Friday, March 12, 2010

शुभान तेरी कुदरत, रामचन्द्र दशरथ


जिस तेजी के साथ बदलाव की मुहिम जारी है उसको ठीक से कैसे समझा जाए ? कैसे जाना जाए कि उसकी दिशा क्या ? वह किस तरह से विकास की एक जरूरी कार्रवाई है ?  उसके मायने प्राकृतिक गरिमा को बनाये रखने के वास्ते हैं या उनकी आड़ में या मुनाफे की संस्कृति का बाजार समाज को जकड़ता जा रहा है ? ये ऐसे सवाल हैं जिनको किसी पृथ्वी सम्मेलन में शामिल होने वाले व्यक्ति की विज्ञापनी चिंताओं से नहीं समझा जा सकता है और न ही, मात्र ढांचागत कुशलता में माहिर, साहित्य के लिख्खाड़ों की रचनाओं से समझा जा सकता है। भरत प्रसाद, मेरा मित्र, जिसने पिछले दिनों एक नेपाली कहानी का अनुवाद किया था ( जिसे इस ब्लाग के पाठक यहां पढ़ सकते हैं), कोई स्थापित लेखक नहीं, लेकिन एक संवेदनशील इंसान है और साहित्य अनुरागी भी। यदा-कदा कुछ लिखता भी है। उसके लिखे को बेशक रचना के किसी खास विन्यास में बांधना मुश्किल हो पर वह शुद्ध रूप में ऐसी रचनाएं होती हैं जिनसे गुजरते हुए जमीनी सच्चाई की सरसराहट को महसूस किया जा सकता है। प्रस्तुत है भरत प्रसाद की एक ऐसी ही रचना।     

वि.गौ.

