Saturday, October 17, 2009

एक रचनात्मक खबर



जिस तरह अरविन्द शर्मा के लिए पिछले लगभग 16-17 सालों का देहरादून का घटनाक्रम एक खबर हो सकता है, ठीक वैसे ही देहरादूनियों के लिए अरविन्द की खोज एक खबर से कम नहीं। इस खबर को संभव बनाया है एक ऐसे ही देहरादूनिये ने जिनसे मेरा पहला परिचय अरविन्द भाई ने ही करवाया था- कथाकार सूरज प्रकाश। ब्लाग पर जब भी अरविन्द भाई का जिक्र किया तो ब्लाग पोस्टों को पढ़ने के बाद हमेशा खामोश रह जाने वाले सूरज भाई उस समय खामोश न रह पाए - अरविन्द ने कल अचानक मुझे पिछले बीस वर्षों बाद फोन किया, न जाने कहां-कहां से मेरा फोन नम्बर हासिल करने के बाद। यह सूचना भाई सूरज प्रकाश ने ही मेल की थी। भला ऐसा कैसे होता कि उस गुम हो गए अरविन्द को खोज लिए जाने की खबर देहरादून के बाशिंदों को क्यों न चौंकाती। फोन नम्बर सूरज भाई से मिल गया था। अरविन्द भाई से सम्पर्क हुआ तो चौंक गए। मालूम हुआ कि वे अहमदाबाद में ही हैं और लगातार रचनारत हैं।
अवधेश, हरजीत ( दोनों ही अब इस दुनिया में नहीं हैं) और अरविन्द ये तीन ही शख्स रहे देहरादून के, जो कई सारे चित्रों को आड़ा तिरछा काट-चिपका कर कोलाज बनाया करते थे। स्कैच भी बनाते थे। स्कैच बनाने वाला तो एक और शख्स रहा रतिनाथ योगेश्वर। वही रति जिसने दलित धारा के रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि के पहले कविता संग्रह - सदियों का संताप का, जो फिलहाल प्रकाशन, देहरादून से छपा था, कवर पेज स्कैच किया था। आजकल वह भी न जाने कहां है। दो वर्श पूर्व इलाहाबाद में मुलाकात हुई थी। बाद में मालूम हुआ शायद मध्य प्रदेश के किसी इलाके में स्थानानतरित हो गया है वह।
प्रस्तुत है अरविन्द शर्मा के कोलाज।

Tuesday, October 13, 2009

किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात




देहरादून
जेम्सवाट की केतली- यह ऐसा शीर्षक है जो ने सिर्फ एक कहानी को रिपरजेंट करता है बल्कि कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में शामिल सभी कहानियों को बहुत अच्छे से परिभाषित करता है। संवेदना, देहरादून की विशेष चर्चा गोष्ठी में, जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई कथाकार कुसुम संग्रह की कहानियों की पुस्तक पर आयोजित थी, कथाकार सुभाष पंत का यह वक्तव्य उन सवालों का जवाब था जिनमें कुसुम भट्ट की कहानियों पर यह सवाल ज्यादातर उठ रहा था कि उनकी कहानियों के शीर्षक उनकी कहानियों के कथ्य से मेल खाते हुए नहीं हैं। फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा का तो कहना था कि जेम्स वॉट की केतली जैसा शीर्षक तो स्त्रियों की अन्तर्निहित शक्तिय को पूरे तौर पर परिभाषित करता है। कुसुम भट्ट की कहानी हिसंर को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए कथाकार सुभाष पंत ने कहानी के प्रति अपने दृष्टिकोण को सांझा करते हुए कहा कि प्रकृति चित्रण, साहित्य की जुमले बाजी है जिसमें मूल संवेदना से दूर जाना है। उन्होंने आगे कहा कि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है। कथ्य पर भाषा हावी नहीं होनी चाहिए। भाषा का सौन्दर्य कथ्य के साथ है।
कहानी पुस्तक पर चर्चा से पहले गोष्ठी में संग्रह में शामिल कहानी वह डर का पाट किया गया। कवयित्री और सहृदय पाठिका कृष्णा खुराना ने कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में सम्मिलित कहानियों की विस्तार से चर्चा अपने लिखित पर्चे को पढ़कर की। जिसका सार तत्व था कि पहाड़ी अंचल और स्त्रीमन को कुसुम भट्ट ने अच्छे से पकड़ा है। दूसरा पर्चा वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्य लेखक मदन शर्मा ने पढ़ा। कुसुम भट्ट की कथा भाषा को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहानियों के शिल्प की भी चर्चा की।

