगी है
मुस्कुराती हुई स्मृति
जो स्पर्श कर रही है
तुम्हारे और मेरे बीच
कुछ न कुछ
स्थापित होने की प्रक्रिया को
पता नहीं
सूरज की कोख से
कब जन्मी धूप
चन्दा की कोख में
कब पनपी चांदनी
लेकिन अब भी अंकित है
मन के किसी कोने में
आंचल में बन्धे
एक स्वप्न के
साकार होने की तिथि
आज भी वही दिन है
और मैं देख रहा हूं
ढेर सारी मोमबित्तयों की
थरथराती लौ
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प्रदीप कांत,
हस्तक्षेप
Saturday, October 3, 2009
सभ्य लोग कोई नाम याद नहीं रखते
हालांकि सभ्य लोग, भले लोगए अच्छे लोगों की परिभाषा गढ़ती हिन्दी की कई कविताएं गिनाई जा सकती हैं लेकिन अरविन्द शर्मा की कविता में व्यंग्य का अनूठापन उसे अन्यों से भिन्न कर देता है। सभ्य लोगों की तस्वीर अरविन्द के भीतर उस कैमरे की आंख से जन्म लेती है जिसके जरिये वह जब वह किसी पेड़ को खास कोण से कैद करता था तो तैयार तस्वीर को देखता हुआ दर्शक चौंकता था एकबारगी। वह पेड़ों के न्यूड चित्र होते। चेहरे पर जबरदस्ती चिपकाई हुई मुस्कानों की तस्वीर उतारने की बजाय वह सड़कों, गलियों के हुजूम या किसी सामान्य से दिखते आब्जेक्ट को अपने कैमरे में कैछ करता रहा। बहुत मुश्किलों से मिन्नतें करते मित्रों के भी फोटो खींचने में वह ऐसा सतर्क रहता कि एक दिन अचानक से सामने तस्वीर होती और देखने वाला चौंकता और याद करने की कोशिश करता किस दिन खींचा है कम्बख्त ने- एक-एक भाव चेहरे पर उभर रहा है। वह काली-सफेद तस्वीर होती। "टिप-टॉप" की की कुर्सी पर बैठा एक अकेला व्यक्ति होता जबकि जब तस्वीर खींची गई होती वहां टंटों की भरमार मौजूद होती। देहरादून के रचनाकारों के अड्डे "टिप-टॉप" को आबाद करने वाला वह अकेला होलटाइमर था। कविता फोल्डर "संकेत" निकाला करता था, जिसका सम्पर्क पता "टिप-टॉप", चकराता रोड़, देहरादून ही दर्ज रहता। कहने वाले कह सकते हैं "टिप-टॉप" शहर की बदलती आबो-हवा के कारण उजड़ा लेकिन यह असलियत है कि दिन के 14 घंटे "टिप-टॉप" में बिताने वाले अरविन्द के अहमदाबाद चले जाने के बाद खाली वक्तों के सूनेपन ने "टिप-टॉप" के मालिक प्रदीप गुप्ता को उदासी से भर दिया। प्रस्तुत है अरविन्द शर्मा की कविता जो कविता फ़ोल्डर फ़िलहाल ५ के प्रष्ठों से साभार है। |
सभ्य लोग
अरविन्द शर्मा
सभ्य लोग देर तक
कोई नाम याद नहीं रखते
बिना गरज बात नहीं करते ।
घर का पता
फोन नम्बर
डायरी के इतने पृष्ठ रंग देते हैं कि
स्मृतियों के चिह्न दर्ज करने के लिए
कुछ बचता ही नहीं ।
सभ्य लोग कागज के फूलों से
बेहद लगाव रखते हैं
जो न कभी खिलते हैं और
न कभी मुरझाते हैं।
अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।
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