भरत प्रसाद

जंगल किनारे सीधा सा रास्ता, बीच-बीच में पानी के बहाव से बने गड्ढे, पगडंडी भर में दिखती मिट्टी, पीली चिकनी मिट्टी, कहीं-कहीं बलुवा मिट्टी, रास्ते के दोनों तरपफ दूब घास, जंगल में छोटे बड़े पेड़ साल, जामून, ढाक, मयालु (जंगली नाशपाती) रेंडी, तारचरबी, कहीं-कहीं तुन और शीशम करोदे बवेर की झाड़िया, कडी पत्ता और ऐसे ही अनेक प्रकार के पेड़ पौध्ो फूल झाड़ (लन्टेना) के इक्के दु्क्के पौधे ही दिखते थे। खेत की बाढ के लिए ज्यादातर नील कॉटा और बेशरम लगाया हुआ लकड़ी के खुटो में कंटीला तार खीचा हुआ । सूवर और हिरनों तथा गाय डंगरो से फसल को बचाने के लिए बाढ में झाडियां काट कर डाल दी जाती है। वैसे जंगलो में लोमडी, सियार, खरगोश भी जंगल में अक्सर दिखाई दे जाते। रात को एक सियार ने छुआ की तान क्या छेडी कि चारों तरपफ जगंल भर में छुआ-छुआ की गूँज उठने लगती।
कई तरह के पछी घुग्थी, फाख्ते, बुलबुल, मैना, तोता, छोटी-छोटी फिस्टी, तीतर, बटेर, जंगली मुर्गे कव्वे, गिद्ध आदि। शेही और गोह जैसे जानवर दिखाई तो कम देते थे लेकिन कंजर लोग अपने लम्बे थूथन वाले शिकारी कुत्तों के साथ उसका शिकार किया करते थे, एक बार तो बताते हैं उनके पांच कुत्तों ने एक गुलदार को ही घ्ोर कर भगा दिया था। कभी-कभी गुलदार गाँव के कुत्तों और बछड़ों को उठा कर ले जाते थे।
''शुभान तेरी कुदरत, राम चन्द्र दशरथ"" ऐसा ही सुनाई देता जब कहीं तीतर आवाज करता और बटेर के झुंड जब अचानक एक साथ उड़ते तो ''भर्रर्टटर"" की आवाज से डरा ही देते। बसंत के आते ही पंछियों का कलरव पूरे जंगल को संगीतमय कर देता, कुहू-कुहू ---काफल पाको, काफल पाको--- तो कहीं ''मेरी सीता देखी मे-री-सी-ता-दे-खी-तू-ने- की मीठी-मीठी तान और खेतों से पंछीयों को भगाने की हा---हा- की तेज तर्कश आवाजों के साथ चीची-चीची कर चिड़ियां तुन शीशम के फुंगल पर बैठ जाती। झुंड के झुंड गौरेया झाड़ीयों में ऐसे छिप जाते कि दिखाई न दे और फिर गुलेल के पत्थर झाड़ी में पड़ते ही अलग-अलग  दशाओं में उड़ जाते। तब बन्दर नहीं लगते थे खेतों में,  जंगल में ही इतना पफल होता था कि लोग जंगलों से  आंवला, बेहड़ा ले आते थे। आम लाकर अमचूर और आचार बनाकर रखते साल भर के लिए।
गांव के लोग घास चारे के लिए लकड़ी के लिए जंगल पर निर्भर थे, गाय बकरीयों का चुगान भी जंगलों में ही होता। घास के लिए नालों के किनारों की घास या पिफर चारे वाले पेड़ों को झांग कर छोटी-छोटी  टहनियां-पत्तों को बोझा बनाकर लाते। पेड़ की फुंगल  को न काटने की हिदायत थी। सर्दियों में आशा रोड़ी से आगे डांट की पहाड़ियों में घास लेने जाते तो एक दो पूली फूंस की भी जरूर लाते ताकि गोठ (गोशाला) का छप्पर छाया जा सके। तब छत लिंटर के तो नहीं हाँ, टिन की चद्दर के होते या फूस के या तारकोल के ड्रम और घी के टिन काट कर छत बनाते तब टिन की चादर उपलब्ध भी कम थी और महँगी भी पड़ती थी।
एक बार गरमी के दिनों में मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकालने के लिए जलाई गयी मशाल से जंगल में आग लग गयी और हवा भी तेज हो गयी। हवा का रूख गॉव की तरफ हो गया और देखते ही देखते आग गॉव की तरफ बढ़ने लगी तो आग-आग चिल्लाते हुए लोग जंगल की आग बुझाने चले गये। लंबी-लंबी टहनियों से लोग आग बुझाने लगे, कहीं से उड़ती हुई एक चिंगारी तेज हवा के साथ एक फूंस की छत में गिर गयी और थोड़ी ही देर में छत धूँ-धूँ कर जलने लगी। सभी का ध्यान जंगल की आग की तरपफ था। किसी का ध्यान गोशाला में लगी आग की तरफ गया ही नहीं। जैसे ही जंगल की आग बुझाई, डंगरों के चिल्लाने, चीखने की आवाज ने सबका ध्यान गॉव की तरफ मोड़ दिया। ''ओ बहादुरे की गोठ में आग लग गयी"", कोई जोर से चिल्लाया। सब जितनी तेज दौड़ सकते थे, दौड़ कर आने लगे। तब तक एक दो छप्पर और जलने लगी। ''पानी लाओ बाल्टी लाओ पानी लाओ कुछ आदमी उध्र जाओ कुछ उध्र एक जगह इकट्ठे मत रहो"" और स्वस्फूर्त प्रबंधन से एक साथ आग बुझा ली गयी। कुछ लोगों ने घ्ारों से जरूरी सामान बाहर निकाला तो कुछ लोगों ने गोठ में बंधे गाय डंगरों को खूंटों से खोल दिया। गाय बछड़े चिल्लाते हुए इधर-उधर भाग गये। एक ताजी व्याई भैंस, उसका कटड़ा और दो बछड़े बुरी तरह से जल गये थे। छटपटा रहे थे, चिल्लाते जा रहे थे। आलू कूटा गया और उसका रस जले पर लगाया गया। नीली स्याही की पूरी बोतल डाल दी गयी, मेहंदी लगायी गयी घाव में, हल्दी-तेल लगाया गया, लेकिन इन उपचारों के बाद भी भैंस और उसके बच्चे को बचाया न जा सका। एक बछड़ा कई दिनों बाद मरा, बछड़ी बच गयी लेकिन उसका दाँया भाग जलने से सफेद हो गया। बहुत दर्दनाक दृश्य था वह। चलचित्र की तरह एक-एक करके बातें याद आ रहीं थीं बाबू को।
पन्द्रह-बीस साल पहले की बाते थीं। दो महीने की छुट्टी में आया था वह। तब और अब के जंगलों में फर्क देखते ही बनता था। साल के पेड़ तो वही थे लेकिन इस दौरान कोई नया पेड़ नहीं पनपा इस जंगल में। बल्कि मयालु, राजू और करौंदा, तारचरबी के पेड़ तो दिख ही नहीं रहे थे। अब तो चारों तरफ बोक्सी फूल(लन्टेना) ही दिखता था। नाला मिट्टी के कटाव  से और चौड़ा और गहरा हो गया था। ढाल की पगडंडी नाली का रूप ले चुकी थी। पोखर और गड्डे मिट्टी और गाद से भर चुके थे। पहले इनमें भैंस और जंगली जानवर नहाते थे तो इसकी मिट्टी बाहर निकलती रहती थी। लगातार नहाने से गड्डे की सतह चिकनी रहती तो गड्डों में पानी भी मार्च-अप्रैल तक रहता था और नमी तो पूरे साल रहती थी और इस नमी के साथ बेशरम की झाड़ियां भी। जंगल में जानवर खत्म होने लगे तो ये पोखर भी मरने लगे। जानवर पानी के लिए आबादी की तरपफ आते और शिकारियों का भोजन बनते।
पुरानी बातों को याद करता बाबू जंगल के किनारे चलता जा रहा था कि उसे बंदरों की घबराहट भरी चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। पंछी ऐसे चिल्ला रहे थे जैसे कोई बाज आस पास हो। कोई शिकारी सॉप किसी घोंसले की तरपफ बढ़ रहा हो। दूर धुआं दिखा तो समझने में देर न लगी कि आग लगी है। जानवरों के नाम पर बंदर ही रह गये तो चिल्लायेंगे भी बंदर ही। दूर जंगल में आग लगी थी, आग हल्की थी लेकिन दूर तक फैली थी उसने सोचा और ठान लिया कि आग बुझाना है और जंगल की तरफ बढ़ गया। चार-पाँच टहनी रैडी और कड़ी पत्ता की तोड़ी और एक तरफ से आग बुझाने लगा। जहां आग हल्की थी वहां झाड़ू से मार कर जहां थोड़ा तेज थी वहां थोड़ी दूर पर पत्तों को साफ करके आग को आगे बढ़ने से रोका। एक जगह आग बुझाते हुए वह पत्तों में फिसल गया और आग के ऊपर गिरते-गिरते बचा लेकिन लपटों से उसका हाथ झुलस गया। आग बुझाना छोड़कर वह अपने हाथ में फूंकने लगा। फूंकते समय थोड़ा राहत सी मिली तो उसका ध्यान चिल्लाते बंदर की तरफ गया और दृश्य देखकर रोंगटे खड़े हो गये। एक अधजला बंदर तड़प रहा था और उसके आस-पास बंदरों का झुंड अजीब-अजीब आवाज में चिल्ला रहे थे। कुछ न कर पाने की बेबसी और तड़पते बंदर की बैचेनी, बाबू के हाथ की जलन खत्म हो गयी। वह दुगुने जोश से आग बुझाने लगा। एक जगह कुछ अध्ाजले अंडे पड़े थे वह पहचानने की कोशिश करने लगा। शायद वह कुछ को इस हालत से पहले बचा पाये। किसी तरह आग पर काबू पा लिया। आग बुझ चुकी थी। अभी धुयें की धूं--धूं  पूरी तरह साफ नहीं हुई।
उसका हाथ काफी झुलस गया था। ऐसा भी नहीं कि घाव हो जाय मगर बगैर दवाई के जल्दी ठीक भी नहीं होता। हाथों में जलन तेज होने लगी थी। जंगल की आग भले बड़ी न हो, हल्की तो कतई नहीं होती। आग बुझाने के बाद वह वापस पगडंडी में आ गया, वह वापस घर जाने लगा। रास्ते में एक राहगीर ने उसके झुलसे हाथ को देख कर पूछा तो बाबू ने सारी बात बता दी तो संभ्रांत सा दिखने वाला राहगीर बोला 'आ बैल मुझे मार, खामखा जला बैठे अपना हाथ। क्या पड़ी थी फटी में टाँग डालने की? क्या जरूरत पड़ी थी? जिसका काम है वह तो बैठा होगा ए।सी। में, बेचे हुए पेड़ों के पैसे गिन रहा होगा"।
और बड़बड़ाते हुए चला गया, जैसे 'कह रहा हो अब पंगा लिया है तो भुगतो"।
वह सोचने लगा ''खामखा तो नहीं है यह काम, जंगल बचाओ, पर्यावरण बचाओ का नारा तो आज पूरी दुनियां में गूँज रहा हैं, मैंने तो एक छोटी सी कोशिश की है बस""!
एक दोस्त मिल गया रास्ते में उसे भी सारा हाल बता दिया तो दोस्त कहने लगा, ''जब हाथ जल गया था तो तुरंत उसे दो मिनट पानी में रखना था इससे जलन चमड़ी की पहली परत तक रूक जाती।""
बाबू बोला '' जंगल में पानी ही होता तो जंगल जलता क्यों?
 अगर जंगल में पानी नहीं है तो ये जानवर पीते क्या हैं? इतनी हरियाली कैसे रहती है?
बाबू बोला '' कभी देखा भी है जंगल? बाहर से यह जितना घना दिख रहा है यह उतना है नहीं। रही जानवरों की बात तो वे रह कितने गये और जो हैं वह आते हैं आबादी की तरपफ पानी के लिए और शिकार बनते हैं और छोटे-मोटे पंछी जानवर तो ऐसी हर साल की आग में मर खप जाते हैं""।
''अगर ऐसा है तो हमें जंगलों की इतनी मोहक और डरावनी तस्वीर क्यों दिखाते हैं, हकीकत से रूबरू क्यों नहीं कराते बचपन से ही?""
'दोस्त तू बड़ा भोला है, क्या कोई अपनी कार गुजारी का बखान करना चाहेगा, शिकार और हवेली रईसों का शौक है, जहां शेरों और हिरन के सिर बैठकों में दिखेंगे, शानदार इमारती लकड़ी भी उन्हें ही चाहिए। और हवेली के आस-पास सीमेंट का पफर्श का सीमेंट ग्राउँड ताकि साफ सफाई रह सके, जंगल ही बचायेंगे तो सात पीढ़ियों के लिए पैसा कैसे जमा करेगें""।
''लेकिन पानी तो उन्हें भी चाहिये न""।
दोस्त इतनी बात कह कर चल दिया लेकिन उसके हाथ की जलन को और बढ़ा गया, वह सोचने लगा क्या वह सब झूठ था जो उसने बचपन में पढ़ा था। सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा और गुरूजी की बात कि बेटा चोरी, डकैती के बाद सामान वापस मिल भी सकता है, टूटी चीजें जोड़ी जा सकती है, लेकिन एक बार कुछ जल गया तो सब खत्म, बेटा इसे कहते हैं रासायनिक क्रिया, भौतिक सुख के लिए हम कितनी बड़ी हानि कर रहे हैं।
ऐसे और कई लोग मिले, सब पूछते क्या हुआ! वह बताता भी, सब मौखिक हमदर्दी जताते, अपने रास्ते चलते, सबके पास कोई न कोई उपदेश, कोई न कोई शिकायत जरूर रहती, दूसरों के लिए सलाह और कार्यक्रम तक होते, मजेदार बात कि सब को पानी की किल्लत का एहसास था। अधिकतर पर्यावरण असंतुलन की बात भी करते लेकिन किसी को भी जंगल की आग से चिन्तित नहीं महसूस किया। ''गमला और बौनसाई संस्कृति के लोगों को तो बस नल के पानी से मतलब है, बरसात का पानी तो कीचड़ लगता है। बड़े पेड़ पतझड़ में गंदगी करते हैं, कौन रोज-रोज झाड़ू लगाये। उनका पर्यावरण भी गमला, बौनसाई तक सिमट गया है""। उनकी बेचारगी देख उसके हाथ में जलन और तेज होने लगी, लेकिन क्या एक अच्छी शुरूआत के लिए इस दर्द को सहा नहीं जा सकता। लोगों की बातें सुनकर उसे भी लगने लगा कि क्यों किया उसने ये सब! और किसके लिए? अगर ये सब जंगल किसी का भी नहीं है तो मेरा भी तो नहीं है। तो मैं ही क्यों पेरशान हुआ? और सबका है तो सभी चिंतित होते।
ऐसे ही सवालों के द्वंद्वों में वह चला जा रहा था। वह देखता है कि वहाँ झुरमुरों में भी आग लगी थी। एक मजदूर सा दिखने वाला आदमी उसे बुझा रहा था। बाबू ने उससे पूछा तो वह कहने लगा 'बाबू जी इसे हम नहीं बुझाएंगे तो यह सारा का सारा जल जायेगा, चिड़ियाओं के घ्ाोसलों से लेकर, चारे से लेकर खेत खलिहान तक, पिफर ये खायेंगे क्या, ये रहेंगे कहाँ?"
फिर बाबू के हाथ को देख कर पूछने लगा, कैसे जला? उसके हाथ की जलन न जाने कहाँ गायब हो गयी, बाबू भी हरी टहनियां तोड़ कर आग बुझाने लगा तो उसने रोकते हुए कहा 'बाबू जी आप रहने दें इतनी आग तो मैं ही बुझा लुँगा" और एक पत्ता तोड़ कर उसका रस बाबू के जले हुए हाथ में मल दिया।
जलन खत्म हो गयी थी, बाबू ने उस आदमी से कहा 'एक तुम्हीं दिखे जिसे पर्यावरण की चिंता है"। वह बोला -'भैया जी, ये पर्यावरण क्या होता है हमें पता नहीं, हम तो बस इतना जानते हैं कि इस आग से चिड़िया, उसके अंडे-बच्चे, कीड़े मकोड़े, चींटी सब खत्म हो जाते हैं"। आज देखो बाबू जी, जमीन पर चलने वाले तीतर, बटेर कहीं दिखाई नहीं देते, छोटे पेड़ जैसे बेर, करौंदा जैसे न जाने कितने पेड़ गायब हो गये हैं। इसी आग की वजह से पानी तक रूक नहीं पाता। आज जंगलों में या तो तीस साल पुराने पेड़ हैं या बरसात में उगे हुए पौधे, पूरे तीस साल का अन्तर है नये पुराने पेड़ों में। सभी को जंगल से कुछ न कुछ चाहिए। किसी को लकड़ी, किसी को घास, किसी को जड़ी-बूटी तो किसी को हिरन का शिकार या शेर की खाल शान बघारने को और जब ये बड़े लोग पकड़े जाते हैं तो सारे नेता, अफसर इन्हें बचाने के लिए आ जाते हैं, जैसे गलती पेड़ की या हिरन की हो, क्यों वह कुल्हाड़ी और बन्दूक की गोली के सामने आ गये""।
थोड़ा रूक कर वह हताश सा कहने लगा -'जिसके पास साधन है, पैसा है उसके लिए तो जंगल पार्क है, पिकनिक स्पॉट है, लेकिन हमारे लिए तो यह रोजी-रोटी की बात है, पैसे वालों की बात हम क्या करें। जंगल बचाना तो हमारी मजबूरी है, देखते हैं कब तक इसे बचा पाते हैं हम।"
दूर कहीं तीतर बोलने लगा 'शुभान तेरी कुदरत, रामचन्द्र दशरथ" पेड़ में बैठी कोयल बोली 'काफल पाको काफल पाको"।