एक अधेड़ स्त्री मन के भीतर से बार बार किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात में आकार लेता एक स्त्री का व्यक्तित्व उनके ज्यादातर पात्रों के मानस के रूप में दिखाई देता है। संग्रह में शामिल वह डर, गांव में बाजार: सपने में जंगल, हिंसर, डरा हुआ बच्चा आदि कहानियों को सभी पर सभी ने खूब बात की। चर्चा में अन्य लोगों में प्रेम साहिल, राजेश सकलानी, गुरूदीप खुराना, डॉ जितेन्द्र भारती, चन्द्र बहादुर, जितेन्द्र शर्मा, राजेन्द्र गुप्ता आदि ने भी शिरक्त की।

Friday, October 9, 2009

मशहूर चित्रकार रोरिख का जन्मदिवस है आज



मशहूर चित्रकार निकोलाई रोरिख का जन्म 9 अक्टूबर 1874 को रूस के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। रोरिख बचपन से ही चित्रकार बनना चाहते थे पर उनके पिता जो कि वकील एवं नोटरी थे, उनको ये पसंद नहीं था इसलिये रोरिख ने वकालत और चित्रकारी की शिक्षा साथ-साथ ली।


अपने जीवन काल में रोरिख ने लगभग 7000 पेंटिंग्स बनाई। जिनमें विभिन्न तरह की पेंटिंग्स शामिल हैं। पर रोरिख की पहचान ज्यादा उनकी लैंडस्केप पेंटिंग्स के कारण ही है। पेंटिंग के अलावा रोरिख ने कई विषयों में किताबें भी लिखी जिनमें प्रमुख है फिलोसफी, धर्म, इतिहास, आर्कियोलॉजी साथ ही रोरिख ने कुछ कवितायें और कहानियां आदि भी लिखे। पूरे विश्व में शांति के प्रचार प्रसार के लिये रोरिख ने कई म्यूजियम एवं शैक्षणिक संस्थान आदि की भी स्थापना की।


रूस में 1917 की क्रांति के बाद से रोरिख ने ज्यादा समय रुस के बाहर ही बिताया। इस दौरान उन्होंने विभिन्न देशों अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन आदि की यात्रा की। न्यूयॉर्क में इन्होंने रोरिख म्यूजियम की स्थापना भी की। इनके अलावा रोरिख ने ऐशियन देशों की यात्रायें भी की और हिन्दुस्तान से तो उन्हें विशेष लगाव रहा। यहां के हिमालयी स्थानों में उन्होंने अच्छा समय बिताया और यहां की संस्कृति आदि से वे बेहद प्रभावित रहे। 13 दिसम्बर 1947 को कुल्लू में रोरिख का देहांत हुआ।


अपने जीवनकाल में रोरिख को कई पुरस्कारों द्वारा नवाजा गया जिनमें प्रमुख हैं रसियन ऑर्डर ऑफ सेंट स्टेिन्सलॉ, सेंट ऐने एंड सेंट व्लादिमीर, यूगोस्लावियन ऑर्डर ऑफ सेंट साबास, नेशनल ऑर्डर ऑफ लिजीयन ऑफ ऑनर तथा किंस स्वीडन ऑर्डर ऑफ नॉर्दन स्टार। इसके अलावा उन्हें 1929 में नोबोल पुरस्कार के लिये भी नामांकित किया गया।

यहां हम उनके द्वारा बनाये गई कुछ पेंटिंग्स लगा रहे हैं


Guests from Overseas


The messenger 


The Vernicle and Saint Princes


Last Angel, 1912.