Sunday, February 28, 2010

हर रचनाकार की पहली चेष्टा समकालीन होने की होती है।



वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी से हमारे साथी राजेश सकलानी की यह बातचीत अक्टूबर 2009 की है जो कि एक पत्रिका के लिए की गई थी। हमें खुशी है कि बातचीत को पत्रिका से पहले हम इस ब्लाग के पाठकों तक पहुंचा पाने में सक्षम हुए।


हर रचनाकार की पहली चेष्टा समकालीन होने की होती है। अगली कोशिश आगे निकलकर आधुनिक होने की होती है। यदि वह चिन्तनशील और समर्थ है तो उसे आधुनिकता की खोज करना आना चाहिए।
अविष्कार की यह परंपरा हमारे प्राचीन संस्कृत काव्य में विद्यमान रही है। बहुत विकसित रूप में।
समकालीनता के साथ कवि की एक निजकालीनता भी होती है जो उसे केवल एक तरह के समय में नहीं रहने देती। कभी वह अपने समय को गुफा कालीन और अग्निविहीन समय में ले जाता है। कभी पाषाणकालीन पशुवान समय में। तभी वह इतिहास के सभी समयों को लांघता हुआ प्रथम विश्वयुद्ध से पहले के समय में ले जा लेता है। अपनी माइथोलॉजी के कारण तभी वह अपने को महाभारत के युद्ध में खड़ा पाता है जहाँ विचार और दृष्टिकोण का काव्यात्मक विस्तार पाता हुआ वह पछतावे के बावजूद उद्यम तत्पर अपने को देखने लगता है। "गीता" को वह कविता की पुस्तक कहे या कर्म और जीवन की। जो भी हो वह कविता की भाषा की अद्भुत तार्किक निष्पत्ति है। इन दीर्घकायताओं से निकलकर आये बिना समकालीनता बनती नहीं है। अपनी निजकालीनता में अपनी निजता को सभी जगह से बटोरना पड़ता है। तब समकालीनता की परिस्थिति बनती है अन्यथा समसामयिकता बनकर रह जाती है। सामयिक से सम-सामयिक में फैलना और अपने होने न होने को वहाँ पड़तालना समकालीन होने की पहली चेष्टा कहा जा सकता है। पड़तालना समकालीन होने की पहली चेष्टा कहा जात सकता है। लेकिन काल के वृहत्तर आयामों की ओर अग्रसर होना समकालीनता से महाकालीनता में प्रवेश मिल सकता है।
सारे समयों में ज्ञानात्मक यात्रा कर चुकने के बाद, पाने-खोने की बेहतर और खराब उपलब्धियों के संज्ञान के बाद, यह समझ में आता है कि क्या है जो अभी नहीं है। क्या था जो सोचा गया पर पाया नहीं जा सकता। क्या-क्या है जो शेष है और क्या-क्या है जो निश्शेष हो चुका है। तब पता चलता है कि केवल आज का दिन था जो सृष्टि में संभव करने के लिए बचा हुआ था और जिसकी अपनी अलग वजहें हैं। मनुष्य से वे वजहें जुड़ी हुई होकर भी उसकी मोहताज नहीं हैं। मनुष्य अलग है और प्राकृतिक वजहें एकदम अलग-अलग भी होती हैं और होती रहती हैं। प्राकृतिक "आज" खासकर समय के केन्द्र में लाखों-करोड़ों वर्षों से मौजूद सूर्य की नियमित देनों में से एक है। पर आज के संसाधनों को जो स्वरूप उनकी प्रकृति को पहचान-पहचान कर मनुष्य ने पैदा किया है वह अकेले किसी सूर्य और चाँद के बस कार नहीं था। मनुष्य का "आज" नितान्त आधुनिक हो गया है। मनुष्य का "आज" सूर्य और चाँद के बिना भी काम शुरू कर सकता है। मनुष्य का "आज" उसका सत्व और परिश्रम , दोनों हैं। भाषा, टेक्नोलॉजी और रहन-सहन से लेकर अंतर्दाह विश्वासों तक यह आधुनिकता की समझ और ज़रूरत पैदा करने वाला तत्व फैला हुआ है। आधुनिक होना अपने प्राचीन होने को सबसे पहले स्वीकारता है। आज भले ही आधुनिक होने के लिए उसे पाषाणकालीन मनुष्य से भी अधिक मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि आधुनिकता का केवल कोई एक पहलू महत्वपूर्ण न होकर समूची आधुनिकता ज़रूरी हो गयी है। अन्यथा फिर कवि हो या कोई साधारण मनुष्य, उस में पुरानी परिपाटियाँ फिर से स्वत: काम करने लग जायेंगी। क्योंकि आधुनिकता की कोई एक बनी-बनाई परिपाटी नहीं है। इतना जरूर है कोई मनुष्य आधुनिकता में कैद होकर सोचना चाहे तो ज़रूरी नहीं कि परिणाम कितने स्वाभाविक हैं। अज्ञात, अस्वाभाविक और अप्रयुक्त परिणाम आधुनिकता को प्रिय रहे हैं। अपनी रचनाओं में भी कवि का यह अविष्कार उसे कई प्रकार की परिपाटियों से विरत करता है। कभी वह रूढ़ियों से भी किसी नयी परम्परा की शुरुआत कर ले जाता है। संस्कृत काव्य ने भी अपनी रूढ़ियों को सार्थक आधुनिक रूप दिये हैं और समकालीनता के आग्रह में आज का कवि भी अपने समय के कुतुबनुमा को घुमाते हुए दिखता है। कविता के कुतुबनुमें में उत्तर दिशा या कोई भी दिशा अतनी सुनिश्चित नहीं होती। फिर भी उसके प्रश्न उत्तर की ओर बल्कि सही उत्तरों की ओर झोंक खाते प्रतीत होते हैं। संस्कृत काव्य में समय का संधान अपनी विषय-वस्तु के कारण आधुनिक व आकर्षक है बजाय अपने शिल्प विधान के। संस्कृत साहित्य में शिल्प विधान की आधुनिकता वैचारिक आधुनिकता की अपेक्षा कम दिखाई देती है। जीवन और उसके व्यवहारिक संकटों का आधुनिक प्रकटीकरण सस्कृत वांगमय में अधिक दिखता है। शिल्प वैविध्य नहीं। यही वजह है कि कुछ चीजों की रूढ़िया जरूर टूटी लेकिन परम्परायें नहीं टूट पायीं। समसामयिकता तब समकालीनता की ओर जाती है जब इतिहास की ओर उन्मुख होकर उसका हिस्सा होना चाहती है। आधुनिकता इतिहास को आगे बढ़ाती है। आधुनिकता की खोज इतिहास के संग्रहालय में रखने के लिए नहीं की जाती बल्कि वह जीवन के दैनिक व्यापार और व्यवहार को सटिक और कारगर बनाने की सार्थक कोशिश के रूप में जाँची-परखी जाती है।
इधर हिन्दी कविता का वर्तमान गहरे राजनैतिक संकट में फँसा हुआ है। कई बार रचनाकर्म में तल्लीन रहना अपराध बोध जगाता है। हमें शायद तोड़ने और बनाने के काम में कहीं ओर होना चाहिए था।
किस तरह के रचनाकार्य में हम तल्लीन हैं? समकालीन या आधुनिक? कविता और साहित्य की अन्य विधाओं की रचनात्मकता कतई भाषा आधारित है। भाषा पर हमारा क्या काम है? भाषा की बनती-बिगड़ती और संवरती रंगतों को हम कितना जानते हैं? समाज द्वारा रची हुयी भाषा को हमने कहाँ-कहाँ पर कितना और रचा है? ऐसे कुछ उदाहरण हैं समकालीन रचनाकारों के पास? यदि ऐसा है तो नया अनुभव पर अर्थ वाले अद्यतन रचें हुए शब्दों का एक छोटा ही सही कोष हमारे पास होना चाहिए। भाषा के नये रसायन को हम समझ नहीं पा रहे हैं, कहीं इसी बिन्दु से अपराधबोध नहीं उपज रहा? भाषा उतनी ही पर्याप्त नहीं है जितनी वह बरती जा चुकी है। भाषा जितनी चालू है उसमें से और क्या-क्या किस तरह बनया जा सकता है। किस तरह बनाने की बात ही शायद शिल्प का निर्धारण कर सके। तब शायद यह सही लग सकता है कि हमें तोड़ने और बनानें के काम में कहीं और होना चाहिए था। कहीं का अभिप्राय है यहीं कहीं और। हो सकता है प्रकृति के किसी संसाधन को हजारों लाखों वर्षों बाद हम प्रयुक्त करने लायक समझदारी प्राप्त कर सकें। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रकृति हमसे अधिक आधुनिक है। आधुनिकता उपादानों, उपकरणों के बदलाव और श्रम में आराम से समझ में आती है। गति में इतनी तीव्रता की समय कम लगे। धन और परिश्रम एक बार चाहे ज्यादा लग जाए। सूर्य और वर्षा जल का विविध उपयोग यह प्रकृति की नहीं मनुष्य की देन है। ज्ञानी नहीं विज्ञानी ही आज भविष्यवाणी कर सकता है। ज्ञान और विज्ञानी ही चिन्तनशील और समर्थ है। वे समकालीन रचनाएँ अपने समय को लाँघ कर आगे के समयों में चली जाती है जिनमें समाज का क्रियाशील मन किसी रचनात्मक प्रेरणा से सक्रिय दिखता है। जिस भाषा में नई सामाजिक परिस्थितियाँ दिखती है उसी में अछूते शब्द अनुभवों का तत्व दर्शन करने चले आते हैं।
चलिए सीधी बात पर आते हैं। लोकतंत्र यदि साफ तरह से साधारण जन को गुमराह करने वाला शब्द बन जाए तो आधुनिकता को परिभाषित करने का काम तात्कालिकता, तत्परता और आपात्कालीनता की माँग करता है।
लोकतंत्र खुद एक आधुनिक तरीका है जनता की इच्छा को आदर देने का। लोकतंत्र शब्द यदि गुमराह और धोखाधड़ी करता है तो उसका निवावरण तात्तकलिता, तात्परता और आपत्कालीनता नहीं कर सकती। लोकतंत्र को एक जन-तार्किकता ही बचा सकती है। आधुनिकता का एक अर्थ प्रयुक्त साधनों को नया और बेहतर रूप देना। आधुनिकता परिभाषित कम और परिमार्जित ज्यादा करती है। आधुनिकता कभी विस्तार तो कभी कतर-ब्यौंत, दोनोंके सहारें चलती है। आधुनिकता को हर बार ईजाद करना पड़ता है।
आपकी बातों से लगता है कि लिखना सामाजिक, राजनैतिक हिस्सेदारी से बिल्कुल अलग कोई कर्म है। रचनाकारों और पाठकों की एक स्वायत दुनिया है। " ययो तस्थौ" पद में भी गतिमानता है। यह मुझे इसलिए याद रहा है क्योंकि "इस यात्रा में" और "घबराए हुए शब्द" तक आप में प्रश्न उठाने की विकलता है। वह बाद के संग्रहों में कम हुई है। स्वाभाव में तत्वदर्शी होने की कोशिश बढ़ती गई है। कुछ-कुछ शास्त्री होने जैसी भंगिमा।
मुझे लगता है कि तोड़ने और बनाने की बीच की स्थिति है "न ययौ, न तस्थौं"। हर बार कुछ करना और कुछ न कर पाना टकरा जाता है। पर इस टकराने से हर बार कोई वांछित-अवांछित विस्फोट नहीं होता। कोई अपराध-बोध भी पैदा नहीं होता। एक समकालीनता पैदा होती है, न जा सका (सकी) , न रुक सका के अर्थ को संवहन करने वाली। यह समकालीनता न रुकी हुई है न अग्रसर हो पायी है। लेकिन प्रस्थान कर चुकी है। अपना प्रस्थान उसने बना लिया है। इसमें वापसी संभव नहीं है। कहीं न कहीं पहुँचना ही इस समकालीनता का भविष्य है। भविष्य ही इसमें वह संभावना है जो कुछ निर्धारित या प्रतिपादित कर पायेगी। आप पीछे की ओर जा रहे हैं। "इस यात्रा में" और "घबराये हुए शब्द में" प्रश्न उठाने की विकलता पा रहें है। क्या प्रश्न उठाना ही बड़ी बात है या कौन से प्रश्न उठाना बड़ी बात है? काश की प्रश्नों की प्रजाति, स्वभाव इत्यादि कुछ चिन्हित हो सका होता। मैंने तो प्रश्न उठाया ही नही। अगर उठाये हैं तो उन परिस्थितियों ने उठाये है जिनकी वजह से वे कविताएँ बनीं। कविताओं की परिस्थिति क्या हैं और उन परिस्थितियों की काव्य परिणति क्या है? बाद के संग्रह यानि कि "भय भी शक्ति देता है" "अनुभव के आकाश में चाँद", 'महाकाव्य के बिना" की एक लम्बी कविता "अनुस्मृति", 'ईश्वर की अध्यक्षता में", "खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है"। अभी तक हिसाब से यहीं पाँच संग्रह बनते हैं। पाँचों को प्रश्नाकुलता से रहित नहीं कहा जा सकता। हाँ, मैं केन्द्रित प्रश्न कम हुए हैं। बिना प्रश्नों के कौन सा तत्व दिख जायेगा?
"बची हुई पृथ्वी" (1977) में बलदेव खटिक कविता में रंगतू, बलदेव खटिक और सत्ता का चरित्र बहुत स्पष्ट रूप से पकड़ में आता है। आज की तारीख में अब यह भी मुश्किल लगता है। एक शहरी जीवन बिताते हुए अधिसंख्य रचनाकार क्या साफ किस्म की पक्षधरता से क्या थोड़े कम साबित नहीं हो रहे हैं? सत्ता का एक नकली तरह का विरोध सामने दिखता है।
"बलदेव खटिक" कविता में मनुष्य के उस दुख को उकेरा गया है जिसे मार्क्स कहते हैं कि मनुष्य से शक्ति भर लो लेकिन ज़रूरत भर दो। लेकिन व्यवस्था ने लेना तो उसकी शक्ति से अधिक शुरू कर दिया है और देना उसकी ज़रूरत के अनुसार नहीं बल्कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार शुरू कर दिया है। यहाँ एक ही घर के भूख और न्याय पैदा होना चाहते हैं। जिस घर में लोहार है उसी घर में धरातल पर पुलिस का सिपाही भी अन्याय से पीड़ित होकर शरण पाना चाहता है। न्याय करने वालों का पता भले ही न चले पर अन्याय की मार खाने वालों के ठिकानें हमें अक्सर मिल जाते हैं। अपराधी और पुलिस एक ही खदान से पैदा हो रहे हैं। गालियों से रिश्ते याद आ रहे हैं। असंगति और विडंबना ने ताल मेल बिठा लिया है। एक बार दिमाग की स्थपित व्यवस्थाओं से लगता है बाहर आना पड़ेगा। तभी जीवन को नये सिरे से व्यवस्थित करने की शुरुआत बलदेव खटिक कर सकता है। हारे हुए व्यक्ति को लगता है कि गड़बड़ मेरी वजह से है। इस अधूरे आत्म-ज्ञान से असली, नकली और नकली, असली दिखने लगता है।
1964 में अपना पहला संग्रह प्रकाशित हुआ। शायद आप सीमान्त जनपद उत्तरकाशी में उस वक्त थे। जवाहर लाल नेहरू की स्वपदर्शिता और गाँधी के आदर्श के उस जमाने का कोई भी प्रभाव आपकी रचनाओं पर स्पष्ट रूप से नहीं दिखता। विक्षोप के कारण उस पर्वतीय जनपद में तब से ही है। यह राजनीति कैसे बनती है आपके यहाँ धर्मभीरु और सत्ता पर भरोसा करने वाली जनता के बीच।
"शखमुखी शिखरों पर" (1964) का रचना समय 1960 से शुरू हो जाता है ओर 1964 में खत्म। क्योंकि फिर मैंने अपना शिष्य ही नहीं अपना नाम भी बदल दिया "शर्मा" को "जगूड़ी" कर दिया। मैंने सोचा था "शर्मा" से ब्रह्मण होने का बोध बिना बताये हो जाता है जो कि एक गाँव (जोगथ) से उत्पन्न जगूड़ी जैसे स्थानवाची शब्द से नहीं होगा। जाति वाचक नाम को त्यागने में क्या गाँधी या उस जमाने में सक्रिय गाँधीवादी डॉ। सम्पूर्णानंद का आग्रह कहीं आपको काम करता हुआ नहीं दिखता। मैंने अपने लिए "अमल", विमल, कमल, भ्रमर, पराग, पुष्प और नवीन-प्राचीन जैसा नहीं चुना। क्या इसमें आपको महात्मा गाँधी की सादगी और जैसे हम हैं वैसे दिखने की चेष्टा नहीं दिखती। जवाहरलाल नेहरू भी "कौल" जाति की कश्मीरी ब्राह्मण थे लेकिन नहर के किनारे घ्ार होने से नेहरू वाली पहचान उन्हें अच्छी लगी। क्या यह जातिहीन होने की ओर एक छोटा सा ही, सही कदम नहीं माना जायेगा। हम लोग कुछ खास पैमानों के आदि हो गये हैं। न नया कुछ सोच पाते हैं न नया कुछ ढूँढ़ पाते हैं। विक्षोप वहाँ भी है और "नाटक जारी" में भी है। पर्वतीय जनता को मैं धर्मभीरु और राजसत्ता पर भरोसा करने वाला कतई नहीं मानता।
चीनी, आटा, चावल, दाल, सब्जियाँ जैसी बुनियादी चीजों के दाम इतनी तेजी से बढ़ गए है। यह जनता पर दमन की नई नीति है सत्ता की। इन बढ़ी हुई कीमतों का पैसा कहाँ जा रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। रचनाकारों और कलाकारों पर अकर्मण्यता का निश्चित आरोप बनता है।
भारतवर्ष में उत्पादन का मतलब है गेहूँ, धान, दाल, सब्जी और ज्यादा से ज्यादा दूध और बागवानी अर्थात फलों को भी आप इसमें गिन सकते हैं। ये उत्पादन भारत में अपने लिए ही पूरे नहीं पड़ते। कपास को भी यहाँ सामान्य उत्पादन नहीं माना जाता क्योंकि गेहूँ, धान और बाजरे की तरह यह हर जगह नहीं होता। दालों में उड़द हर जगह होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कारों का उत्पादन अधिक होता है तो मैकेनिकल इंजीनियर परिवारों में खुशी का तब जल सकता है जब कारों की बिक्री बढ़े। मोटर साइकिलों की बिक्री बढ़े। इससे शंकरकंद पैदा करने वालो ओर बेचने वालों की खुशी नहीं बढ़ सकती। मँहगाई बढ़ी और बहुत ज्यादा बढ़ गयी है। सबकी माँग थी कि तनख्वाहें बढ़े। तनख्वाहें पहली बार अपार सीमा तक बढ़ गयी है। टेक्नोलोजी की माँग थी कि उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़े। वेतन बढ़कार क्रय शक्ति बढ़ा दी गयी। यह नहीं सोचा गया कि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के बाजार का क्या होगा। गेहूँ, गोभी, धान और टमाटर की टेक्नोलोजी को कृषि है जैसे ऑक्सीजन की टेक्नोलाली जंगल है। वेतन बढ़ाने से पहले कृषि ओर पशु आधारित उत्पादों को न्यायोजित बढ़ा हुआ मूल्य प्रत्येक पाँच वर्ष के लिए घोषित कर दिये जाने का कोई नियम हमारे यहाँ नहीं है। इसलिए नियंत्रण भी नहीं है। महँगी टेक्नोलाजी और आधुनिक महँगे रहन-सहन ने तनख्वाहें बढ़ायी नतीजा यह हुआ कि सारा श्रम और सारा उत्पादन महँगा हो गया। चिंता यह नहीं है कि यह बढ़ा हुआ पैसा जो बे-नौकरीपेशा जनता दे रही है यह कहाँ जा रहा है बल्कि प्रश्न यह है कि यह कहाँ जा रहा है?
किसानों, मजदूरों, मेहनतकशों और उत्पीड़ितों के साथ कवि अपने को पाता है लेकिन कवि न फूड इस्पेक्टर है या लेबर इस्पेक्टर, न कृषि मंत्री और न श्रम मंत्री। कवि नियति का लेखाकार है उससे टेक्स का हिसाब माँगना गैर-जिम्मेदारी और ना समझी दोनों है।
वेतन बढ़ाये गये है तकनीकी रूप से महँगे उत्पादों को खरीद क्षमता के अन्तर्गत लाने के लिए न कि दाल-रोटी तक पहुँच बनाने के लिए। दाल-रोटी जो लोग पहुँच से बाहर बना रहे हैं असल में वे भी अपने लिए इसी साल अपने लिए एक नई कार खरीदना चाहते हैं। प्रत्येक नागरिक को शिक्षित और टेक्निकल बनाना जरूरी है अन्यथा वह संस्कृति के अनेक अंधविस्वासों का शिकार होता रहेगा। कविता में भाषा में अन्तर्निहित कर्म का हमेशा पक्ष लिया है। आत्माओं की जासूसी की है, बाजार भाव पर नियंत्रण उसके वश का नहीं।
कविता में विमर्श का वर्तमान दौर आपकी कविताओं में पहले से विद्यमान रहा है। यद्यपि इसका हवाला दिया कोई नहीं देता। हमारे सामाजिक, राजनैतिक व्यवहार का विखंडन कर उसमें छुपें मन्तव्यों और रूढ़ियों की चीर-फाड़ आपके प्राय: सभी संग्रहों में है। हाँ मैं यह जरूर कहूँगा कि अपेक्षाकृत एक कम नजर आने वाली शास्त्रीय परम्परा को आपने विकसित किया है। जीवन को परखने की आपकी दृष्टि और उपकरण नितान्त भारतीय है।
विखंडन भी सबसे प्राचीन आधुनिकता है। भारत में विमर्श को खंडन-मंडन की विधा माना गया है। भारत में वृक्षों की पूजा की जाती है और वृक्षारोपण को वंश वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में दस पुत्रों के बराबर माना गया है। लेकिन विमर्श का उद्येश्य मूल तक जाना रहा है। यहाँ जड़ उखाड़ने तक का विचार-विमर्श मान्य रहा हैं यही प्रवृतियाँ अक्सर डॉ। रामविलास शर्मा और डॉ। नामवर सिंह में लक्षित की जा सकती है। मूलगामी प्रवृतियों को पिछड़ेपन की पुनर्यात्रा के रूप में भी माना गया है। आधुनिक होना है तो केवल मूलगामी होने से नहीं चलेगा। जड़ अगर आप उखाड़ भी लाये तो भी समस्या निर्मूल नहीं हो जायेगी। हमें भूल के साथ मौलि (फुनगी) तक की यात्रा करनी है। यह विमश और विखंडन की रचनात्मक यात्रा है। ध्वंस एक खंडहर है। विध्वंस खंडहर को भी तोड़ देता है। सबकुछ तोड़ने के बाद जो मूल फिर मौलि की ओर यात्रा करने लगे वही पुनर्नवा है। वही पुनरोदय है। वही पुनर्भव है। बिना मूल के मौली की आरे जाना संभव नहीं। मेरी कविताओं के बारे में भी अगर ऐसा हुआ तो वही मौलिक विचार-विमर्श होगा। नये विचार उगाने जैसा ही महत्वपूर्ण है विध्वंश में से कुछ पाकर उसका पुनरोपण करना। साहित्य और शल्य चिकित्सा में अस्थियों और ऊतकों की पुर्नप्राप्ति कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह भी विखंडन का सूचनात्मक उपयोग है।
साहित्य में देश-विदेश कुछ नहीं होता उस में जीवन मात्र का अंतराष्ट्रीय अंतरात्मा होता है। साहित्य में भाषा का भूत झगड़ा करवाता है लेकिन मनुष्य के वैश्विक मन का लौकिक स्तर पर ऐकिक दृष्टिकोण उसको बँटने नहीं देता। इससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता है कि अंततोगत्वा अनुभूतियों को अपनी कमायी हुई भाषा चाहिए ज़रूर। मैंने अपनी कविताओं के लिए वही भाषा कमायी हैं। किसी की कमायी किसी और को सहाये या नहीं यह उसकी आंतरिक बनावट पर निर्भर करता है। कठिन ही मेरे यहाँ आसान है और आसान ही कठिन भी।
विमर्श की बात को आगे बढ़ाते है। "खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है" में "अपनी सरस्वती की अदरूनी खबर" में सरस्वती पूजा घर से लोगों की बीच में आती है। धार्मिक तंत्र की रूढ़ि से मुक्ति मिलती हैं 'सरस्वती लक्ष्मी सहित मनुष्य का मारा जाना तय है। यह पद आज के यथार्थ का अनुभव कराता है। और यह भी कि पूरी संरचना में आदमी अलग-थलग नहीं है। लेकिन युद्ध मे उतार देने के लिए "बुद्धिजीवियों की जल्दबाजी" को कारण बताना वर्गभेद को थोड़ा क्षीण बना देता है।
सरस्वती की निर्यात मनुष्यों ने कुछ खेत, कारखानों, रोजी-रोटी के युद्ध क्षेत्रों से हटाकर उसकी जगह पूजाघरों में सुनिश्चित कर दी। जबकि मूर्ख समझे जाने वाले कम जानकारों की बुद्धि ने कई बार मानवता को आगे बढ़ाने के चमत्कार किए है। जब युद्ध छिड़े तो सरस्वती विहिन लोगों ने तहखाने बनाये। हर किसी की सूझबूझ और टेक्नोलोजी को सरस्वती का दर्जा हासिल होना अभी भारतीय समाज में बाकी है। यहाँ किताबी कीड़ो के परिश्रमहीन और शोधहीन जीवन को विद्या का वरदान मान लिया गया हैं। इन सरस्वती चिन्हों से हमें बाहर आना पड़ेगा। पृथ्वी की जड़ता और मनुष्य की मूर्खताएँ ज्यादा उर्वर होती है। सरस्वती का संबध असामान्य और असाधारण रचनात्मकता रचना से है। एक स्त्री के सफेद वस्त्र पहनकर कमल के फूल पर बैठ जाना उस समय सचमुच असामान्य और असाधारण घटना रही होगी जिसके दिमाग में भी यह बिम्ब आया हो-जादूई था। लेकिन सफेदी का कारोबार करती आज की विज्ञापन सुन्दरियाँ क्या उस फूल पर बैठायी जा सकती हैं।
मैंने जान बूझकर अपने दो कविता संग्रहों में पहली कविता सरस्वती पर दी। ये तीनों कविताएँ सरस्वती की मिटती-बनती पहचान के बीच उसकी वह पहचान करना चाहती है जो शायद वह थी। सरस्वती भी पिछड़ी हुई भला क्यों रहना चाहेगी। सरस्वती एक विचार, एक उद्यम, एक उत्पादन, एक उपार्जन और अपने में अपना सृजन, अपना निन्धन भी है। एक प्रज्ञा भी हमेशा दूसरी प्रज्ञा की तरह नहीं हुई है। मनुष्य की प्रज्ञा निरन्तरता को जानती चलती है। अगर वह रोजमर्रा के साथ सारे ब्रह्माण्ड की रिलेशनशिप नहीं बैठा सकती तो वह अभी प्रज्ञावान नहीं हुई है।
सरस्वती का शब्दिक अर्थ है - सर: वती। सर अर्थात तालाब और वती माने वाली। जिस तरह "वान" माने वाला होता है। तालाब वाली यह कौन सी बाई है? पानी वाली ताई तो हमारी समूचि प्रकृति है जो अपनी फफूँद से भी कुछ न कुछ बना लेती है। प्रकृति का प्रतीक भी सरस्वती का अच्छा रूपक है। कठोर होन के बावजूद पानी वाली मृदुल और सरस तो होगी ही। जंगलों जैसी नमी से भरी हुई सृजनशील प्रवृत्ति का नाम सरस्वती है। सफेद जलद उसकी प्रतिभा के उड़ते हुए हिस्से हैं।
बुद्धि वर्ग भेद पैदा नहीं करती बल्कि कम करने के तरीक ढूँढती है।