Song of Shambhala






MosesThe Leader




Chintamani 1936 

Tuesday, October 6, 2009

हिमालय की यात्रायें - २

रामनाथ पसरीचा जी के बारे में पिछली पोस्ट में बताया जा चुका है और उनका मसूरी का एक यात्रा संस्मरण भी दिया गया था।


इस पोस्ट में प्रस्तुत है उनके कुछ पेंटिंग्स और स्कैच जो उन्होंने अपनी यात्राओं के दौरान बनाये हैं।


हिमालय में रात



स्वर्गारोहणी


श्रीनगर का एक पुल


अस्तन गांव 


नचार का लालपुर


एक किन्नर


स्पीति की एक महिला

 
माठी देवी का मंदिर

Sunday, October 4, 2009

शार्ट लिस्टिंग की युक्ति का एक नाम आलोचना हो गया है




स्मृतियों की सघनता में दबे छुपे समय को पकड़ने की कोशिश संवेदनाओं के जिस धरातल पर पहुंचाती है, वहां एक ऎसे दिन की याद है जो  सूरज की कोख से जन्म लेती धूप और चन्दा की कोख में पनपती चांदनी के खूबसूरत बिम्ब की संरचना करती है। बिना किसी दावे के , सिर्फ़ सहज अनुभूतियों का घना विस्तार कविता को सिर्फ़ एक मित्र के जन्मदिन की स्मृतियों तक ही सीमित नहीं रहने देता। सहजता का एक और द्रश्य विश्वास में भी दिखाई देता है। भाई प्रदीप कांत से मेरा परिचय मात्र उनके लिखे के कारण  है। उन्हें उनके ब्लाग तत्सम पर पहले पहले पढ़ने का अवसर मिला। इससे ज्यादा मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता। उनकी कविताओं और इधर दो एक बार उनसे फ़ोन पर हुई बातचीत से जो तस्वीर मेरे भीतर बनती है उसमें एक सादगी पसंद सहज और प्रेमी व्यक्ति आकर लेता है। बिना हो-हल्ले के चुपचाप अपने काम में जुटा मनुष्य। बाद में उनके बारे में और जुटाई जानकारियां चौंकाने वाली थी कि वे लगातार लिखते और महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं (कथादेश, इन्द्रपस्थ भारती, साक्षात्कार, सम्यक, सहचर , अक्षर पर्व  आदि-आदि) में छपते रहने वाले रचनाकार होते हुए भी मेरे लिए अनजाने ही थे। यूं मैं इसे अपनी व्यक्तिगत कमजोरी स्वीकार करता हूं कि ब्लाग से पहले मैं कभी उन्हें एक कवि के रूप में क्यों न जान पाया ! पर जब इसकी पड़ताल करता हूं तो पाता हूं साहित्य कि दुनिया के प्रति मेरे आग्रह अनायास नहीं हुए। दरअसल साहित्य की गिरोहगर्द स्थितियों ने आलोचना के नाम पर जिस तरह से शार्ट लिस्टिंग की है उसके चलते बहुत सा प्रकाशित भी बिना पढ़े छूट जा रहा है। ऎसे ही न जाने कितने रचनाकार है जिनकी रचनाएं समकालीन रचनाजगत के बीच महत्वपूर्ण होते हुए भी या तो अप्रकाशित रह जाने को अभिशप्त है या हल्ला-मचाऊ आलोचनात्मक टिप्पणीयों के चलते पाठकों तक पहुंचने से वंचित रह जा रही है।
प्रस्तुत है कवि प्रदीप कांत की दो कविताएं। 

 वि.गौ.



 

प्रदीप कांत
विश्वास


स्कूल जाते
बच्चे के बस्ते में

चुपके से डाल देता हूं
कुछ अधूरी कविताएँ

इस विश्वास के साथ
कि वह
पूरी करेगा इन्हें
एक दिन 


मित्र के जन्म दिन पर

                                                     
दीवार पर टंगी है
मुस्कुराती हुई स्मृति
जो स्पर्श कर रही है
तुम्हारे और मेरे बीच
कुछ न कुछ
स्थापित होने की प्रक्रिया को

पता नहीं
सूरज की कोख से
कब जन्मी धूप

चन्दा की कोख में
कब पनपी चांदनी

लेकिन अब भी अंकित है
मन के किसी कोने में
आंचल में बन्धे
एक स्वप्न के
साकार होने की तिथि

आज भी वही दिन है

और मैं देख रहा हूं
ढेर सारी मोमबित्तयों की
थरथराती लौ



अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।