Tuesday, February 23, 2010

भाड़े का विज्ञान और विशेषज्ञ

यूं तो सम्पूर्ण ऊर्जा के दोहन को लेकर अनेक योजनाएं बनायी जा रही है पर उत्तराखण्ड के पहाड़ों में विशेष रूप से 400 से ज्यादा छोटी-बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं पर काम चल रहा है। जाहिर है स्थानीय जनता के विस्थापन से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक के मुद्दे प्रमुख रूप से उभर कर आ रहे हैं। ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में जनता के पास कुल भूमि का मात्र 7 प्रतिशत भूमि पर मालिकाना हक है, बाकी सब भूमि रिजर्व फॉरेस्ट व अन्य सरकारी खातों में बंद है। जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण की अंधी दौड़ में यह तथ्य छुपाया जा रहा है कि जिस हिसाब से पर्वतों की जनता यहां की भूमि पर मालिकाना हक खो रही है उस हिसाब से बहुत जल्दी उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों की नदी घाटियों में बांध ही बांध और शिखरों में वन्यजीव अभ्यारण्य होंगे। यह भी उदघाटित होना चाहिए कि बांधों के निर्माण हेतु जारी दिखावटी प्रक्रिया, जिसके तहत पर्यावरणीय समीक्षा से लेकर विस्थापन और मुआवजों के मामलें निपटाये जाते हैं, कैसे उन विशेषज्ञों की रिपोर्टों के आधार पर तैयार हो जाते है जिनके अपने हित जल-विद्युत कम्पनियों के साथ बंधें होते हैं। पिछले दिनों जोशीमठ शहर के ठीक नीचे बनाये जा रही एक सुरंग में यकायक 600 लीटर प्रति सैकेण्ड की गति से जल रिसाव होने से निर्माण कार्य ठप है। अब जोशीमठ के निवासी भयभीत हैं कि कहीं उनके जल स्रोत सूख न जाए या कहीं जोशीमठ भूमि धसाव की जकड़ में न आ जाए। यह चिंताएं अकारण नहीं है। जोशीमठ के ठीक सामने के उस चाई गांव का मामला अभी कोई ज्यादा पुराना नहीं हुआ है जो एक ऐसी ही परियोजना के कारण इतिहास के गर्त में समा गया। चाई नाम के उस छोटे-से गांव के ठीक नीचे से जे पी कम्पनी की सुरंग निकाली गयी थी। परियोजना को पूर्ण रूप से सुरक्षित होने का प्रमाण-पत्र भी विशेषज्ञों द्वारा जारी किये जाने के बावजूद दो वर्ष पूर्व चाई गांव भूमि धसाव का शिकार हो चुका है, लेकिन अफसोस कि उन विशेषज्ञ रिपोर्टो पर आज तक कोई सवाल नहीं।
ऐसे ही सवालों के साथ प्रस्तुत है डॉ. सुनील कैंथोला का यह आलेख:

सुनील कैंथोला

हिंदुकुश हिमालय का एक बड़ा हिस्सा आतंकवाद और राजनैतिक अस्थिरता से ग्रस्त है। आतंक के इस खूनी खेल में भाड़े के सैनिकों की प्रमुख भूमिका है, जो लोकतंत्र और अमन-चैन को अपने पेशे के प्रतिकूल समझते हैं। दूसरी तरफ, हिमालय के ऐसे क्षेत्र जहां अमन है, लोकतंत्र है, वहां भाड़े के विशेषज्ञों का आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भाड़े के आतंकवादियों की ही तरह इनका दीन मात्र पैसा है और इसके एवज में ये लोकतंत्र का गला घोंटने से परहेज नहीं करते। इनके आतंक में पिसती स्थानीय जनता की स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैसी होकर रह गई है। अब भारत सरकार का कोई बोर्ड हो, विशेषज्ञों की मोटी तकनीकी रिपोर्ट हो और इसके बावजूद भी आप तकरार करने की हिमाकत करें, तो या तो आप कतई सिरफिरे हैं या निश्चित तौर पर माओवादी हो सकते हैं। जिसके नापाक इरादों पर पानी फेरने के लिए भारत सरकार चौबीसों घंटे चौकन्नी व लामबंद है।

इन दिनों उत्तराखंड मुआवजे की धनराशि से खरीदी गई गाड़ियों, उन पर लगे भारत सरकार के बोर्ड और उसमें विराजमान ताजी हजामत वाले, कृत्रिम इत्र-फुलेल की दुर्गंध छोड़ते भाड़े के विशेषज्ञों और उनके काणे विज्ञान की कलाबाजियों से पूरी तरह सम्मोहित है। मदारी, बहरूपिए, चालबाज, जेबकतरे आदि जब बड़े स्तर पर हाथ मारने में कामयाब हो जाते हैं, तो अंग्रेजी में उन्हें कलाकार का दर्जा देते हुए कॉन आर्टिस्ट कहा जाता है। उत्तराखंड में बड़े कॉन आर्टिस्टों की क्षमता संपन्न कंपनियों द्वारा कथित विशेषज्ञों को भाड़े पर उठाकर जो मायाजाल बुना जा रहा है, वह शेयर बाजार में भले ही उफान पैदा कर दे, स्थानीय आजीविका और अस्तित्व पर तो वह अंतिम कील ठोक ही देगा। इस भ्रम का शीघ्र अति शीघ्र पर्दाफ़ाश करना संविधान की आत्मा और लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई का हिस्सा बनता जा रहा है।

जब किसी के नाम के आगे विशेषज्ञ शब्द जुड़ जाए और ऊपर भारत सरकार का बोर्ड हो तो किसी की क्या मजाल कि उसकी विशेषज्ञता को चुनौती दे सके। फिर मामला जब ऐसा हो कि विशेषज्ञ की जरूरत पहले से तैयार रिपोर्ट के अंत में सिर्फ हस्ताक्षर भर करने के लिए हो, तो लाला किसी भी अंजे-गंजे को विशेषज्ञ के स्थान पर खड़ा कर देगा। जैसे वर्ष 2003 में विख्यात पर्वतारोही हरीश कपाड़िया जल्दबाजी में ग्लेशियोलॉजी पढ़ने वाले एक लौंडे को विशेषज्ञ बनाकर विश्व धरोहर नंदादेवी कोर जोन में ले गए, तो पूरी सरकार उनकी आवभगत में जुटी रही। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर विशेषज्ञता का बंटाधार तो डा।राबर्ट चैंबर्स अपने पी।आर।ए। और आर।आर।ए।के कथित विज्ञान द्वारा पहले ही कर चुके थे। आप दो हफ्ते के 70-72 घंटे के प्रशिक्षण द्वारा डॉक्टर, इंजीनियर या फॉरेस्टर नहीं बन सकते परंतु इतने ही समय में कोई भी लप्पू झन्ना न केवल समाजशास्त्री बन सकता है बल्कि अपने तूफानी दौरे के दौरान होटल-ढ़ाबों में हुई बातचीत के बल पर नीतिगत अनुशंसा करने के स्तर तक भी पहुंच जाता है। बहुत संभव है कि डा.चैंबसरा की यह मंशा न रही हो पर उनके पी.आर.ए.शास्त्र ने लालाओं के "उत्तराखंड कब्जाओ" एजेंडा को बल ही प्रदान किया है। बांध संबंधी विषयों पर जनता के साथ बैठकों की संचालन विधि, चांदी के कटोरों की भेंट और जन सुनवाइयों की हलवा-पूरी की कवायद उस दौर से बिल्कुल अलग नहीं, जब नकली मोती और आईना देकर अंग्रेज आदिवासियों की जमीनें हड़पा करते थे। इतना जरूर है कि तब नेतृत्व दलाल नहीं अपितु भोला था। पी।आर।ए।ने हमारे माननीय प्रशासकों के दृष्टिकोंण को ठीक उसी सांचे में ढालने में भूमिका निभाई हो, जो साम्राज्यवाद के विस्तार के दौर में क्षेत्रीय प्रशासकों का होता था। आज का प्रशासक उससे भी ज्यादा क्षमता संपन्न है, वह अपने पी।आर।ए। द्वारा लोकतंत्र के बाकी बचे स्तंभों को चलाता है।

उत्तराखंड निर्माण के उपरांत जिस धंधे के दिन पलटे उसमें विशेषकर डी.पी.आर.(डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) बनाने के व्यवसाय से जुड़ा पेशा शामिल है। इसमें भू-वैज्ञानिक, कथित समाजशास्त्री, पर्यावरणीय प्रभाव की रिपोर्ट बनाने वाले किसी भी पृष्ठभूमि के कंसल्टेंट अथवा भाड़े के विशेषज्ञ शामिल होते हैं, जो लालाओं की कंपनी के दिशा निर्देशानुसार रिपोर्ट बनाते हैं। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जरूरत इनके कथित ज्ञान की नहीं सिर्फ हस्ताक्षरों की होती है, कोई मना कर भी दे, तो बाजार में इनकी कमी नहीं।

उत्तराखंड निर्माण से पूर्व डी।पी।आर।का धंधा अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर हुआ करता था, जिस पर देहरादून के मुट्ठी भर भू-वैज्ञानिकों की इजारेदारी थी, जो बेरोजगार भू-वैज्ञनिकों को अल्प समय के लिए भाड़े पर रखकर सीमित मुनाफे में अपनी आजीविका चलाते थे। राज्य निर्माण के उपरांत उत्तराखंड के जल स्रोतों के दोहन के अभियान में आई तेजी ने इनके भी दिन फेर दिए, जो कि निश्चित रूप से बुरी बात नहीं है। मुद्दा रिपोर्टों की और भू-विज्ञान की वैज्ञानिक विश्वसनीयता का है। भू-विज्ञान स्वयं में आधारभूत (फंडामेंटल) विज्ञान न होकर विभिन्न आधारभूत विज्ञानों व एप्लाइड साइंस का अद्भुत सम्मिश्रण है। इसकी नितांत आवश्यकता भी है। तभी तो 1767 में सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1836 में कोल कमेटी का गठन किया, जो कालांतर में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया बनी। साम्राज्यवाद को अपने विस्तार के लिए जिन विभागों की आवश्यकता थी, उनमें भूगोल और भू-विज्ञान प्रमुख थे। पिछली दो शताब्दियों में भू-विज्ञान ने भले ही चहुमुंखी प्रगति कर भी ली हो परंतु वह आधारभूत विज्ञान की तरह दो और दो चार कह पाने की स्थिति में नहीं पहुंचा है। जैसे कि चांई का मामला। अब जे।पी।के सीमेंट से बनी जे।पी।हाईड्रो पावर की टनल यदि रिक्टर 8 के पैमाने के भूकंप को झेल जाएगी, तो इसका श्रेय सीमेंट, सरिया और रेत को सही अनुपात में मिलाने को जाएगा पर ग्राम चांई जो ध्वस्त हुआ तो उस भू-विज्ञान को कौन शूली चढ़ाएगा, जिसके आधार पर उक्त योजना को स्वीकृति प्रदान की गई? जाहिर है कि यह जनता के पैसे पर भू-वैज्ञानिकों के अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार को आयोजित करने का अच्छा बहाना हो सकता है। जिसमें विभिन्न प्रकार के कयास लगाए जाएंगे पर चांई के साथ हुए विश्वासघात पर चर्चा नहीं होगी क्योंकि यह भू-विज्ञान का विषय जो नहीं है।

चांई एक छोटा गांव है, जो भाड़े के विशेषज्ञों की बलि चढ़ गया। अब जोशीमठ के अस्तित्व पर तलवार लटक गई है, जो बदरीनाथ जी का शीतकालीन आवास और संभवत: लाखों परिवारों की आजीविका का स्रोत है। जिसके ऊपर अरबों रुपयों के शीतकालीन क्रीड़ा की इंवेस्टमेंट भी हैं। इधर, एन.टी.पी.सी.का एफ.पी.ओ.शेयर बाजार में उतरा रहा है। उधर, जोशीमठ के ठीक नीचे कहीं जल रिसाव से सुरंग का कार्य बंद हो गया। अब बाजार से पैसा उठाना परियोजना की गुणवत्ता से महत्वपूर्ण हो गया है। मामला फिर विशेषज्ञों के पाले में है, जो भाड़े पर हैं। जिनका विज्ञान अंत में मात्र कयासों पर आधारित है। कल यदि जोशीमठ के अस्तित्व को कुछ होता है, तो जनता संभवत: ये कैसे हुआ होगा इस विषय पर भूगर्भ शास्त्रियों की थ्योरियां न सुनना चाहेगी बल्कि आज अपने अस्तित्व की गारंटी लेना पसंद करेगी।

ऊर्जा निश्चित रूप से देश की आवश्यकता है। हैरत की बात है कि ओ.एन.जी.सी.के भूगर्भशास्त्री दशकों भारत में तेल खोजते रहे पर मिला खुलेपन के उपरांत रिलायंस घराने को। जिसकी बंदरबांट का झगड़ा इस देश का सबसे चर्चित अदालती केस है। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में कहें, तो यहां पर्यावरणवादियों और जल ऊर्जा कंपनियों ने अपने-अपने इलाके कब्जा लिए हैं। बांध के मामले में पर्यावरणवादी भी चुप्पी साध लेते हैं। इस दोहरी मार का एक उदाहरण जोशीमठ-मलारी के बीच स्थित ग्राम लाता है, जहां भारत के वन्य जीव संस्थान के विशेषज्ञों ने अपने कथित अध्ययनों के आधार पर जनता पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए पर उसी ग्राम की तलहटी पर बन रहे बांध के पर्यावरणीय प्रभाव पर ये विशेषज्ञ मौन हैं। इन बांधों की डी।पी।आर।में इस क्षेत्र का कोई जैव विविधीय महत्व नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं कि इन परियोजनाओं की पर्यावरणीय समीक्षा भी इन्हीं विशेषज्ञों अथवा इनके चेलों ने तैयार की हों। विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पर्यावरण व जैव विविधता का रोना रोने वाले ये विशेषज्ञ आज मौन क्यों हैं? इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। ऊर्जा की आवश्यकता और जैव विविधता संरक्षण, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे हैं, जबकि स्थानीय जनता का अस्तित्व, स्थानीय मुद्दा। उत्तराखंड की राजनीति यदि ठेकेदारी पर आश्रित न होती, तो संभवत: भाड़े के विशेषज्ञों द्वारा रचे गए इस मारक चक्रव्यूह से जनता को सुरक्षित बाहर निकाल लाती।


Wednesday, February 17, 2010

जलवायु परिवर्तन-एक बहस

जलवायु परिवर्तन को लेकर साम्राज्यवादी खेमे में ही नहीं बल्कि  तीसरी दुनिया में भी  एक बहस जारी है, जहां एक पक्ष उसे मनुष्य  के ह्स्तक्षेप की वजह मानता है वहीं दूसरे पक्ष का कहना है कि यह शुद्ध रूप से प्राक्रतिक घटना की वजह से जारी है। हमारे मित्र और साथी यादवेन्द्र जी इस बहस के बीच एक सकारात्मक हस्तक्षेप कर रहे हैं। प्रस्तुत  है उनके हवाले से यह पोस्ट।

यादवेन्द्र 


आज कल पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन की बात खूब  जोर शोर से उठाई जा रही है...ये ऐसा विषय है जिस पर राजनीति तो सर चढ़ के बोल रही है,पर राजनीतिक  लोग भी जिस आधार को ले कर शोर मचा रहे हैं वो है वैज्ञानिकों द्वारा दुनिया के अलग अलग हिस्सों में किये गए दीर्घ कालिक अध्ययन.भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में इसको सही ठहराने के लिए कई शोध परियोजनाएं चल रही हैं और अनेक विश्विद्यालय,संस्थान और गैर सरकारी संगठन इस दिशा में सक्रिय हैं.हिमालयी  ग्लेशिअर --खास तौर पर गंगोत्री ग्लेशिअर -- के बहुत तेजी से पिघलने की बात कई अध्ययनों में सामने आयी है...हांलाकि जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए कोपेनहेगेन में आयोजित विश्व सम्मेलन से ठीक पहले भारत के पर्यावरण मंत्री ने ये कह के सबको हैरत में डाल दिया कि ग्लेशिअर के पिघलने कि बात सही है पर जलवायु परिवर्तन ही इनका कारण है ये साबित करना मुश्किल है.पिछले साल अगस्त में संसद में दिए बयान में इन्ही मंत्री महोदय ने कहा था कि पिछले तीन दशकों के आंकड़े देखें तो पाता चलता है कि गंगोत्री ग्लेशिअर १८-२५ मीटर प्रति वर्ष कि रफ़्ता
र से पीछे खिसक रहा है--ध्यान देने कि बात है कि इस से पहले के आंकड़े बताते हैं कि इसके पिघलने कि रफ़्तार  काफी खत्म थी। भारतीय वैज्ञानिकों के एक शोध पत्र में दिया गया उपग्रह चित्र इसकी पुष्टि करता है.  
उत्तराखंड के एक गैर सरकारी संगठन ने नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में बसे १६५ गांवों का अध्ययन  करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि भागीरथी घाटी के  सालों भर प्रवाहमान बने रहने वाले ४४% जलस्रोत या तो सूख गए या फिर इनमे जल प्रवाह बरसाती भर हो के रह गया.सर्दियों में इन इलाकों में बारिश और बर्फ काम पड़ने लगी,सर्दियों की अवधि कम से कम एक महीना सिमट  गयी.बरसात की निरंतरता में कमी आयी है--अब ये कम समय में और कम क्षेत्र में सिकुड़ गयी है,पर साथ साथ इसकी तीव्रता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है.अल्मोड़ा  के
 गोविन्द बल्लभ पन्त संस्थान के अध्ययन बताते हैं कि पिछले दो दशको में कम
 समय में तीव्र वारिश की घटनाएँ अलकनंदा घाटी में बढ़ी हैं.
ऊंचाई वाले इलाकों में बुरांश,फ्यूली और काफल परंपरागत समय से पहले देखे जाने लगे हैं---कई बार तो डेढ़ महीना पहले तक.ये बात किसी एक साल की नहीं है बल्कि सालों साल ऐसा देखा जा रहा है.एक अध्ययन तो यहाँ तक कहता है कि जलवायु परिवर्तन की यही गति बनी  रही तो ब्रह्मकमल  जैसा ईश्वरीय फूल पांच सालों में ही विलुप्त हो जायेगा.दर असल ब्रह्मकमल निरंतर बर्फ से ढके ३०००-४००० मीटर ऊँचे स्टालों पर उगता है.जलवायु परिवर्तन के कारण पहले बर्फ से ढके रहने वाले इलाके भी धीरे धीरे सिकुड़ रहे हैं--अब बर्फ की परतें ऊपर की ओर खिसकती जा रही हैं, इस लिए इनमे उगने वाले वनस्पति भी बर्फ की परतों के साथ ज्यादा ऊंचाई  पर स्थानांतरित होते जा रहे हैं.ऊपर खिसकते जाने की भी एक संभव सीमा है और अपने चरम पर पहुँचने पर इन वनस्पतियों और जीवों को खुद को बचाए रखना बेहद मुश्किल होगा.
   इन वैज्ञानिक अनुसंधानों की बाबत यहाँ रेखांकित की जाने वाली बात ये है कि जलवायु परिवर्तन के सूचक कारकों का जायजा आम आदमी के अनुभव जगत में दर्ज  --बगैर वैज्ञानिक कारणों की समझ हुए भी---घटनाओं की पृष्ठभूमि  में पहली बार लिया गया है.नंदा देवी पार्क में किये गए एक विज्ञानी अध्ययन में आम लोगों ने जो अ-साधारण मौसमी परिवर्तन महसूस किये वे हैं: तापमान का बढ़ना,बर्फबारी की अवधि कम हो जाना,सेब की फसल कम होना,ऊंचाई वाले इलाकों में गोभी मटर टमाटर ,सर्दी की फसलों का कम समय में पक जाना, कीड़े मकोड़ों का बढ़ता हुआ प्रकोप,मार्च-मई में बरसात की मात्रा का कम हो जाना, आम तौर पर जुलाई अगस्त ममे होने वाली बर्फ बारी का एक महीना बाद खिसक जाना,सर्दियों की बरसात का दिसम्बर जनवरी से खिसक के जनवरी फरवरी में चला जाना,सर्दियों की फसल की बुवाई में देरी,गेंहू और जौ की उपज में कमी इत्यादि.सर्वेक्षण बताता है की बरसात और बर्फ बारी में कमी की बात ९०% से ज्यादा लोग मानते हैं.
      आशा की जानी चाहिए कि बड़े शहरों में बनायीं  गयी  ऊँची वातानुकूलित इमारतों में बैठ कर शोध करने वाले सरकारी वैज्ञानिक अपने शोध की दिशा निर्धारित करने में भविष्य में भी इसी तरह  आम लोगों की बात को गौर से सुनते और दर्ज करते रहेंगे.      
इस सन्दर्भ में मुझे कुछ साल पहले विज्ञानं की दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका नेचर में पढ़ी एक रिपोर्ट याद आती है जिसमे बीती सदी की अंग्रेजी लेखिका जेन ऑस्टेन के उपन्यास एम्मा का जिक्र था कि जब ये प्रकाशित हुआ तो इसमें  फूलों से भरे सेब  के बाग़ को ले कर लेखिका पर बहुतेरे लांछन  लगाये गए थे ---ये कहा गया था कि इस ऐशो आराम में रहने वाली लेखिका को इतना तक नहीं पाता कि सेब के वृक्ष फूलों से कब गदराते हैं,जिस मौसम का जिक्र करते हुए सेब के फूलों कि चर्चा कि गयी थी आम तौर पर ब्रिटेन में उन दिनों सेब के पेड़ पर फूल लगते नहीं.पर उपन्यास के प्रकाशन के कोई ९०-९५ साल बाद एक प्रसिद्द मौसम विज्ञानी ने उपलब्ध मौसमी आंकड़ों की छान बीन करके ये बताया कि जेन  ऑस्टेन ने जिस साल का जिक्र किया है उस साल ब्रिटेन में रिकॉर्ड गर्मी पड़ी थी और सेब के बागों में समय से पहले फूल आ गए थे---इस बात की आधिकारिक पुष्टि की जा सकती है. 
   इस उदाहरण से ये सबक तो मिलता ही है कि आम जनता को अनपढ़ गंवार मान लेने की गलती वैज्ञानिकों को नहीं करनी चाहिए...और अनुसन्धान की दिशा क्या हो इसके निर्धारण में उनको  गौरव पूर्ण और न्यायोचित हिस्सेदारी दी जानी चाहिए...  

Sunday, February 14, 2010

चाहिए एक और संत वेलेन्टाइन



बाजार में मंदी की मार ने जहां कई क्षेत्रों के प्रतिभावानों को अपने रोजगार से हाथ धोने को मजबूर किया वहीं पत्रकारिता से जुड़े लोग जानते हैं कि उनके कई संगी साथियों के जीवन में इस मंदी ने ऐसी हलचल मचाई है कि लाला की नौकरी के मायने क्या होते हैं, वे इसे भली प्रकार समझने लगे हैं। प्रीति भी उसी मंदी के दौर की मार को झेलने के बाद अपने रोजगार से हाथ धोने के बाद आज एक सामान्य घरेलू महिला का जीवन बिताने को मजबूर हुई है। प्रीति को उसकी रिपोर्टिंग से जानने वाले पाठक जानते हैं कि बहुत ही जिम्मेदारी से प्रीति किसी भी रिपोर्ट को तैयार करती रही है। प्रीति जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा , हरिभूमि आदि अख़बारों में विभिन्न सामाजिक आर्थिक और स्त्री अधिकार के मुद्दों पर संपादकीय आलेख लिखती रहीं हैं। कृषि और महिला मुद्दों पर विभिन्न शोध परियोजनाओं पर काम किया है।
हम प्रीति के आभारी है कि वेलेंटाइन डे के समर्थन और विरोध के हल्ले के बीच  उन्होंने इस ब्लाग के पाठकों को एक सार्थक और बेबाक टिप्पणी से रूबरू होने का  अवसर दिया है:


प्रीति सिंह
 सदियों पहले जब संत वेलेन्टाइन ने रोम के राजा क्लॉडियस द्वितीय की आज्ञा को चुनौती देते हुए अपने चर्च में गुपचुप किसी जोडे की शादी करवाई होगी तो उन्हें सपने में भी गुमान न होगा कि सत्ता की जबरदस्ती के खिलापफ संघर्ष की उनकी इस अभिव्यक्ति को भुनाकर एक दिन बाजार के सौदागर करोड़ों रुपयों के वारे न्यारे करेंगे। आज किसी को इस बात से लेना-देना नहीं है कि उस सामंती युग में संत वेलेन्टाइन का यह कदम कितना दुस्साहसिक था जब राजा की आज्ञा ही कानून थी। और उसे तोड़ने की सजा मौत भी हो सकती थी। मौत से भी खेलकर संत वेलेन्टाइन ने शादियां करवाना जारी रखा और जैसी कि उम्मीद थी सामंती युग की क्रूरता के शिकार हुए।
    भारत में दो तरह के लोग इस दिन का विरोध् करते हैं। एक तो, शिव सेना जैसे कुछ राजनीतिक दल, खाप व जाति पंचायतें तथा सामंती मूल्यों को प्रश्रय देने वाले कई और तरह के संगठन व संस्थाएं। दूसरे, बाजारवाद का विरोध् करने वाले। प्यार जैसी स्वाभाविक मानवीय भावनाओं को बाजारू बना दिए जाने का विरोध् तो होना ही चाहिए। प्यार की सच्ची भावना को किसी सुंदर ग्रीटिंग कार्ड, गिफ्रट या एसएमएस की जरूरत नहीं होती। हर दिन प्यार का दिन है लेकिन प्यार का कोई एक दिन मनाने में दित भी क्या है? यदि शिक्षक दिवस और शहीदी दिवस मनाए जा सकते हैं तो वेलेन्टाइन डे क्यों नहीं? क्या शिक्षक दिवस के अलावा बाकी दिन हम शिक्षकों की इज्जत नहीं करते। आज 21वीं सदी में पहुंचकर भी भारतीय समाज सामंती युग में करवटें बदल रहा है। हमारे देश में व्यक्ति की स्वतंत्राता कागज के चंद पन्नों पर जरूर उकेर दी गयी है लेकिन समाज के बड़े हिस्से ने व्यक्तिगत स्वतंत्राता के इस अधिकार को स्वीकार नहीं किया है। समाज में खाप पंचायतों, परिवार के मुखिया और बड़े जमींदारों का दबदबा बना हुआ है। यहां आज भी प्यार करना जनवादी अधिकार नहीं बल्कि अपराध् है। प्यार करना सामाजिक मान्यताओं और पारिवारिक मूल्यों के विरूद्ध् बगावत है। उत्तर भारत के बड़े हिस्से में अपने जीवन साथी का चुनाव लोकतांत्रिक अधिकार नहीं बल्कि सदियों पहले स्थापित अमानवीय सामंती मूल्यों को चुनौती माना जाता है जिसकी सजा मौत भी हो सकती है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समय-समय पर ऐसी घटनाएं अखबारों में छपती हैं जिसमें अपनी मर्जी से शादी करने वाले युवक-युवती को मारा-पीटा जाता है या उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया जाता है। परिवार की इज्जत के नाम पर शादी तुड़वाने की कोशिश तो लगभग हर मामले में की जाती है। इन ताकतों से लड़ने के लिए आज हमारे देश को एक ऐसे संत वेलेन्टाइन की जरूरत है जो अपनी पसंद से शादी करने जैसे लोकतांत्रिक और मानवीय अधिकारों की रक्षा करने में मदद कर सके। कोई ऐसा संत जो उन दुर्गंधयुक्त सड़ी-गली मान्यताओं के खिलापफ संघर्ष कर सके जो परिवार की इज्जत के नाम पर लाखों-करोड़ों लड़कियों के सपनों और इच्छाओं का गला घोंट देती हैं। ऐसा संत जो प्यार करने वालों को अपराधियों की नजर से नहीं बल्कि सम्मान की नजर से देखने का दृष्टिकोण पैदा करवा सके।
     वेलेन्टाइन डे के नाम पर चांदी कूटने वाले बाजार के सौदागरों को इस बात की परवाह नहीं कि समाज आगे जा रहा है या पीछे। उन्हें सिर्फ अपने मुनाफे की फ़िक्र होती है जिसे बढ़ाने के लिए वे सती को महिमा-मंडित कर सकते हैं और संत वेलेन्टाइन के नाम का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। बाजार करवा चौथ को "हस्बैंड डे" बना देता है और प्रेम जैसी निजी भावना को भी उत्पाद बनाकर बेच सकता है। यहां तक कि वे पूंजीवाद के धुर विरोधी क्रांतिकारी चे ग्वेरा के नाम व छवि को भी भुना सकते हैं।
     वेलेन्टाइन डे पिछले 10-15 सालों में बड़े शहरों के इलीट वर्ग के दायरे से निकलकर छोटे शहरों और कस्बों के स्कूल-कॉलेजों में सेंधमारी कर चुका है। लेकिन यह संत वेलेन्टाइन की तरह समाज की बुराइयों से नहीं लड़ रहा बल्कि मानवीय भावनाओं को बेचकर अपनी तिजोरियां भर रहा है। यह युवा दिलों को अपनी भावनाओं का इजहार करने के लिए बाजार का सहारा लेने के लिए आकर्षित कर रहा है। स्वाभाविक है कि इस दिन के पहले या बाद में उस लड़के-लड़की को समाज किस तरह प्रताड़ित कर रहा है, यह देखना बाजार का काम नहीं। न ही यह देखना इसका मकसद है कि प्रेम जैसी भावनात्मक क्रिया कब और कैसे इसी बाजार की शक्तियों के द्वारा यौन उच्छृंखलता की ओर धकेली जा रही है। आज युवाओं में ऐसी विकृत प्रेम भावना पैदा हो रही है जहां शरीर मुख्य है, भावनाएं गौणऋ यौन आकर्षण मुख्य है मानसिक संतोष गौण है। इस विकृत प्रेम की प्रतिक्रिया में ही ऐसे सामंती समूहों को समर्थन मिल रहा है जो इसका विरोध् करने के नाम पर दूसरी घोर विकृति पैदा कर रहे हैं। वे वेलेन्टाइन डे का विरोध् करने के नाम पर ऐसे दकियानूसी सामंती मूल्यों को स्थापित करना चाहते हैं जहां प्रेम करना अपराध् है।
    क्या इन दोनों अतिवादियों के बीच कोई ऐसी जगह नहीं, जहां बाजार के नियंत्राण के बिना सच्ची मानवीय भावनाओं के साथ प्रेम को अभिव्यक्त करने की आजादी हो। जहां पे्रम करना अपराध् न हो बल्कि मनुष्य का निजी मामला और उसका निजी अधिकार हो जिसका उल्लंघन करने की इजाजत किसी खाप पंचायत, किसी धर्म, किसी मठाधीश या समाज के किसी ठेकेदार के पास न हो।